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ज्योतिष एवं गणित
२८९ अंग विद्याके विकासपर ऐतिहासिक दृष्टिसे विचार करनेपर ज्ञात होता है कि इस विद्याका प्रारम्भ भारतवर्षमें ईस्वी सन् से ५०० वर्ष पूर्वही हो चुका था। 'रामायण और 'महाभारत' में अंगविद्याके निर्देशोंके साथ प्राकृत और पालि ग्रन्थों में इस विषयके अनेक उल्लेख मिलते हैं । 'अंगुत्त र' निकायमें ललाट, वक्षस्थल, हस्तपाद, नासिका एवं कर्णके ह्रस्व दीर्घ विचार द्वारा भावी फलोंका वर्णन किया है। समवायांगमें भी अंगोपांगोंका निर्देश आया है । 'रायपसेणीय सुत्तमें स्त्रियों, पुरुषों और पशुओंकी अंगाकृतिका विवेचन आया है तथा इसी ग्रन्थमें उल्लिखित बहत्तर कलाओंमें अंगविद्याकीभी गणना समाविष्ट है । प्राकृत ग्रन्थ 'वसुदेवहिण्डी' के सत्रहवें लम्बमें अंगविद्याके अनेक सिद्धान्त आये हैं । अष्टादश लम्बमें प्रियंगसुन्दरीके अंगवर्णन प्रसंगमें अंगोंकी आकृतिका विवेचन किया गया है । इस विवेचनसे अंगविद्या प्राचीन सिद्धान्तोंकी जानकारी सरलतापूर्वक प्राप्तकी जा सकती है। 'समराइचकहा' और 'कुवलयमाला' में इस विद्याके सिद्धान्तोंका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। 'कुवलयमाला' में बताया है कि पूर्वोपार्जित कर्मोके कारण जीवधारियोंको सुख-दुखकी प्राप्ति होती है । इस सुख दुःखादिको शारीरिक लक्षणोंके द्वारा जाना जा सकता है। शरीर अंग, उपांग और आंगोपांग इन तीन वर्गोंमें विभक्त है । इन तीनोंके लक्षणोंसे मनुष्योंका शुभाशुभत्व ज्ञात होता है । जिस मनुष्यके पैरका तलवा लाल, स्निग्ध और मृदुल हो तथा स्वेद और वक्रतासे रहित हो, वह इस पृथ्वीका नेता या शासक होता है । पैर में चन्द्रमा, सूर्य, वज्र, चक्र, अंकुश, शंख और छत्रके चिन्ह होनेपर व्यक्ति नेता या तत्तुल्य होता है । स्निग्ध और गहरी रेखाएँभी शासकके पैरके तलवेमें होती हैं । शंखादि चिन्ह, भिन्न, अपूर्ण या स्पष्ट अथवा यत्किचित् स्पष्ट हों तो उत्तरार्ध अवस्थामें सुख भोगोंकी प्राप्ति होती है । खर, गर्दभ, वराह, शूकर जम्बुक, शृगालकी आकृतिके चिन्ह हों तो व्यक्तिको कष्ट होता है। समान पदांगुष्ठोंके होने पर मनोनुकूल पत्नीकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार कुवलयमालामें चिह्न, अगुलियोंका हस्व-दीर्घत्व, वर्ण आकृति स्पर्श आदिके द्वारा फलाफलका कथन आया है। शरीरको उन्मत अवस्था, मध्यम परिमाण और जघन्य परिमाणोंका कई ष्टियोंसे विवेचन किया है अंगुली और अंगुष्ठके विचारके पश्चात् हथेलीके स्पर्श, रूप, गन्ध एवं आयतनका विचार किया है । वृषण, वक्षस्थल, जिह्वा, दन्त, ओष्ठ, कान, नाक आदिके रूप रंग, आकृति, स्पर्श, आयाम, गाम्भीर्य प्रभतिके द्वारा शुभाशुभ फल विवेचित हैं। आयुका विचारभी इस ग्रन्थमें विस्तारपूर्वक आया है । दीर्घायु, मध्यमायु, अल्पायु, अरिष्ट, अकाल, मरण आदिका अंगोंके परीक्षण द्वारा विवेचन किया है । दीर्घायुका विचार करते हुए लिखा है
कण्ठं पिट्ठी लिंगं जंघे य हवंति हस्सया एए । पिहुला हत्थ पाया दीहाऊ सुत्थिओ होइ ।। चक्खु-सिणेहे सुहओ दंत सिणेहे य भोयणं मिळें । तय-णेहेण उ सोक्खं णह-णेहे होइ परम-धणं ।।
-कुवलयमाला, पृ० १३१, अनु० २१६ । अर्थात् कंठ, पोठ, लिंग और जंघाका ह्रस्व (लघु) होना शुभ है। हाथ और पैरका दीर्घ होनाभी शुभफल सूचक है । आँखोंके स्निग्ध होनेसे व्यक्ति सुखी, दाँतोंके स्निग्ध होनेसे १. दिव्यावदान, मिथिला विद्यापीठ, संस्करण, शार्दूल कर्णावदानम्, पृष्ठ ४११ ।