________________
१७८
भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
शान्तप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारदृक् । सम्पूर्णभावरूरूऽनुविद्धांगं लक्षणान्वितम् ॥ रौद्रादिदोषनिर्मुक्तं प्रातिहार्यांकयक्षयुक् । निर्माय विधिना पीठे जिनबिम्बं निवेशयेत्' ॥
अर्थात् —– शान्त, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासाग्र अविकारी दृष्टिवाली, अनुपमवर्ण, वीतरागी, शुभ लक्षणोंसे सहित, रौद्र आदि बारह दोषोंसे रहित, अशोक वृक्ष आदि आठ प्रतिहा युक्त, और दोनों तरफ यक्ष-यक्षिणियोंसे सहित जिन प्रतिमाको विधिपूर्वक सिंहासनपर विराजमान करना चाहिये । प्रतिमा बनानेवाले शिल्पी को जिन प्रतिमामें वीतराग दृष्टि, सौम्य आकृति और निस्खलता अनिवार्यतः रखनी चाहिये ।
वराहमिहिर ने भी जिन प्रतिमाका लक्षण बतलाते हुए कहा है
आजानु' लम्बबाहुः श्रीवत्साङ्कः प्रशान्तमूत्तिश्च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽर्हतां देवः ॥
अर्थात् अर्हन्तकी मूर्ति प्रशान्त, श्रीवत्स चिन्हसे अंकित, तरुण, लम्बी भुजावाली और नग्न होती है ।
अतएव स्पष्ट है कि जैनमूत्तियोंके निर्माणके सम्बन्धमें केवल जैन ग्रन्थकारोंने ही नियम नहीं बनाये थे, किन्तु जैनेतरोंने भी । आजतक जितनी मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, उन्हें कलाशैलीकी दृष्टिसे तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है । उत्तरभारतीय, दक्षिणभारतीय और पूर्वभारतीय । प्राचीन समय में जैनधर्मके प्रधान केन्द्र पाटलीपुत्र, मथुरा, उज्जैन और कांची थे । इन स्थानोंमें जैनोंकी संस्कृति विशेषरूप से वर्तमान थी । उत्तर भारतीय — गुजरात, पंजाब, संयुक्तप्रान्त और मध्यभारतमें निर्मित प्रतिमाएँ एक ही शैलीकी होती थीं; शरीर गठन, मुखाकृति सन्निवेश आदिकी दृष्टिसे एक ही वर्ग में उन्हें रख सकते हैं । दक्षिण भारतकी मूत्तियों में द्रविण कलाकी छाप रहनेके कारण शरीरावयव, आकृति आदि में उत्तरभारतीय कलाकी अपेक्षा भिन्नता रहती है। इसी तरह पूर्वभारतकी मूर्तियोंमें भी वहाँके शिल्पियों की अपनी शैलीके कारण कुछ अन्तर रहता है। अबतक भूगर्भसे तीनों ही शैलीकी प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं ।
पटना म्यूजियम में नं० ८०३८ की भग्नमूर्ति है । इस मूर्तिपर चमकदार पालिस है, यह पालिस इतनी सुन्दर और ओजपूर्ण है कि आज भी ज्यों की त्यों बनी है | अशोकके शिल्पोंकी तरह यह चुनार के पत्थर की है, इसके ऊपर किसी मसालेको पालिस नहीं है, बल्कि पत्थर घोंटकर चिकना और चमकदार बना दिया गया है, जिससे काँचके समान चमक आ गई है । यह मूर्ति निस्सन्देह मौर्यकालीन है । इस म्यूजियममें और भी अनेक मूर्तियाँ है, जो पूर्वभारतकी शैलीकी कही जा सकती हैं ।
१. प्रतिष्ठासारोद्धार पृ० ७ श्लो० ६३-६४
२. देखें - वराह संहिता अ० ५७ श्लो० ४५
३. देखें — जैन सिद्धान्त भास्कर १३ भाग किरण २