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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वीर सेवा मन्दिर दिल्ली
क्रम सम्या
काल न०
खण्ड
४१५६ ०६१. 6 धन
लाल
éttel
XX-XXX
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RAI
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श्रद्धेय बाबू छोटेलाल जी जैन
( जन्म १६ फरवरी, १८६६)
। मृत्यु २६ जनवरी, १९६६)
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
सम्पादक मराडल :
डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल
जयपुर
पं० चैनसुग्वदास न्यायतीर्थ
जयपुर डा० ए एन. उपाध्ये
कोल्हापुर पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री
बागगामी
डा० सत्यरंजन बनर्जी
कलकता
पं० भंवरलाल पोल्याका जैनदर्शनाचार्य
जयपुर
श्री अगरचन्द नाहटा
बीकानेर
प्रकाशक:
बाबू छोटेलाल जैन अभिनन्दन समिति
कलकत्ता
सन् १९६७]
[मूल्य २० रुपये
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प्राप्ति स्थान :
१. पं० बन्शीधर शास्त्री
संयोजक
बाबू छोटेलाल जैन अभिनन्दन समिति
C/o श्री जुगमन्दिरदास जी जैन
१५७, नेताजी सुभाष रोड़ कलकत्ता- १
२. पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ
अध्यक्ष
श्री दि० जैन संस्कृत कॉलेज जयपुर-३
[ प्रथम संस्करण
मुद्रक : अजन्ता प्रिन्टर्स
घी वालों का रास्ता
जयपुर
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५०० ]
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अनुक्रमणिका
..'क
प्राक्कथन प्रकाशकीय वक्तव्य सम्पादकीय
हिन्दी भाग
प्रथम खण्ड
( व्यक्तित्व, कृतित्व, संस्मरण एवं श्रद्धाञ्जलियाँ)
१. ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम, (कविता)
कल्याण कुमार जैन 'शशि' २. उदारमना श्री बाबु छोटेलाल जी जैन ___बन्शीधर शास्त्री ३. प्रेरणादीप बाबू छोटेलाल जी
डा. ज्योतिप्रमाद जैन ४. बाय छोटेलाल जी : मृक साधक
डाप्रेममागर जैन ५. चमन में इनसे इबरत है
नमीचन्द्र शास्त्री ६. श्रद्धास्पद बाबूजी
नीरज जैन ७. बयाना जैन समाज को बाबूजी का अपूर्व सहयोग
कपूरचन्द्र नरपत्येला ८. बाबू छोटेलाल जी और स्याद्वाद महाविद्यालय
कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी ६. बाबूजी की मधुर स्मृतियां
स्वामी सत्यभक्त १०. पुरातत्त्व प्रेमी बाबूजी
शारदा प्रसाद
एक
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११ स्मरणाञ्जलि
डा. राजाराम जैन १२. मनीपी बाबू छोटेलाल जी (कविता)
नमीच-द पटोलिया १३. बाबूजी V पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ १४. एक सहज प्रेरक व्यक्तित्व
डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री १५. पुरातत्त्व वेत्ता श्री बाबूजी
पं० नन्हेलाल शास्त्री १६. आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक
विमल कुमार जैन १७. तीन पुश्त का सम्पर्क
सुबोध कुमार जैन १८. श्रद्धे य बाबूजी
__ मुरेन्द्र गोयल १६. श्री बाबू छोटेलाल जी--एक मूक सेवक
भवरलाल न्यायतीर्थ २०. बाबूजी की अमर सेवाएँ
सत्यंधर कुमार मेठी २१. बाबूजी का वीर सेवा मदिर को योगदान
प्रेमचन्द जैन, बी०ए० २२. बावृ छोटेलाल जी और उनका व्यक्तित्व
श्री स्वतन्त्र, सूरत
२३. श्रद्धाजलियाँ द्वितीय खण्ड ( इतिहास, पुरातत्व एवं शोध ) .
१. प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेशभूषा
गोकुलचन्द्र जैन. एम० ए० २. 'बापट्टि चरित्' ऐतिहासिक महत्त्व
हरि अनन्त फड़के
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३. महाकवि रइधू युगीन अवालों की साहित्य सेवा डा० राजाराम जैन, एम०ए०पी०एच०डी० ४. हिन्दी आदि काल के जैन प्रबन्ध काव्य
श्याम वर्मा, एम०एस०मी० एम०ए० साहित्य रत्न ५. जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप प्रेमसुमन जैन
६. जैन समाज के आन्दोलन
स्वामी सत्यभक्त
७. मथुरा की प्राचीन कला में समन्वय भावना कृष्णदत्त वाजपेयी
८. भट्टारक युगीन जैन संस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियां डा० नेमीचन्द्र शास्त्री
V
६. पंच कल्याणक तिथियां और नक्षत्र मिलापचन्द्रजी कटारिया
१०. जैन प्रथों में राष्ट्रकूटों का इतिहास रामबल्लभ सौमानी
११. भारतीय साहित्य में सीता हरण प्रसग डा० छोटेलाल वर्मा एम०ए० पी०एच० डी० १२. याचार्य हेमचंद्र की दृष्टि में भारतीय समाज डा० जयशंकर मिश्र एम०ए०पी०एच० डी०
१३. ५ वीं शती के प्रन्थ बसुदेव हिन्दी की रामकथा
अगरचन्द्र नाहटा
१४. अमवालों का जैनधर्म में योगदान
परमानन्द शास्त्री
१४. हिन्दी का आदि काल और जैन साहित्य डा० छविनाथ त्रिपाठी
१६. दो ऐतिहासिक रचनाएँ
भवरलाल नाहटा
१७. राष्ट्रीय संग्रहालय में मध्यकालीन जैन प्रस्तर प्रतिमाएँ बृजेन्द्रनाथ शर्मा, एम० ए०
१८. आचार्य जिनेश्वर और खरतर गच्छ
म० विनयसागर साहित्यमहोपाध्याय, साहित्याचार्य, जनदर्शन शास्त्री, साहित्यरत्न शास्त्र विशारद
तीन
.... ७५
....
८३
६१
....१०१
....१०७
...१११
१२१
....१२६
....१३५
....१४१
....१५३
१६१
....१७३
.....१७६
१८३
....१८७
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....१६७
१६. जैनधर्म की प्राचीनता और सार्वभौमिकता
डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री एम०ए०पी०एच०डी० .... २०. बीसवीं सदी विक्रमी के जैन सन्त योगी श्रीमद् राजचन्द्रजी
श्री कस्तूरमल बांठिया २१. जैन ज्योतिप के प्राचीनतमत्व पर सक्षिप्त विवेचन
वैद्य प्रकाश चन्द्र पांड्या, प्रायुर्वेदाचार्य २२. राजस्थान के कतिपय प्रमुख दिगम्बर जैन मंदिर
अनूपचन्द्र न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न २३. जैन दर्शन के प्रमुख प्रवक्ता प्राचार्य समन्तभद्र
प्रो० उदयचन्द्र जैन एम०ए. २४. प्रातः स्मरणीय सन्त गणेश वर्णी
नीरज जैन २५. आगमों और त्रिपिटकों के संदर्भ में अभयकुमार
मुनि श्री नगराजजा २६. भारत की जैन जातियाँ
भंवरलाल पोल्याका जैनदर्शनाचार्य
तृतीय खण्ड ( साहित्य, धर्म और दर्शन )
...२६५
..."२८७
१. जैनदर्शन, पाश्चात्य दर्शन और विज्ञान में : आकाश और काल ___ मुनि श्री महेन्द्र कुमार जी द्वितीय २. भूधरदास कृत पार्श्वपुराण और उसमें पशु-पक्षि वर्णन ___ डा. महेन्द्र सागर प्रचन्डिया, एन०ए० पी०एच० डी० ३. समाधि योग
प्राचार्य श्री रजनीशजी ४. आचार्य सोमदेव और उनका यशस्तिलक चम्पू मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज
..."२६१ 1. जैन साहित्य में शान्त रस डा० नरेन्द्र भानावत एम०ए०पी०एच०डी०
... २६७ ६. साहित्य; व्युत्पत्ति और परिभाषा
डा० रवीन्द्र कुमार एम०ए०पी०एच०डी०
... ३०५
चार
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७. फागु काव्य की नवोपलब्ध कृतियाँ
डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, एम०ए०पी०एच०डी०
८. जैनदर्शन में अर्थाधिगम चिन्तन दरबारीलाल कोठिया
६. दर्शन और विज्ञान में आत्मा 'उदय' नागोरी जैन बी० ए० सिद्धान्त
१०. दृष्टिकोणों का दृष्टिकोण कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'
११. गंगनरेश मारसिंह की सल्लेखना ४ विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री
१२. भारतीय जीवन नद के दो किनारे स्व० श्री सत्यदेव विद्यालंकार
१४. संस्कृत के जैन सन्देश काव्य
गोपीलाल श्रमर एम० ए० 'साहित्यरत्न'.
