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भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
वाद्य ध्वनि का प्रयोग अनेक प्रकार से होता था । मंगल अवसरों पर वाद्य ध्वनि होती थी, जिससे हर्ष और आनन्दका संचार किया जाता था । युद्धके अवसरपर की जाने वाली air soft सैनिकों में वीरताका संचार करती थी । हम्मीर काव्यमें बताया गया है कि गोरीने' वाद्य बजाने वालों को घूस देकर विपरीत वाद्य बजाने को कहा । इस विपरीत ध्वनिको सुनकर हम्मीर देव घोड़े नृत्य करने लगे । वीरताकी अपेक्षा उनमें शृंगार और ललित रसका संचार हो गया था।
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पार्श्वनाथ चरित में वादिराजने वल्लकी, पटह, उल्लेख किया है | महाकवि असगने अपने वर्धमान चरितमें है । इस दोनों वाद्यों का प्रयोग प्रातःकाल अथवा मंगलोत्सव के अवसर पर हो होता था ।
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वेणु, " वीणा की मधुर ध्वनियोंका तूर्य और शंखको मंगल वाद्य कहा
धर्मशर्माभ्युदय' में बताया गया है कि मृदंग और झल्लरीकी मंगल ध्वनिके बीच धर्मनाथ का अभिषेक सम्पन्न हुआ । संगीत्त प्रारम्भ होनेके पूर्व मृदंग ध्वनिका होना आवश्यक माना गया है । वाद्य वाद्य-समूह के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसकी गणना प्रातःकालीन मंगल सूचक वाद्यों में की गयी । बन्दीजन, शयन गृहके द्वारपर स्थित होकर तूर्य वाद्य द्वारा मधुर संगीतसे राजाओं की निद्राको दूर करते थे ।
जयशेखरसूरिने जैनकुमारसम्भव [ ७।७२ ] में वीणाका उल्लेख किया है । इस काव्य के संस्कृत टीकाकार धर्मशेखरने नकुलोष्ठी, किन्नरी, शततन्त्री, जया, हस्तिका, कुब्जिका, कच्छपी, घोषवती, सारंगी, उदुम्बरी, तिसरी, ढिबरी, परिवादिनी और आलाविणी-इन चौदह प्रकारकी वीणाओंका नाम निर्देश किया है। वीणाओंके इस निर्देश से यह ध्वनित होता है कि प्राचीन भारत में वीणा वाद्य प्रमुख था । महाकवि हरिचन्द्र, वीरनन्दि, धनञ्जय आदिके उल्लेखोंसे भी यह स्पष्ट है कि वीणा वादन द्वारा विभिन्न प्रकारके स्वरों की लहरोंसे राग-रागिनियाँ उत्पन्न की जाती थीं । तानपूरा और सितार इन्हीं वीणा-भेदों के अन्तर्गत समाविष्ट थे । धर्मशेखरने वीणाके विभिन्न अंगोंका भी कथन किया है । तुम्बा, तबली, घुरच, कील, डाँड, गुल, अटी, खूंटियाँ, शिरा, मनका, तार आदिका भी कथन आया है ।
गानेवाली स्त्रीको साधित स्वर गुणवाली कहा गया है। टीकाकारने साधित स्वर गुण की व्याख्या करते हुए सात स्वर, तोन ग्राम, २१ मूर्च्छना और ४९ तानका गीतमें रहना माधुर्य सूचक माना है । सुस्वरा, सुताल, सुपद, शुद्ध, ललित, सुबद्ध, सुप्रमेय, सुराग, सुरम्य, सम, सदर्थ, सुग्रह, हृष्ट, सुकाव्य, सुयमक, सुरक्त, सम्पूर्ण, सालंकार, सुभाषा, भव्य, सुसन्धि, व्युत्पन्न, गम्भीर, स्फुट, सुप्रभ, अग्राम्य, कुंचित कम्पित, समायात, ओज, प्रसन्न, स्थिर, सुख स्थानक, हृत, मध्य, विलम्बित, द्रुत बिलम्बित, गुरुत्व, प्राञ्जलत्व और उक्त प्रमाण ये ३६ गीत गुण बतलाये हैं ।
१. हम्मीर काव्य - नयचन्द्र, ३।५४,
३. वादिराज कवि, पार्श्वनाथ चरित, ९।८४,
५. वही, ११।३३,
७. वर्धमान चरित, ६ |३७|
९.
वही, १७६,
२. वही, ३।५९-६०
४. वही १० ६९,
६. वही, ११।३३
८. धर्मशर्माभ्युदय - ८ ४५,
१० चन्द्रप्रभचरित १० । ६२