________________
जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुत गणित सम्बन्धी कतिपय मौलिक उदभावनाएँ
गणितके दो प्रधान तत्त्व हैं संख्या और आकृति । संख्यासे अंकगणित और बीजगणितकी उत्पत्ति हुई है तथा आकृत्तिसे ज्यामिति और क्षेत्रमिति की । बेबीलोन और सुमेर सभ्यताके समानान्तर ही भारत वर्ष में भी ज्योतिष तथा गणितके सिद्धान्त प्रचलित थे । वैदिक यज्ञ और कुण्डमानके सम्पादनार्थ शुल्वसूत्र एवं वेदांग ज्योतिषका प्रचार ईस्वी सन् से ८०० वर्ष पूर्व ही हो चुका था । कर्मकाण्डको शुभ समयपर सम्पन्न करना आवश्यक माना जाता था, अतः समय शुद्धिको ज्ञान करनेके हेतु पंचांग ( Calendar) बनने लगे थे । जैन प्रन्थ ज्योतिषकरण्डक में ग्रीक पूर्व लग्न प्रणाली उपलब्ध होती है। जैनाचार्योंके त्रिलोक प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति प्रभृति ग्रन्थोंमें गणितके अनेक ऐसे मौलिक सिद्धान्त निबद्ध हैं, जो भारतीय गणित में अन्यत्र नहीं मिलते ।
भारतीय गणित एवं ज्योतिषके अध्ययनके आधारपर जैनाचार्यों द्वारा प्रस्तुतकी गयी गणित सम्बन्धी मौलिक उद्भावनाओंको निम्नांकित रूपमें उपस्थित किया जा सकता है—
(१) संख्या स्वरूप निर्धारण एवं संख्याओं का वर्गीकरण ।
(२) स्थानमान सिद्धान्त ।
(३) घातांक सिद्धान्त ।
(४) लघुगणक सिद्धान्त (Logarithms) ।
(५) अपूर्वक भिन्न राशियोंके विभिन्न उपयोग और प्रकारान्तर ।
(६) गति स्थिति प्रकाश प्यवमान गणित सम्बन्धी सिद्धान्त ।
(७) ज्यामिति और क्षेत्रमिति सम्बन्धी विभिन्न आकृतियोंके प्रकार परिवर्तन एवं रूपान्तरोंके गणित |
(८) अलौकिक गणितका निरूपण ।
(९) गणित सिद्धान्तोंके आध्यात्मिक उपयोग एवं व्यावहारिक प्रयोगोंका विवेचन । संख्या-स्वरूप
जिससे जीव, अजीव आदि पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त किया जाय, उसे संख्या कहते हैं' । जैनाचार्योंने एकसे गणना तो मानी है, पर एकको संख्या नहीं माना। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने लिखा है
एयादीया गणणा बीयादीया दृवंति तीयादीणं णियमा कदित्ति सण्णा
संखेज्जा । मुणेदव्वा ॥
— त्रिलोकसार गाथा १६
१. संख्यायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादमः पदार्था येन तज्ज्ञानं
संख्येत्युच्येत । सम्यक
स्याप्यते प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या - अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७ संख्या शब्द ।