१५, वाग्भटालङ्कार एक परिशीलन अमृतलाल शास्त्री
१६. सिद्धसेन का अभेदवाद और दिगम्बर परम्परा सिद्धांताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री
१७. हिन्दी जैन भक्त कवियों की मधुर भावना श्री रंजनसूरि देव
१३. अपभ्रंश साहित्य और मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि कृत 'व्यवस्था शिक्षा कुलकम्'
डॉ० हीरालाल माहेश्वरी, एम०ए०, एल०एल०बी०, डि० फिल्
१८. निसीहिया या नसियाँ
हीरालाल सिद्धांतशास्त्री
पाँच
....३१३
....
....३२५
....३३१
'''३४१
....३४५
३४६
.....३५५
३६३
....३६६
३८१
....३८७
....३६३
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प्राक्कथन
प्रभिनन्दन एवं स्मृतिग्रन्थों की प्रकाशन परम्परा इस युग का एक महत्वपूर्ण प्रायोजन है । जिन्होने अपने मावन जीवन को ज्ञानाराधना, आत्म-साधना, साहित्यसेवा, परोपकार, दया और सहानुभूति पादि लोकहितकारी कार्यों से पुनीत एवं अनुकरणीय बना दिया है उनका मत्कार- समादर तो ऐसे प्रायोजनों से होता ही है किन्तु उनसे एक लाभ और भी है। ऐसे प्रकाशनों ने दर्शन, पुरातत्व, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति, अर्थशास्त्र, धर्म एवं विभिन्न कलाओं पर भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा लिखे हुए लेख एक ही जगह अनायास हो उपलब्ध हो जाते है । पाठकों को अपना ज्ञान भण्डार भरने के लिए यह उपलब्धि वस्तुतः असाधारण है। इससे नये एवं उदीयमान लेखकों को प्रोत्साहन एवं प्रेरणा भी मिलती है । यह लाभ भी कम नहीं है ।
जहां तक मेरा ख्याल है हिन्दी में इस परम्परा का श्री गणेश हिन्दी के परम उन्नायक स्व० श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी के अभिनन्दन ग्रन्थ मे प्रारम्भ हुआ। जिन लोक हितैषियों का अपने जीवन काल में अभिनन्दन नहीं हो सका उनका उनकी मृत्यु के बाद ऐसे प्रकाशनों द्वारा समादर किया गया और अब तो यह परम्परा बड़ी तेजी से पल्लवित हो रही है और ऐसे लोगों के अभिनन्दन एवं स्मृति ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं जो उनके योग्य नहीं थे फिर भी सब मिलाकर यह कहना होगा कि यह पर म्परा ज्ञानाराधना यादि की दृष्टि में वास्तव में उपादेय ही है।
1
जैन समाज में भी ऐसे अनेक उल्लेखनीय ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसा याद पड़ता है कि सबसे पहिले प्रभात इतिहासज्ञ स्व० श्री नाथूरामजी प्रेमी का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। इसके बाद श्री वर्णी प्रभिनन्दन ग्रन्थ श्री चन्दावाई अभिनन्दन ग्रन्थ श्री महात्मा हजारीबाल प्रभिनन्दन ग्रन्थ, विजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रन्थ श्री रजिस्सूरि स्मारक ग्रन्थ, तुलसी अभिनन्दन ग्रन्थ, कानजी स्वामी अभिनन्दन ग्रन्थ भादि भनेको अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हुए जो अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण और संग्रह योग्य है।
एक लम्बे में मे मेरा विचार था कि बाबू छोटेलालजी का भी एक ऐसा ही अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जाय। यह विचार मेने मेरे प्रिय शिष्य श्री वंशीधर शास्त्री एम० ए० के सामने रखा और उन्होंने इस विचार को आगे बढ़ाया। इसके फलस्वरूप कलवल में श्री छोटेलाल अभिनन्दन समिति
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का निर्माण किया गया और अभिनन्दन ग्रन्थ की सारी प्रार्थ-व्यवस्था का भार श्रीमान सेठ जुगमंदिर लालजी जैन ने अपने ऊपर लिया। एक सम्पादक मण्डल चुना गया। हिन्दी और अंग्रेजी में अधिकारी विद्वानों से लेख मंगाये गये । लेख और संस्मरण एकत्रित हो जाने के बाद यह प्रश्न सामने पाया कि उसका प्रकाशन कलकत्ता, जयपुर या वाराणसी इन तीन स्थानों में से कहां करवाया जाय इस उधेड़बुन ने काफी समय ले लिया। में बारबार तकाजा करता रहा कि अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन में विलम्ब करना ठीक नहीं है किन्तु मेरे तकाजों का कोई फल नहीं निकला। उनका स्वास्थ्य दिनों दिन गिरता जारहा था। मैं ही नहीं अनेक दूसरे सज्जन भी उनके स्वास्थ्य के विषय में चितित थे। वे तो चिर रोगी थे। एकाएक रोग का प्रकोप बढ़ा और उसने उनके जीवन को सदा के लिए प्रस्त कर दिया। यह समाचार सभी ने ममन्तिक वेदना के साथ मुना। इस घटना ने अभिनन्दन की सारी योजना को अस्त-व्यस्त कर दिया। कितना अच्छा होता कि उनके जीवनकाल में यह अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो जाता। किन्तु स्वामी समन्तभद्र के शब्दों में "अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयम्" के अनुसार होता वही है जो होना होता है । भवितव्य के विधान को कौन टाल मकता है। ऐसी स्थिति में हमारे सामने इसके सिवाय दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह गया था कि उनके इस अभिनन्दन ग्रन्थ को उनके स्मृतिग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया जाय । उनके अनुकरणीय जीवन से हमें उनके देहावसान के बाद भी प्रेरणा मिलती रहे यही इस स्मृति ग्रन्थ के प्रकाशन का उद्देश्य है।
इस प्रसंग में उनके महान् व्यक्तित्व के विषय में भी यहां हम दो शब्द लिख देना अपना कर्तव्य समझते हैं।
बाबूजी वस्तुतः परहितनिरतवृत्ति थे । वे सहानुभूति, सेवा और सहयोग के मूर्तिमान समन्वय थे। उनकी इस समन्वयता का पता उनके जीवन के अध्ययन से चलता है।
वास्तव में तो मनुष्य अज्ञेय है। इसका कारण यह है कि वह अनन्त चिसवृत्तियों का केन्द्र है और वे चित्तवृतियां अत्यन्त परोक्ष होने के कारण औरों की कौन कहे स्वयं मनुष्य की अनमति में नहीं पातीं। जब बे कदाचित जागृत होती है तब उसको उनका अनुभव होता है। किन्तु अधिकांश भाव तो ग्रशुद्ध ही रहते हैं। जो चित्तवृतिया जागृत होकर मनुष्य की अनुभूति में प्रा जाती है उन्हें बहुत बार वह माया का प्राधय लेकर बाहर नहीं माने देता; इसलिए कि उसकी कमजोरी का दूसरों को पता न लग जाय, और वह अपरिजेय ही बना रहता है। यह सच है कि मनुष्य जितना मनुष्य से डरता है उतना दूसरे विमो से भी नहीं डरता इसलिए उसके सामने बह अपने असली रूप में बहुत कम प्राता है। कोई भी मनुष्य किमी दूसरे मनुष्य के बाह्य कार्यों को देख कर ही उसके प्रशस्त एवं प्रशस्त होने का अनुमान करता है, इस का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य में यदि माया का बाहुल्य हो तो उसका ठीक रूप से अध्ययन करना बहुत कठिन हो जाता है। कारण यह है कि उस पर लोकंषणा का भूत बुरी तरह सवार रहता है।
