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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इस विवरणसे प्रतीत होता है कि यूनानी अनेक राजाओंपर जैनधर्मका पूर्ण प्रभाव था; इसी कारण उन्होंने अपने सिक्कोंमें जैन प्रतीकोंका स्थान दिया। अयलिषके' दस प्रकारके चांदीके सिक्के मिले हैं, जो सबके सब गोलाकार हैं । उनमें कई सिक्कोंपर जैन प्रतीक नहीं हैं । किन्तु इसके तांबेके सात प्रकारके सिक्कोंमेंसे दूसरे प्रकारके सिक्कोंपर एक ओर खड़े हुए हरक्युलसकी मूत्ति दूसरी ओर अश्वकी मूत्ति है। तीसरे प्रकारके सिक्कोंपर अश्वके बदलेमें वृषभकी मूर्ति है, चौथे प्रकारके सिक्कोंपर वृषभके स्थानपर हाथीको मूर्ति है । पाँचवें प्रकारके सिक्कोंपर एक ओर हाथीकी मूत्ति और दूसरी ओर वृषभकी मूत्ति है ।
उपर्युक्त अयिलिषके ताँबेके सिक्कोंमें उपयोग किया गया है । अश्व तृतीय तीर्थकर भगवान् संभवनाथका चिह्न है, वृषभ प्रथम तीथंकर भगवान् आदिनाथका चिह्न है पर हाथी द्वितीय तीर्थङ्कर भगवान् अजितनाथका चिह्न है । इस राजाके चाँदीके सिक्कोंपर एक भी जैन प्रतीक अंकित नहीं है, ताँबेके सिक्कोंमें तीन-चार प्रकारके सिक्के जैन प्रतीकोंसे युक्त हैं, इससे प्रतीत होता है कि यह राजा प्रारम्भ में जैन धर्मानुयायी नहीं था । उत्तरकालमें किसी जैन श्रमणके प्रभावसे अहिंसा धर्मका अनुयायी बन गया था। वास्तविक बात यह है कि शक राजाओंमें कई राजा जैन धर्मका पालन करते थे। .
ईस्वी सन् से पूर्व पहली और दूसरी शतीके उज्जयिनीके ताँबेके सिक्कोंपर एक ओर वृषभ और दूसरी ओर सुमेरु पर्वत अंकित है । इन सिक्कोंमें स्पष्टतया जैन प्रतीकोंका प्रयोग किया गया है । वृषभसे आदिम तीर्थंकरकी भावना और सुमेरु पर्वतसे विशाल विश्वको भावना अभिव्यक्त की गई है। जैनागममें सुमेरुको इस पृथ्वीका केन्द्र बिन्दु माना है। प्राचीन हस्तलिखित कतिपय ग्रंथोंके अन्तमें सुमेरु पर्वत ग्रंथ समाप्तिके अनन्तर किया गया है। इस भावनाका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य, चन्द्र, नित्य सुमेरुको प्रदक्षिणा किया करते हैं, उसी प्रकार यह जैनधर्म ‘यावच्चन्द्रदिवाकरौ' स्थित रहे । सुमेरुको रचनाके संबंध भी कई विधियाँ प्राप्त होती हैं। कुछ सिक्कोंमें तीन चिपटे शून्योंका पर्वताकार ढेर, कुछमें छः चिपटे शन्योंका ढेर और कुछमें नौ चिपटे शून्योंका पर्वताकार ढेर हैं । तीन शून्य रत्नत्रयके प्रतीक, छः शून्य षद्रव्यके प्रतीक और नौ शून्य नवपदार्थके प्रतीक हैं । इस प्रकार सुमेरुके विभिन्न आकृतियोंमें जनभावनाको विभिन्न प्रकारसे अभिव्यक्त किया गया है। वैदिक या बौद्धधर्ममें सुमेरुको इतना महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं है, जितना जैनधर्ममें । यही कारण है कि प्राचीन लिपिकारोंने ग्रन्थ समाप्तिमें सुमेरुकी आकृति अंकित की है।
जनपद और गणराज्योंके प्राप्त सिक्कोंमें कुछ सिक्के उदम्बर जातिके माने जाते हैं। स्मिथ साहबने ताँबे और पीतलके बने हुए बहुतसे छोटे-छोटे गोलाकार सिक्कोंको उदम्बर
1. Catalogue of coins in the punjab Museum, Lahore Vol. 1, P. 139,
Nos 361-62 Connigham's Colns of Ancient India Vol. I, P. 50,
३ खण्ड जैनधर्म की भक्ति श्रद्धा थो-देखें संक्षिप्त जैन इतिहास भाग ३ खण्ड २ पृ०१३ २. Coins of Ancient India P. 14. Indian Museam Cains VoI. I. P.
154-155, No, 29, 30, 34. P. 155 No. 35.