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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
लिये एकान्त सेवनका विधान बतलाया है । विश्व कल्याण भावनाका विकास ध्यान पारमितासे होता है और भक्ति इसमें सहायक है।
(६) प्रज्ञापारमिता -- ध्यान पारमिता के अभ्याससे चित्तकी एकाग्रता होती है । चित्तकी एकाग्रता प्रज्ञाको जन्म देती है । जिसका चित्त एकाग्र है उसीको सत्यका दर्शन संभव है । अविद्याका नाश प्रज्ञाके सहारे ही किया जा सकता है । अविद्या ही सब पापोंका मूल है । प्रज्ञापारमिताका सबसे बड़ा लक्ष्य धर्मोकी निस्सारताका बोध कराना है । प्रज्ञापारमिताके उदय होनेपर ही सर्वधर्म शून्यताका अनुभव होता है । सर्वधर्म शून्यताका अनुभव करना ही बोद्धधर्मका लक्ष्य है । इससे अविद्याकी पूर्ण निवृत्ति होती है । अविद्याके निरोधसे संस्कारोंका निराकरण हो जाता है । संस्कारोंके निराकरणसे दुःखका निराकरण होता है । अतएव स्पष्ट है कि प्रज्ञापारमितासे निवृत्ति और निर्वाणकी प्राप्ति होती है । प्रज्ञापारमिताके इस महत्त्वने ही उनकी देवताके रूपमें प्रतिष्ठा कर दी है। बोधिसत्त्वकी भक्तिका आराध्य यह प्रज्ञापारमिता भी मानी जाती है । महायानी भक्तिमार्गके विकासके दश सोपान हैं-
१. भगवान् बुद्धके धर्मकाय और निर्माणकाय दोनोंके प्रति अटूट श्रद्धाभावका
जागरण ।
२. महाकरुणा और लोकसेवाकी प्रतिष्ठाके कारण जगत् संतारकका भाव ।
३. मन्त्र जाप |
४. प्रतिपद मार्गके साथ प्रपत्तिभावका समन्वय ।
५. सत्संग और गुरुश्रद्धा ।
६. धर्माचरणपूर्वक जीवन यापन ।
७. मन और चित्त की शुद्धिपर विशेष बल ।
८. भक्ति के विविध अङ्गोंका विकास ।
९. अनुत्तर पूजा ।
१०. पारमिताओं का सेवन ।
बुद्धके जीवन कालमें उनके शिष्योंने उनके भौतिक शरीरके प्रति अत्यधिक मोह दिखलाया । उस मोहको उन्होंने धर्म कायके प्रति श्रद्धामें बदल दिया। यह श्रद्धा ही उनके परिनिर्वाणके पश्चात् भक्तिके रूपमें हुई । बुद्ध के निर्माणकाय अर्थात् अवतारी रूपके प्रति अटूट श्रद्धाका व्यक्त करना ही भक्तिका बीज है । महायानमें आकर बुद्ध एक प्रकारसे ईश्वर बन गये जिनके प्रति श्रद्धा और पूजा व्यक्त करना आवश्यक हो गया । बुद्धके साथ अनेक देवता भी आये जिन्हें बोधिसत्त्व कहते हैं । बुद्ध स्वयम्भू हो गये और वे अपनी कृपाके द्वारा जगत् के उद्धारक बन' गये । बुद्धकी कृपा भगवती कृपा हो गयी । इसमें सन्देह नहीं कि महायान सम्प्रदायपर भागवत धर्मका प्रभाव है। गीताके भक्तिभावसे भी महायान सम्प्रदायका भक्तिभाव प्रभावित दिखलायी पड़ता है । अतः संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि भक्तिभावनाका विकास महायान सम्प्रदाय में हुआ है । और मूर्तिपूजा भी बौद्धधर्मके प्रभावसे विकसित हुई है । भारतीय धर्मसाधना में मूर्तिपूजाका सर्वप्रथम उपयोग बौद्धधर्मने ही किया । ऐसा कहा जाता है किन्तु महा१. तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् - सद्धर्मपुण्डरीक २।११