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भूतपूर्व अध्यक्ष, प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयीने इस ग्रन्थके प्रथम खण्डको समालोचना करते हुए लिखा था
.. Dr. N. C. Shastri was a versatile writer, whose untimely demise has taken away a devoted scholar of great promise. His writings are marked by an authentic treatment of the Vast Prakrit and sanskrit literature and the Jain philosophy.
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With adequate documentation in the papers under review, Dr. Shastri has furnished eloqueut testimony to the significance of the prakrit studies for a correct appraisal of Indian culture. This sumptuous volume will undoubtedly serve as reference book to the learned scholars and the postgraduate students of Indian culture."
प्रस्तुत ग्रन्थके इस द्वितीय खण्डको चार भागों में विभक्त किया गया है — जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा, २ - जैन तीर्थ, इतिहास, कला, संस्कृति एवं राजनीति, ३ - भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ ४ – ज्योतिष एवं गणित । इन चारोंमें छत्तीस महत्त्वपूर्ण निबन्ध हैं ।
डॉ० राजारामजी जैन, आरा, तथा डॉ० देवेन्द्रकुमारजी शास्त्री नीमचने डॉ० शास्त्रीके यत्र यत्र बिखरे महनीय निबन्धोंके संग्रह और सम्पादनमें पर्याप्त परिश्रम किया है । उन्हींके सतत् प्रयत्नोंके परिणाम स्वरूप डॉ० शास्त्रीके निबन्ध प्रस्तुत ग्रन्थका आकार ग्रहण कर सके । निबन्धोंके संकलनमें स्व० डॉ० शास्त्रीके सुपुत्र चि० नलिन शास्त्रीका प्रयत्न भी श्लाघनीय रहा है । अत: यह त्रयी धन्यवादके पात्र है ।
विद्वत्परिषद्के भूतपूर्व अध्यक्ष, डॉ० दरबारीलालजी कोठिया, वाराणसी, ने इस ग्रन्थके प्रकाशन में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी सतत् प्रेरणा एवं मार्गदर्शन के फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन संभव हुआ, अतः मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ ।
विद्वत्परिषद्के संरक्षक, आदरणीय गुरुवर्य पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी, ने अपने अत्यन्त व्यस्त समयमें से कुछ क्षण निकालकर इस ग्रन्थके प्रथम खण्डमें प्राक्कथन लिखनेकी कृपाकी तदर्थ मैं उनके प्रति अपना कृतज्ञ भाव अभिव्यक्त करता हूं ।
विद्वत्परिषद्के प्रकाशनमंत्री, डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी, अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, का इस ग्रन्थके प्रकाशनमें महनीय योगदान है । उन्होंने पूरे ग्रन्थके अन्तिम प्रूफ तो देखे ही हैं, साथ ही वे ग्रन्थके शीघ्र प्रकाशन एवं मुद्रण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील भी रहे, अतः वे हमारे अतिशय साधुवादके पात्र हैं ।
विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष तथा भूतपूर्व मन्त्री एवं मेरे गुरुवर, डॉ० पन्नालालजी साहित्याचार्यका मैं किन शब्दोंमें आभार व्यक्त करूं । उन्हींके सतत् अध्यवसायसे परिषद्की समस्त गतिविधियाँ सुचारु रूपसे संचालित हो रही हैं । प्रस्तुत ग्रन्थके प्रकाशन में 'अथ से इति' तक उनका भगीरथ प्रयत्न रहा है । उनके इस समर्पण भावके प्रति, मैं श्रद्धासे विनत