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३५८
यथा
क १
ख = २
ग = ३
६ = ४
ङ = ५
य - १
र-२
ल = ३
व - ४
भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मयका अवदान
च - ६
ट - १
त - ६
छ = ७
ठ - २
थ = ७
ज = ८
र=३
द = ८
झ - ९
ढ =४
घ - ९
ण = ५
न ०
अ = ०
आ = ०
8=0
श = ५
ष = ६
स = ७
ह = ८
इ=०
ई = ०
3=0
ऊ = ०
ए = ०
<=0
अं = ०
अ: = ०
ओ = ०
ओ
=0
तललीनमधुगविमलं धूमसिलागाविचारभयमेरू । तटहरिखझसा होंति हु भाणुसपञ्जत्तसंखंका |
प - १
फ = २
ब - ३
भ -४
म = ५
गाथा १५७ जीवकाण्ड
उपर्युक्त अक्षर क्रमानुसार संख्याका विचार करनेपर पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ आती है ।
गोम्मटसार जीवकाण्डकी श्रुतमार्गणामें अजों और पूर्वोकी पदसंख्या भी उक्त अक्षर क्रमसे fleanी गयी है ।
शब्दसंकेतों द्वारा संख्याको अभिव्यंजना नामाङ्क और शब्दाङ्कोंके व्यवहारसे की है । किसी वस्तु या व्यक्तिका नाम ही संख्या प्रकट करता है। अपने वर्ग में वस्तु या व्यक्तिकी जो संख्या होती है, उसी संख्याका वाचक वह नाम माना जाता है। जैसे तीर्थकुर चौबीस होते हैं, इनमें चन्द्रप्रभका आठवां ओर पार्श्वनाथका तेईसव क्रम है, अतः चन्द्रप्रभसे ८ और पार्श्वनाथसे २३ संख्या ग्रहणकी जाती है ।
कतिपय पदार्थोंमें उनकी गिनती के आधारपर उन पदार्थोंके वाचक शब्दों द्वारा संख्याएं सूचित की हैं । जैसे द्रव्य शब्दसे ६, तत्त्वने ७, जिनसे २४ एवं गुणस्थानसे १४ की संख्या ग्रहण की गयी है । यह यहाँ स्मरणीय है कि इस प्रकारको संख्या अभिव्यंजनामें पारिभाषिक शब्दावलीको ही स्वीकृत किया है ।
स्थानमान और उसकी अभिव्यंजना
इकाई, दहाई आदि क्रमानुसार स्थानके मानके आधारपर संख्याओंको अभिव्यक्त करना, उनका स्थानमान कहा जाता है । गणितसार संग्रह में महावीराचार्यने चौबीस स्थान पर्यन्त संख्याओं के मानका प्रतिपादन किया है । यथा
पहला स्थान एक (इकाई), दूसरा दश ( दहाई), तीसरा शत, चौथा सहस्र, पाँचव दश सहस्र, छठा लक्ष (लाख), सात दस- लक्ष ( दस लाख), आठवां कोटि, नौवाँ दश-कोटि (दस करोड़), दसवाँ शतकोटि (सौ करोड़), ग्यारहवाँ अरबुद ( अरब), बारहवाँ म्यबुर्द ( दस अरब ) तेरहवाँ सर्व ( खरब), चौदहवाँ महाखर्व (दस खरब), पन्द्रहवां पदम, सोलहवाँ महापक्रम (वस