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महान् ज्योतिर्विद् श्रीधराचार्य
काशी विद्यापीठसे प्रकाशित अभिनन्दन ग्रंथ में विद्वद्वर श्रीबलदेव मिश्रका एक निबन्ध गणितज्ञ श्रीधराचार्य के सम्बन्धमें प्रकाशित है, जिसमें इन्होंने उक्त आचार्यको जैनेतर उत्तर भारतका निवासी बतलाया है । लेकिन श्रीधराचार्यकी प्राप्त रचनाओं एवं उनके सम्बन्धमें उपलब्ध उल्लेखोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह आचार्य दक्षिण कर्णाटक निवासी जैन मतानुयायी थे । इनका प्रसिद्ध गणितका ग्रन्थ गणितसार या त्रिशतिका है, जिसका सम्पादन महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदीने किया है ।
कुछ दिन पहले भारतीय ज्ञानपीठ काशीकी कर्णाटक शाखा मूडबिद्रीकी ओरसे कर्णाटक प्रान्तके जैन ग्रन्थालयोंके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सविवरण ग्रन्थ सूची तैयार की गई थी । इसी अन्वेषणमें अनेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं कन्नड़के अप्रकाशित जैन ग्रन्थ दृष्टिमें आये । इन्हीं ग्रन्थों में कन्नड़ लिपिमें लिखित श्रीधराचार्य के गणितसार या त्रिशतिकाकी भी एक पुरानी प्रति मिली है । इस प्रति में ४५१ ताड़पत्र हैं, प्रति पत्रमें ६ पंक्तियां और प्रति पंक्ति में ८५ अक्षर हैं । इस प्रतिको देखनेसे मालूम होता है कि प्रस्तुत गणितसार या त्रिशतिका का मंगलाचरण मुद्रित प्रतिमें बदल कर छापा गया है ।
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प्राप्त हुई हस्तलिखित प्रतिका मंगलाचरण निम्न प्रकार हैनत्वा जिनं स्वविरचितपाट्या गणितस्य सारमुद्धृत्य । लोकव्यवहाराय प्रवक्ष्यति श्रीधराचार्यः ॥
मुद्रित प्रतिका मंगलाचरण
नत्वा शिवं स्वविरचितपाट्या गणितस्य सारमुद्धृत्य । लोकव्यवहाराय प्रवक्ष्यति श्रीधराचार्यः ॥
उपर्युक्त मंगलश्लोक में 'जिन' के स्थानपर 'शिव' लिखा गया है। यह मंगलाचरण बदलने की प्रथा केवल इसी ग्रन्थ तक सीमित नहीं है, किन्तु और भी कई लोकोपयोग जैन ज्योतिष एवं आयुर्वेद ग्रन्थोंमें मिलती है । क्योंकि ज्योतिष और आयुर्वेद ये दोनों विषय सर्व साधारण के लिये एक सरीखे ही हैं; इसलिये किसी मत या सम्प्रदाय में दो-एक बातोंको छोड़ अन्य बातोंमें समानता ही पायी जाती है । मानसागरी जिसका कि ज्योतिर्विदों की मण्डलीमें खूब प्रचार है, जैन ग्रन्थ है ऐसी कोई बात नहीं है कि उपयोगी ज्योतिष या वैद्यकके जैन ग्रन्थोंको जैनेतरोंने अपनानेसे इंकार किया हो; बल्कि अन्वेषण करनेपर प्रमाण मिलते हैं कि अनेक ज्योतिषके ग्रन्थोंका पठन-पाठन सर्व साधारणमें बिना किसी भेद-भाव के प्रचलित था । मानसागरीके जैन होनेको उसके विद्वान्, उदारचेता सम्पादकने भूमिकामें स्वयं स्वीकार किया है
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१. देखें - जैन सिद्धान्त - भास्कर भाग १२, किरण २, १०११३ ॥
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