यह छोटी सी भूमिका हमें इस संस्मरण को ठीक समझने में सहायता देगी। कहना यह है कि बाव छोटेलालजी में मैंने जो सबसे बड़ी बात देखी वह है उनकी निःशल्यवृत्ति। मैं इसे ही म मुण्यता की
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(ग)
कसोटी समझता हूँ। जैन-दर्शन को भी यही मान्यता है । शल्य का अर्थ है माया। जहां माया है वहां सचाई की थाह पाना मुश्किल है। मैंने बाबूजी को इस कसौटी पर कसा था। उनमें जो दया और करुणा का स्रोत बहता था उसमें प्रदर्शन का स्वांग नहीं था। मुझे बाहर भीतर एक से जान पड़े। दुनियां में विद्वानों की कमी नहीं, दानियों की भी विकलता नहीं और कार्यक्षम लोग भी यत्र-तत्र बहत है। ये सारी चीजें प्रदर्शन को प्राधार बनाकर भी दुनियां को मांखों में धूल झोंक सकती हैं। इसलिए इनसे कभी मानवता नहीं निखर सकती।
बाबूजी को मैंने काफी निकट से देखा था। वे दो बार जयपुर प्राये । दूसरी बार तो केवल तीन दिन ही रहे; किन्तु जब वे पहली बार चिकित्सा के लिए यहां आये तो एक लम्बे अर्से तक ठहरे। इसके पहले 'बीरवाणी' के प्रकाशन के बाद व्यक्तिगत पत्रों के माध्यम से आपके साथ मेरा संपर्क स्थापित हो गया था; किन्तु कभी साक्षात्कार नहीं हुआ था। बाबूजी जब मुझे पहली बार मिले तो उनके व्यक्तित्व का मुझ पर काफी प्रभाव पड़ा । जयपुर में कुछ दिन चिकित्सा करा लेने के बाद स्वर्गीय सेठ भदीचंदजी जयपुर द्वारा निर्मापित वेदी वी प्रतिष्ठा के अवसर पर जब वे महावीरजी गये तब हम करीब पांच दिन एक ही जगह रहे, एक ही जगह खाया-पिया, उठे बैठे और सोए; एक ही साथ कार में गये मोर एक ही साथ वहां से वापिस आये। उस समय सामाजिक एवं दूसरे विषयों पर उनसे मेरी खुलकर बातें होती थी। उस प्रसंग में मैं उनके व्यक्तित्व का अविकल रूप में अध्ययन कर सका था।
बावूजी वस्तृतः साहित्यिक पुरातत्व प्रेमी, सेवाभावी एवं सामाजिक कार्यकर्ता थे। जयपुर में चिकित्सा के दौगन भी मैने देखा कि वे स्वास्थ्य की बिना परवाह किये घण्टों तक अविरत भाव से काम करते रहते थे । जयपुर के शास्त्र भण्डारी के उल्लेखनीय प्राचीन एवं सचित्र ग्रन्थों को मंगाकर वे देखते. उनके फोटो लिवाने का प्रबन्ध करते और ऐसे ही पुनीत प्रयत्नो में वे लगे रहते। मैं बीमारी के समय इतना अधिक काम करने के लिए उन्हें मना करता पर उन्होंने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। जैन साहित्य एवं पुरातत्त्व के प्रचार के लिए ऐसी लगन, ऐसी श्रद्धा और प्रास्था मैने अन्यत्र कहीं नहीं देखी। एक धनी कुल में उत्पन्न एवं संपन्न व्यक्ति में मानोपासना के प्रति इतनी लगन होने के उदाहरण हमारे देश में कम हो मिलेंगे।
बाबूजी ने यहां की कुछ संस्थानों और वीरवाणी को अपने जयपुर प्रवास के समय कितनी अार्थिक सहायता दी, इसका उल्लेख यहां नहीं करूगा; किन्तु मैं इस प्रसंग में उनकी एक उल्लेखनीय मानव वत्ति के उपस्थित करने का लोभ संवरण नहीं कर सकता। जब बाबूजी अपनी चिकित्सा के लिए यहां पाये तब पुरातत्व प्रेमी एवं अनुसंधानप्रिय स्थानीय विद्वान श्री श्रीप्रकाश शास्त्री क्षय रोग से ग्रस्त थे। बावजी वीरवाणी में प्रकाशित उनके खोजपूर्ण लेखों से प्रभावित थे। जब उन्हें इनके रोगग्रस्त होने का पता चला तो बाबूजी बहुत वितित हुए और मुझे कहने लगे कि इस होनहार युवक को जैसे हो वैसे बचाइये । इन्हें मैनीटोरियम में भर्ती करा दीजिए । वहां का सारा खर्चा मैं देता रहूंगा । बाबूजी ने अपनी बात अन्त तक निभाई किन्तु विधि के विधान को कौन टाल सकता है ? सैनीटोरियम की चिकित्सा से कोई लाभ नहीं हया और एक लम्बी अवधि के बाद उनका देहान्त हो गया।
मैने देखा कि बाबूजी में धर्म के मानव रूप का प्रकाश जल रहा था। उनकी कृपा जहां भी प्रस्फुटित होती कुछ करके हो विश्राम लेती। उनकी दया भी दान रहित नहीं होती थी। वे अनुकंपा
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से किसी भी दुःख कंपित को देखकर स्वयं काँपने लगते और उसकी अवश्य सहायता करना अपना कर्तव्य समझते। ऐसा जान पड़ता जैसे ये सारे ही पुनीत कार्य उनके जीवनव्रत बन गये हों। मैंने उन्हें जब कभी किसी युवक को उसके योग्य कोई काम दिलाने के लिए लिखा उन्होंने उसे काम दिलाफर ही ईन ली। मै समझता हूं कि वे मानव हित के लिए कभी थकान का अनुभव नहीं करते थे । रोग शय्या पर पड़े-पड़े भी वे जनहित के कार्यों में लगे रहते और प्रायः सफल भी होते ।
बाजो स्वतंत्र विचारक थे । रुढियों के गुलाम नहीं थे। वे युगानुमारी विचारधारा के कट्टर समर्थक थे। उनमे मादमी को ही नहीं उसकी लियाकत को परखने की भी क्षमता घो। यद्यपि वे मावक थे; किन्तु उस भावुकता का उपयोग दूसरों के उपकार के लिए ही होता था। उपकार की जहां प्रावश्यकता होतो वहीं उनकी क्षमता का उपयोग होता । मुझे उनकी दानवृत्ति के विषय में भी कुछ कहना है। मेरा खवाल है कि उनके दान में तामसिकता और राजसिकता की अपेक्षा सात्विकता की अधिक प्रेरणा होती थी। देश, काल और पात्रता का विचार करके ही बे दान में प्रवृत्त होते थे। उन्हें अपने दान का शोर कतई पसंद नहीं था। उन्होंने मुझे कई बार लिखा था कि उनको किसी भी उपकृति की खबर द्रमरों को न हो। इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसी मानव वृत्ति दुनियां में बहुत दुर्लभ है। वे लोकंषणा से सदा हो दूर रहना चहते थे। मैने चाहा कि बाबूजी को जयपुर बुलाकर उनका यहां सार्वजनिक अभिनन्दन किया जाय; किन्तु जब उन्हें मेरे इस इरादे का पता चला तो उन्होंने जयपुर प्राने का विचार ही छोड़ दिया।
बावजी से जैन समाज का हर क्षेत्र प्रभावित था। पूंजीपति, विद्वान, सामाजिक कार्यकर्ता, ले.क.पूरातत्व प्रेमी और कलाकार प्रादि मभी पर उनकी धाक थी। जैसा कि पहले कहा है उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी उनकी परहित निरतवृत्तिता और इसी कारण वे सब के प्राकर्षण के केन्द्र बने हए थे। यप वे चिररोगी थे फिर भी अपनी पहितनिरत वत्तिता को सजीव बनाए हए थे। उसमें कभी व्यवधान नहीं आने देते थे। सचमुच बे जीवन्त साहस के पुतले थे। रोग के प्र.क्रमणकारी दौरों की जैसे उन्हे परवाह हो नहीं थी। इस रोगी शरीर से वे अपने प्रक्षय यशः शरीर का निर्माण कर देश की भावी पीढी के लिए एक प्रादर्श उपस्थिन कर रहे थे। ऐसे असाधारण व्यक्तित्व का थोड़ा बहत परिचय ऐसे स्मृति प्रथों के प्राधार से ही मिल सकता है और यही इसके प्रकाशा का उद्देश्य भी है।
