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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
बहुत प्राचीन कालके समान है । मन्दिरके बीचमें केवल खिलान युक्त ऊंची चोटीका विग्रह कक्ष (कमरा) है और उसके चारों ओर स्तम्भावलि शोभित गोल बरामदा है यह निश्चय ही जैन मन्दिर है"। कथनसे स्पष्ट है कि यह मन्दिर ई० पू० २०० से भी पहले का है, टॉड साहबने आगे भी इस बातको स्वीकार किया है । अतः यह सम्प्रतिका बनाया हुआ बताया जाता है।
सम्प्रतिने कई पिंजरापोल पशुरक्षणके लिए खुलवाये थे। गुजरातमें इस प्रथाका शेष चिह्न आज भी वर्तमान है । इसके धर्म प्रचारका उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमें ही पाया जाता है, दिगम्बर साहित्यमें नहीं । सम्प्रतिने जैन साधुओंकी धर्म प्रचारमें सब प्रकारसे सहायता की थी' । इसलिए राजकीय आश्रयको पाकर जैनधर्म खूब उस कालमें फैला। लोकोपकारी कार्य भी इसने अनेक किये । आहारदान, ज्ञानदान, औषधदान और अभयदान भी इसने अपने जीवनमें खूब दिये । राजनीतिमें अहिंसाका प्रयोग भी खूब किया। इसने अनार्य देशों में जैनधर्म के प्रचारके लिए सेनाके योद्धाओंको साधुओंका भेष बनाकर भेजा था। अपने प्रिय जैनधर्म के प्रसारमें इसने सभी सम्भव उपायोंसे काम लिया था ।
१. जैनिज्म इन नार्थ इण्डिया पृ० १४४-१४५ २. इत्यधिकायं धर्मविचारं संप्रतिभूपतिवृक्षमुदारम् ।
सद्गुरुप्रहताखिलबहुमान भज्यजना दधतां बहुमानम् ।।
-दर्शनशुद्धि गा.१३