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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन
वाङ्मयका अवदान
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है इसमें इतर धर्मोकी अपेक्षा अनेक विशेषताएँ हैं । धर्मकी विशेषता के कारण जैन धर्मानुयायी कलाकारोंकी अभिव्यञ्जनामें भी पर्याप्त अन्तर है । यदि प्रतीकों के भेद से या अन्तर्जगत्के भावविशेषको व्यक्त करनेकी प्रणालीके भिन्न होनेसे जैनकलाको अलग स्थान दिया जाय तो अनुचित न होगा । जैन आदर्श वीतरागताका है, इसलिये जेन कलाकार प्रत्येक ललित कलामें इसी आदर्श की अभिव्यञ्जना करता है । उसका ध्येय कला द्वारा लौकिक एषणाकी तृप्ति करना नहीं होता, किन्तु शान्तरसका प्रवाह बहाकर द्रष्टाके हृदय में आध्यात्मिक भावनाको जागृत करना है । जैन कलाकारोंने पत्थर या कागजके माध्यम द्वारा आध्यात्मिक रहस्यके उद्घाटनमें आशातीत सफलता प्राप्त की है ।
अभिव्यञ्जनाकी दृष्टिसे जैनकलाके दो भेद किये जा सकते हैं -- स्थित कला (The Static Mood of art ) और गतिशील कला (The dynamic mood of art ) । प्रथममें क्रम और औचित्यकी प्रधानता तथा द्वितीयमें गति, आरोहावरोह एवं भावव्यञ्जनाकी प्रधानता रहती है | स्थित कला वास्तु, तक्षण और चित्र ये तीन भेद एवं गतिशील कलाके संगीत और काव्य ये दो भेद हैं ।
वास्तुकला — इस कलामें कलाकार लोहा, पत्थर, लकड़ी और ईंट आदि स्थूल पदार्थोंके सहारे अपने अमूनिक भावोंके सौन्दर्यकी अभिव्यञ्जना करता है । जैनोंने इस कलामें प्राचीनकाल से ही अधिक उन्नति की है। गिरनाट' ने हिन्दुकलाके बहुत से स्थापत्योंमें जैन कलाका पूर्ण प्रभाव बताया है । जहाँ तक वास्तुकलाका सम्बन्ध है जैनकला अद्वितीय है । वास्तुकला में जैनधर्मकी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई है । विशाल पर्वतोंपर प्रकृतिके रम्य वातावरण में श्रेष्ठ मन्दिरोंका निर्माण कर जैनोंने वस्तुतः अपनी कलाप्रियताका परिचय दिया है । श्री सम्मेदशिखर ( Parshwnath Hill गिरनार और शत्रुञ्जयके निर्जन प्रदेशोंकी जैन स्थापत्य कला अपनी आभा और चमकसे प्रत्येक दर्शकके मनको बरबस अपनी ओर खींच लेती है ।
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प्राचीन भारतकी स्थापत्य कलामें मथुराका जैनस्तूप भी शिल्पतीर्थंका सर्वोत्कृष्ट नमूना है । यहाँके रमणीय देवप्रासाद, उनके सुन्दर तोरण, वेदिकास्तम्भ, उष्णीष पाषाण, उत्फुल्ल कगलोंसे सुसज्जित सूची, उत्कीर्ण आयागपट्ट आदि जैनकलाके गौरव । चहार दीवारी के वेदिका-स्तम्भोंपर अनेक सुगात्रवाली नर्तिकाएँ अंकित हैं, जो मथुराकलाकी अनुपम देन है । इन रमणियोंके सुन्दर रत्नजटित वस्त्राभूषणोंकी कारीगरोंको देखकर दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है । चम्पक, आम्र, अशोक और बकुलके उद्यानोंमें क्रीडासक्त अथवा स्नान और प्रसाधन द्वारा श्रृंगारमग्न देवियोंको देखकर जैनकलाका गौरव सहज ही हृदयंगम हो जाता है । इन वेदिकाओंको सुपर्ण और किन्नर देवोंके पूजा दृश्योंने और भी रमणीय और भावगम्य बना दिया है । बौद्ध स्तूपके पास जो दो बड़े देवप्रासादोंके भग्नावशेष उपलब्ध हुए हैं,
1. Guerinat, Lo Relgion Dgaina, p. 279;
2. Fergusson, History of Indian and Eastern Architecture, ii, p. 24. 3. Elliot, Hinduism and Buddism i, P. 121.