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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति १२१ व्यभिचारीसे भी अधिक कठोर दण्ड दिया जाय ! इस प्रकार भोजनके निमित्त होनेवाली जीव हिंसाको बन्द करा दिया।
कुछ प्रबन्ध काव्योंसे ज्ञात होता है कि पाटनकी अधिष्ठात्री कण्ठेश्वरी माताके राजपुजारियोंने कुमारपालको पशुबलि करनेके हेतु बाध्य करना चाहा। उन्होंने बताया कि नवरात्रिमें नगरदेवीकी पशुबलि द्वारा पूजा होनी चाहिए अन्यथा देवी कुपित हो जायगी और उसके कोपसे राजा एवं राज्यपर भयानक आपत्तियां आ जायेंगी । कुमारपालने अपने महामात्य वाग्भट्टसे इस सम्बन्धमें परामर्श किया। वाग्भट्टने भी देवीके कोपसे भयभीत हो बलिदान करनेकी सम्मति दी। राजाने व्याकुल हो हेमचन्द्र सूरिसे इस सम्बन्ध में परामर्श किया और उनकी सम्मतिके अनुसार बलिपूजाके अवसरपर वह थोड़ेसे पशुओंको साथ लेकर माता कण्ठेश्वरीके मन्दिरमें पहुंचा और पुजारियोंसे कहने लगा कि मैं ये पशु माताको बलि चढ़ानेके लिए लाया हूं। मैं इन्हें जीवित ही माताको अर्पित करता हूँ। यदि माताको इनके मांसकी आवश्यकता होगी तो वह स्वयं ही इन्हें अपना भक्ष्य बना लेंगी। इतना कहकर राजाने माताके मन्दिरमें पशुओंको बन्द कर दिया। दूसरे दिन प्रातःकाल राजपरिवारके साथ राजा आया और सहस्रों व्यक्तियोंकी उपस्थिति में उसने माताके मन्दिरका दरवाजा खोला। सभी पशु माताके मन्दिरमें आनन्दपूर्वक जीवित मिले । राजा कुमारपालने सभीको सम्बोधित करते हुए कहा कि माता को पशु मांसकी तनिक भी आवश्यकता नहीं है। यह प्रथा तो स्वार्थी पुजारियोंने प्रचलित की है । देवी देवता बलि नहीं चाहते । इस प्रकार राजाने पशु बलिके निमित्त होनेवाली जीवहिंसाका उच्छेद किया । कुमारपालने जीवहिंसा, मद्यपान, द्यूत सेवन, वेश्या व्यसन आदिको अपने राज्यमें बन्द कर दिया। हेमचन्द्र द्वारा रचित कुमारपालचरितसे उसकी व्यवस्थित दिनचर्याका परिज्ञान होता है। यह विद्याप्रेमी और साहित्य-रसिक था। हेमचन्द्र द्वारा रचित योगशास्त्र और वीतराग स्तोत्रका प्रतिदिन स्वाध्याय करता था । आचार्य हेमचन्द्रने "त्रिषष्टिशलाका पुरुष" चरितकी रचना कुमारपालकी प्रेरणासे ही की है । उसने राज्य प्राप्तिके पश्चात् संध सहित गिरनारकी यात्रा भी की थी।
प्रबन्धकारोंके अनुसार कुमारपालकी राजाज्ञा उत्तरमें तुरुस्क लोगोंके प्रान्त तक, पूर्वमें गंगा नदीके किनारे तक, दक्षिणमें विन्ध्याचल तक और पश्चिममें समुद्र तक मानी जाती थी। यह धर्मवीर, दानवीर और युद्धवीर था। इसने अपने राज्यकालमें जैन धर्मकी सर्वाङ्गीण उन्नति करने का प्रयास किया है।
जिन शासनकी उन्नति करने वालोंमें विमल मन्त्री और वस्तुपाल एवं तेजपालके नाम उल्लेख्य हैं । मारवाड़के श्रीमाल नामक नगरमें प्राग्वाट जातिका नीना नामक एक करोड़पति सेट्ठी निवास करता था। यह अत्यन्त सदाचारी और परम श्रावक था। काल प्रभावसे धन क्षय होनेपर यह श्रीमालको छोड़कर गांमु नामक स्थानपर आया वहाँ पुनः समृद्धि प्राप्त की। नीनाको लहर नामक विद्वान् पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने पर्याप्त धनार्जन किया। वि० सं० ८०२ में वनराज चावड़ाने अणहिलपुर पाटन नामक नगर बसाया। इसने नीना सेठ एवं उसके पुत्रलहरको भी अणहिलपुर पाटनमें बुला लिया। लहरको शूरवीर समझ कर उसे अपनी सेनाका सेनापति नियत किया। लहरने बड़ी योग्यतासे सेनाका संचालन किया जिससे प्रसन्न होकर पनराज चावड़ाने उसको सण्डस्थल नामक ग्राम भेटमें दिया । लहरके वंशमें वीरका सामना