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________________ जैन भक्तिका स्वरूप जैनदर्शनकी भाँति जैन भक्ति भी सभी देवी-देवताओंकी भक्तिसे निराली है । अन्य धर्मवाले यह मान कर भगवान्‌की भक्ति करते हैं कि भगवान् हमारा कुछ बना देंगे, हमें कुछ दे देंगे । वास्तवमें भगवान् के हाथमें कुछ देना लेना नहीं है । संसारके सभी जीव अपने शुभअशुभ भावोंके करनेवाले हैं और भोगनेवाले हैं। भक्त भगवान्‌ की भक्तिमें तन्मय हो कर भी अपने भावों में ही लीन होता है, भावोंमें ही डूब जाता है । किन्तु मानता यह है कि मैं भगवान्‌के चरणोंमें लीन था, उनके स्वरूपमें इतना आसक्त था कि अपने आपको भूल गया था । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भक्ति 'रागानुगा' होती है । भक्त रागसे आराध्य देवके चरणों में झुकता है, उनकी प्रशंसा, स्तुति-वन्दना करता है और सब कुछ भूल कर अपने आपको केन्द्रित कर लेता है । यथार्थ में जिनेन्द्र भगवान्‌को भक्ति बाहरमें नहीं अन्तर में होती है । क्योंकि परमात्मा बाहरमें कहीं स्थित नहीं हैं । लोकमें परमात्माकी पुरुषाकार मूर्तियाँ प्रतीक हैं | सच्चे परमात्मा तो हमारे भीतर विद्यमान हैं । जो उस वीतराग निर्मल आत्मा रूप परमात्माको पहचानता जानता है, वही सच्चा जिन भक्त है । यह सुनिश्चित है कि जब तक भक्त अपने में और भगवान् में भेद मानता है और परमार्थसे भी भेद समझ कर भिन्नताका अनुभव करता रहता है, तब तक भक्तिकी भूमिकाको प्राप्त नहीं होता । क्योंकि वास्तविक भक्ति में भक्त और भगवान्‌की अभेदानुभूति होना आवश्यक है । जहाँ भक्त, भगवान् और भक्तिका भेद-भाव है, वहाँ यथार्थमें भक्ति नहीं है जो भक्त भगवान्की और अपनी जातिको भिन्न-भिन्न समझता है, वह वीतरागताको उपलब्ध कर भगवान् कैसे बन सकता है ? क्योंकि दो जातियाँ मिल कर कभी एक नहीं बन सकतीं । जैन भक्ती प्रमुख विशेषता है— रागको वीतरागतामें समाहित कर देना । रागका विसर्जन किए बिना वीतरागताकी प्राप्ति नहीं होती । अतः भक्त वीतरागके गुणोंका स्मरण करता हुआ अपने आपको दृष्टि-भेद कर यथार्थ रूपमें अनुभव करनेका अभ्यास करता है । जो परमात्मा के वास्तविक स्वरूपको मानता, जानता व अनुभव करता है, वही परमात्मस्वरूपका संवेदन करता है - यह जैन भक्तिका विज्ञान है। जिन - परमात्माकी यह भी एक विशेषता है कि उन्होंने अनन्त ज्ञानियोंमें भक्तोंमें तथा भगवानोंमें कोई भेद नहीं बताया है । जितने भी भेद कहे जाते हैं, वे सब बाहरी, लौकिक तथा पर निमित्तकी अपेक्षा से हैं, वस्तुतः कोई भेद नहीं है । इसलिये भक्तको भी जिनेन्द्रदेवका लघुनन्दन कहा गया है। जैन भक्तिकी यह भी विशेषता है कि भक्त “सोऽहं” की अनुभूति में स्थिर होता हुआ स्वयं भगवान् हो जाता है। उसे कोई भगवान् बनाता नहीं है । भक्ति तो उपचारवश कही जाती है । इसीलिये अपने और भगवान्के बीचमें कोई सीमा मान कर प्रवृत्ति नहीं करता है । यदि वह सीमा मान कर चले तो कभी भी सीमाके पार नहीं पहुँच सकता । यह भेद जैन - भक्तिमें नहीं है । आचार्य कुन्दकुन्ददेव कहते हैं - हे भव्यजीवो ! इस देहमें जो स्थित है, उसे जानो । लोकमें नमस्कार करने योग्य इन्द्र आदि और स्तुति ध्यान करने योग्य तीर्थङ्करादि भी जिसकी स्तुति करते हैं, जिसका ध्यान करते हैं, नमस्कार करते हैं, उस वचनातीत भेदज्ञानियोंके अनुभवगोचर परमात्मस्वरूपको जानो, नमस्कार करो, ध्यान करी, स्तुति गान करो ।' १. मोक्षपाहुड, गा० १०३ ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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