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भारतीय संस्कृति विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
इस श्री पुरुषके पुत्र शिवमार द्वितीयने श्रवणबेलगोलाकी छोटी पहाड़ीपर एक वसति बनवायी थी । चन्द्रनाथ स्वामी वसतिसे प्राप्त एक पत्थरपर कन्नड़ में शिवमारन वसति अंकित है । इस शिवमारका छोटा भाई दुग्गमार इरेयप्प था। मैसूर जिलेके हेग्गड़े देवन ताल्लुकेके हेब्बल गुप्पे आञ्जनेय मन्दिरके निकटसे प्राप्त अभिलेख में लिखा है कि श्री नरसिंगेरे अप्पर दुग्गमारने स्थानीय जैन मन्दिर ( कोइलवसदि) को भूमि प्रदान की । बनानेवाले कर्मकार नारायणका भी नाम लिखा है और लिखा है कि तीन गाँवोंके आदमियोंने भी उतनी ही भूमि प्रदान की, जितनी गंग आञ्जनेय मन्दिर के शिलालेखका समय डॉ० कृष्णने ८२५ ई० निर्धारित किया है । इस प्रकार ई० सन् की ८ वीं शताब्दीके कुछ काल बाद तक गंग राजाओं द्वारा जैन धर्मका विकास होता रहा ।
अभिलेख में वसतिको वसतिके व्यय के लिए नरेशने प्रदान की ।
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गंग राजवंश में मरुलका सौतेला भाई मारसिंह जैन शासनकी प्रभावना की दृष्टिसे उल्लेखनीय है । इसका राज्यकाल ई० सन् ९६१- ९७४ ई० तक है । विभिन्न शिलालेखों में इसे सत्यवाक्य गुणि वर्मा धर्म महाराजाधिराज, गंगचूड़ामणि चलदुत्तरंग, मांडलिक त्रिनेत्र, गंग विद्याधर, गंग-कन्दर्प, गंग-वज्र ओर गंगसिंह आदि विरूदों द्वारा उल्लिखित किया है । इन विरुदोंसे इसका यशस्वी और सम्मानित होना व्यक्त होता । इसने मालवा पर आक्रमण कर सियक परमारको पराजित किया । श्रवण वेलगोला के कुगे ब्रह्मदेव स्तम्भपर उत्कीर्ण अभिलेखमें बताया है—
"स्सम्प्रति मारसिंह नृपतिव्विक्रान्त क सो यत्र स्थिति - साहसोन्मद-महासामन्तमत्ताद्विपम । स्वामिनि पट्ट बन्ध महिमा निव्वि मित्युर्व्वराचक्रं यस्य पराक्रम स्तुति परैः व्यावर्णयत्यंगकैः ॥ येनेन्द्र क्षितिवल्लभस्य जगती - राज्याभिषेकः कृतः । १२
अर्थात् उसने कृष्ण तृतीयके लिए गुर्जर देशको विजित किया, कृष्ण केवली श अल्लका दमन किया, विन्ध्य प्रदेश के किरातोंको छिन्न-भिन्न किया, मान्यखेट में चक्रवर्तीके कटक की रक्षा की, शिलाहार बिज्जरसे युद्ध किया, बनवासीके राजाओंको पराजित किया । मातुरोंका दमन किया, उच्चगीके सुदृढ़ दुर्गको हस्तगत किया, शबर राजकुमार नरगका नाश किया, चेर, चोल, पाण्डव और पल्लवोंका दमन किया एवं चालुक्य विजयादित्यका अन्त किया उसके सैनिक कार्यों का विवरण देनेके पश्चात् बताया गया है कि उसने जिनेन्द्र देवके सिद्धान्तोंको नियोजित किया था और अनेक स्थानोंपर वसदियों और मानस्तम्भोंका निर्माण कराया था । लेख न० १४९ के अनुसार उसने पूल गिरे नामक स्थानमें एक जिन मन्दिर बनवाया जो उसीके नामपर गंगकन्दर्प जिनेन्द्र मन्दिर कहलाता था । अभिलेख संख्या - ३८ में बताया है कि मारसिंहने जैन धर्मका अनुपम उद्योत किया और भक्तिके अनेक कार्य करते हुए मृत्युसे
१. मिडीयेवल जेनियेजिम, पृ० २५ ।
२. गंग चूड़ामणि गंग कन्दर्प गंगवज्र चलदुत्तरंग ''जगदेकवीरम् — जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभि० ३८ पृ० २० ।
३. वही, पृ० १८ - १९ ।