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ज्योतिष एवं गणित
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ठाणांग' और प्रश्नव्याकरण अंगमें पञ्चवर्षात्मक युग एवं युगानुसार ग्रह नक्षत्र आदिकी आयन विधि प्रतिपादित है । इस प्रकार जैन चिन्तकोंने नक्षत्रोंका कुल, उपकुल और कुलोपकुलोंमें विभाजन कर वर्णन किया है । चन्द्रमाके साथ स्पर्श करने वाले एवं उसका वेघ करनेवाले नक्षत्रोंका भी कथन आया है । अतएव इस आलोक में यह कहा जा सकता है कि ग्रहगणित सम्बन्धी अनेक विशेषताएँ जैन ज्योतिष में समाहित हैं ।
भारतीय ज्योतिर्ग्रन्थोंमें ज्योतिष्करण्डक पहला जैन ग्रन्थ है जिसमें लग्नका विचार किया गया है । राशि और लग्न के सम्बन्धमें फैली हुई भ्रान्त धारणा कि भारतीयोंने इन सिद्धान्तोंको ग्रीकसे अपनाया है, ई० पूर्व शताब्दीमें रचे गये उक्त ग्रन्थसे निरस्त हो जाती है ।
जातक फल निरूपण सम्बन्धी विशेषताएँ
जैन मान्यतामें ग्रह कर्मफलके सूचक बतलाये गये हैं । कुवलयमाला में लिखा है“पुब्व-कय-कम्म-रइयं सुहं च दुक्खं च जायए देहे" अर्थात् पूर्वकृत कर्मोंके उदय, क्षयोपशम आदिके कारण जीवधारियोंको सुख और दुःख की प्राप्ति होती है । सुख-दुःखका देनेवाला ईश्वर या अन्य कोई दिव्य शक्ति नहीं है । ग्रह कर्मफलकी सूचना देते हैं । अतः वे सूचक निमित्त हैं, कारक निमित्त नहीं । जिस प्रकार ट्रेनके आनेके पूर्व सिगनल डाउन हो जाता है और ट्रेन आनेकी सूचना मिल जाती है, सिगनल ट्रेनको लानेवाला नहीं है, ट्रेनके आनेकी सूचना देनेवाला है । इसी प्रकार निश्चित राशि और अंशोंमें रहनेवाले ग्रह व्यक्तियोंके कर्मोदय, कर्मक्षयोपशम या कर्मक्षयकी सूचना देते हैं ।
जैन मान्यतामें अट्ठासी ग्रह, अगणित नक्षत्र और तारिकाएँ बतलायी गयी हैं, पर इनमें प्रधान नवग्रह ही हैं, और ये ज्ञानावरणादि कर्मोंके सूचक हैं ।
बृहस्पतिको ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमका प्रतीक माना जा सकता है। इसका विचार राशि अंश आदिके अनुसार कर, बाह्य व्यक्तित्व और अन्तरंग व्यक्तित्वका निरूपण किया जाता है । बाह्य व्यक्तित्वकी अपेक्षा रक्त, स्नायुमंडल, मस्तिष्क शक्ति, स्मृति, अनुभव, प्रत्यभिज्ञा, आदिका विचार होता है । अन्तरंग व्यक्तित्वकी अपेक्षा क्षयोपशम जन्य ज्ञानशक्तिका विश्लेषण किया जाता है । इसी कारण व्यापार, कार्यकुशलता, उत्सव, दान, सहानुभूति एवं व्यवसाय सम्बन्धी प्रौढ़ता आदिका विचार भी बृहस्पति द्वारा किया जाता है । मनोभाव एवं मनकी विभिन्न स्थितियोंसे उत्पन्न सौन्दर्य, प्रेम, शक्ति, भक्ति, व्यवस्था, उदारता के साथ पैर, जंघा, जिगर, पाचनक्रियाका विचार भी बृहस्पतिकी स्थितिके आलोक में किया जाता है । मोक्षगामी व्यक्तिके व्यक्तित्वका विश्लेषण प्रधान रूपसे बृहस्पति द्वारा ही सम्भव है ।
यह स्मरणीय है कि फल- प्रतिपादनमें एक ग्रहकी प्रधानताका विचार करते समय अन्य ग्रहोंके गौण सम्बन्धोंपर भी ध्यान रखना आवश्यक होता है । अनेकान्तवाद की सरणिका
१. ठाणांग ५ । ३ । १० तथा समवायांग ६१ सूत्र ।
२. तहा कहन्ते कुला उवकुला कुलावकुला आहितोत्ति वदेज्जा,- -प्रश्न व्याकरण १०।५ । ३. ठाणांग ८। १०० ।