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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
अचरितार्थ बौद्धिक प्रवृत्तियोंको स्वप्नका कारण बताया है, वहाँ पौर्वात्य सिद्धान्तमें आत्माके चन्द्रमण्डलीय प्रतिबिम्बको कारण माना है। यह प्रतिबिम्ब सर्वदा, सबके लिये एक समान नहीं होता, बल्कि आत्माकी अशुद्ध अथवा विशुद्ध अवस्थाके अनुसार घटित होता है, यही स्वप्नकी सत्यासत्य अवस्थाओं के होनेका कारण है। दूसरी विशेषता पौर्वात्य और पाश्चात्य स्वप्नोंके फलमें अपनी-अपनी संस्कृतिकी भी है। इसी कारण कई स्वप्नोंके फल पाश्चात्य साहित्यमें स्वादिष्ट मांस भोजन, मदिरा सेवन, प्रेमिका संगम और तलाक आदि बताये गये हैं, लेकिन पौर्वात्य स्वप्नोंके फल में मांसादिका सेवन कहीं नहीं बताया है । संस्कृतिको भिन्नताके कारण स्वप्नोंके फल में जमीन आसमानका अन्तर पड़ गया है। एक ही वस्तु के दर्शनका फल दोनों सिद्धान्तोंके अनुसार पृथक्-पृथक् होगा, पाश्चात्य सिद्धान्तमें इस फल भिन्नताका कोई भी कारण नहीं बताया है, लेकिन भारतीय स्वप्न सिद्धान्त के अनुसार स्थान विशेषके कारण सौर-मण्डल में अक्षांश, देशान्तर वश अन्तर पड़ जाता है, अतः एक विदेशीका स्वप्न एक भारतीयके स्वप्नको अपेक्षा भिन्न फलदायक होगा। इच्छा अतृप्तिके सिद्धान्तानुसार स्वप्न निरर्थक होते हैं, पर सौर-मण्डलीय सिद्धान्तके अनुसार स्वप्न प्रायः सार्थक होते हैं । यहाँ प्रायः शब्दसे मेरा तात्पर्य यह है कि आत्माकी विशुद्ध और अशुद्ध अवस्थावश चन्द्रमण्डलमें पड़ने वाले प्रतिबिम्बमें हल्कापन और घनीभूतपन जितना अधिक या कम रहता है फलमें भी वैसी हीनाधिकता होती जाती है। प्रतिबिम्द जितना अधिक चंचल होता है, स्वप्न उतने ही अधिक निस्सार होते हैं । जिस आत्माका स्थिर प्रतिबिम्ब चन्द्रमण्डलपर पड़ता है उसके स्वप्नोंका फल सत्य निकलता है ।
स्वप्नोत्पादक कारणोंके अतिरिक्त कारण संख्या सम्बन्धी तीसरी विशेषता भी है । पाश्चात्य जगत् स्वप्नोत्पत्तिका एक कारण नहीं मानता, किन्तु विभिन्न वैज्ञानिकोंके मतानुसार कारणोंकी भिन्नता स्वीकार को गई है । लेकिन भारतीय साहित्यमें स्वप्नोत्पादक कारणोंकी भिन्नता नहीं है । प्रायः सभी विचारक एक ही निष्कर्षपर पहुँचते हैं। चौथी विशेषता दाशनिक दृष्टिसे आत्मतत्त्वके विषयमें विचार करनेके कारण चैतन्य और भौतिकवाद सम्बन्धी हैं। पाश्चात्य लोग स्वप्नोत्पत्तिका कारण भौतिक ही मानते हैं, तथा उसका फल भी भौतिक शरीरपर ही पड़ता है, अत: उसका संस्कार आगेके लिये नाम मात्रको भी शेष नहीं रहता है । लेकिन पौर्वात्य सिद्धान्त में आत्माकी अमरता मानी गई है, इसके साथ जन्मजन्मान्तरके संस्कार चलते रहते हैं। आत्मा भौतिकतासे परे ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्य स्वरूप है तथा संस्कार जड़ हैं किन्तु वे अनादिकालसे आत्मासे संबद्ध हैं, आत्मा और संस्कार इन दोनोंका आपसमें अति निकट संयोग है, पर स्वभाव-दृष्टिसे दोनों पृथक्-पृथक् हैं । इन्हीं
१. स्वप्ने यानि च पश्यन्ति तानि वक्ष्यामि सर्वदा । शिरोदये देवगृहं प्रासादादीन् प्रपश्यति ॥
पष्ठोदये दिनाधीशे विधौ मानुष्यदर्शनम् । मेषोदये दिनाधीशे ज्ञातदेहस्य दर्शनम् ।। वृषभस्योदयेऽर्कारौ व्याकुलान्मृतदर्शनम् । मिथुनस्योदये विप्रान् तपस्विवदनानि च । कुलीरस्योदये क्षेत्रं शस्यं दृष्ट्वा पुनर्गृहम् । तृणान्यादाय हस्ताम्यां गच्छन्तीति विनिर्दिशेत् ॥ सिंहोदये किरातञ्च महिषीं गिरिपन्नगम् । कन्योदयेऽपि चारूढे मुग्धस्त्रीकन्यकावधूः ।।
--ज्ञानप्रदीपिका पृ० ४४