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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
मिष्टान्न प्रिय, त्वचाके स्निग्ध होनेसे सुखी और नाखूनोंके स्निग्ध होनेसे धनी होता है। इस प्रकार नेत्र, नाखून, दंत, जांघ, हाथ-पैर आदिके रूप-रंग, स्पर्श, संतुलन, प्रमाण, मान-वजन एवं आकार प्रकारके द्वारा शुभाशुभत्वका वर्णन किया है । अंगविद्या सम्बन्धी स्वतन्त्र रचनाएँ
भारतीय साहित्यके आलोडन से ज्ञात होता है कि वराहमिहिरके समय तक अंगविद्याका कथन या वर्णन अन्य विषयक ग्रन्थोंमें होता रहा। इस विद्यापर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखनेकी परम्पराका आरम्भ अंग विज्जा नामक प्राकृत ग्रन्थमें होता है। अंगविद्यापर यह सर्वप्रथम स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थके वर्ण्यविषयके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि इसमें अंग-ज्ञानके साथ अष्टांग निमित्तभी सम्मिलितहो गया था । इस ग्रन्थमें अंग-निमित्तका महत्व बतलाते हुए लिखा है कि अंगविद्या ज्योतिष विषयक सभी शाखाओंमें श्रेष्ठ है । जिस प्रकार समस्त नदियाँ समुद्रमें मिल जाती हैं, उसी प्रकार स्वर, व्यंजन, लक्षण, स्वप्न, छिन्न, भौम और अन्तरिक्ष निमित्त अंग-विद्या रूपी समुद्रमें मिल जाते हैं । इस विद्यासे जय-पराजय, लाभ-हानि, जीवनमरण, सुख-दुख, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, धन-हानि, धन-प्राप्ति आदिका सहजमें ज्ञान प्राप्त होता है । शारीरिक लक्षणोंको जानकर मानसिक और आध्यात्मिक विकासका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । जिस प्रकार मनोविज्ञानका सम्बन्ध चित्तवृत्तियों और संवेदनाओंके विकाससे है, सष्टि-विज्ञानका सम्बन्ध मन. बद्धि और शरीरके निर्माणक तत्त्वोंके विश्लेषण और अनुपातसे है। उसी प्रकार अंग-विद्याका सम्बन्ध मनुष्यके आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्वके विश्लेषण
यों तो सभी प्राणियोंके शरीरका निर्माण पौद्गलिक परमाणुओंसे होता है और सभीकी आकृति एक समान दिखलाई पड़ती है, पर इस एकताके बीचभी विविधता और विषमताका समवाय रहता है। अतः जो विभिन्न जन्म-जन्मान्तरके संस्कारोंसे वजित इस विविधताको अवगत कर लेता है, वही अंगविद्याका ज्ञाता भावी शुभाशुभ फलोंका निरूपण करने में समर्थ होता है । वस्तुतः अंगविद्या एक वैज्ञानिक, अध्यात्मिक विद्या है, जिसके अध्ययन और मनन से भावी घटनाओंके साथ व्यक्तिके वर्तमान और अतीतकी भी जानकारी प्राप्तकी जाती है । यहाँ यह स्मरणीय है कि अंग परीक्षक को अंगोंकी क्रिया-प्रतिक्रिया, गति-स्थिति आदिके साथ अन्य निमित्तोंकी जानकारीभी अपेक्षित है । बताया है
जथा णदीओ सव्वाओ ओवरंति महोदधिं । एवं अंगोदधिं सव्वे णिमित्ता ओतरंति हि ॥१॥ अणुरत्तो जयं पराजयं वा राजमरणं वा आरोग्गं वा रणो।
आतंकं वा उवद्धवं वा मा पुण सहसा वियागरिज्ज पाणी ॥२॥ स्पष्ट है कि अंग विद्याके रचयिता आचार्यने केवल अंगविद्याका स्वरूपही नहीं बतलाया, किन्तु कर्म सिद्धान्तानुसार पूर्व जन्मके कर्मोंके प्रभावकाभी विश्लेषण किया है । आचार्यका विश्वास है कि जीवोंकी प्रकृति उनकी प्रकृतिपर निर्भर है और यह प्रकृति पूर्व १. अंग विज्जा, १, ६, पृ० १ । २. वही, पृ०७।