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जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा
प्रमाणका प्रामाण्य किस प्रकार स्थिर किया जाता है'-(१) निर्दोष कारण समुदायके उत्पन्न होनेसे (२) बाधा रहित होनेसे (३) प्रवृत्ति सामथ्र्यसे अथवा (४) अविसंवादी होनेसे । प्रथम पक्ष असमीचीन है, क्योंकि कारणोंकी निर्दोषता किस प्रमाणसे जानी जायगी। प्रत्यक्ष और अनुमानादिसे निर्दोषता नहीं मानी जा सकती है । दूसरी बात यह है कि चक्षुरादि इन्द्रियां गुण और दोष दोनोंका आश्रय है, अतः इनसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानमें दोषोंकी आशंकाकी निवृत्ति नहीं हो सकती है। यदि दोष-निवृत्तिके हेतु अन्य प्रमाणको कारण माना जायगा तो अनवस्था और चक्रक दोषका प्रसंग आयेगा ।
द्वितीय पक्ष भी असमीचीन है । यतः बाधकोंकी उत्पत्तिके अभावमें प्रमाणता माननेपर मिथ्या ज्ञान भी कुछ समय तक प्रमाण हो सकता है। क्योंकि कभी-कभी बहत काल तक मिथ्या प्रतीतिमें भी बाधकोंकी उत्पत्ति नहीं होती। अतः बाधक उत्पत्ति रहित होनेसे प्र प्रामाण्य स्थिर नहीं माना जा सकता है । यदि सर्वदाके लिए बाधकका अभाव प्रामाण्यका कारण माना जाय, तो बाधकके अभावका निश्चय किस प्रकार होगा?
एक दूसरी बात यह भी है कि किसी एककी बाधाकी उत्पत्तिका अभाव प्रमाणताका कारण है अथवा सभीकी बाधाकी उत्पत्तिका अभाव प्रमाणताका कारण है। प्रथम विकल्प स्वीकार करनेपर विपर्यय ज्ञानमें भी किसी-किसीको बाधाकी उत्पत्ति नहीं होती । अतः वह भी प्रमाण हो जायगा। सभीकी बाधाकी उत्पत्तिका अभाव भी अर्थ ज्ञानमें प्रमाणताका कारण नहीं है । क्योंकि किसोको बाधाकी उत्पत्ति नहीं भी होती है। तथा सभीको बाधाकी उत्पत्ति नहीं होगी, इसे अल्पज्ञानी कैसे जान सकेगा ? ।
प्रवृत्ति-सामर्थ्य द्वारा भी प्रमाणके प्रामाण्यका निश्चय नहीं किया जा सकता। क्योंकि इसमें अनवस्था दोष आता है । हम पूछते हैं कि प्रवृत्ति-सामर्थ्य है क्या ? यदि फलके साथ सम्बन्ध होनेका नाम प्रवृत्ति-सामर्थ्य है तो बतलाइए वह सम्बन्ध ज्ञात होकर ज्ञानकी प्रमाणताका निश्चय कराता है या अज्ञात रहकर । अज्ञात रहकर तो वह ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चायक नहीं हो सकता है ? अन्यथा कोई भी अज्ञान किसीका भी निश्चायक हो जायगा। यह सार्वजनीन सिद्धान्त है कि अज्ञान ज्ञापक नहीं होता । यदि ज्ञात होकर ज्ञानके प्रामाण्यका निश्चायक है तो यह विकल्प उत्पन्न होता है कि उसका ज्ञान उसी प्रमाणसे होता है या अन्य प्रमाणसे । प्रथम पक्ष असत् है, अन्योन्याश्रय दोष उत्पन्न होनेके कारण । द्वितीय विकल्प माननेपर चक्रक दोष आता है।
__यदि सजातीय ज्ञानको उत्पन्न करनेका नाम प्रवृत्ति-सामर्थ्य माना जाय तो यह कथन भी भ्रामक है। अतः सजातीय ज्ञानको प्रमाणता का निश्चय प्रथम ज्ञानसे माननेपर अन्योन्याश्रय और अन्य प्रमाणसे माननेपर अनवस्थादोष आता है। इस प्रकार प्रमाणका लक्षण उत्पन्न न होने से प्रमेय तत्त्वकी सिद्धिका अभाव स्वतः हो जाता है । अत एव प्रमाण-प्रमेय सभी उपप्लुत-बाधित हैं।
१. किमदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यत्वेन, आहोस्विद्बाधा रहितत्वेन, प्रवृत्तिसामर्थ्येन, अन्यथा
वा ?-जयराशि-तत्त्वोपल्लवसिंह, ओरियन्टल इन्स्टीच्यूट, बड़ौदा, सन् १९४०, पृ० २