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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान शनि क्षेत्रमें चन्द्रमा हो तो उसकी महादशामें सप्तमेशको अन्तर्दशा परम कष्टकारक होती है । शनिमें चन्द्रमा और चन्द्रमामें शनिका दशाकाल आर्थिक दृष्टि से कष्टकारक होता है ।
शनिमें बृहस्पति और बृहस्पतिमें शनिकी अन्तर्दशा अरिष्टकारक होती है। इसी प्रकार मंगलमें शनि और शनिमें मंगलकी दशा रोगोत्पादक होती है।
शनिमें सूर्य और सूर्यमें शनिकी अन्तर्मुक्ति गुरुजनोंके लिए कष्टदायक तथा अपने लिए चिन्ताकारक होती है। राहु और केतुकी अन्तर्मुक्ति दशाएँ प्रायः अशुभ होती हैं, किन्तु जब राहु ३।६।११ वें भाव में हो तो उसकी अन्तर्मुक्ति अच्छी मानी जाती है ।
अन्तर्मुक्तिका विचार करते समय समस्त ग्रहोंकी अन्तर्मुक्तियोंका स्वरूप, स्वभाव, उच्च, मूलत्रिकोण आदिके आधारको अवश्य ग्रहण किया जाता है।
द्वादश भावोंके प्रसंगमें प्रथम भावसे शरीरको आकृति, रूप आदिका विचार किया जाता है। इस भावमें जिस प्रकारकी राशि और ग्रह रहते हैं, जातकका शरीर और रूप भी वैसा ही होता है। शरीरकी स्थितिको ज्ञात करने के लिए ग्रह और राशियोंके तत्वोंकी जानकारी अपेक्षित है। द्वितीय भावसे धनका विचार करते समय द्वितीयेश, द्वितीय भावकी राशि और द्वितीय स्थानपर दृष्टि रखनेवाले ग्रहोंके सम्बन्धसे किया जाता है । तृतीयभावसे भाई और बहनोंका विचार किया जाता है । जन्म-कुण्डलीके ग्यारहवें भावसे बड़े भाई और बड़ी बहनोंका तथा तृतीय स्थानसे छोटे भाई बहनोंका विचार करना अपेक्षित है । चतुर्थ भावसे भवन, पिता, मित्र आदिके सम्बन्धमें विचार किया जाता है । चतुर्थ और पंचम भाव इन दोनोंके सम्बन्धसे विद्या और बुद्धिका विचार किया जाता है । दशम स्थानसे विद्याजनित यशका और विश्वविद्यालयोंकी उच्च परीक्षाओंमें उत्तीर्णता प्राप्त करनेका विचार किया जाता है।
चन्द्रकुण्डली और जन्मकुण्डलीके पंचम स्थानसे सन्तानका विचार किया जाता है । पंचमभाव, पंचमेश गुरु शुभ ग्रह द्वारा दृष्ट या युत होनेसे सन्तान योग रहता है। ६।८।१२ भावोंके स्वामी पंचम भाव में हो या पंचमेश ६।८।१२ वें भावमें हो, पंचमेश नीच या अस्तंगत हो तो सन्तानका अभाव रहता है।
षष्ठ भाव से रोग और शत्रुका विचार, सप्तम भावसे विवाहका विचार और अष्टम भावसे आयुका विचार किया जाता है। सप्तम स्थानमें शुभ ग्रह रहनेसे, सप्तम या शुभ ग्रहोंकी दृष्टिके होनेसे तथा सप्तमेश के शुभ युत या दृष्ट होनेसे विवाह होता है।
नवम भावसे भाग्य और फर्मके सम्बन्धमें विचार किया जाता है। इसी भावके साथ अन्य ग्रहोंके सम्बन्धसे नौकरी योग, व्यापार योग, कृषि योगका भी निर्णय किया गया है । एकादश भावसे आमदनी और द्वादश भावसे व्यय एवं रोग, शोक आदिका विचार करना आवश्यक है। ग्रहोंके बलाबलके अनुसार मारकेशका भी निर्णय करना चाहिए। सूर्य और चन्द्रमा मारक नहीं होते। मारक ग्रहकी महादशा, अन्तर्दशामें मृत्यु नहीं होती। किन्तु पाप ग्रहोंकी अन्तर्दशा अथवा प्रत्यन्तर्दशा होनेपर मृत्यु होती है। मारक ग्रह शुभ ग्रहकी अन्तदशामें मृत्युकारक नहीं होता। पांचों ही दशाएं पाप ग्रहको होनेपर अथवा मारक ग्रहकी दशा होनेपर मृत्यु अवश्यम्भावी है। इस प्रकार जातक तत्वके अन्तर्गत ग्रहों और राशियोंके सम्बन्धोंका भी विचार करना अपेक्षित है ।