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जैन साहित्यमें प्रतिपादित मगध जनपद
सोलह आर्य क्षेत्रोंमें मगध जनपदकी गणना की गयी है। प्राचीन सभ्यता और संस्कृतिको दृष्टिसे इस जनपदका स्थान महत्त्वपूर्ण हैं । इस जनपदने कई शतकों तक राजनीति और धर्मपर शासन किया है । श्रमण, आजीवक और वैदिक सम्प्रदायोंके संवर्द्धन, पोषण और जीवनदानके कार्य इस जनपद द्वारा होते रहे हैं। तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ, पार्श्वनाथ और महावीरकी प्रवृत्तियोंका यह प्रमुख केन्द्र रहा है। राजा बिम्बसार या श्रेणिक, अजातशत्रु नन्दवंशी राजा, सम्राट चन्द्रगुप्त, प्रियदर्शी राजा अशोक, सम्प्रति, शुगवंशका सेनानी पुष्यमित्र एवं गुप्तवंशके राजाओंने इस जनपदपर शताब्दियों तक शासन किया है ।
___ इस जनपद की सीमा उत्तरमें गंगा, दक्षिणमें शोण नदी, पूर्व में अंग एवं पश्चिममें सघन जंगलों तक व्याप्त थी । एक प्रकारसे आधुनिक दक्षिण विहार प्राचीन मगध जनपद था। गया, पटना, शाहाबाद तथा हजारीबाग, मुंगेर और भागलपुरके कुछ अंश मगधकी सीमाके अन्तर्गत थे । ऋग्वेदकी एक ऋचामें मगधको कीकट देश कहा गया है। यास्कने अपने निरुक्तमें "कीकटो नाम देशोऽनार्य निवासः3"-कीकट प्रदेशको अनार्योंका निवासस्थान बतलाया है । महाभारतमें इसकी सीमा पश्चिममें कर्मनाशा नदी और दक्षिणमें दमूद नदी तक बतलायी है। मगधकी उन्नति शिशुनाग वंशके राजा बिम्बसार-श्रेणिकके समयसे आरम्भ हुई और गुप्तकाल तक यह जनपद समृद्धिको प्राप्त होता रहा।
जैन साहित्यमें मगध जनपदको तीर्थ माना गया है। भरत चक्रवर्तीके दिग्विजय करनेके पश्चात् मगधके पवित्र जलसे उनका राज्याभिषेक किया गया था। आज भी गया, पुनःपुनः नदी, च्यवनाश्रम एवं राजगृह वनकी गणना पवित्र तीर्थों में की जाती है ।" मगध जनपदके निवासियोंको बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और कर्तव्यपरायण बतलाया गया है । क्रान्ति एवं नवीन विचारधाराको प्रमुखता देनेके कारण ही वैदिक साहित्यमें मगध जनपदको आर्य संस्कृतिसे बहिर्भूत माना गया है और वैदिक धर्म सूत्रोंमें इस जनपदको अवमानना की गयी है।
१. व्याख्या प्रज्ञप्ति १५; बौद्धोंके अंगुत्तर निकायमें अंग, मगध, काशी, कोशल, वज्जि,
मल्ल, चेदि, वंश, कुरु, पंचाल, मच्छ, सूरसेन, अस्सक, अवंति, गंधार और कम्बोज
देशोंके नाम आये हैं ।-अंगुत्तर निकाय १, ३ पृ० १९७ २. ऋग्वेद ३।५३।१४ ३. निरुक्त ६।३२ ४. स्थानांग ३।१४२; आवश्यकचूणि पृ० १८५; आवश्यक नियुक्तिभाष्य दीपिका ११०,
पृ० ९३ अ ५. कीकटेषु गया पुण्या नदी पुण्या पुनःपुनः ।
च्यवनाश्रमं पुण्यं पुण्यं राजगृहं वनम् ।।-हिन्दी विश्वकोश, भाग १६ पृ० ४३३ ६. व्यवहारभाष्य १०।१९२