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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
कि अर्थमें निश्चित वाच्य शक्ति है और उसका वाचक स्फोट है । यदि वर्गों में वाचकत्व शक्ति स्वीकार की जाय तो वों में यह वाचकत्व शक्ति न तो उनके समूहपनेसे सम्भव हो सकती है न पृथक्पनेसे । पृथक्पनेके मार्गको स्वीकार करने में 'गौः' शब्दमेंसे 'ग' वर्ण ही गाय पदार्थका वाचक हो जायगा। 'औं' और विसर्गका उच्चारण निष्फल ही होगा। यदि सामूहिक वर्णोंको अर्थबोधक माना जायगा तो वर्णों की सामूहिकता ही एक कालमें कैसे सम्भव हो सकेगी ? क्योंकि वर्ण अनित्य हैं। उनका उच्चारण क्रमशः होता है तथा इनके उच्चारण स्थान भी निश्चित हैं और ये उच्चारण स्थान एक साथ अपना काम नहीं करते हैं । अतः सामूहिक वर्ण अर्थबोध के हेतु नहीं हो सकते।
_ अनुग्राह्य और अनुग्राहक सम्बन्धकी ओक्षा भी वर्गों में वाचकत्व शक्ति सिद्ध नहीं हो सकती; अतः अनुग्राह्य-अनुग्राहक सम्बन्ध मूर्तमें होता है अर्थात् अनुग्राह्य वस्तु और अनुग्राहक वस्तु दोनोंके सद्भावमें यह नियम घटित होता है। इनमेंसे प्रथमके सद्भावमें और द्वितीयके अभावमें या द्वितीयके सद्भावमें और प्रथमके अभावमें यह नियम किस तरह कार्यकारी हो सकेगा? ग, औ और विसर्गमें 'ग' 'औ' पूर्व वर्ण हैं और विसर्ग पर वर्ण है। इनमें पूर्व वर्ण 'ग' 'औ' इन दोनोंका पर वर्ण विसर्गकी सद्भाव अवस्थामें अभाव है । अतः उपर्युक्त सम्बन्ध वों में नहीं है।
पूर्व वर्ण और अन्त्य वर्णमें जन्य-जनक सम्बन्ध भी नहीं है, जिसके आधारपर पर पूर्व वर्ण और अन्त्य वर्णका सम्बन्ध मानकर वर्णोंकी सामूहिकता एक कालमें एक साथ बन सके और उस सामूहिकताकी अपेक्षा वर्ण अर्थके वाचक हो सकें । अन्यथा वर्णसे वर्णकी उत्पत्ति होने लगेगी।
सहकार्य-सहकारी सम्बन्धको अपेक्षा भी पूर्व वर्ण और अन्त्य वर्गों का सद्भाव एक साथ एक कालमें नहीं माना जा सकता है; यतः विद्यमानोंमें ही यह सम्बन्ध होता है । अन्त्य वर्णके समयमें पूर्व वर्ण अविद्यमान है, फिर इस सम्बन्धकी कल्पना इनमें कैसे सम्भव है । जिस प्रकार यह सम्बन्ध वर्गों में सम्भव नहीं, उसी प्रकार पूर्व वर्ण-ज्ञान और पूर्व वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कारमें भी नहीं बन सकता है। क्योंकि पूर्व वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कार पूर्व वर्ण ज्ञानके विषयकी स्मृतिमें कारण हो सकता है, अन्यमें नहीं । वर्णज्ञानोत्पन्न संस्कारसे उत्पन्न स्मृतियाँ भी अन्त्यवर्णकी सहायता नहीं कर सकती, यतः उनकी उत्पत्ति भी एक साथ सम्भव नहीं। क्रमशः उत्पन्न स्मृतियोंकी उत्पत्ति भी असम्भव है। यदि सम्पूर्ण संस्कारोंसे उत्पन्न एक स्मृति अन्त्यवर्णको सहायता करती है, यह माना जाय तो विरोधी घटपदार्थ अनेक पदार्थोके अनुभवसे उत्पन्न संस्कार भी एक स्मृतिजनक हो जायेंगे। निरपेक्ष वर्ण पदार्थवाचक नहीं हो सकते हैं। क्योंकि पूर्व वर्णोंका उच्चारण निरर्थक हो जायगा । अतः किसी भी सम्बन्धमें ऐसी शक्ति नहीं है जिससे गौः आदि शब्दों द्वारा गवादि अर्थोकी प्रतीति हो सके । पर, अर्थकी प्रतीति शब्दों द्वारा देखी जाती है; अतः स्फोट नामकी शक्ति ही अर्थबोधका कारण है। स्फोटवादी शब्दको ब्रह्मस्वरूप मानते हैं । यही ज्ञान, ज्ञाता और श्रेय रूप है । स्फोटको भी नित्य, अखण्ड, अनिवर्चनीय और निर्लेप माना गया है।
जैन दर्शनकारोंने इस स्फोटवादको विस्तृत समीक्षा करते हुए बताया है कि ए कका अभाव अन्य वस्तुके सद्भावका कारण होता है । यह कारण उपादान हो अथवा निमित्त, पर