________________
ज्योतिष एवं गणित
२५९
के मध्य बिन्दुको केन्द्र मानकर सूर्यके प्रथम पथ त्रिज्या (५०००० - १०० ) = ४९८२० योजन है ! दोनों सूर्य और चन्द्र सम्मुख स्थित रहते हैं । अन्तिम वलय वृत्तमें स्थित रहने पर दोनों सूर्योके बीचका अन्तर २ (५००३३०) योजन रहता है । सूर्यके वलय वृत्त भी चन्द्रके वलय वृत्त के समान समापन ( Winding ) और असमापन ( unwinding ) कुन्तल (Spiral) के समान होता है । इस प्रकार चन्द्रमाके पन्द्रह वलय और सूर्यके १८४ वलय होते हैं । अपनी गगनखण्डात्मक गतिके अनुसार जब राहु और चन्द्र एक समान सूत्रमें बद्ध जैसे प्रतीत होते हैं, तो चन्द्रग्रहण लगता है, और केतु जब सूर्यके गमन वलय में समान सूत्र में आ जाता है, तो सूर्य ग्रहण होता है ।
भिन्न-भिन्न देशों ओर भिन्न-भिन्न नगरोंमें ये ग्रहणकी स्थिति कब और किस प्रकार घटित होगी इसकी जानकारी परिधियोंके आनयन द्वारा की गयी है जिसे आजकी भाषा में अक्षांश और रेखांश कहते हैं । नगरियोंकी परिधिका विकास क्रम उत्तरोत्तर ७१५७८ और १४७८६ योजन बढ़ता हुआ बतलाया है । परिधियोंका असमानत्व भी है । इस असमानत्व का आनयन समत्वरण गति द्वारा किया जाता है । उदाहरण के लिए यों कहा जा सकता है कि ४८ मिनट में प्रथम वल की गति ५२५१६ है, तो एक मिनटमें कितनी योजन होगी । इस प्रकार योजनात्मक गति निकाल कर ग्रहणके समयका आनयन किया है । इस विधि से सूर्य और चन्द्र ग्रहणोंका समय प्रत्येक नगर और स्थानमें जाना जा सकता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि पौराणिक युग में इस गणित विधिका उपयोग आश्चर्य चकित करने वाला है ।
to गणितका विकास हुआ और पर्व तिथियोंमें पूर्णिमा और अमावास्यामें ग्रहणकी स्थिति निश्चित हो गयी, तो यन्त्रराज ग्रन्थ में लम्बन, नीति और दृक्क कर्म द्वारा ग्रहणोंके समयका आनयन किया है । यन्त्रराजमें बताया है कि जिस समय सूर्य और चन्द्रकी स्फुट कला समान होती है, उस समय राहु-भूभा चन्द्रबिम्ब में प्रवेश करती है, इससे चन्द्रबिम्ब मलिन निस्तेज दिखलाई पड़ता है । लम्बन और नतिके कारण चन्द्रग्रहण सब देशों में समान दिखलाई नहीं देता । चन्द्र पूर्वाभिमुख गमन करता हुआ भूभामें प्रवेश करता है । इसलिए चन्द्रग्रहण में प्रथम पूर्व दिशामें ग्रहणका प्रारम्भ और पश्चिम दिशामें मोक्ष होता है । सूर्य बिम्बके बड़े और भू बिम्बके छोटे होने से भूमिकी छाया सूचीके समान सूक्ष्माग्र होती है और लम्बी होने के कारण चन्द्रकक्षाके बाहर दूर तक चली जाती है । इस भूभा की लम्बाई और चन्द्रकक्षा में भूभा का प्रमाण अनुपात से निकाला जाता है । चन्द्रमासे विपरीत दिशामें भूभा होती है, अतएव शरका ज्ञान विपरीत होता है । भूभाका कोषात्मक व्यास निकालकर ग्रहणका साघन होता है । यहाँ उदाहरणार्थ एक चित्र दिया जाता है जिससे लम्बन आदिका ज्ञान प्राप्त कर ग्रहणको स्थिति जानी जा सकती है 13
अब, अ = भूकेन्द्र | प = सूर्यका परमलम्बन भ अ क । प = चन्द्रका परम लम्बन भ म ब, वा, भ क ब । स = सूर्य व्यासाध॑से उत्पन्न भूकेन्द्रग कोणमान स म अ । 6 = भ व ब, भूछाया कोणार्धमान ।
९. वही, ७।२२८
२. तिलोयणण्णत्ति, गाथा ७।२४६
३. उदाहरण-चित्र अनुपलब्ध है ।