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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
४. अन्तिम कारण प्रत्येक वस्तुके निर्माणके पीछे एक प्रयोजन निहित रहता है मतः बस्तुके निर्माणके पीछे जो उद्देश्य किया रहता है, उसे अन्तिम कारण कहा जाता है ।
वास्तवमें कार्य-कारण सम्बन्धका नाम ही व्याप्ति है, इसे अविनाभाव सम्बन्ध भी कहते हैं। कार्यकारणभावके सहचर सम्बन्धका सद्भाव और व्यभिचार-ज्ञानका अभाव ही व्यक्तिका साधक है।
महाकवि कालिदासने अपने शाकुन्तल नाटकमें सहजानुभूतिकी अभिव्यञ्जनाके हेतु 'कारणाभावात् कार्याभावः' और 'कारणसद्भावात् कार्यसद्भावः' सिद्धान्तोंका पूर्णतया निर्वाह किया है । उनके काव्यलिंग अलंकारके उदाहरणोंमें कार्य-कारण सम्बन्धकी योजना सम्यक्तया पायी जाती है । कविके समस्त काव्य-नाटक प्रन्योंके कार्य-कारण सम्बन्धोंका विश्लेषण सम्भव नहीं है, अतएव केवल शकुन्तला नाटकमें समाहित कार्य-कारणभावका ही विवेचन प्रस्तुत किया बायगा।
शाकुन्तलमें कार्यकारण सम्बन्धका निर्देश करते हुए बिना कारणके कार्य सद्भावका की निस्पष किया है
उदेति पूर्व कुसुमं ततः फलं, घनोदयः प्राक्तदनन्तरं पयः । निमित्तनैमित्तिकयोरयं क्रमस्तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः ॥'
प्रथम कारणरूप पुष्पका आगमन होता है, पश्चात् पुष्प कारणसे फलरूप कार्य घटित होता है। भाकाशमें मेघरूप कारणके आच्छादित होने पर ही, वर्षारूप कार्यको उत्पत्ति देखी जाती है । इस प्रकार कारण-कार्यका सम्बन्ध ही कार्योत्पत्तिका नियामक है।।
कायलिंग अलंकारकी योजना करते हुए शाकुन्तलमें कारण-कार्य सम्बन्धकी सुन्दर अभिव्यंजना की गयी है । 'काव्यलिंग' शब्दमें दो पद हैं-काव्य और लिंग । यहाँ लिंग का अर्थ कारण है, अर्थात् काव्यमें असाधारण या चमत्कार युक्त कथनको युक्तियुक्त बनाने के लिए जहां युक्ति अथवा हेतु-कारणका कथन किया जाय, वहाँ कायलिंग अलंकार होता है । यह हेतु या कारण लोकसिद्ध अथवा तर्क सिद्ध हेतुसे कुछ भिन्न होता है, यतः तर्क सिद्ध हेतुसे कुछ भिन्न होता है, यतः तर्क सिद्ध हेतुमें चमत्कार का अभाव होता है ।
हेतु-कारणके दो भेद हैं-कारक और ज्ञापक । पुत्रके लिये पिता कारक हेतु है और पिताके लिए पुत्र ज्ञापक हेतु । कारक हेतुके 'निष्पादक' और 'समर्थक' ये दो भेद माने गये हैं। हेतु वाचक नहीं होता, इसे गम्य अथवा प्रतीयमान होना चाहिए। शाकुन्तल नाटकमें जिन कार्य-कारण भावोंका उल्लेख है वे सभी प्रायः गम्य ही हैं, वाच्य नहीं। यथा
तत् साधुकृतसन्धान प्रतिसंहर सायकम् ।
आतंत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि ॥ १. शाकुन्तल ७।३० २. काव्यलिंगं हेतोर्वाक्यपदार्थता-काव्यप्रकाश, चौखम्बा संस्करण १०।११४
हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिंगं निगद्यते-साहित्यदर्पण, कलकत्ता संस्करण १०१६२ ३. शाकुन्तल १।११