इस स्मृति प्रथ को यथाशक्ति उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है। फिर भी इसमें कमिय एवं त्रुटियां रहना समव है। मनुष्य तो प्रशक्त एवं अक्षम है इसलिए उसकी अक्षमताएं क्षमा करने के योग्य हैं।
इस स्मृति अथ की सफलता का सारा श्रेय खासकर उन विद्वान लेखकों को है जिन्होने इसके लिए अपनी कोमती रचना भेजकर हमें अनुगृहीत किया है।
-चैनसुखदास
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प्रकाशकीय वक्तव्य
सुप्रसिद्ध समाज सेवी, पुरातत्ववेत्ता, उदारमना बाबू छोटेलालजी जैन समाज के प्रमुख व्यत्ति थे । उन्होंने समाज संगठन और सुधार तथा संस्कृति के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । भारत की राजधानी देहली स्थित वीर सेवा मंदिर उनके अथक श्रम एवं पुरातत्व प्रेम का प्रतीक है । उनका साहित्य प्रेम एवं विद्वानों के प्रति श्रद्धाभाव अनुकरणीय है। वे अपने व्यापारिक कार्यों का उत्तरदायित्व निभाते हुए निरंतर अस्वस्थता के काल में भी समाज सेवा, संस्कृति, पुरातत्त्व, व्यावसायिक संगठनों मादि के लिए अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते रहते थे।
अनेक मित्र प्राप जैसे ममाज सेवी का अभिनन्दन करने का विचार प्रकट करते रहते थे किंत प्रापने अभिनन्दन कराना कभी स्वीकार नहीं किया क्योकि पाप विज्ञापन के बिना सेवा में ज्यादा विश्वास करते थे।
श्रद्धय पं० चैनसुखदासजी अध्यक्ष जैन संस्कृत कालेज, जयपुर मुझे उनके प्रभिनन्दन के लिए प्रेरणा करते रहते थे लेकिन बाबूजी से जब कभी इसकी चर्चा छेड़ता वे ऐसा विरोध करते कि कई दिन तक इस विचार को पुनः उठाने का साहस ही नहीं होता था ।
सन ६४ की रक्षा बंधन के पावन दिवस पर हम कुछ मित्रों ने बाबूजी को अस्वस्थता एवं वाक्य को लक्ष्य में रखकर उनके अभिनन्दन का निश्चय किया और उस निश्चय को उनकी जानकारी बिमा ही क्रियान्वित करना प्रारम्भ कर दिया।
इस कार्य के लिए श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन समिति का गठन किया गया। जिसकी सदस्य सूची प्रागे दी गई है ) समाज के प्रमुख व्यक्तियों ने बाबूजी का अभिनन्दन करने के निश्चय की प्रशंसा की एवं अपना सहयोग देने का प्राश्वासन दिया।
समिति की प्रथम बैठक २८ फरवरी सन् ६५ को बैलगछिया उपवन में उद्योग पति श्री मिश्री. लालजी जैन की अध्यक्षता में हुई। समिति ने बाबूजी के अभिनन्दन के प्रतीक स्वरूप अभिनन्दन
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समर्पण करने का निश्चय किया। प्रथ के संपादनार्थ निम्नलिखित विद्वानों का संपादक मण्डल गठित किया गया:
श्री पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ, जयपुर । ., डा० ए० एन० उपाध्याय, कोल्हापुर । ,, पं० कैलाशचन्दजी शास्त्री; वाराणसी। , अगरचन्दजी नाहटा; बीकानेर । डा. कस्तूरचन्द काशलीवाल; जयपुर । डा. सत्यरंजन बनर्जी; कलकत्ता । कालीदास नाग ।
ग्रंथ में हिन्दी एवं अंग्रेजी के लेख रखना स्वीकार किया गया।
खेद है कि इनमें से थी कालीदास नाग का देहावसान होगया।
' समिति ने निश्चय किया कि ग्रन्थ के मुद्रण प्रादि का कार्य पं० चैनसुखदास जी के सानिध्य में जयपुर में ही हो। एतद्धेतु एक ऐसे व्यक्ति को आवश्यकता अनुभव की गई जो प्रूफ रीडिंग प्रादि एवं अन्य कार्यों में उन्हें सहयोग दे सके और जो संस्कृत, अंग्रेजी का विद्वान् हो । अतः एतदर्थ पं० भंवरलालजी पोल्याका, जैनदर्शनाचार्य, की नियुक्ति को गई और उन्होंने यह कार्य करना स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप श्री नाग के स्थान पर उनका सहवरण किया गया।
उक्त निश्चयानुसार अभिनन्दन ग्रंथ की तैयारी की जाने लगी। पं० चैनसुखदासजी एवं डा० उपाध्यायजी ने क्रमशः हिन्दी, एवं अंग्रेजी के लेखों का संपादन किया है। संपादक मण्डल के अन्य सदस्यों ने यथाशक्य सहयोग दिया है। इसके लिए समिति इन विद्वानों के प्रति हादिक प्रामार प्रकट करती है। जिन विद्वानों एवं महानुभावों ने ग्रन्थ के लिए लेखादि देकर सहयोग दिया उनकी भी समिति बहुत भाभारी है।
अभिनन्दन ग्रन्थ की सामग्री के संकलन एवं संपादन हो जाने के बाद भी किन्हीं कारणों से उसका प्रकाशन प्रारम्भ नहीं हुअा था कि बाबूजी का स्वास्थ्य अचानक अधिक खराब हो गया और उन्हें ११ दिसम्बर सन् ६५ को अस्पताल में ले जाया गया। वहां कभी उनके पुनः स्वस्थ होने को पाशा दिखती और कभी वह पाशा क्षीण होती थी। वे उस अवस्था में भी साहित्य एवं समाज तथा विद्वानों की चर्चा में पूर्ण रस लेते थे।
. मृत्यु से १० दिन पूर्व उन्होंने कहा था "देखो ! पं० लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद ही राष्ट्रपति ने उनको भारतरत्न की उपाधि दी है। व्यक्ति की मृत्यु के बाद ही उसका अभिनन्दन होना
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श्रेयस्कर है । मेरा भी अभिनन्दन या जो कुछ करना हो मेरी मृत्यु के बाद करना ।" उनकी हादिक भावना पूरी हुई और हमारा अभिनन्दन न लेते हुए वे २६ जनवरी ६६ के दिन हमसे हमेशा के लिए बिछुड़ गए।
इस योजना में सहयोग देने वाले सभी धीमानों एवं श्रीमानों के प्रति समिति प्राभार प्रकट करती हुई कामना करती है कि बाबूजी की प्रात्मा समाज की भावी पीढी के पथप्रदर्शन के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य करती रहे।
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सदस्य-सूची
कलकत्ता
१. साहू शांतिप्रसादजी जैन २. श्री विजयसिंहजी नाहर ३. .. सोहनलालजी दूगड़ ४. , नरेन्द्रसिंहजी सिंधी ५. ,, यशपालजी जैन देहली ६. ,, जुगलकिशोरजी मुख्तार , ७. ,, जुगमंदिरदासजी जैन कलकत्ता ८. ,, प्रेमचन्दजी जैन देहली ६. ,, जैनेन्द्रकुमारजी , १०. ,, पं० चैनमुखदासजी न्यायतीर्थ, जयपुर ११. ., मूलचन्द किसनदास कापड़िया सूरत १२. , धर्मचन्दजी सरावगी फलकत्ता १३. , इन्द्र दूगड़, १४. ,, श्रीचन्दजी रामपुरिया , १५. ,, गोपीचन्दजी चौपड़ा , १६. ,, सत्यभक्तजी, वर्धा १७. ., नवरतनमलजी सुगणा कलकत्ता
१८. श्री लाभचन्दजी सुराणा १६. , मिश्रीलालजी २०. , नथमलजी सेठी २१. , मोहनलालजी साह २२. डा० ए० एन उपाध्याय, कोल्हापुर २३. श्रीमती चंदाबाई जी पारा २४. डा० नेमीचंदजी जैन, पारा २५. पं० कैलाशचन्दजी शास्त्री, वाराणसी २६. पं० जगमोहनलालजी कटनी २७. श्री भगवतरायजो जैन देहली २८. , अगरचन्दजी नाहटा बीकानेर २६. ,, नथमलजी टांटिया वैशाली ३०. , बाबूलालजी जैन कलकत्ता ३१. , लक्ष्मीचन्दजी जैन , ३२. , डा. कस्तूरचंदजी कासलीवाल जयपुर ३३. ,, बंशीधर शास्त्री कलकत्ता ३४. ,, गजराजजी गंगवाल कलकत्ता
