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जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति
१०३ ची प्रतिमा निकली है तथा और भी अनेक जैन मूर्तियाँ वहाँपर विद्यमान हैं। सुनने में आया ग कि ब्र० गुमानीलालको शासन देवताने स्वप्नमें मूत्तियोंकी बात कही थी; उन ब्रह्मचारी जीके कहनेपर ही वहाँकी समाजने उस बीहड़ जंगलमें खुदाई की जिसमें अनेक प्रतिमाएं निकलीं। रतिवर्ष अब यहाँपर वार्षिक मेला भी लगता है । खुदाई करनेपर अभी और भी मूर्तियाँ तथा जैन संस्कृतिकी अन्य वस्तुएँ निकल सकती हैं। पुरातत्त्वज्ञोंने जंगलमें पड़ी हुई जैन मूत्तिको देखकर ग्वालियरकी रिपोर्ट में लिखा है कि यह मूत्ति आजसे कम-से-कम एक हजार वर्ष पहलेको अवश्य है।
(२) कवि वृन्दावन कृत सतसई-सप्तशती कविवर वृन्दावनजी प्रतिभाशाली कवि थे, इनका जन्म सं० १८४८में शाहाबाद जिलेके बारा नामक गाँवमें गोयल गोत्रीय अग्रवाल कुलमें हुआ था। इनके पिताका नाम धर्मचन्द और माताका नाम सिताबी था। इन्होंने चौबीस पाठ, वृंदावन विलास, प्रवचनसार टीका, तीसचौबीसी-पूजा-पाठ आदि ग्रंथ लिखे हैं। जैनसिद्धान्त भवन, आरामें उक्त कविवरकी एक सतसई है; इसमें ७०० दोहे हैं । इस ग्रंथके अन्तमें प्रशस्ति दी गई है :
इति वृन्दावनजी कृत सतसइया चैत्र कृष्ण १५ संवत १९५३ गुरुवार आठ बजे रात्रिको आरामपुरमें बाबू अजितदासके पुत्र हरीदासने लिखकर पूर्ण किया सो जैवंत होहु शुभं शुभं शुभं ॥
अत : कविवरके पौत्र द्वारा लिखित इसको प्रामाणिक मानना चाहिये। किन्तु इसके भीतर ऐसे भी अनेक दोहे हैं, जो कविवरके पूर्वकालीन गिरधर, विहारी, रहीम, तुलसी आदिके नामसे प्रसिद्ध हैं। पता नहीं सतसईके भीतर ये दोहे कैसे आगये ? ग्रंथका प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है :
श्रीगुरनाथ प्रसाद तें, होय मनोरथ सिद्ध । वर्षा तैं ज्यो तरुवेलिदल, फूलफलन की वृद्धि । किये बृन्द प्रस्तावको, दोहा सुगम बनाय । उक्त अर्थ दिष्टान्त करि, दिढ़ कर दिये बताय ॥१॥ भाव सरल समझत सबै, भले लगे हिय आय । जैसे अवसरको कही, वानी सुनत सुहाय ॥३।। नीकीहु फीकी लगे, विन अवसरकी बात ।
जैसे वरनत युद्धमें, रस सिंगार न सुहात ।। इनकी यह सतसई विहारीके समान शृंगारिक कृति नहीं है, प्रत्युत नीति और वैराग्यसे ओत-प्रोत है । इनकी यह रचना जनहिताय ही हुई है, मानवके चरित्रको विकसित करना ही इनका ध्येय रहा है । लौकिक ज्ञान समाजको प्रदानकर उसे व्यवहार कुशल और संयमित बनानेका प्रयत्न कविका है । वास्तवमें साहित्य क्षेत्रमें नीति काव्योंका स्थान भी उतना ही ऊँचा और श्रेल है जितना शृंगारिक रचनाओंका। इस रचनामें कविने सहृदय मानव समाजमें भावोंकी