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ज्योतिष एवं गणित
प्रकाश, रत्नोंकी चमक एवं महनीय वस्तुकी आभा परिगणित है । आतापमें गर्म रश्मियां और उद्यातमें शीतरश्मियां निहित हैं ।
वास्तवमें प्रकाश एक प्रकारका ऊर्जा (Energy) है । प्रकाश स्रोत ऊर्जा विकीर्ण करता है और इस ऊर्जाका कुछ भाग, जो आँखोंपर प्रभाव डालता है, प्रकाश कहलाता है । प्रकाशके ऊर्जा होने के कारण उसका मापन भी इकाइयोंमें सम्भव होता है। आचार्य अकलंक देवने प्रकाशके आवरणभत शरीरको छाया बताया है । छायाके दो भेद हैं तद्वर्ण परिणत छाया और प्रतिबिम्ब । दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्योंमें आदर्शके रंग आदिकी तरह मुखादिका दिखाना तद्वर्ण परिणत छाया कहलाती है । आजकलकी भाषामें यो कहा जा सकता है कि यदि किसी स्रोतसे अपसारी किरणें (Divergent Rays) एक प्रिज्म (Prism) पर पड़ती हैं तो प्रिज्मसे निकलने के बाद उनका अपसरण (Divergence) परिवर्तित हो जाता है । केवल एक प्रिज्मसे वर्ण विक्षेपण होनेके साथ ही किरणे विचलित भी हो जाती है अर्थात् वे आयतनकी दिशासे भिन्न दिशामें जाती है । प्रकाश किरणोंकी दिशा सदैव बायोंसे दाहिनी ओर होती है।'
अकलंक देवके प्रकाश सिद्धान्त "प्राङमुखस्य प्रत्यङमुखा छाया दृश्यते इति ? प्रसन्नद्रव्यपरिणाम विशेषाद्भवति"-प्रसन्न द्रव्यके परिणमन विशेषसे पूर्वमुख पदार्थको पश्चिममुखी छाया पड़ती है से ज्ञात होता है कि प्रकाशकी अनुदैर्य और अनुप्रस्थ इन दोनों गतियोंका उन्हें परिज्ञान था।
अनुदैर्य
अनुप्रस्थ
प्लावमान सिद्धान्त
___ जलके ऊपर सन्तरणशील वस्तुओं और उनकी संतरण गतिका वर्णन भी जैन गणितज्ञोंने किया है । यद्यपि इन वर्णनोंका उद्देश्य शुद्ध गणितके सिद्धान्तोंका निरूपण करना नहीं हैं, पर प्रसंगवश इस प्रकारके तथ्य आ गए हैं। कुमुदचन्द्रने कल्याणमन्दिर स्त्रोतमें वायुपूरित मसकके जलमें संतरण करने का उल्लेख किया है।
त्वंतारको जिन ! कथं भविनां त एवत्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तराति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभायः ॥
-कल्याण मन्दिर पद्य १० सन्तरण सिद्धान्त तरंग नियम (Wave theory) पर अवलम्बित हैं । गणितकी दृष्टिसे तरंगोंकी गति चंचल वक्र रेखा (आवर्ण करती हुई) के रूपमें होती है । इसकी
१. आतप उष्ण प्रकाशलक्षणः-आतप आदित्यनिमित्त उष्णप्रकाशलक्षणः पुद्गलपरिणामः।
उद्योतइञ्चन्द्रमणिखद्योतादिविषयः-चन्द्रमणिखद्योतादीनां प्रकाश उद्योग उद्यते । तत्वार्थ
राजवार्तिक, ज्ञानपीठ संस्करण ५।२४।१८-१९ २, वही, ५।२४।१७, पृ० ४८९ ।
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