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३५. श्री अमरचन्दजी पहाड़िया कलकत्ता ३६. .. मदनलालजी काला ३७. , मदनलालजी पाण्डया ३८. ,, हिम्मतसिंहजी जैन ३६. , बाबूलालजो पाटणी ४०. , शिखरचन्दजी पहाड़िया ४१. ,, किसनलालजी काला ४२. , इन्द्रचंदजी पाटणी ४३. प्रो० कल्याणचंदजी लोढ़ा ४४. श्री सुरजमलजो बच्छावत ४५. , गजानन्दजी पांड्या गया । ४६. रा० ब० हरखचंदजी रांची ४७. श्री मोहनलालजी पाटणी कलकत्ता ४८. ,, जगन्नाथजी पाण्ड्या कोडरमा ४६. ,, सागरमलजी गिरड़ी ५०. नेमीचन्दजी पांख्या गौहाटी ५१. ,, चांदमलजी पांच्या
५२. श्री भंवरलालजी बाकलीवाल मनीपुर ५३. ,, भागचन्दजी सोनी अजमेर ५४. , राजकुमार सिंहजी इंदौर ५५. , मटरूमलजी बनाड़ा मागरा ५६. ,, महेन्द्रजी
मागरा ५७. , प्रचसिंहजी ५८. , छिदामीलालजी फीरोजाबाद ५६. , विमल चन्दजी खरखरी ६०. , बद्रीप्रसादजी सरावगी पटना ६१. ,, दीपचन्दजी नाहटा कलकत्ता ६२. ,, सुबोधकुमाजी पारा ६३. , सीतारामजी सेकसरिया कलकत्ता ६४. , रामेश्वरजी टाटिया ६५. डा० बनारसीदासजी केडिया , ६६. श्री नन्दलालजी ६७., बजरंगलालजी जैन
बन्शीधर शास्त्री
संयोजक श्री छोटेलाल जैन अभिनन्दन समिति
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सम्पादकीय
जिनके जीवन में करुणा, अनुकंपा एवं सहानुभूति श्रादि अनेक मानवीय सद्वृत्तियों की प्रजा धारा बहती रहती है वे सभी के लिए अनुकरणीय होते हैं। ऐसा जीवन हर एक के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकता है और उसकी विशेषताएँ वर्तमान एवं प्रश्रनागत मनुष्य के जीवन निर्माण के लिए सहायक हो सकती हैं। स्वर्गीय बाब छोटेलालजी जैन कलकत्ता ऐसे ही मानवो चित गुणों के धनी थे ग्रतः उनके प्रति सामूहिक कृतज्ञता प्रकट करने के लिए इस स्मृति ग्रंथ का प्रकाशित करना अत्यन्त श्रावश्यक था। इस स्मृतिग्रंथ में उनके जीवन परिचय एवं संस्मरण श्रद्धांजलियों के अतिरिक्त अनेक महत्त्वपूर्ण निबन्ध भी हैं जो पाठकों को विभिन्न विषयों के ज्ञानार्जन में सहायक सिद्ध होंगे।
इस ग्रंथ में चार खण्ड है ।
इस स्मृति ग्रंथ के प्रथम खण्ड में स्वर्गीय बाबू छोटेलालजी जैन के प्रेरणास्पद व्यक्तित्व की झांकी प्रस्तुत करने के साथ साथ उनके भाव भरे संस्मरण और विनम्र श्रद्धांजलियां हैं द्वितीय खण्ड में इतिहास, पुरातत्त्व एवं शोध सम्बन्धी सामग्री है। तृतीय खण्ड में साहित्य, धर्म और दर्शन सम्बन्धी लेख हैं । चतुर्थ खण्ड में अंग्रेजी में लिखे हुए विवरणा पूर्ण लेख हैं। पाठकों की सुविधा हेतु प्रथमखण्ड को छोड़कर शेष खण्डों की सामग्री की संक्षिप्त सी सूचना यहां दी जा रही है ।
'प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेशभूषा" के लेखक श्री गोकुलचन्द्र जैन हैं । आपने श्राचार्य सोमदेव कृत 'यशस्तिलक चम्मू' जो दसवीं शताब्दी की प्रसाधारण, महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय रचना है, के आधार पर तत्कालीन भारतीय वस्त्र एवं वेशभुषा पर प्रकाश डाला है । लेख में सामान्य वस्त्रों का ही नहीं सिले हुए वस्त्रों का भी वर्णन है। लेख से केवल तत्कालीन भारतीय और विदेशी वस्त्रों और वेशभूषा का ही ज्ञान नहीं होता श्रपितु उस समय के वस्त्रोद्योग और भारत के विदेशों के साथ सम्बन्धों का भी परिचय मिलता है ।
" बप्पभट्ट चरित : ऐतिहासिक महत्व" कुरुक्षेत्र विश्व विद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष श्री हरिश्रनन्त फड़के की कृति है । 'बभट्टि चरित्' प्राचार्य प्रभाचन्द्र के प्रभावक चरित' का एक अंश है। ग्रंथ की रचना समाप्ति ई० स० १२७७ में हुई थी। लेखक के अनुसार उसमें राजा श्राम नागावलोक के सभा पंडित श्राचार्य वप्पमट्टि का जो जीवन-चरित है उसका केवल धार्मिक ही नहीं अपितु ऐतिहाकि महत्व भी है। 'बप्पभट्टि चरित्' में वरिणत ऐतिहासिक
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इतिवृत्त का समर्थन अन्य प्रमाणों से भी होता है । लेख इतिहास के विद्वानों और छात्रों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
"महाकवि रइधू युगीन अग्रवालों की साहित्य सेवा' डा० राजाराम जैन एम. ए. पी. एच. डो. की रचना है। इसमें अग्रवाल जातीय महाकवि रइधू और उनके समसामयिक अग्रवाल बन्धुमों को साहित्यसेवा का वर्णन किया गया है। लेख से अग्रवाल जाति के इतिहास के एक परिच्छेद का परिचय प्राप्त होता है।" वास्तव में जैन ग्रंथों की प्रशस्तियां केवल जैन इतिहास के लिए ही नहीं भारतीय इतिहास के लिये भी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती हैं और उनके अध्ययन से इतिहास को कई विलुप्त कड़ियां जोड़ी जा सकती हैं । लेख संग्रह योग्य है।
"हिन्दो आदिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य" के रचनाकार श्री श्याम वर्मा, एम. एस. सी. एम. ए. (संस्कृत, अंग्रेजी एवं हिन्दी) हैं। प्रस्तुत निबन्ध में विक्रम की आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक के जैन प्रबन्ध काव्यों का संक्षिप्त पर्यालोचन किया गया है। लेखक ने महाकवि स्वयंभूदेव, महाकवि पुष्पदन्त, और हरिभद्रसरि की रचनाओं पर एक पालोचनात्मक दृष्टि डालते हुए कहा है कि इनकी विधानों, शैलियों, काव्यरूढ़ियों आदि की पूर्व परम्परा और परवर्ती काव्य पर प्रभाव विस्तृत अध्ययन के विषय हैं । हिन्दी साहित्य के इतिहास के अध्येताओं के लिए निबन्ध का महत्त्व स्पष्ट है ।
___ "जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप" श्री प्रेमसुमन एम. ए. रिसर्चस्कालर की रचना है जिसमें जैन संस्कृति में नारी की स्थिति, वैवाहिक परम्परा, बौद्धिक नारियां, कलाविशारद, वीरांगना, सती प्रथा, विधवा विवाह, बहुपत्नीत्व प्रथा पर्दाप्रथा, गणिकाएं, साध्वी नारियां, एवं स्त्रियों की निन्दा और प्रशंसा आदि विषयों पर विविध रूपों और दृष्टिकोणों से नारी का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
'जैन समाज के प्रान्दोलन" में सत्यसमाज के संस्थापक स्वामी सत्यभक्त ने जैनसमाज के पिछले साठ सत्तर वर्षों के आन्दोलनों का एक विहंगम सिंहावलोकन प्रस्तुत करते हुए अपने साथ बाब छोटेलालजो के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला है।
"मथुरा की प्राचीन कला में समन्वयभावना' के लेखक श्री कृष्णदत्त वाजपेयी हैं । लेख में लेखक ने मथुरा से प्राप्त प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री का विवेचन प्रस्तुत करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि यहां के कुशल कलाकार अनेक देशी और विदेशी तत्वों तथा भारतीय धर्म एवं दर्शन को विविध धाराओं का समन्वित रूप प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। पुरातत्व प्रेमियों और शोधकर्ताओं के लिए लेख का महत्व स्पष्ट है।
