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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१९७ लिए २५ चैत्यालयोंका निर्माण कराया था। उसके लगभग ५० वर्ष पश्चात् सन् ११७३ ई० में हुए शान्तरको जिनदेवके चरण कमलोंका मधुकर कहा है ।
११वीं शताब्दी में कोंगालवोंने जैन धर्मकी सुरक्षा और अभिवृद्धिके लिए अनेक कार्य किये हैं । सन् १०५८ में राजेन्द्र कोंगालवने अपने पिताके द्वारा निर्मापित वस्तिको भूमि प्रदान की थी। राजेन्द्र कोंगालवका गुरु मूलसंघ काणूर गण और तगरिगल गच्छका गण्ड विमुक्त सिद्धान्त देव था। उसके लिए राजेन्द्रने चैत्यालयका भी निर्माण कराया था और उसे भूमि प्रदान की थी । इस वंश के राजाओंने सत्यवाक्य जिनालयका निर्माण कराया था और उसके लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तको गाँव प्रदान किया था ।' सन् ११६५ ई० के दो अभिलेख नेमोश्वर बस्तिमें प्राप्त हैं। उनमे विजयादित्यके राज्यका और सेनापति कालनके द्वारा उसी वर्षमें उस बसदि को बनवानेका उल्लेख है तथा यापनीय संघके पुन्नाग वृक्ष मूल गणका और जैन धर्मके संरक्षक रट्टराज कार्तवीर्यका भी उसमें उल्लेख है। शिलालेखमें बस्तिके निर्माण करनेका कारण भी लिखा है । कालन अपने स्त्री-पुत्रादिके साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करता था। एक दिन उसे लगा कि धर्म ही इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है और उसने नेमीश्वर बस्तिका निर्माण कराकर उसके निमित्तसे अपने गुरु कुमारकीर्ति विधके शिष्य पुन्नाग वृक्ष मूल गणके महामण्डलाचार्य विजयकीतिको भूमि प्रदान की। उसकी आयसे साधुओं और धार्मिकोंको भोजन तथा आवास दिया जाता था। उसकी कीर्तिको सुनकर रट्टवंशका राजा कार्तवीर्य उसे देखने के लिए आया और उसने मन्दिरके जीर्णोद्धारके निमित्त भूमि प्रदान की।
नागर खण्डके सामन्त लोक गावुण्डने सन् ११७१ ई० में एक जैन मन्दिरका निर्माण कराया था और उसकी अष्टप्रकारी पूजाके लिए मूलसंघ काणूर गण तिन्तीणीगच्छके मुनि चन्द्रदेवके शिष्य भानुकीति सिद्धान्तदेवको भूमि प्रदान की थी। १३वीं शताब्दीके अन्तिम चरणमें कुची राजाका नाम भी उल्लेखनीय है । यह पद्मसेन भट्टारकका शिष्य था। इसने अपने गुरुके उपदेशसे जिनालयका निर्माण कराया और उसे भूमि, दूकान तथा उद्यान प्रदान किये । यह मन्दिर मूलसंघ सेनगणके पोगलगच्छसे सम्बद्ध था।
जैन धर्मके संरक्षक और उन्नतिकारकोंमें वीरमार्तण्ड चामुण्डरायका नाम विशेष उल्लेखनीय है । इसका समय ई० सन् की १०वीं शताब्दी है ।
चामुण्डरायने अपने पुराण में लिखा है कि उच्चंगीके किलेकी विजयके उपलक्ष्यमें मारसहने रणरंगसिंहकी उपाधि धारण की थी और चामुण्डरायको वीरमार्तण्डकीजी उपाधिसे विभूषित किया गया था। वीरतापूर्ण कार्यों के उपलक्ष्यमें रायमल्ल चतुर्थकी ओरसे समर धुरन्धर वैरि-कुल काल-दण्ड, भुज-विक्रम आदि उपाधियाँ चामुण्डरायको प्राप्त हुई थीं। चामुण्डरायकी शक्तिनिष्ठा और धर्म प्रेमके कारण उसे सत्य युधिष्ठिर गुण बंकाव, सम्यक्त्व रत्नाकर, शौचाभरण, गुणरत्न भूषण, कविजन शेखर जैसी उपाधियाँ भी प्राप्त थीं। चामुण्ड रायके गुरुका नाम अजितसेन था। और वह नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीका भी स्नेह भाजन था । नेमीचन्द्रने अपने गोम्मटसारकी रचना चामुण्डरायके उद्देश्यसे ही की थी। चामुण्डराय १. दक्षिण भारत में जैनधर्म, पृ० ११३