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भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ
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पद्मानन्द काव्यमें सप्तस्वरोंका बहुत सुन्दर निरूपण किया गया है। बताया है कि मयूरकी ध्वनि के समान षड्ज स्वर, बकरीकी ध्वनिके समान कोमल गान्धारर
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गान, क्रौंचपक्षी hot saf समान मध्यम स्वर, वसन्तके समय कोकिलाके गानके समान पंचम स्वर, घोड़ेके हींसने की ध्वनिके समान मनोरम धैवत" स्वर, हथिनीको काम-विह्नल करनेके समय हाथी द्वारा की जाने वाली मनोरम चिंघाड़े ध्वनिके समान निषाद स्वर और गाय या वृषभकी डकारके समान ऋषभ स्वर होता है । इन सप्त स्वरोंका आरोह-अवरोह मनोरम और मधुर संगीतका सृजन करता है । इसी काव्यमें बताया है कि वीणादि वाद्यों से तत ध्वनि, तालादिसे घन ध्वनि, वंशादिसे सुषिर ध्वनि और मूर्जादिकसे आनन्द ध्वनि उत्पन्न होती है ।
गीतके नियमों का वर्णन करते हुए पद्मानन्द काव्यके लेखक अमरचन्द्रने बताया है कि गीत आदिमें नकार, मध्य में घकार और अन्तमें हकारका निषेध है । आदिमें नकारके रहनेसे गायक और श्रोताका सर्वस्व नष्ट हो जाता है । मध्यमें घकारका प्रयोग रहनेसे घात होता है और अन्त में हकारके रहनेसे लक्ष्मीका विनाश होता हैं । लिखा है
उद्गानादौ नकारो न मध्ये धकार एव च । अन्ते हकारो नाकार्यस्त्रयो गीतस्य वैरिणः ॥
गाने के समय एकाग्रचित्त होना आवश्यक माना गया है। कण्ठका कोमल होना एवं मूर्च्छना के समय दृष्टिका संकोचन और गलेमें लोच रहना माधुर्य गुणका अभिव्यंजक है । वाद्य और नृत्यके संयोगका चित्रण अनेक स्थलोंपर आया है। महाकवि धनञ्जयने लिखा है - " मंगलके लिए बजाये गये पटह आदि वाद्य जोर-जोर से बजने लगे । वेश्याओंके झुण्डके झुण्ड राजमहलपर आकर नृत्य करने लगे । नृत्योंके आचार्य नट, गायनाचार्य तथा अभिनयाचार्योंके कुशल वंशधर आकर मंगल पाठ कर रहे थे ।" स्पष्ट है कि वाद्य पूर्वक नृत्य सम्पन्न होता था । वाद्योंकी ध्वनि के आधारपर ही पद ध्वनिका संचालन किया जाता था । वादिराजने गीत, नृत्य और वाद्यका उल्लेख करते हुए बतलाया है - " गोपियाँ सुन्दर वेणुओंके शब्दोंसे प्रतिध्वनित कोमल मधुर गीत गाने लगीं और हर्ष विभोर होकर नृत्य करने लगीं ।" हम्मीर काव्यमें धारा देवीके मयूर नृत्यका वर्णन आया है । वर्धमान चरितमें अलसायी हुई वधुओंके नृत्यका निर्देश है । पद्मानन्द काव्य में हल्लीसक— हेलया लक्ष्यते नृत्यतेऽस्मिन्निति हल्लीसकं—स्त्रीणां मण्डलेन नृत्यम्—अर्थात् स्त्रियाँ मण्डलाकार रूपमें जो नृत्य करती हैं, का कथन किया है। लास्य नृत्यका कथन भी इसी पद्य में है । गाते हुए नृत्य करनेका निर्देश जैन कुमारसम्भवमें आया हैं—
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२. वही ८।६१, ४. वही ८।६३
१. पद्मानन्द ८७,
३. वही ८६२,
५. वही ८।६४,
७. वही ८।६६
९. पार्श्वनाथ चरित ४। १३४- १३५
१०. पद्मानन्द - ९।१०२
६. वही, ८।६५,
८. द्विसन्धानकाव्य, ४।२२ तथा ४।२४