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भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
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आन्तरिक परीक्षण
अशोक के शिलालेखोंका आम्यन्तरिक परीक्षण करनेपर प्रतीत होता है कि अधिकांश शिलालेख जैन सम्राट् प्रियदर्शिन् उपनाम सम्प्रतिके हैं । विचार करनेके लिए निम्न प्रमाण उपस्थित किये जा रहे हैं, जिनसे पाठक यथार्थता अवगत कर सकेंगे ।
१ - अधिकांश शिलालेखों में 'देवानां ' प्रिय प्रियदर्शी' आता है । यह प्रियदर्शी न तो अशोकका उपनाम है और न विशेषण ही था । अतः प्रियदर्शीके नाम के सभी शिलालेख सम्प्रतिके हैं ।
२ - जिन लेखोंमें अशोकका नाम स्पष्टतः आया है, उनमें बौद्ध धर्मके सिद्धान्त पाये जाते हैं, किन्तु जिनमें प्रियदर्शीका नाम आया है, उनमें जैनधर्मके सिद्धान्त ही वर्तमान हैं । इसी कारण कई ऐतिहासिक विद्वान् अशोकके जैनधर्मानुयायी होने की आशंका करते हैं । वास्तव - में बात यह है कि मौर्यवंशमें अकेला अशोक ही बौद्धधर्मानुयायी थे ।
३ – पाँचवें शिलालेख में बताया गया है कि "इह ब्राह्मणेषु च नगरेषु सर्वेषु अवरोधनेषु भ्रातॄणां च अन्ये भगिनीनां एवं अपि अन्ये ज्ञातिषु सर्वत्र व्याप्ताः २” अर्थात् राजा प्रियदर्शिन्ने पाटलीपुत्र नगर एवं अन्यान्य स्थानोंमें अपने भाई बहिनोंको नियुक्त किया था । यदि इस कथनको अशोकके लिए माना जाय तो अनेक दोष आवेंगे । क्योंकि अशोक के सम्बन्धमें प्रसिद्धि है कि उसने अपने एक भाईको छोड़ शेष सभी कुटुम्बियोंको निष्कण्टक राज्य करने के लिए राज्याभिषेक से पूर्व ही मरवा डाला था; अतएव शिलालेखमें उल्लिखित उसके भाईबहन कैसे हो सकते हैं ? प्रियदर्शिन्के भाई, पुत्र और कुटुम्बियोंके सम्बन्ध में उल्लेख दिल्ली टोपराके स्तम्भ लेख नं ० ७ में पाया जाता है । अतः प्रियदर्शिन्का ही यह लेख होगा ।
४ — चौथे और ग्यारहवें शिलालेख में अहिंसा तत्त्वका वर्णन जैनधर्मकी अपेक्षा ही किया गया है । बौद्ध मतमें स्थावर जीव - पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकायकी हिंसाका त्याग कहीं नहीं बताया गया है । यदि ये शिलालेख अशोकके होते तो सजीवतुषको जलानेका निषेध तथा वनमें आग लगानेका निषेध कभी नहीं किया जाता । शिलालेखों में अहिंसाका सूक्ष्म वर्णन जैनधर्मके सिद्धान्तोंके साथ ही समत्व रखता है, बौद्धधर्मके सिद्धान्तों के साथ नहीं ।
५ - परभवके सुख के लिए लेखोंमें सर्व प्राणियोंकी रक्षा, संयम, समाचरण और मार्दव धर्म की शिक्षा दी गयी है । समाचरण और संयम जैनधर्म के आचार के प्रमुख अंग हैं, बौद्धधर्ममें इन्हें महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं है ।
१. 'देवानांप्रिय' विशेषण का उपयोग प्रायः साधु, महाराज, भक्तजन या किसी सेठके लिए होता था । कभी-कभी पति-पत्नी भी एक-दूसरे के सम्बोधन के लिए इसका व्यवहार करते थे । - कल्पसूत्रकी सुखबोधिनी टीका पृ० ४७
२. अशोक-धर्म लेख १६२
३. सव भूतानं अछति, संयम, समचरियं मादवं च - अशोक शिलालेख १३, पृ० २५० ४. समदा समाचारो सम्माचारी समो व आचारो ।
सम्वसिहि सम्माणं समाचारो दु आचारो ॥ - मूलाचार १२३ ॥४॥