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भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
वस्तुतः श्रमण साहित्यमें ही मगध जनपदको मध्यदेशकी सीमाके अन्तर्गत स्थान देकर उसे आर्यदेश बताया गया है। जैन लेखकोंने मगधके वैभव, समृद्धि, संस्कृति, और जन-जीवनका सजीव चित्रण कर इस जनपदको महत्त्व प्रदान किया है। प्राचीन समय में श्रमण संस्कृति और श्रमण विचारधाराके प्रसारका प्रमुख केन्द्र यही जनपद रहा है ।
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नगर और ग्राम
जैन वाङ्मयमें इस जनपदके अन्तर्गत राजगृह, नन्दपुर, कुसुमपुर, पाटलिपुत्र, नालन्दा, चणकपुर, कुसाग्रपुर, जयन्तपुर आदि अनेक बड़े नगरोंका और सुग्राम, शालिग्राम, कुम्भाग्राम, मोयाग्राम, फोल्लागसन्निवेश, जम्भिकग्राम, उदण्डपुर, गोबरग्राम, सुवर्णखल, जम्बूसण्डग्राम, वाणिज्यग्राम, सुमंगलाग्राम, सुवर्णग्राम, धन्यपुरग्राम, थूणागसन्निवेश, अचलग्राम आदि ग्रामोंका वर्णन आया है ।
भविष्य ब्रह्मखण्ड में मगध जनपदमें तीन हजार ग्रामोंका उल्लेख आया है, इनमें सात ग्राम मुख्य बतलाये गये हैं ।
मगधकी प्राचीन राजधानी गिरिब्रज अथवा राजगृह नगरी थी। इस नगरीकी समृद्धिका वर्णन समस्त जैन साहित्यमें पाया जाता है । राजगृहके क्षितिप्रतिष्ठ, चणकपुर, ऋषभ - पुर और कुशाग्रपुर नाम भी मिलते हैं। राजगृहमें गुणसिल, मण्डिकुच्छ और मोगरपाणि आदि अनेक चैत्य मन्दिर थे । गुणसिल चैत्य ही आधुनिक गुणावा है ।
राजगृह व्यापारका बड़ा केन्द्र था । यहाँसे तक्षशिला, प्रतिष्ठान, कपिलवस्तु, कुसीनगर आदि भारतके प्रसिद्ध नगरोंके जानेके मार्ग बने हुए थे । विविध तीर्थकल्पमें राजगृहमें छत्ती हजार गृहोंके होनेका उल्लेख है ।
पाटलिपुत्रको मगधकी राजधानी होनेका सौभाग्य नन्द और मौर्यवंशके राजाओंने प्रदान किया। बताया गया है कि कुणिकके परलोक गमनके पश्चात् उसका पुत्र उदायी चम्पाका शासक नियुक्त हुआ। वह अपने पिताके सभास्थान, क्रीड़ास्थान, शयनस्थान आदिको देखकर पूर्व स्मृतिके जाग्रत हो जानेसे उद्विग्न रहता था । इसने प्रधान अमात्योंकी अनुमतिसे नूतन नगर निर्माणार्थ प्रवीण नैमित्तिकोंको आदेश दिया । भ्रमण करते हुए वे गंगा तटपर आये । गुलाबी पुष्पोंसे सुसज्जित छवियुक्त पाटलिवृक्षोंको देखकर वे आश्चर्यचकित हुए । तरु की टहनीपर चाष नामक पक्षी मुँह खोले बैठा था । कीड़े स्वयं उसके मुँहमें आ पड़ते थे । इस घटनाको देखकर वे लोग सोचने लगे कि यहाँपर नगरका निर्माण होनेसे राजाको लक्ष्मीकी प्राप्ति होगी । फलतः उस स्थानपर नगरका निर्माण कराया, जिसका नाम पाटलिपुत्र रखा गया ।
पाटलिपुत्रका अन्य नाम कुसुमपुर भी मिलता है । विविध तीर्थकल्पमें कुसुमोंकी बहु
१. व्याख्या पण्णत्ति, पृ० ७३१; हरिवंशपुराण ३-५१-५७; धवल टीका प्रथम भाग पृ० ६१-६२, तिलोयपण्णत्ति ४।४४५ तथा १।६६-६७, पद्मचरित ३३ । २ तथा १।११३, महापुराण १।१९६; जम्बूस्वामी चरित ५ | १३, मुनिसुव्रत काव्य १।३७ - ५४ । २. विविध तीर्थकल्प पृ० ६७; समराइच्चकहा पृ० २७५ ।