"भट्टारक युगीन जैन संस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियाँ"-लेखक-डा० नेमीचन्द्र शास्त्री, एम. ए. डी. लिट् पारा हैं। अध्ययनशील और विद्वान लेखक ने इस निबन्ध में १३वीं शती से १८वीं शती तक के भट्टारक युगीन 'पौराणिक चरितकाव्य," "लधुप्रबन्धकाव्य," "संदेश या दूतकाव्य" प्रादि पन्द्रह प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास प्रादि पर मनन करने योग्य एवं
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गवेषणापूर्ण विचार किया है। वास्तव में लेखक का यह कथन कि ग्रन्यबाहुल्य को दृष्टि से तो इस युग का महत्व है ही, पर विविध विषयक रचनायो की दृष्टि से भी इस युग का कम महत्व नहीं है, अक्षरशः सत्य है।
___ 'पंच कल्याणक तिथियां और नक्षत्र' लेखक-श्री मिलापचन्द कटारिया, केकड़ी। प्रस्तुत निबंध में लेखक ने उत्तरपुराण, अपभ्रंश महापुराण और कल्याण माला इन तीनों ग्रंथों की पंचकल्याणक तिथियों के मतभेद को ज्योतिषशास्त्र के प्रमाणानुमार शुद्ध करके समन्वित किया है और अन्त में पंचकल्याणकों को शुद्ध तिथियों और नक्षत्रों का एक चार्ट दिया है । लेखक को युक्तियां अकाट्य मालूम होतो हैं और एतद् सम्बन्धी विवाद को समाप्त करने में सक्षम हैं। लेखक ने यह लेख बड़े अध्ययन और परिश्रम से लिखा है।
"जैन ग्रंथों में राष्ट्रकूटों का इतिहास' लेखक-श्री रामबल्लभ सोमानी। जैन ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। यदि इनका परिश्रम पूर्वक अध्ययन किया जावे तो भारत के इतिहास की कई विलुप्त कड़ियां सहज ही जोड़ी जा सकती हैं। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जैन ग्रथों से राष्ट्रकूटों के इतिहास का वर्णन किया है जो श्लाघनीय है।
"भारतीय साहित्य में सीता हरण प्रसंग" लेखक-डा० छोटेलाल शर्मा एम. ए. पी. एच. डी. । प्रस्तुत लेख में भारतीय वाङ्मय में सीता हरण प्रसंग से सम्बन्धित जितने भी प्रकार की धाराएं उपलब्ध होती है उन सबका विवेचन किया गया है।
'प्राचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज" लेखक-डॉ० जयशंकर मिश्र एम. ए. पी. एच. डी. प्रस्तुत निबंध में प्राचार्य हेमचन्द्र के ग्रंथों के अाधार पर भारतीय समाज सम्बन्धी उल्लेखों का विश्लेषण और मूल्यांकन किया गया है । वर्णव्यवस्था केसी थी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों का समाज में क्या स्थान था, शूद्रों की उत्पत्ति कैसे हुई, प्रादि विषयों द्वारा तयुगीन समाज के स्वरूप को समझने में लेख से बड़ी सहायता मिलती है।
५वीं शती के प्राकृत ग्रन्थ वसुदेव हिन्डी की रामकथा"-लेखक श्री अगर चन्द नाहटा । प्रस्तुत लेख में लेखक ने यह सिद्ध किया है कि सीता रावण की पुत्री थी अथवा जनक की, एतद सम्बन्धी विवाद भारत में ५वीं शती से भी प्राचीनतर है। ग्रंथ के नाम के साथ जो हिन्दी शब्द लगा है हमारे विचार मे वह हिन्दी का ही पूर्व रूप है । वसुदेव हिन्डी अर्थात् वसूदेव भाषा अथवा हिन्दी भाषा में वसुदेव चरित्र । अगर हमारा यह विचार सत्य है तो हिन्दी शब्द और हिन्दी भाषा का प्रादुर्भाव ५वीं शतो से भी अधिक पूर्व में चला जाता है। भाषा सम्बन्धी शोध कर्तामों के लिये 'वसुदेव हिन्डी' वास्तव में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी सिद्ध हो सकता है।
'अग्रवालों का जैन धर्म में योगदान' लेखक-श्री परमानन्द शास्त्री। प्रस्तुत लेख मे बारहवीं शताब्दी से लेकर आज तक अग्रवाल जाति का जैन धर्म के प्रचार और विकास में क्या पौर कितना योग रहा है इस पर ऐतिहासिक दृष्टि से संक्षिप्त विवेचन किया है। अग्रवाल जाति का यदि इतिहास लिखा जावे तो यह निबन्ध लेखक को महत्त्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करने में समर्थ है।
हिन्दी का आदिकाल और जैन साहित्य' लेखक-डा० छविनाथ त्रिपाठी एम. ए.पी. एच. डी.। प्रादिकालीन जैन साहित्य की उपेक्षा कर हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल के स्वरूप और
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( ढ )
उसके सर्वागीण महत्त्व का आकलन कर पाना संभव नहीं है, यह है वह निष्कर्ष जो लेखक ने हिन्दी के प्रादिकाल के जैन ग्रंथों का रासक, मुक्तक प्रादि शीर्षकों के अन्तर्गत परिचय दे निकाला है । लेखक ने जो कुछ कहा है उसके विषय में दो मत नहीं हो सकते । खेद है कि इधर इस सम्बन्धी शोध कार्य बहुत कम हुआ है। जब तक तत्कालीन प्राप्त जैन ग्रन्थो का इस दृष्टि से अध्ययन न किया जाये हिन्दी साहित्य के आदिकाल के इतिहास के पन्ने भरे नहीं जा सकते ।
'दो ऐतिहासिक रचनाएं' लेखक - श्री भंवरलाल नाहटा । इस लेख में 'श्री पूज्य श्री चिन्तामणिजी जन्मोत्पत्ति स्वाध्याय, तथा 'गणनायक श्री खेमकरणजी जन्मोत्पत्ति संथारा विधि' नामक दो रचनाओं का परिचय दिया गया है जो १८वीं शताब्दी की हैं और अब तक प्रकाशित हैं ।
"राष्ट्रीय संग्रहालय में मध्यकालीन जैन प्रस्तर प्रतिमाएँ" लेखक - श्री बृजेन्द्रनाथ शर्मा एम. ए. प्रस्तुत निबन्ध में राष्ट्रीय संग्रहालय में संगृहीत कतिपय जैन प्रस्तर प्रतिमानों का, जो मध्यकालीन हैं, परिचय दिया गया है। जिनका परिचय प्रस्तुत लेख में है वे प्रतिमाएँ ऋषभनाथ, सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ, तीर्थकर, गोमेध श्रीर अम्बिका तथा अम्बिका की हैं। लेख सचित्र है ।
" श्राचार्य जिनेश्वर श्रीर खरतरगच्छ " लेखक - साहित्य महोपाध्याय श्री विनयसागरजी । इस लेख में खरतरगच्छ के उद्भावक प्राचार्य जिनेश्वर सूरि के जीवन दर्शन पर विवेचन करते हुए खरतरगच्छ शब्द पर विचार किया गया है तथा खरतर गच्छ का उत्पत्ति काल सं० १०६६ से १०७८ के मध्य महाराजा दुर्लभराज के राज्यकाल मे सिद्ध किया है।
"जैनधर्म की प्राचीनता एवं सार्वभौमिकता" लेखक - डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री | लेख में अनेक पुष्ट प्रमाणों और युक्तियों द्वारा जैन धर्म को प्राचीन श्रौर सार्वभौम प्रमाणित किया गया है । लेख परिश्रमपूर्वक लिखा गया है और जैन इतिहास का अध्ययन करने वालों के लिए इसकी महत्ता स्वयंसिद्ध है ।
"बीसवीं सदी विक्रमी के जैनसंत योगी श्रीमद्राजचन्द्रजी" लेखक - श्री कस्तूरमल बाँठिया | श्रीमद्राजचन्द्र से प्रायः प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी पाठक परिचित होगा। श्रीमद् का प्रभाव गांधीजी ने स्वयं अपने ऊपर होना स्वीकार किया था । लेख पाठक को सदाचार की प्रेरणा देता है।
