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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इन प्रधान राजवंशोंके अतिरिक्त नोलम्ब, सान्तार, चांगल्व, व्योङ्गल्व, पुन्नाट, सेनवार, सालुव, महाबलि, एलिनका रट्ट, शिलाहार, चेल्लकेतन, पश्चिमी चालुक्य प्रभृति राजवंशोंके अनेक राजा जैनधर्मानुयायी थे। इन वंशोंके जो राजा जैनधर्मका पालन नहीं भी करते थे, उन्होंने भी जैनधर्मकी उन्नतिमें पूरा सहयोग प्रदान किया था। इस प्रकार कर्णाटकके सभी राजाओंने जैनधर्मका विस्तार किया ।
जेन कला और साहित्य-राष्ट्रकूट प्रभृति उपर्युक्त राजाओंके कालमें जैन साहित्य और कलाकी दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि जैन कला और जैन साहित्यका विकास इस समयमें बहुत हुआ है। राष्ट्रकूट और चालुक्य वंशोंके राज्यकालमें जैनधर्मके प्राबल्यने समस्त कर्णाटकको अहिंसामय बना दिया था; जिसके फलस्वरूप राष्ट्र खूब फला-फूला, देशमें सुख समृद्धिकी पुण्यधारा बही । फलतः मानव समाजके हृदयका आनन्द अपनी संकुचित सीमाको पारकर बाहर निकलने लगा, जिससे कला और साहित्यका प्रणयन अधिक हुआ। कला और साहित्य प्रेमी इन राजाओंके दरबारमें साहित्यिक ज्ञान गोष्ठियाँ होती थी, इन गोष्ठियोंमें होनेवाली चर्चाओंमें राजा लोग स्वयं भाग लेते थे । राष्ट्रकूट वंशके कई राजा कवि और विद्वान् थे, इससे इनकी सभामें कवि और विद्वान् उचित सम्मान पाते थे। धवला और जयधवला टीकाओंका सृजन राष्ट्रकूट वंशीय राजाओंके जैन साहित्य प्रेमका ज्वलन्त निदर्शन हैं । दर्शन, व्याकरण, काव्य, पुराण, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद प्रभृति विभिन्न विषयोंपर अनेक मौलिक रचनाएँ लिखी गईं।
इस कालके जैन कवियोंने दूतकाव्य और चम्पूकाव्यकी परम्परा प्रकट कर काव्यक्षेत्रमें शृंगार रसके स्थानपर शांतरसका समावेश किया । जिनसेनाचार्यका पार्वाभ्युदय, आदिपुराण, वर्द्धमानपुराण, पार्श्वस्तुति; सोमदेवाचार्यका यशस्तिलक चम्पू, नीतिवाक्यामृत; गुणभद्राचार्यका आत्मानुशासन, उत्तरपुराण, जिनदत्त चरित्र; वादिराजका यशोधरचरित, पार्श्वनाथचरित, एकीभावस्तोत्र, कुकुत्स्थचरित, न्यायविनिश्चय विवरण और वादमंजरी; महावीराचार्यका गणितसार संग्रह; शाकटानाचार्यका शाकटायन व्याकरण तथा उसकी टीका अमोघवृत्ति प्रभृति संस्कृत जैन रचनाएँ उल्लेखनीय है । अपभ्रंश भाषामें कवि पुष्पदन्तका महापुराण, जसहर चरिउ; णायकुमार चरिउ; कवि धवलका हरिवंश पुराण, कवि स्वयंभूका हरिवंशपुराण, पउम चरिय, देवसेनका सावयधम्म दोहा और अभयदेव सूरिका जयतिहुयण स्तोत्र इत्यादि ग्रन्थ भी जैन साहित्यकी अमूल्य निधि हैं । ग्रन्थोंके अतिरिक्त कन्नड़ भाषामें भी काव्य, पुराण, नाटक, वैद्यक, ज्योतिष, नीति प्रभति विभिन्न विषयोंपर अनेक ग्रन्थ लिखे गये थे ।
साहित्यकी उन्नति के साथ जैनोंने कलाके क्षेत्रमें भी प्रगति की थी । राष्ट्र कूट, चालुक्य, कदम्ब, होयसल इत्यादि वंशके राजाओंने अनेक जैन मंदिर और जैन मूत्तियोंका निर्माण कराया था । यद्यपि जैनोंने अपनी कलाको शांतरससे ओत-प्रोत रखा था तथा अपने धार्मिक सिद्धांतोंके अनुसार मूत्ति और मंदिरोंपर वीतरागताकी ही भावनाएं अंकित की थी, फिर भी सर्वसाधारणके लिये आकर्षण कम नहीं था। अमरेश्वरम्में एक मन्दिरको छतमें संग्रामके दृश्यसे अंकित एक पत्थर लगा है, जिसमें किला बना हुआ है, धनुषबाण चल रहे हैं। नगर और कोटका ऐसा सजीव अंकन किया गया है, जो दर्शकोंके ध्यानको अपनी ओर आकृष्ट किये बिना नहीं रह सकता। श्रवणगुडीमें एक जैनमठके पास खड़े हुए पाषाणोंमें एक घुड़सवार अपने भालेसे एक