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राजगृह : एक प्राचीन जैन तीर्थक्षेत्र
प्रास्ताविक
राजगिरि प्राचीन कालसे ही जैन नगरी रही है । २० वें तीर्थकर श्री मुनिसुव्रत भगवान् की जन्मनगरी होनेका गौरव इसे प्राप्त है । यह नगरी ऋषभदेव और वासुपूज्यके अतिरिक्त अवशेष २१ तीर्थकरोंकी समवशरणभूमि भी रही है । भगवान् महावीरके समयमें इस नगरीका बड़ा महत्त्व था । यह श्रमण संस्कृतिका प्रधान केन्द्र थी ।
नामकरण
राजगृहके प्राचीन नाम पंचशैलपुर, गिरिवृज और कुशाग्रपुर भी पाये जाते हैं । धवलाटीका प्रथम भाग पृ० ६१ पर इसे 'पंचशैलपुरे रम्वे' इत्यादि रूपमें पंचशैलपुर कहा है । इसका कारण यहाँको पाँच मनोरम पर्वत श्रेणियाँ हैं ही। रामायणकालमें इसे गिरिवृज ही कहा जाता था। भोगोपभोगकी सम्पत्तिसे परिपूर्ण राजकीय आवास होनेके कारण इसकी प्रसिद्धि राजगृहके रूपमें हुई है ।" गौतम स्वामीको भगवान्ने राजगृहके सम्बन्धमें प्रश्न करने पर उत्तर दिया कि जीवाजीवादि युक्त इस नगरीका नाम राजगृह है।
तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी - किमिदं भंते नगरं रायगिहं पि पवुच्चई ? किं पुठवी रायगिहं ति पवुच्चई ? आऊनगरे रायगिहं ति पवुच्चई ? जाव वणस्सई ? जहाँ एयषु सए पंचेदिय तिरिक्ख जोणियाणं वतव्वयातहा माणियव्वं जाव सचित्ताचित्त मीसयाई दव्वाइं नगर रायगिहं ति पवुच्चई ? गोयमा, पुढवीवि नगरं रायगिहं ति पवुच्चई । से केणट्ठेणं गोयमा ! पुढवी जीवाति य अजीवाति य नगरं रायगिहं ति पवुच्चई जाव सचित्ताचित्त मीसियाई दव्वाइं जीवाति य अजीवाति य नगरं रायगिहं पवुच्चति ? से तेणट्ठेणं तं चैव ॥
भावार्थ — गौतम स्वामीने भगवान् महावीरसे पूछा -- प्रभो ! इस नगरीको राजगृह क्यों कहा जाता है ? क्या पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति, सचित्त, अचित और मिश्रद्रव्यका नाम राजगृह है ? भगवान् बोले- गौतम ! पृथ्वी राजगृह कहलाती है, इसमें जीव अजीव आदिका संयोग है, अतः इस भूमिका नाम राजगृह है । हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण में समृद्धिशाली, मान्य और उत्तुंग प्रासादोंके कारण इसे राजगृह कहा गया है । वर्तमान राजगिरि श्रेणिककी नगरी राजगृहसे कुछ हटकर है । राजा श्रेणिकने राजगृहको जरासन्धकी नगरीसे अलग बसाया था ।
परिचय
मगधदेशमें लक्ष्मीका स्थान
अनेक उत्तम महलोंसे युक्त एक राजगृह नगर है । इस नगरीमें पांच शैलं हैं इसलिए इसे पंचशैलपुर कहा जाता है । यह नगरी भगवान् मुनि
१. कनिंघम, एन्शियेण्ट जोगरफी आफ इण्डिया पृ० ५३०
पुरं राजगृहं तस्मिन्पुरंदरपुरोपमम् ।
२. व्याख्या पण्णत्ति सूत्र पृ० ७३१