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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदानें
इस प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम्के समस्त अंकोंमें कार्य-कारण भावकी योजना उपलब्ध होती है । इस नाटक में दुर्वासाका अभिशाप स्वयं कारण है और कार्य है शकुन्तलाका परित्याग, मुद्रिकाकी पुन: प्राप्ति कारण है, तो कार्य है दुष्यन्तकी शकुन्तला विषयक स्मृति और उसका पश्चात्ताप । सप्तम अङ्क में दुष्यन्त स्वयं आत्मनिवेदन करता हुआ कहता है
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सुतनु हृदयात्प्रत्यादेशव्यलीकमपेतु ते किमपि मनसः सम्मोहो मे तदा बलवानभूत् । . प्रबलतमसामेवंप्रायाः शुभेषु हि वृत्तयः स्रजमपि शिरस्यन्धः क्षिप्तां धुनोत्यहिशङ्कया ।।
इस पद्य में अज्ञान कारणके रूपमें वर्णित है और परित्याग कार्यके रूपमें । इस सन्दर्भ में तमोगुणको कल्याणकारी बृत्तियोंको आच्छादित करनेका कारण माना गया है ।
महर्षि मारीचने अन्तमें रहस्यका उद्घाटन करते हुए कार्य-कारण भावका उल्लेख किया है
शापादसि प्रतिहता स्मृतिरोधरुक्षे भर्तर्यपपेतमसितत् प्रभुता तवैव । छाया न मूर्छति मलोपहतप्रसादे शुद्धे तु दर्पणतले सुलभावकाशा ||
शापके कारण तुम्हारे पतिकी स्मरण शक्ति रुक गई थी, अतएव वे रूखे हो गये थे और उनके द्वारा तुम्हारा तिरस्कार हुआ था। अब उसका अज्ञान दूर हो गया है, अतः उनपर तुम्हारी ही प्रभुता रहेगी । मैले शीशेमें प्रतिबिम्ब साफ नहीं दिखलायी देता है पर दर्पणके स्वच्छ होने पर प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलायी पड़ने लगता है ।
यहाँ शाप कारण और स्मृतिका अवरोध कार्य; अज्ञानका अभाव कारण और प्रभुताका सद्भाव कार्य एवं मलाभाष कारण और प्रतिबिम्बका स्वच्छ दर्शन कार्य है । महर्षि मारीचने शकुन्तलाको सान्त्वना कार्य-कारण भावका निर्देश करते हुए ही प्रदान की है ।
विषय विवेचनकी दृष्टिसे अभिज्ञान शाकुंतल के प्रथम अंकमें संग, द्वितीय अंकमें काम, तृतीय में भोग चतुर्थ में चिता, पञ्चममें प्रमाद, षष्ठमें पश्चात्ताप और सप्तममें सिद्धिका प्रतिपादन हुआ है । इन समस्त विषयोंके मूलमें रागबद्ध चित्तवृत्ति ही कारण रूपमें प्रवृत्त दिखलायी पड़ती है । अतएव संक्षेपमें इस नाटकमें मानव वृत्तियों का कार्य-कारण रूप विस्तार ही माना जा सकता है ।
मुद्रिका दर्शनके पश्चात् सम्राट् दुष्यन्तको शकुंतलाकी तीव्र स्मृति हो गयी और वह अज्ञानताके कारण किये गये शकुन्तलाके परित्यागके लिए पश्चात्ताप करने लगा। राजाको समस्त मनोहर वस्तुएँ नीरस प्रतीत होने लगीं, वह रात्रि जागकर व्यतीत करने लगा। जब कभी उससे गोत्र स्खलन हो जाता, तो उसे विशेषरूपसे लज्जित होना पड़ता । कवि कहता हैरम्यं द्वेष्टि यथा पुरा प्रकृतिभिर्न प्रत्यहं सेवते शय्याप्रान्तविवर्तनैविगमयत्युन्निद्र एव क्षपाः । दाक्षिण्येन ददाति वाचमुचितामन्तःपुरेभ्यो यदा गोत्रेषु स्खलितस्तदा भवति च क्रीड़ाविलक्षश्चिरम् ॥'
१. शाकुन्तल- 'काले' संस्करण ६।५;