'जैन ज्योतिष के प्राचीनतमत्व पर संक्षिप्त विवेचन" लेखक- वंद्य प्रकाशचन्द्र पांड्या श्रायुर्वेदाचार्य । जैसा कि लेख के शीर्षक से स्वयं प्रकट है प्रस्तुत लेख में जैन ज्योतिष को प्राचीनतम सिद्ध किया गया है। इस विषय में रुचि रखने वाले विद्वानों के लिये लेख महत्वपूर्ण है और परिश्रमपूर्वक लिखा गया है।
"जैन दर्शन के प्रमुख प्रवक्ता श्राचार्य समन्तभद्र" लेखक-प्रो० उदयचन्द्र जैन एम. ए. । उक्त लेख में प्राचार्य समन्तभद्र के दार्शनिक विचारों पर प्रकाश डाला गया है। दर्शन का क्या
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अर्थ है ? जैन दर्शन के इतिहास में समन्तभद्र का क्या स्थान है ? उनके समय की दार्शनिक विचारधारा क्या थी? उन्होंने सर्वज्ञ और वस्तु में उत्पाद व्यय ध्रौव्य की सिद्धि किस प्रकार की है ? आदि विषयों का विवेचन है जिससे पाठक को समन्तभद्र की दार्शनिक विचारधारा का तो भान होता ही है, साथ ही जैन दर्शन की मुख्य-मुख्य बातों का भी ज्ञान हो जाता है।
__"प्रातः स्मरणीय सन्त गणेश वर्णी" लेखक-नीरज जैन । नीरजजी हिन्दी के जाने माने लेखक हैं । गणेशप्रसादजो वर्णी के नाम से भी शायद ही कोई जैन अपरिचित हो । उन जैसे सरल स्वभावी साधु कम ही देखने में पाते हैं।
"पागमों व त्रिपिटकों के संदर्भ में अभयकुमार" लेखक मुनि श्री नगराज जी । श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार का वर्णन जैन और बौद्ध दोनों ही साहित्य में पाया है किन्तु उसका जीवन वृत्तान्त भिन्न-भिन्न प्रकार से वरिणत है। मुनि श्री ने प्रमाण सहित सिद्ध किया है कि जैन और बौद्ध अभयकुमार एक ही व्यक्ति न होकर दो पृथक-पृथक व्यक्ति हैं। लेख की अपनी ऐतिहासिक विशेषता है।
"भारत की जैन जातियां" लेखक-भंवरलाल पोल्याका । प्रस्तुत लेख में लेखक ने विभिन्न मूचियों के अाधार से ३५० से भी अधिक जातियों के नाम गिनाये हैं जब कि प्रचलित जन श्रुति के अनुसार इनकी संख्या ८४ ही कही जाती है प्रत्येक मूचिकार ने भी यह संख्या ८४ ही रखी है। लेख में कुछ जातियो के प्राप्त प्राचीनतम उल्लेग्वों का भी वर्णन है । लेख खोज पूर्ण है।
तृतीय खण्ड "जैन दर्शन, पाश्चात्य दर्शन और विज्ञान मे आकाश और काल" लेखक-मुनि महेन्द्रकुमार जी द्वितीय । प्रस्तुत लेख में प्राकाश और काल सम्बन्धी जन और पाश्चात्य दर्शनों एवं वैज्ञानिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है और अन्त में निष्कर्ष निकाला गया है कि वैज्ञानिक प्रापेक्षिकता का सिद्धान्त अाकाश और काल सम्बन्धी जिन धारणामों को उपस्थित करता है उनकी सत्यता असंदिग्ध एवं उनका दार्शनिक प्रतिपादन सर्वसम्मत नहीं है। आकाश, काल और विश्व की गतिस्थिति सम्बन्धी समस्याओं का हल करने वाले जैन दर्शन के सिद्धांत एक सम्यक् दार्शनिक प्रणाली अाज के वैज्ञानिको के समक्ष उपस्थित करते है। मुनि श्री स्वयं बी. एस. सी है अतः उनका विवेचन वैज्ञानिक एवं अधिकृत है। याज इम ही प्रकार के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जैनदर्शन के सिद्धान्त विश्व के समक्ष रखने की महती आवश्यकता है।
भूधरदास कृत पार्श्वपुराण और उसमें पशु-पक्षि वर्णन" लेखक-डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया एम. ए. पी एच. डी. । लेख में कवि भूधरदास ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति हेतू पार्श्व पूराण में जिन पशु-पक्षियों का आधार लिया है उनका अध्ययन करते हुए निष्कर्ष निकाला गया है कि यद्यपि कवि का जीवन धामिक मर्यादाओं में नियमित और सीमित था तथापि उन्होंने जीवन की अनेक स्थिति-परिस्थितियों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म ज्ञान था।
"समाधियोग" लेखक-आचार्य श्री रजनीश । लेखक के अनुसार सत्य की खोज के दो मार्ग हैं। एक वैचारिक और दूसरा दार्शनिक । वैचारिक मार्ग तर्क पर आधारित होने से
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मिथ्या और दिशा भ्रामक है और उससे सत्य को प्राप्ति नहीं हो सकती। तत्व चिन्तन अन्यों द्वारा प्रकाश की विचार और विवेचना है जब कि योग स्वयं को अांखें देता है और सत्य के दर्शन की सामर्थ्य और पात्रता उत्पन्न करता है। चित्त की शन्य और पूर्ण जागृत अवस्था ही समाधि है । समाधि सत्य की चक्षु है। सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति ही वास्तविक जीवन है। उसके पूर्व मानव मृतक के समान है।
"प्राचार्य सोमदेव और उनका यशस्तिलक चम्पू लेखक- मुनि श्री विद्यानन्दजी महाराज । प्रस्तुत लेख में मुनि श्री ने प्राचार्य सोमदेव के व्यक्तित्व और उनकी बहुचर्चित कृति यशस्तिलक चम्मू का अध्ययन करते हुए यह परिणाम निकाला है कि प्राचार्य सोमदेव लोक व्यवहार के प्रबल पक्षपाती थे और इसी व्यवहार मार्ग से निश्चय मार्ग की ओर अग्रसर होना उन्हें अभीष्ट था। वास्तव में जैसा कि लेखक महोदय ने कहा है इस दृष्टि से प्राचार्य के कृतित्व का मूल्यांकन निःसंदेह अपेक्षित है।
"जैन साहित्य में शान्त रस'' लेखक-डा. नरेन्द्र भानावत एम.ए. पी.एच.डी.। "जैन धर्म और दर्शन का मूल स्वर प्रात्मा पर पड़े हुए विभिन्न कर्म पुद्गलों का प्रावरण हटा कर उसे अपने विश्द्ध सहज रूप में देखना है। यही मनोभूमि उसे साहित्य सर्जन की ओर प्रेरित करती है । यही कारण है कि जैन साहित्य मे जीवन के विभिन्न पक्षो का निरूपण होते हुए भी उसकी अन्तिम परिणति शांत रसात्मक है ....... " इस पृष्ठ भूमि में लेखक ने साहित्य में रस शब्द के विभिन्न प्रयोगो का दिग्दर्शन कराते हुए जैन दृष्टिकोण से शांत रस की प्रमुखता सिद्ध करते हुए एवं रस सम्बन्धी नवीन दृष्टिकोण मे विचार करते हुए शांत रस का रस राजत्व प्रमाणित किया है तथा जैन साहित्य में शांतरस की प्रमुखता देखकर जो लोग इसे वर्तमान जीवन के लिये अनुपयोगी मानते हैं और उसे सामाजिक हित में बाधक मानते हैं; क्योकि उनके अनुसार शांतरस की प्रमुखता जीवन को निराशा की ओर ले जाती है और अभिव्यक्ति को अकर्मण्य बना देती है, उनकी इस मान्यता का युक्तिपुरस्सरपूर्वक खण्डन किया है।
"साहित्य, व्युत्पत्ति और परिभाषा" लेखक-श्री रवीन्द्र कुमार जैन, एम.ए. पी.एच.डी. । प्रस्तुत लेख में लेखक ने साहित्य शब्द की व्युत्पत्ति और परिभाषा का भारतीय, पाश्चात्य एवं उर्दू भाषा के विभिन्न दृष्टिकोणों से अध्ययन करते हुए स्थापना की है कि साहित्य अन्ततोगत्वा सम्पूर्ण मानव जगत को उसकी विविधताओं में देखते हुए भी उसे एक मैत्रीपूर्ण सहअस्तित्व के सूत्र में आबद्ध करना चाहता है। लेखक के इस विचार मे कि साहित्य मूलतः जीवन निष्ठा के प्रकाशनार्थ होना चाहिए अमहमत होना कठिन है।
