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भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदानें
बड़ा उदार दानी था । उसने जैन धर्मके लिए जो कुछ किया, इसके कारण वह भारतके इतिहासमें अमर है। श्रवण बेलगोलमें गोम्मटेश्वरकी प्रसिद्ध मूर्तिको स्थापना उसीके द्वारा हुई है । यह मूर्ति ५६ फीट ऊँची है ।
श्रवणबेलगोलाकी छोटी पहाड़ी पर भी चामुण्डरायने एक बसदि बनवायी थी । उसके पुत्र जिनदेवण्णने भी एक बसदिका निर्माण कराया था । प्रसिद्ध कन्नड़ कविरन्नको भी चामुण्ड रायने आश्रय दिया था । चामुण्डराय बसतिके मण्डपमें जो अभिलेख उत्कीर्ण है उससे चामुण्डरायके कार्योंपर प्रकाश पड़ता है। एक अभिलेखमें चामुण्डरायका निर्देश करते हुए बताया है
यस्मिश्चामुण्डराज भुजबलिनमिनं गुम्मटं कर्मठा भक्त्या शक्त्या च मुक्त्येजित- सुर-नगरे स्थापयद्भद्रमद्रो । तद्वत्काल त्रयोत्थोज्वल-तनु- जिनबिम्बानि नान्यानि चान्यः कैलासे शीलशाली त्रिभुवन - विलसत्कीर्ति चक्रीव चक्रे ॥ विष्णुवर्धन के सेनापति बोप्पने भी जैनधर्मके अभ्युत्थानके लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । बोप्प गंगराजका ज्येष्ठ पुत्र था । उसकी पत्नी भानुकीर्ति देवकी शिष्या थी और उनका पुत्र ऐच भी दण्डाधीश था । उसने श्रवणबेलगोलमें मन्दिरोंका निर्माण कराया और बेलगोलीके मूल स्थान गंगेश्वरको भूमि प्रदान की । सन् १९३५ ई० में उसने सल्लेखना पूर्वक मरण किया ।
सेनापति हुल्लने श्रवणबेलगोला में चतुर्विंशति जिनालयका निर्माण कराया । यह निर्माण सम्भवतः सन् १९५९ ई० में हुआ था । जब राजा नरसिंह द्वितीय अपनी विजय यात्राके लिए उधरसे गया तो उसने बड़े आदर के साथ गोम्मटदेव और पार्श्वनाथकी मूर्तियोंके तथा जिनालय के दर्शन किये और जिनालयकी पूजाके लिए सबणेरु ग्राम प्रदान किया । २
हुल्लकी सम्यक्त्व चूड़ामणि उपाधिके आधारपर जिनालयको भव्य चूड़ामणि नाम प्रदान किया और हुल्लने महामण्डलाचार्य नयकीर्ति सिद्धान्त चक्रवर्तीको चतुर्विंशति जिनालयका आचार्य बनाया जो सजणेरुकी आयका उपयोग श्रवणबेलगोला स्थानके जिनालयोंकी मरम्मत तथा पूजा आदिमें करते थे । सन् १९७५ ई० में हुल्लने राजा बल्लाल द्वितीयसे सबणेरुके साथ बेक्क और कग्गेरे नामक ग्रामोंको प्राप्त किया तथा इन्हें उक्त जिनालय एवं गोम्मटदेवकी पूजाके भूमि लिए प्रदान किया ।
सेनापति हुल्लने श्रवणबेलगोला के समान केल्लंगेरे, बंकापुर और कोप्पणको भी दान दिया । केल्लंगेरे एक प्राचीन तीर्थस्थान था । इसकी स्थापना गंग राजाओंने की थी किन्तु समयके प्रभावसे यह खण्डहर हो गया था । अतएव हुल्लने वहाँ एक सुन्दर जैन मन्दिरका निर्माण कराया । यहाँ उसने तीर्थंकरोंके पाँच कल्याणकोंको भावनासे पाँच विशाल वस्तियाँ बनवायीं, हुल्लके गुरु देवकीर्ति देवने केलंगेरेमें प्रतापपुर वस्ति बनवायी थी । हुल्लने उसे नवीन
१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग अभिलेख सं० १०५, पृ० २०३, पद्य ४५ २. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सं० ९०