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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएं
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क्षमता रहती है। गीत प्रबन्धोंका प्रचार भी इन काव्योंके समयमें था। इस प्रकार संस्कृत भाषाके जैनकाव्योंमें संगीतके प्रमुख तत्त्व स्वर, स्वरके तीव्र तथा कोमल भेद, शुद्ध और विकृत भेद, उत्तरी और दक्षिणी स्वर पद्धतियां, श्रुतिस्वर, रागके तीव्र, मन्द और तीव्रता भेद, स्वर सप्तकोंके विभिन्न सप्तक आदि पाये जाते हैं। प्राकृत और अपभ्रंश काव्योंमें संगीतके सिद्धान्त
प्राकृत साहित्यमें सर्वप्रथम हम जैन आगमोंको लेते हैं । स्थानाङ्ग सूत्रमें सप्तसंख्याका विश्लेषण करते हुए षड्ज, ऋषभ, गान्धार आदि सात स्वरोंका एवं रागोंका कथन आया है। अङ्गबाह्य आगमके राजपसेणीय सूत्रमें संगीतका विशिष्ट वर्णन आया है । ५९वें सूत्रसे लेकर ८५वें सूत्र तक संगीतके तत्त्व वर्णित हैं । वाद्योंमें शंख,ग, शृङ्खिका, खरमुही (काहला) पेया (महती काहला) पिरिपिरिका (कोलिकमुखावनद्य मुखवाद्य) पणव (लघुपटह), पटह, भंभा (ढक्का) होरम्भा (महाढक्का) भेरी (ढक्काकृतिवाद्य) झल्लरी (खजरी) दुन्दुभि, मुरज, मृदंग, नन्दीमृदङ्ग (एकतः संकीर्णः अन्यत्र विस्तृतो मुरजविशेषः) आलिङ्ग (गोपुच्छाकृतिमृदंग कुस्तुंब, गोमुखी, मरदल, वोणा, विपञ्ची (त्रितन्त्रीवोणा) वल्लकी, महती, कच्छपी, चित्रवीणा, बद्दीस, सुघोषा, नन्दीघोषा, भ्रामरी, षड्भ्रामरी, बरवादिनी (सप्ततन्त्रोवीणा) तूणा (तुम्बयुक्तवीणा) आमोद, झंझा, नकुल, मुकुन्द (मुरजवाद्यविशेष), हुडुक्का, विचिक्की, करटा, डिण्डिम, किणित, कडम्ब, दरदर, दरदरिका, कलशिका, महुया, तल, ताल, कांस्यताल, रिंगिसिका, लत्तिया, मगरिका, शिशुमार्थिका, वंश, वेणु, बालि (तूणविशेष) परिलो और बद्धकक नाम आये हैं।
नाट्य विधियोंमें ३२ प्रकारको नाट्य विधियां बतलायी हैं। इन विधियोंमें गीत और नृत्य दोनोंका उपयोग किया जाता था।
१. स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त्त, बद्ध मानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पणके दिव्य अभिनय।
२. आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमानव, वर्द्ध मानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जार, मार, पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वसन्तलता और पद्मलताके चित्रका अभिनय ।
३. ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु, शरभ, चमर, कुञ्जर वनलता और पद्मलताके चित्रका अभिनय ।
४. एकतोवक्र, द्विधावक्र, एकतश्चक्रवाल, द्विधाचक्रवाल, चक्राध, चक्रवाल आदिका अभिनय ।
५. चन्द्रावलिका प्रभिभक्ति, सूर्यावलिकाप्रभिभक्ति, हंसावलिकाप्रभिभक्ति, एकावलिकाप्रभिभक्ति, तारावलिका प्रभिभक्ति, मुक्तावलिकाप्रभिभक्ति, कनकावलिकाप्रभिभक्ति और रत्नावलिकाप्रभिभक्ति ।
१. गद्य चिन्तामणि, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, पृष्ठ-१८०