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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१५१ श्री डॉ. त्रिभुवनदासजीने स्तूपोंके निर्माणका कारण बताया है कि भगवान् महावीर स्वामीके निर्वाणके अनन्तर उनके पट्टधर आचार्य या अन्य प्रमुख जैनधर्मके प्रचारक श्रावक, जिन्होंने समाधिमरण धारण किया था; के अग्नि संस्कार करके उत्पन्न हुए भस्मको सुरक्षित रखनेके लिये इन स्तूपोंका निर्माण सम्राट् सम्प्रति उर्फ प्रियदर्शिनने कराया था। इसी कारण इन स्तूपोंको भस्म करण्डक कहा गया है। अथवा यह भी सम्भव है कि महावीरके अनन्तर हुए जैनाचार्योंके समाधिस्थानपर उनकी भस्मको सुरक्षित रखने के लिये स्तूपोंका निर्माण कराया गया हो । मेरा अनुमान है कि चौबीस तीर्थंकरोंके पञ्चकल्याणक स्थानोंपर सम्प्रतिने स्तूपोंका निर्माण कराया था। यद्यपि मेरे अनुमानकी पुष्टि अन्य प्रभाणोंसे नहीं होती है फिर भी अब तक जो स्तूपोंके ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं, उनसे उक्त अनुमानको पर्याप्त बल मिलता है।
वर्तमान राजमुद्रा और सिंहस्तम्भ
वर्तमान राजमुद्रा, जिसे भारत सरकारने अशोककी मुद्रा मानकर स्वीकार किया है, वास्तवमें सम्राट् सम्प्रतिकी है। सम्राट् सम्प्रति उर्फ प्रियदर्शिनने सारनाथमें जो स्तम्भ खड़ा किया था, उसपर तीन सिंहोंकी मूत्तियाँ, सिंहोंके नीचे धर्मचक्र तथा इसके दाईं, बाई ओर बैल और घोड़ेको मूत्तियाँ अंकित करायी है। इस मुद्राके सभी प्रतीकोंका जैन संस्कृतिसे सम्बन्ध है। सिंह अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरका लांछन था, अतः अन्तिम तीर्थकरकी स्मृतिकी लिये सिंहकी मूत्तियोंको अपनाया था। इन मूत्तियोंका सन्निवेश भी जैन संस्कृतिके प्रतीकोंके अनुसार किया गया है। बीचवाला सिंह सम्यग्दर्शनका प्रतीक है तथा अगलबगलके सिंह, जिनका विरुद्ध दिशाओंकी ओर मुख है; सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके प्रतीक हैं।
धर्मचक्रके दाई, बाईं ओर रहनेवाले बैल और घोड़ेका सम्बन्ध जैनप्रतीकोंसे है । बैल इस कालके प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवका लांछन है तथा घोड़ा तृतीय तीर्थङ्कर संभवनाथका लांछन है; सम्राट् सम्प्रतिने द्वितीय तीर्थङ्कर अजितनाथके चिह्न हाथीका प्रयोग इसलिये नहीं किया कि उसने शिलालेखोंमें हाथीका प्रयोग किया था। अतः प्रथम और तृतीय तीर्थङ्करके चिह्नोंको अंकित कर अपनी धर्मभावनाका परिचय दिया।
धर्मचक्रको बौद्ध संस्कृतिसे प्रभावित इतिहासकार बौद्धाम्नायकी मौलिक देन मानते हैं, परन्तु वास्तविकता कुछ और है। यह जैन प्रतीक है, प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवने तक्षशिलामें इसका प्रवर्तन किया था। यदि यह बौद्ध परम्पराका प्रतीक होता तो प्राचीन पाली साहित्यमें इसको अवश्य महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता । प्राचीन जैनागममें जो कि निश्चय बौद्धागमसे प्राचीन हैं, धर्मचक्रका उल्लेख मिलता है तथा योजन प्रमाण सुविस्तृत सर्वरत्नमय धर्मचक्रकी पूजा किये जानेका कथन वर्तमान है। धर्मचक्र प्राचीन जैन मूत्तियोंपर भी अंकित मिलता है । कुषाणकालसे लेकर मध्य काल तककी जैन प्रतिमाओंके नीचे धर्मचक्रका चिह्न अवश्य रहा है । मुगल कालमें धातु प्रतिमाएं भी छोटी बनने लगी थीं, जिससे इस सांस्कृतिक चिह्नको प्रतिमा निर्माता भूल गये। पटना म्यूजियममें एक धातुका सुन्दर धर्मचक्र वर्तमान है, जो