________________
२७२
भारतीय संस्कृतिक विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
लग्गं च दक्खिणाय विसुवे सुवि अस्स उत्तरं अयणे । लग्गं साईवि सुवेसु पंचसु वि दक्खिणे अयणे |
अर्थात् अश्विनी और स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न बताये गये हैं । जिस प्रकार नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्थाको राशि कहा जाता है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रोंकी विशिष्ट अवस्थाको लग्न बताया गया है।
इस ग्रन्थ में कृत्तिकादि, धनिष्ठादि भरण्यादि, श्रवणादि एवं अभिजित् आदि नक्षत्र गणनाओं की विवेचनाकी गयी है । ज्योतिष्करण्डका रचनाकाल ई० पू० ३०० के लगभग है । विषय और भाषा दोनों ही दृष्टियोंसे यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है ।
अंगविज्जाका रचनाकाल कुषाण- गुप्त युगका सन्धिकाल माना गया है। शरीरके लक्षणों से अथवा अन्य प्रकारके निमित्त या चिन्होंसे किसीके लिए शुभाशुभ फल का कथन करना ही इस ग्रन्थका वर्ण्य विषय है । इस ग्रन्थ में कुल साठ अध्याय हैं । लम्बे अध्यायोंका माहात्म्य प्रभृत्ति विषयोंका विवेचन किया है। गृहप्रवेश, यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा आदि द्वारा शुभाशुभ फलका कथन किया गया है । प्रवासी घर कब और कैसी स्थिति में लौटकर आयेगा, इसका विचार ४५ वें अध्याय में किया गया है । ५२ वें अध्यायमें इन्द्र धनुष, विद्युत, चन्द्रग्रह, नक्षत्र, तारा, उदय, अस्त्र, अमावस्वा, पूर्णमासी मडंल, वीथी, युग, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, क्षण, लव मुहूर्त, उल्कापात, दिशादाह आदि निमित्तोंसे फलकथन किया गया है । सत्ताईस नक्षत्र और उनसे होने वाले शुभाशुभ फलका भी विस्तार से उल्लेख है । संक्षेपमें इस ग्रन्थमें अष्टांग निमित्तका विस्तारपूर्वक विभिन्न दृष्टियोंसे कथन किया गया है ।
लोकविजय-यन्त्र भी एक प्राचीन ज्योतिष रचना है । यह प्राकृत भाषामें ३० गाथाओं में लिखा गया है । इसमें प्रधानरूप से सुभिक्ष, दुर्भिक्षकी जानकारी बतलायी गयी है । आरम्भमें मंगलाचरण करते हुए कहा है :
--
पण मय पयारविंदे तिलोयनाहस्स जगपईवस्स । पुच्छामि लोयविजयं जंतं जंतूण सिद्धिकयं ॥
जगत्पति - नाभिराय के पुत्र त्रिलोकनाथ ऋषभदेवके चरण कमलोंमें प्रमाण करके जीवों की सिद्धिके लिये लोकविजययन्त्रका प्रतिपादन किया गया है । कृषिशास्त्र की दृष्टि से भी ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है ।
कालकाचार्य:- यह भी निमित्त और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इन्होंने अपनी प्रतिभासे शकुलके साहिको स्ववश किया था तथा गर्दभिल्लको दण्ड दिया था । जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका मुख्य स्थान है, यदि यह आचार्य निमित्त और संहिताका निर्माण न करते, तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिषको पाप श्रुत समझकर अछूता ही छोड़ देते ।
वराहमिहिर ने वृहज्जातकमें कालक संहिताका उल्लेख किया है । इनके मत से ग्रहोंका केन्द्र समंरु पर्वत है, यह नित्य गतिशील होते हुए मेरुकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । चौथे अध्याय में ग्रह-नक्षत्र प्रकीर्णक और तारोंका भी वर्णन किया है ।
१. भारतीय ज्योतिष, पृ० १०७