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१८२ भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान चीजें, आदिके सम्बन्धमें अनेक बातें ज्ञात होती हैं"। स्मिथ और बूलरने भी जैन चित्रकलाकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "जैनी चित्रोंमें एक नैसर्गिक अंतःप्रवाह, गति, डोलन और भावनिदर्श विद्यमान है"।
निस्संदेह जैन चित्रकलाका ध्येय अत्यन्त व्यापक और उच्च है। जैनाचार्योंने अपने हाथोंसे जैनधर्मके सिद्धान्त और कथाओंको स्पष्ट करनेके लिये चित्रोंका निर्माण किया तथा जैन राजाओंने अपनी कलाप्रियताका परिचय देनेके लिये लक्ष्मीका सदुपयोग कर मन्दिरों, गुफाओं और ग्रन्थोंमें कुशल चित्रकारों द्वारा अपनी आम्नायके अनुसार चित्रोंका निर्माण कराया । इस प्रकार धर्मका आश्रय पाकर जैनचित्रकलामें आध्यात्मिक, नैतिक, सामाजिक और प्राकृतिक रहस्योंकी अभिव्यञ्जना की गयी।
चित्रकला मर्मज्ञोंने चित्रोंके विद्धचित्र, अविद्धचित्र, रसचित्र और धूलिचित्र ये चार विभाग किये हैं । विद्धचित्र-जिसमें बस्तुका साक्षात्कार होता है या उसकी आबेहूब प्रतिकृति होती है। ऐसे चित्र भित्ति', कागज, काष्ठ-पट्टिका आदिपर बनाये जाते हैं।
___ अविचित्र-जिसका विधान आकस्मिक कल्पनासे ही होता है । अविद्ध चित्रोंका सौन्दर्य उनके आकारमें माना जाता है । ऐसे चित्र कागजपर ही सुन्दर बन सकते हैं, दीवालोंपर इनका यथावत् अंकन आसानीसे नहीं किया जा सकता है ।
रसचित्र-जिनके दर्शन मात्रसे शृंगार आदि रसोंका ज्ञान हो जाता है, उन्हें रस चित्र कहते हैं। इसका उदाहरण नायाधम्मकथामें एक मनोरंजक आख्यायिकामें मिलता है। "मिथिला नरेश कुंभराजके पुत्र मल्लदिन्नने अपने लिये सुन्दर चित्रशाला बनवाई। उसकी दीवालोंपर एक कुशल चित्रकारने राजकुमारी मल्लिकाका केवल अंगूठा देखकर ही उसका पूरा और आबेहूब चित्र खींच दिया । राजकुमारने जब अपनी बड़ी बहनका चित्र चित्रशालामें देखा तब उसके मनमें चित्रकार और राजकुमारीके सम्बन्धमें संशय उत्पन्न हुआ और चित्रकारको प्राणदण्डकी आज्ञा दी। परन्तु जब उसे मालूम हुआ कि यह चित्रकारको अनुपम कारीगरीका परिणाम है तो उसकी कूची, रंगोंकी डिबिया आदिको तोड़-फोड़कर निर्वासित कर दिया । "५ जैन साहित्यमें इस प्रकारके रसचित्र या सादृश्य चित्रोंके अनेक उदाहरण मिलते हैं।
धुलिचित्र-जैनोंमें इस प्रकारके चित्रोंका प्राचीनकालसे लेकर आज तक रिवाज प्रचलित है। पूजा-पाठोंमें माड़ना पूरना, चौक पूरना एवं चावलके पुजों द्वारा साथिया या अन्य प्रकारके यंत्रोंका निर्माण करना इस चित्र प्रणालीमें गर्भित है। १. Smith, History of fine art in India and Ceylon p. 133
Percy Brown. Indian painting pp. 38, 51 २. एवं धवलिते भित्तौ दर्पणोदरसन्निधे ।।
फलकादौ पटादौ वा चित्रलेखनमारभेत् ।।-भारतीय चित्रकला पृ० ५ ३. आकस्मिके लिखामीति यदा तूद्दिश्य लिख्यते ।
आकारमात्रसम्पत्वे तदविद्धमिति स्मृतम् ।।-अभिलषितार्थ चिन्तामणि पृ० २८२ ४. शृंगारादि रसो यत्र दर्शनादेव गम्यते-शिल्परत्न । ५. देखें-भगवान् महावीरनो धर्मकथाओ पृ० २२५