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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
'अनन्यथासिद्ध' का अर्थ अव्यर्थ या आवश्यक है, जो आवश्यक और नियत पूर्वभावी हैं, वही कारण माना जाता है । यथा
"यद्यपि पटोत्पत्तौ देवादागतस्य रासभादेः पूर्वभावो विद्यते, तथापि नासो नियतः ।"
निष्कर्ष यह है कि कारणका कार्यसे नियत पूर्ववर्तित्व रहनेके साथ उसमें नितान्त उपयोगिता धर्मका रहना भी आवश्यक है । कार्यके प्रति कुछ वस्तुएँ ऐसी भी होती हैं जो नियत पूर्ववर्ती तो अवश्य हैं, पर वे नितान्त उपयोगी नहीं हैं । ऐसी अनावश्यक वस्तुओंको अन्यथामिद्ध कहा जाता है और न ये कार्योंकी उत्पत्तिके प्रति कारण ही होती हैं। कारणको अनौपाधिक माना जाता है, सोपाधिक घटना कार्यके प्रति कारण नहीं बन सकती है । अतएव नियत, अनोपाधिक और तात्कालिक पूर्ववर्ती घटना ही कार्य विशेषके प्रति कारण मानी जाती है ।
• कारणके तीन भेद है-समवायी, असमवायी और निमित्त । जिसमें समवाय सम्बन्धके रहते हुए कार्यकी उत्पत्ति होती है, उसे समवायी कारण कहते हैं । समवायी कारणका दूसरा नाम उपादानकारण भी है, क्योंकि समवायिकारणता द्रव्यकी होती है। कार्यके साथ अथवा कारणके साथ एक वस्तुमें समवाय सम्बन्धसे रहते हुए जो कारण होता है, वह असमवायी कहलाता है। गुण और क्रिया असमवायी कारण होते हैं। इन दोनोंसे भिन्न कारणको निमित्तकारण कहते हैं । इस प्रकार विविध कारणोंकी परस्पर सहकारितासे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है।
महाकवि कालिदासने निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धका विवेचन अपने शाकुन्तल नाटकमें अनेक स्थानों पर किया है। वस्तुतः 'निमित्त' कारणका ही पर्यायवाची शब्द है और न्याय सिद्धान्तकी दृष्टिसे यह कारणका एक भेद है। जिसकी सहायता या कर्तृत्वसे कार्यकी उत्पत्ति घटित होती है, वह सहायक तत्त्व निमित्त कारण है। जो किसी निमित्तसे किया जाय अथवा जो निमित्त उपस्थित होनेपर या किसी विशेष प्रयोजनकी सिद्धिके लिए हो, उसे नैमित्तिक कहते हैं । तथा एक दूसरेके कार्य होने या परिणमनमें एक दूसरेको परस्पर सहायक होना। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है । पाश्चात्य तर्कशास्त्रके अनुसार कारणके चार भेद हैं
१. द्रव्यकारण-कार्य की उत्पत्ति में द्रव्य विशेष को आवश्यकता होती है और यह द्रव्य विशेष ही उस कार्यको उत्पत्ति का कारण है ।
२. आकारिक कारण-प्रत्येक वस्तुमें द्रव्यके साथ-साथ आकार भी पाया जाता है । इसी बाकारके विचारको आकारिक कारण कहा गया है ।
३. योग्य कारण-प्रत्येक वस्तुमें द्रव्य और आकारके साथ उसमें एकशक्ति भी पायी जाती है, जिसके कारण उसका निर्माण सम्भव होता है । १. वही पृ० २० २. तच्च कारणं त्रिविधम् । समवायि-असमवायि-निमित्तभेदात् । तत्र यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते
तत्समवायिकारणम् । यत्समवायिकारणप्रत्यासन्नमवधृतसामर्थ्य तदसमवायिकारणम् ।
-तर्कभाषा-पृ० २५,३५ । ३. तदुभयभिन्न कारणं निमित्तकारणम्-तर्कसंग्रह प्रत्यक्षखण्ड ।