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अन्तर्ध्वनि
स्व० डॉ० श्री नेमिचन्द्रजी शास्त्री चतुर्मुखी प्रतिभाके धनी थे । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, बंग्रेजी आदि विविध भाषाओंपर आपका अधिकार था। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी होनेके कारण आप प्रत्येक विषयके तलस्पर्शी विद्वान् थे । लेखन और वक्तृत्व कलाके पारगामी थे। साहित्य सृजनका आपको व्यसन था । अवकाशका दुरुपयोग आपने कभी नहीं किया। साहित्य सृजन और सहयोगियोंको आगे बढ़ाना आपके जीवनका लक्ष्य था।
___ 'गुरु गोपालदास बरैया स्मृतिग्रन्थ' और 'तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा' जैसे विशाल ग्रन्थ तैयारकर आपने प्रकाशनार्थ अखिल भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद्को दिये। विद्वत्परिषद्के प्रति उनकी आत्मीयता थी। यही कारण है कि वे उसके गौरवको बढ़ाने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहे।
विद्वत्परिषद्ने उनको स्मृति में 'डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री स्मारक निधि' की स्थापनाकर उसमें २५००१) की राशि समर्पित की । उसी स्मारक निधिकी ओरसे सन् १९८२ में 'भारतीय संस्कृतिके विकास में जैन वाङ्मयका अवदान, का प्रथम भाग प्रकाशित किया था । और उसके बाद उसीका दूसरा भाग प्रकाशित किया जा रहा है । इन खोजपूर्ण निबन्धोंका संकलन प्रत्येक थोषार्थी छात्रके लिये मार्गदर्शक होगा, यह मेरा विश्वास है ।
इन दोनों भागोंके प्रकाशनमें मंहगाईके कारण विद्वत्परिषद्को आर्थिक संकटका अनुभव करना पड़ रहा है । यदि समाजके उदारमना दानी महानुभाव, स्व. डॉक्टर नेमिचन्द्रजी शास्त्री की इस महनीय कृतिको देशके विश्वविद्यालयों और लायबेरियोंको भेंट स्वरूप भिजवानेकी अनुकम्पा करें तथा विद्वत्परिषद्के क्रियाशील ७०० से भी अधिक सदस्य अपने-अपने शिक्षा केन्द्रों में एक-एक प्रति बुलानेका कष्ट करें तो यह आर्थिक संकट सरलतासे दूर हो सकता है और प्रत्यावृत्त अर्थराशिसे अन्य ग्रन्थ प्रकाशित हो सकते हैं ।
दिवंगत डॉ. नेमिचन्द्रजी शास्त्रीकी श्रुताराधनाके प्रति श्रद्धाभाव प्रकट करता हुआ थाकांक्षा करता हूँ कि उनकी यह रचना भी सर्वत्र रुचिपूर्वक पढ़ी जावेगी।
विनीत सागर
पन्नालाल साहित्याचार्य ।६।१९८३
अध्यक्ष. अ. भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद्