________________
ज्योतिष एवं गणित
४०९ है । नाना प्रकार की अद्भुत चिन्ताएँ और दृश्य मनमें उत्पन्न होते हैं । जागृतावस्थामें दर्शन श्रवण स्पर्शन एवं चाक्षुष आदि प्रत्यक्षानुभूतियों के प्रतिरूप वर्तमान रहते हैं, किन्तु सुषुप्तावस्थामें सिर्फ दार्शन-प्रत्यक्षके प्रतिरूप ही वर्तमान रहते हैं।
चिन्ताधारा दिन और रात दोनोंमें समान रूपसे चलती है, लेकिन जागृतावस्थाकी चिन्ताधाग पर हमारा नियन्त्रण रहता है, पर सुषुप्तावस्था की चिन्ताधारा पर हमारा नियंत्रण नहीं रहता है, इसीलिये स्वप्न भी नाना अलंकारमय प्रतिरूपोंमें दिखलाई पड़ते हैं। स्वप्नमें दार्शन प्रत्यक्षानुभूतिके अतिरिक्त शेषानुभूतियों का अभाव होने पर भी सुख, दुःख, क्रोध, आनन्द, भय, ईर्षा आदि सब प्रकारके मनोभाव पाये जाते हैं। इन भावोंके पाये जाने का प्रधान कारण अज्ञात इच्छा ही है । पाश्चात्य विद्वानोंने केवल विज्ञानके द्वारा ही स्वप्नके कारणोंकी खोज नहीं की, क्योंकि विज्ञान आदि कारणका अनुसन्धान नहीं करता है, आदि कारणका अनुसन्धान करना दर्शन शास्त्रका काम है। पाश्चात्य दर्शनके अनुसार स्वप्न निद्रावस्थाको चिन्तामात्र है। हमारी जो इच्छाएँ जागृत जगत्में पूरी नहीं होतीं या जिनके पूरे होनेमें बाधाएं रहती हैं, वे ही इच्छाएँ स्वप्नमें काल्पनिक भावसे परितृप्त होती है । किसी चिन्ता या इच्छाके पूर्ण न होनेसे मनमें जिस अशान्तिका उदय होता है, स्वप्न में कल्पना द्वारा उसकी शान्ति हो जाती है । मनकी अशान्ति दूर करनेके कारण स्वप्न निद्राका सहायक है ।
उपर्युक्त पंक्तियोंमें बताया गया है कि रुद्धइच्छा ही स्वप्नमें काल्पनिक रूपसे परितृप्त होती है। अब यह बतलाना है कि रुद्ध-इच्छा क्या है ? और इसकी उत्पत्ति कैसे होती है ? दैनिक कार्योंकी आलोचना करनेसे स्पष्ट है कि हमारे प्रायः सभी कार्य इच्छाकृत होते हैं । किन्हीं-किन्हीं कार्यों में हमारी इच्छा स्पष्ट रहती है और किन्हीं-किन्हीं में अस्पष्ट एवं रुद्ध-इच्छा रहती है। जैसे गणित करनेकी आवश्यकता हुई और गणित करनेकी इच्छा होते ही एक स्थान पर गणित करनेके लिये जा बैठे। यहां गुणा, भाग, जोड़, घटाव आदिमें बहुत-सी क्रियाएं ऐसी रहेंगी जिनमें इच्छाके अस्तित्वका पता नहीं लगेगा, पर वहाँ हम इच्छाओं के अस्तित्वका अभाव नहीं कह सकते हैं। ज्ञात और अज्ञात इच्छाओंका पता लगानेके लिये मनका विश्लेषण करना अत्यावश्यक है। कुछ मनोवैज्ञानिकोंने इच्छाओंको प्रधान रूपसे छः भागोंमें बांटा है-(१) स्पष्ट इच्छा-जिन इच्छाओंका अस्तित्वरूप सरलतासे जाना जा सकता है । (२) अस्पष्ट-इच्छा-जो इच्छाएं मनमें स्पष्टरूपसे उदित नहीं हुई हैं, किन्तु जिनके अस्तित्वमें सन्देह नहीं है और जो ज्ञानके प्रान्तमें अवस्थित हैं। (३) अपरिस्फुट-जो उदित नहीं हुई हैं, किन्तु जिनका अस्तित्व सहजमें ही जाना जा सकता है। (४) अनुमान-सापेक्षजिन इच्छाओंके अस्तित्वका मनके विश्लेषण करनेपर भी पता न लगे, कार्य या पहली इच्छासे जिनका अनुमान किया जा सके । (५) इच्छाभास या अविश्वासिक-इच्छा-जिन इच्छाओंका अस्तित्व अनुमान सापेक्ष हो, विश्लेषणसे जिनकी प्रकृतिका ज्ञान होने पर भी, मनमें उनका होना इतना असंभव जंचता हो जिससे विश्वास भी न किया जा सके । (६) अज्ञात--जो इच्छा इतनी सूक्ष्म हो कि ज्ञानमें भी न लाई जा सके।
किसी-किसी पाश्चात्य दार्शनिकने इच्छाके चार ही प्रधान भेद बतलाये हैं, इन चारोंको अज्ञात-इच्छाके अन्तर्गत रखा जाय तो अनुचित न होगा। (१) संज्ञात--जो इच्छा