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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
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है | श्रवणबेलगोल गंध वाणावस्तिके अभिलेखसे विनयादित्यके कार्योंका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । बताया है
ततो द्वारवतीनाथा पोय्सला द्वीपिलाञ्छना । जाताश्शशपुरे तेषु विनयादित्यभूपतिः ॥ स श्रीवृद्धिकरं जगज्जनहितं कृत्वाधरां पालयन् श्वेतच्छत्र सहस्रपत्रकमले लक्ष्मीं चिरं वासयन् । दोर्दण्डे रिपुखण्डने कचतुरे वीरश्रियं नाटयन् चिक्षेपाखिलदिक्षु शिक्षितरिपुस्तेजः प्रशस्तोदयः ॥
मन्दिरोंका निर्माण
१०६२ ई०के एक विनयादित्यने मूल मत्तावर में स्थित
राजा विनयादित्य
अभिलेख से ज्ञात होता है कि विनयादित्यने अनेक सरोवरों और कराया था । हंसन जिलेके बेल्लूर हुगली के अन्तर्गत तोड्डुसे प्राप्त सन् त्रुटित अभिलेखमें बताया है कि उत्तरायण संक्रमणके पवित्र अवसरपर संघके जैनाचार्य अभयचन्द्रको भूमि दान दिया । चिक्कमंगलूर ताल्लुकाके पार्श्वनाथ वसदिसे प्राप्त सन् १०६९ ई० के अभिलेख में उत्कीर्णित है कि त्तावर आये और पहाड़पर स्थित वसदिके दर्शनार्थ गये । उन्होंने लोगोंसे पूछा कि अपने गाँव में मन्दिर न बनवा कर इस पहाड़ीपर क्यों बनवाया ? माणिक सेट्टीने उत्तर दिया" हमलोग निर्धन हैं । अत आपसे गाँवमें मन्दिर बनवानेकी प्रार्थना करते हैं, क्योंकि आपकी लक्ष्मीका पारावार नहीं है । माणिक सेट्ठीके इस उत्तरसे राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने मन्दिर के लिए भूमि लेकर मन्दिर बनवा दिया और उसकी व्यवस्थाके लिए नाडली ग्रामकी आय प्रदान की । उसने बसदिके पास में कुछ घर बनवानेकी भी आज्ञा दी । गाँवका नाम ऋषी हल्ली रखा गया और बहुतसे कर माफ कर दिये ।
विनयादित्य चालुक्यवंशके विक्रमादित्य षष्ठ का सामन्त था । उसके पुत्र और उत्तराधिकारी एरेयंगको चालुक्योंका दाहिना हाथ, यमका अवतार और मालवराजकी धारा नगरीका विध्वंसक कहा गया है । हले बेलगोलसे प्राप्त एक अभिलेख में होयसल नरेश विनयादित्यकी कीर्तिका वर्णन आया है । साथ ही कल्वप्यु पर्वतकी वस्तियों के जीर्णोद्धार तथा आहारदान आदि के लिए अपने गुरु मूलसंघ देशीयगण कुन्दकुन्दान्वयके देवेन्द्र सैद्धान्तिक और चतुर्मुख देवके शिष्य गोपनन्दि पण्डित देवको राचनहल्लके दान दिये जानेका उल्लेख है । अभिलेख में बताया है कि विनयादित्य चूड़ामणि सम्यक्त्व चूड़ामणि था और उसने जैनधर्मके उत्थानके लिए जीर्णोद्धार, मन्दिर व्यवस्था हेतु ग्रामदान आदि कार्य किये थे ।
एरेद मनुजंगे सुरभूमिरुहं शरणेन्दवंगे कुलिशागारं । परबनितेगनिलतनेयं धुरदोल्पोणदंगेमिर्त्तु विनयादित्यं ॥
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१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख संख्या ५६, पृ० १२४ २. मिडीयेबल जेनिज्म, पृ० ७५ तथा दक्षिण भारतमें जैनधर्म, पृ० १०६