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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१७५ वे ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दीके हैं । डा० बूलर और स्मिथ आदि विद्वानोंने जैन स्तूपकी सुन्दर कारीगरीकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हुए उसे भारतीय शिल्पका तीर्थ बताया है । वेदिकास्तम्भ और सूचीदलोंकी सजावट नोरस हृदयको भी सरस बना देती है।
विशेषज्ञोंने स्थापत्यकलाको नागर (उत्तरी). वेसर (पूर्वी) और द्राविड़ इन तीन भागोंमें बाँटा है । दक्षिणके जैनमन्दिरोंमें होयसल या चालुक्य और द्राविड़ इन दोनों शैलियोंका प्रभाव पाया जाता है। चन्द्रगिरिके पार्श्वनाथ बस्ति, कत्तले रस्ति और चामुण्डराय बस्ति जैनकलाके सुन्दर निदर्शन हैं । कत्तले बस्ति १२४४४० फुट क्षेत्रफलका है । इसमें गर्भ गृहके चारों ओर प्रदक्षिणा है । नवरंगसे सटा हुआ एक मुखमण्डप भी है और बाहरी बरामदा भी। ये सभी मन्दिर द्राविड़ शैलीके उत्कृष्ट नमूने हैं । फर्ग्युसन' ने चन्द्रगिरिकी १५ बस्तियोंमन्दिरोंको स्थापत्य कलाकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि इनकी नक्काशी उत्तर भारतकी स्थापत्य कलासे सर्वथा भिन्न है। इन मन्दिरोंकी बनावट कलापूर्ण है । द्राविड़ और चालुक्य कलाओंके मिश्रित रूपकी अभिव्यञ्जना प्रशंसनीय है।
__ दक्षिण भारतमें ई० ५० ३ से ई० १३ वीं शताब्दी तक जैन शासन रहनेके कारण जैनकलाकी खूब उन्नति हुई है। तामिल और कन्नड़ दोनों ही प्रान्तोंमे सुन्दरतम जैन मन्दिरोंका निर्माण हुआ है । पल्लव और गंग राजाओंने अपने राज्यकालमें भव्य चैत्यालय और दिव्य स्तम्भोंका निर्माण कराया था। मन्दिरोंकी दीवाल और छतोंपर नवकाशी और पच्चीकारीका भी काम किया गया था। कई मन्दिर दो मंजिले और चारों गोर दरवाजे वाले थे। पाषाणके अतिरिक्त लकड़ीके जिनालयोंकी प्रथा भी प्रारम्भ हो गई थी। जन वास्तुकलाकी यह प्रणाली नागर या आर्यावर्त की थी। इस कलाके मन्दिरोंका आकार चौकोर होता था तथा ऊपर शिखर रहता था। ई० ६-७ वीं सदी तक इसी प्रणालीपर मन्दिरोंका निर्माण होता रहा । पश्चात् बेसर-समकोण आयताकार मन्दिर बनने लगे, इन मन्दिरोंके शिखर ऊपर-ऊपर होन-हीन होते जाते थे और अन्तमें अद्धगोलाकार गुम्मज घना होता था। सातवीं शताब्दीके बारम्भमें इस शैलीके मन्दिर बादामी, ऐहोले, मामल्लपुर, कांची आदि स्थानोंपर बनाये गये थे। विद्वानोंका मत है कि समवशरण रचनाका परिष्कृत रूप बेसर प्रणाली है।
इसके सिवा चतुर्मुख मन्दिर भी बनाये जाते थे। इन मन्दिरोंकी बनावटके बारेमें कहा गया है कि इनके बीच में एक कमरा होता था, जिसके चारों ओर बड़े दरवाजे एवं बाहर बरंडा तथा उसारा होता था। छत सपाट पाषाणसे पाट दी जाती थी और बड़े-बड़े स्तम्भोंपर टिकी रहती थी। तीन कोठरियोंके मन्दिरोंका प्रचार भी दक्षिणमें था, इनमें तीर्थंकरोंकी मूत्तियां यक्ष-यक्षिणी सहित विराजमान रहती थीं। वर्जेस' और फग्यूसनका कथन है कि ७-८ वीं
1. Fergusson, op, css, p. 75, 172 and Burgess, Digambara Jain Icong
raphy Ind, Ant, XXXII, P. 95.96. २. संक्षिप्त जैन इतिहास तृ० भाग द्वि० खंड पृ० १३४ । ३. संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ३ खं० २ पृ० १३५; ४. दी गंगज़ ऑफ तालकाड पृ० २२२-२२६ ।