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ज्योतिष एवं गणित
३८३ के परिकर्माष्टक, साधारण, और मिश्र व्यवहार गणित, महत्तम और लघुत्तम समापवर्तक, साधारण और चक्रवृद्धि ब्याज, समानुपात, ऐकिक नियम, पैराशिक, पंचराशिक, राप्तराशिक, समय और दूरी सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी दिये गये हैं। जैन अंकगणितमें गच्छ, चय, आद्य
और संबद्धन संख्या आनयन सम्बन्धी सूत्रों की वासनागत सूक्ष्मता गणितज्ञोंके लिये अत्यन्त मनोरंजक और आनन्दप्रद है। “तिलोयपण्णत्ति" में संकलित धन लाने वाले सूत्र १-२ निम्नलिखित प्रकारसे बनाये गये है
१. पदके वर्गको चयसे गुणा करके उसमें दुगने पदसे गुणित मुखको जोड़ देनेपर जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे चयसे गुणित पद प्रमाणको घटा कर शेषको आधा कर देनेपर प्राप्त हुई राशिके प्रमाण संकलित धन होता है ।
२. पदका वर्ग कर उसमेंसे पदके प्रमाणको कम करके अवशिष्ट राशिको चयके प्रमाणसे गुणा करना चाहिये । पश्चात् उसमें पदसे गुणित आद्यको मिला कर और फिर उसका आधा कर प्राप्त राशिमें मुखके अद्ध भागसे गुणित पदके मिला देनेपर संकलित धनका प्रमाण निकलता है।
गणित-पद ५, चय ४ और मुख ८ है । प्रथम नियमानुसार संकलित धन = (५)२५ ४ ४ = १००, ५४ २ = १०, १०४८ = ८०, (१०० + ८०)- १८०, ५ x ४ = २०, (१८० -२०)-१६०, १६०२०८०
द्वितीय नियमानुसार संकलित धन = (५)२ = २५, २५ - ५ = २०, २०४४-८०, ५४८ = ४०, (८० + ४०)- १२०, १२० २ = ६०, ८:२= ४, ४४५-२०, (२० + ६०) = ८० । उपर्युक्त दोनों ही नियम सरल और महत्त्वपूर्ण हैं । आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर जैसे गणितज्ञ भी श्रेणी व्यवहारके चक्रमें पड़ कर सरल नियमोंको नहीं पा सके हैं। वस्तुतः गच्छ, चय, आद्य और संवर्द्धन सम्बन्धी प्रक्रिया जैनाचार्योंकी अत्यन्त मौलिक है । अंकगणितके नियमोंमें अद्धच्छेद सम्बन्धी सिद्धान्त formula) महत्त्वपूर्ण और मौलिक है । प्राचीन जैनेतर गणितज्ञोंने इन जटिल सिद्धान्तोंके ऊपर विचार भी नहीं किया है। आधुनिक गणितज्ञ अद्धच्छेद प्रक्रियाको लघुरिक्थ (Logarithm) के अन्तर्गत मानते हैं, पर इस गणितके लिए एक अंकटेबुल साथ रखनी पड़ती है । परन्तु जैनाचार्योने बिना बीजगणितका आश्रय लिए अंकों द्वारा ही अद्धच्छेदोंसे राशिका ज्ञान किया है । (१) देय राशि-परिवर्तित राशि (Substituted) के अद्धच्छेदोंका इष्ट राशिके अर्द्धच्छेदोंमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसीका अभीष्ट अर्द्धच्छेद राशिमें भाग देनेसे जो लग्ध आये, उतनी ही जगह इष्टराशिको रखकर परस्पर गुणा करनेसे अच्छेदोंसे राशिका ज्ञान हो जाता है । उदाहरण१. पदवग्गं चयपहदं दुगुणिगच्छेण गुणिदमुहजुत्तं । __ वड़िदहदपदविहीणं दलिदं जाणिज्ज संकलिदं ।। -तिलोयपण्णत्ति पृ० ६२ २. पदवग्गं पदरहिदं इत्यादि-तिलोयपण्णत्ति, पृ० ६३ ३. दिण्णच्छेदेणवहिदइट्टच्छेदेहिं पयरविरलणं भजिदे ।
लद्धमिदइट्ठरासीणण्णोण्णहदीए होदि पयवधनं ।।-गोम्मटसार जीवकाम गाथा नं० २१४