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प्रमेयरत्नमाला की टीकाएँ
जैन न्यायशास्त्रमें प्रमेयरत्नमालाका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य माणिक्यनन्दीने 'परीक्षामुखम्' में गागरमें सागर भर देनेकी कहावत चरितार्थ की है। इस सूत्र ग्रन्थ पर अद्यावधि अनेक टीकाएं लिखी गयी हैं । यशस्वी तार्किक अनन्तवीर्यने प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोंका सार लेकर 'परीक्षामुखम्' पर प्रमेयरत्नमाला नामक टीका लिखी है; इस टीकापर श्रवणबेलगोला गद्दीके पट्टाधीशोंने कई टीकाएँ लिखी हैं, जो स्वतन्त्र ग्रन्थ बन गयी हैं। इन समस्त टीकाओंका रचनाकाल १६ वीं शतीसे १८ वीं शती तक माना गया है ।
प्रमेयरत्नमालामें प्रमाण, प्रमेयका विस्तृत विवेचन है । प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे गम्भीर , ग्रन्थोंके अध्ययनके लिए जिनके पास समय और शक्ति नहीं है, वे इस लघुग्रन्थके अध्ययनसे जैन न्यायके तथ्योंको अवगत कर सकते हैं । इस ग्रन्थमें छः उद्देश्य हैं। प्रथय उद्देश्यमें प्रमाणका स्वरूप, उसकी निर्दोषता, उत्पत्ति, ज्ञप्ति एवं प्रमाणता प्रभृतिका निरूपण अन्यमतोंके निराकरणपूर्वक किया गया है। इस रचनाकी शैली तार्किक है, मीमांसात्मक विवेचनपद्धति द्वारा पूर्वाचार्योंके सिद्धान्तोंका समर्थन किया है। जैन न्यायके व्यवस्थापक आचार्य अकलंकदेव द्वारा प्रतिपादित स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानको ही प्रमाण सिद्ध किया है। यह ज्ञान प्रदीपको तरह स्वपर प्रकाशक है, अपने आप प्रत्यक्षरूपसे भासित होता है और अन्य घटपटादि पदार्थोंको प्रतिभासित करता है।
दूसरे परिच्छेदमें प्रमाणोंका वर्गीकरण किया गया है । मूलतः प्रमाणके दो भेद हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्षज्ञान इन्द्रिय निरपेक्ष विशिष्ट आत्म शक्तिसे उत्पन्न होता है और परोक्षज्ञान ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयोपशम होनेपर विषयेन्द्रिय सन्निपातसे । यों तो आत्मशक्ति दोनों ही प्रकारके ज्ञानोंकी उत्पत्तिमें सहायक है, पर परोक्षमें इन्द्रियोंकी सहायता अपेक्षित है
और प्रत्यक्षमें नहीं। आचार्य अनन्तवीर्यने इस द्वितीय परिच्छेदमें "प्रत्यक्षतरभेदात्" सूत्रकी व्याख्यामें प्रत्यक्षक प्रमाणवादी चार्वाकके प्रति अनुमानकी सिद्धि; प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणवादी बौद्धके प्रति प्रत्यभिज्ञानकी सिद्धिः तीन प्रमाणवादी सांख्यके प्रति तर्ककी सिद्धि एवं दो प्रमाणवादी वैशेषिक, चार प्रमाणवादी नैयायिक और छः प्रमाणवादी मीमांसकके प्रति स्मृति तथा प्रत्यभिज्ञानको सिद्धि कर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणोंको स्थापना की है।
विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है। प्रत्यक्षके सांव्यावहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद हैं। इन्द्रिय और मनके निमित्तसे जो एकदेश विशदज्ञान होता है, उसे सांव्यावहारिक' और इन्द्रियोंके साहाय्य बिना केवल आत्मासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे पारमार्थिक या मुख्य
१. समीचीनः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो व्यवहारः तत्र भवं सांव्यावहारिकम् । भूवः किंभूतमिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् । इन्द्रियं चक्षुरादिः, अनिन्द्रियम् मनः, ते निमित्तं कारणं यस्य । समस्तं व्यस्तं च कारणमभ्युपगन्तव्यम् । इन्द्रियप्राधान्यादनिन्द्रियबलाधानादुपजातमिन्द्रियप्रत्यक्षम्, अनिन्द्रियादेव विशुद्धिसव्यपेक्षादुपजायमानमनिन्द्रियप्रत्यक्षम्- प्रमेयरत्नमाला-पृ०४