________________
२९२
भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
पावइ लाहालहं सुहदुक्खं जीविरं च मरणं च ।
रेहाहिं जीवलोए पुरिसो विजयं जयं च तहा ॥१ ६१ गाथाओंमें लेखकने हस्तरेखाके साथ अंगुलियोंकी आकृति, उनका विरलत्व और सघनत्व, मांसलता, वर्ण, स्पर्श आदिका भी विचार किया है। इस छोटेसे ग्रंथमें अंग विद्या विषयक विभिन्न विषयोंका समावेश किया गया है। इसी प्रकार 'ज्ञान-प्रदीपिका' में अङ्ग विद्याका विस्तृत विवेचन है। इस ग्रन्थके कुछ पद्योंमें दार्शनिक दृष्टिसे भी अङ्ग विद्याका विश्लेषण किया है । आत्मा, कर्म और इन दोनोंके सम्बन्धकी दार्शनिक चर्चा भी इस ग्रन्थमें आयी है । आत्माके स्वरूप, गुण, शक्ति एवं उनकी पर्यायोंका विविध दृष्टियोंसे विवेचन किया है । आत्मा एक अखण्ड, अनन्त, चैतन्य पिण्ड है। यह स्वतन्त्र और मौलिक द्रव्य है । चैतन्य परिणति इसका सामान्य लक्षण है और यह इसका असाधारण गुण है । बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्यके ज्ञान और दर्शन रूप परिणमन होते हैं। जब आत्मा स्वसे भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है तब उसकी चैतन्य परिणति ज्ञान कहलाती है। यह ज्ञान जितना स्पष्ट और निजरूप होता है, कर्मकी परिणति उतनी ही अनुमात्रकी दृष्टिसे क्षीण होती है । आत्मा पौद्गलिक कर्मोके विलक्षण सम्बन्धके कारण विभिन्न प्रकारके शुभाशुभ संस्कारोंका अर्जन करता है और अंग विद्या इन अजित संस्कारोंकी अभिव्यक्ति दीपवत् करती है। जिस प्रकार दीपकके प्रकाशमें घट-पदादि पदार्थोंको जानकारी प्राप्त होती है, उसी प्रकार अङ्ग विद्या द्वारा अजित संस्कारोंकी जानकारी प्राप्तकी जाती है । ज्ञान प्रदीपिकामें आत्मा और कर्म-सम्बन्धका भी संक्षेपमें विवेचन आया है।
___छठवीं और सातवीं शताब्दीमें इस विद्यापर स्वतन्त्र ग्रन्थ तो लिखे हो गये हैं, पर 'वराहमिहिर', 'नारद' आदिके द्वारा रचित संहिता ग्रन्थों में भी अङ्ग विद्याके अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्त निबन्ध हैं । वराहमिहिरने वाराही संहिताके ६७-६८ और ६९वें अध्यायोंमें इस विद्याके विषयोंका निर्देश किया है । उन्होंने बताया है कि उन्मान-अंगुलात्मक उच्चता, मान, परिमाण या तौल, गमन संहति-अङ्ग सन्धियोंकी सुश्लिष्टता, सार, वर्ण, शब्द, प्रकृति, प्रवृत्ति, सत्व, दशांग मृजा शरीरच्छाया आदिके द्वारा फल प्रतिपादन किया जा सकता है। सामान्य सिद्धान्तोंके पश्चात् रेखाकृति, नख, अंगुलि, नाडी, रोम, ऊरु, जानु, लिंग, वृषण, गन्ध,
आवलि, वक्षस्थल, स्कन्ध, ग्रीवा, कण्ठ, कपोल आदिके परीक्षण द्वारा शुभाशुभ फलोंका वर्णन किया है । ओष्ठ और चिबुकके वर्णन सन्दर्भ में बताया है कि जिस व्यक्तिका चिबुक बहुत कृश
और लम्बा हो वह निर्धन होता है । मांसल और पुष्ट चिबुक वाला धनिक, रक्तवर्णके चिबुक वाला प्रतापी, सघन और कृष्ण केशोंसे युक्त चिबुक वाला व्यक्ति प्रसिद्ध, मन्दबुद्धि एवं अल्पधनी एवं स्निग्ध और समान आकृतिके चिबुक वाला व्यक्ति प्रसिद्ध होता है। इसी प्रकार कन्दूरीके समान रक्तवर्णके अधर वाला व्यक्ति शासक, नेता और संगठन कर्ता होता है। छोटे अधरका व्यक्ति निर्धन, स्थूल अधरका व्यक्ति क्रूर और कर्तव्य परायण, रक्त और स्निग्ध वर्णके अधर वाला व्यक्ति प्रसिद्ध, सुखी और शासक होता है । रुक्ष, वक्र, खण्डित
और भद्दी आकृतिके अघर वाला व्यक्ति निर्धन होता है । रक्त वर्ण, लम्बी, श्लक्षण और समान जिह्वा वाला व्यक्ति भोगी होता है । श्वेत, कृष्ण और रुक्ष जिह्वा वाला. व्यक्ति धनहीन होता है । सौम्य, समवृत्त, निर्मल, लक्षण एवं वक्र जिह्वा वाला व्यक्ति जीवनमें आनन्द