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ज्योतिष एवं गणित
२७५ अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण, कला प्रभृतिका यथार्थ ज्ञान गणितके बिना सम्भव नहीं है; अतः गणित विद्या सर्वोपरि है ।
इस ग्रंथमें संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कलासवर्णव्यवहार, प्रकीर्णव्यवहार, त्रैराशिकव्यवहार, मिश्रकव्यवहार, क्षेत्र-गणित व्यवहार, खातव्यवहार एवं छायाव्यवहार नामके प्रकरण है । मिश्रकव्यवहारमें समकुट्टीकरण, विषमकुट्टीकरण और मिश्रकुट्टीकरण आदि अनेक प्रकारके गणित हैं। पाटीगणित और रेखागणितकी दृष्टि से इसमें अनेक विशेषताएं हैं । इसके क्षेत्रव्यवहार प्रकरण में आयतको वर्ग और वर्गको वृत्तमें परिणित करनेके सिद्धान्त दिये गये हैं । समत्रिभुज, विषमत्रिभुज, समकोण, चतुर्भुज, विषमकोण, चतुर्भुज, वृत्तक्षेत्र, सूची व्यास, पंचभुजक्षेत्र एवं बहुभुज क्षेत्रोंका क्षेत्रफल तथा घनफल निकाला गया है ।
ज्योतिषपटलमें ग्रहोंके चार क्षेत्र, सूर्यके मण्डल, नक्षत्र और ताराओंके संस्थान, गति, स्थिति और संख्या आदिका प्रतिपादन किया है ।
चन्द्रसेन के द्वारा 'केवलज्ञान होरा' नामक महत्वपूर्ण विशालकाय ग्रन्थ लिखा गया है । यह ग्रन्थ कल्याणवर्माके पीछे रचा गया प्रतीत होता है । इसके प्रकरण सारावलोसे मिलते जुलते हैं पर दक्षिणमें रचना होने के कारण कर्णाटक प्रदेशके ज्योतिषका पूर्ण प्रभाव है । इन्होंने ग्रन्थके विषयको स्पष्ट करने के लिये बीच-बीच में क्रन्नड़ भाषाका भी आश्रय लिया है। यह अन्य अनुमानतः चार हजार श्लोकों में पूर्ण हुआ है । ग्रन्थके प्रारम्भमें कहा है
होरा नाम महाविद्या वक्तव्यं च भवद्धितम् ।
ज्योतिर्ज्ञानकसारं भूषणं बुधपोषणम् ।। इन्होंने अपनी प्रशंसा भी प्रचुर परिमाणमेंकी है।
आगमः सदृशो जैनः चन्द्रसेन समो मुनिः ।
केवली सदृशी विद्या दुर्लभा सचराचरे । इस ग्रन्थमें हेमकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिकाप्रकरण वृक्षप्रकरण, कार्पासगुल्म-वल्कल-तृण-रोम-चर्म-पटप्रकरण, संख्याप्रकरण, नष्टद्रव्य प्रकरण, निर्वाह प्रकरण, अपत्यप्रकरण, लाभालाभप्रकरण, स्वरप्रकरण, स्वपनप्रकरण, वास्तु प्रकरण, भोजन प्रकरण, देहलोहदीक्षा प्रकरण, अंजनविद्या प्रकरण एवं विष विद्या प्रकरण आदि हैं । ग्रन्थके आद्योपान्त देखनेसे अवगत होता है कि यह संहिताविषयक रचना है, होरा विषयक नहीं।
श्रीषर-ये ज्योतिष शास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् हैं। इनका समय दशवीं शतीका अन्तिम भाग है । ये कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। इनकी माताका नाम अब्बोका और पिताका नाम बलदेव शर्मा था.। इन्होंने बचपन में अपने पितासे हो संस्कृत और कन्नड़ साहित्यका अध्ययन किया था। प्रारम्भमें ये शैव थे, किन्तु बादमें जैन. धर्मानुयायी हो गये थे। इनकी गणितसार और ज्योतिर्ज्ञानविधि संस्कृत भाषा तथा जातकतिलक कन्नड़-भाषामें रचनाएं हैं। गणितसारमें अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमात्रजाति, राशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड, मिश्रकव्यवहार, भाव्यकव्यवहार, एकपत्रीकरण, सुर्वणगणित, प्रक्षेपक, गणित, समक्रय विक्रय,