"फागु काव्य की नबोपलब्ध कृतियाँ" लेखक-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम.ए. पी.एच.डी. । रास, बेलि प्रादि की भाँति ही फागु भी प्राचीन साहित्य का एक काव्य रूप रहा है । प्रस्तुत लेख में लेखक ने अपने शोध संदर्भ में उपलब्ध छह नवीन फागु काव्यों का विवरण प्रस्तुत कर प्राप्त फागु काव्यों की संख्या में वृद्धि की है।
"जैन दर्शन में अर्थाधिगम चिन्तन" लेखक-श्री दरबारीलाल जो कोठिया। जैनदर्शन में अर्थ के अधिगम का साधन प्रमाण और नय को स्वीकार किया गया है जबकि जेनेतर दर्शनों
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में केवल प्रमाण को । विद्वान् लेखक ने युक्ति पुरस्सरपूर्वक श्रागम प्रमाणों के साथ जैन दर्शन का पक्ष सिद्ध किया है ।
" दर्शन और विज्ञान में श्रात्मा" लेखक - श्री उदय नागौरी, बी.ए. सिद्धांत । श्रात्मा है या नहीं, यह प्रश्न बहुत प्राचीन काल से ऊहापोह का विषय बना हुआ है । प्रस्तुत लेख में पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिकों का श्रात्मा के सम्बन्ध में जो विचार है उनको एकत्र कर अन्त
विज्ञान का इस सम्बन्ध में क्या अभिमत है यह बताया है । लेख काफी अध्ययन और मनन पश्चात् लिखा गया है। यह लेख के अन्त में सहायक ग्रंथों की दी गयी सूची से ही प्रकट है ।
" दृष्टिकोणों का दृष्टिकोण" लेखक-श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' । लेखक हिन्दी संसार के जाने माने हैं । विषय को प्रकट करने की उनकी अपनी एक विशिष्ट हो शैली है । प्रस्तुत लेख में भी उन्होंने अपनी उस ही विशिष्ट शैली में बड़े ही रोचक ढंग से अनेकान्त का प्रतिपादन किया है। "हम अपनी राय पर दृढ़ रहें, पर दूसरे की राय पर अपनी राय न चढ़ावें, उसे नगण्य न मानें। इससे मतभेद के आगे एक दीवार खिंच जाती है और क्रोध, हिंसा, प्रतिहिसा श्रौर युद्ध नहीं हो पाते। यह भी एक दृष्टिकोण ही है । 'दृष्टिकोणों का दृष्टिकोण' भारत के ज्ञानकोष को भगवान् महावीर का प्रेमोपहार है ।" यह है लेख का निष्कर्ष श्रोर गृह, देश और विश्वशांति वा श्रमोघ उपाय ।
मांग नरेश मारसिह की सल्लेखना " लेखक- पं. के. भुजबली शास्त्री। गंगनरेश मार्रासह ने ई० सन् ९७४ में प्राचार्य श्रजित सेन के पादमूल में सल्लेखना द्वारा शरीर त्याग किया था । गंग नरेश के प्रताप का वर्णन श्रवणबेलगोल के लेख सं. ३८ और ५६ में है । उस ही वृत्तान्त को लेखक ने अपनी भाषा में कथोपकथन शैली में लिखा है ।
"भारतीय जीवन महानद के दो किनारे" लेखक- स्व० श्री सत्यदेव विद्यालंकार | शायद ही हिन्दी का कोई ऐसा पाठक हो जो श्री सत्यदेव जी के नाम से परिचित न हो। वे कई दैनिक पत्रों के सफल सम्पादक रहे थे। प्रस्तुत लेख उन्हीं की यशस्वी लेखनी से उद्भुत है । " श्रमण संस्कृति का मूल आधार श्रम है जिसके द्वारा आत्म विकास में संलग्न व्यक्ति अणुव्रतों और महाव्रतों का पालन करते हुए भगवान् पद की प्राप्ति कर सकता है ।'' अपने श्रम के अनुसार हर व्यक्ति को उसका परिणाम भोगना ही होगा . "हर व्यक्ति की श्रात्म साधना उसके अपने श्रम पर निर्भर है । वह उसके लिये किसी दूसरे को दान दक्षिणा देकर कमीशन एजेण्ट अथवा ठेकेदार नहीं बना सकता। यह दोनों संस्कृतियों (श्रमण और वैदिक) में मूलभूत अन्तर है । ... जैन धर्म का वर्तमान रूप मानव जीवन में युगों तक किये गये सांस्कृतिक प्रयोगों का सार अथवा निचोड़ है आदि ।" बताते हुए उन्होंने परामर्श दिया है कि जैन धर्म के मूल तत्त्वों की व्याख्या इस रूप में श्रवश्य ही की जानी चाहिए कि वे वर्तमान कालीन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का सर्वसम्मत हल उपस्थित कर सके। अन्त में उन्होने चेतावनी दी है कि व्यावहारिक रूप में जैनधर्म की क्षमता असीम है। दुर्भाग्य यह है कि जैन धर्म के अभिमानी लोगों में ही विश्वास, श्रद्धा तथा निष्ठा की कमी उसकी क्षमता के लिये घातक सिद्ध
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हो रहो है । भारतीय जोवन महानद के दोनों किनारों को पुष्ट करने के बजाय हन उनको कमजोर करने में लगे हैं । इस वस्तुस्थिति को जितनी जल्दी समझा जावेगा, उतना ही हमारा कल्याण सुनिश्चित और सुरक्षित है। प्राशा है समाज के नेता, विद्वान् और धर्म के ठेकेदार स्वर्गीय प्रात्मा की इस चेतावनी को सुनेगे।
"अपभ्रंश साहित्य और मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि कृत व्यवस्था शिक्षा कुलकम्',।" लेखक-डा० हीरालाल माहेश्वरी, एम.ए. पो.एच डी. एल.एल.बी. डि-फिल, प्राध्यापक राजस्थान विश्वविद्यालय । व्यवस्था शिक्षा कुनकम्' मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि की अपभ्रंश भाषा की उपदेश प्रधान मुक्तक रचना है। रचनाकाल विक्रम को तेरहवीं शताब्दी है । इमी रचना का ववेचन लेख का विषय है। लेख परिश्रम से लिखा गया है।
'संस्कृत के जैन संदेश काव्य" लेखक - श्री गोपीलाल अमर, एम.ए. साहित्यरत्न । जैन संदेश काव्यों की इतर संदेश काव्यों से विशेषता बताते हुए लेखक ने पार्वाभ्युदय, नेमिदूत, जैन मेघदूत, शीलदून, पवनदूत, चेतोदूत, इन्दुदूत, मेघदूत समस्या लेम्व इन अाठ र देश काव्यों का विस्तार से वर्णन बताते हुए इन्दुदूत, चन्द्रदूत, चन्द्रदूत, मनोदूत और मयूरदूत इन पांच सन्देश काव्यों का केवल नाम मात्र ही उल्लेख किया है। जैन मन्देश काव्यों का परिचय प्रस्तुत करना लेम्वक का उद्देश्य रहा है।
__ "वाग्भटालंकार : एक परिशीलन" लेखक-श्री अमृतलाल शास्त्री। संस्कृत अलंकार अन्यों में वाग्भटालंकार का अपना एक विशेष स्थान है । यद्यपि प्राप्त अलङ्कार ग्रन्थों में यह सबसे छोटा है किन्तु अलङ्कार सम्बन्धी सम्पूर्ण विषयो की जानकारी प्रस्तुत ग्रन्थ से हो जाती है । अन्य का रचना कान विक्रम को १२वीं शताब्दी है । लेखक ने इस लेख में उक्त ग्रंय का परिशीलन किया है।
'सिद्धमेन का अभेदवाद और दिगम्बर परम्परा" लेखक-सिद्धांताचार्य पं० कैलाश चन्द्र जो शास्त्री। केवी के ज्ञानोपयोग को लेकर जैनाचार्यों में मतभेद है। एक मत के अनुसार दर्शनोपयोग पूर्वक ही ज्ञानोपयोग होता है। दूसरे मत के अनुसार दोनों उपयोग युगपत् होते है। तोसरे मन के अनुसार ज्ञान और दर्शन में कोई भेद ही नहीं है। यह तीसरा मत है सन्मति तर्क के कर्ता प्राचार्य सिद्धमेन का। लखक ने जो इस विषय के अधिकारी विद्वान् हैं सिद्धमेन की उन तमाम युक्तियों का जो कि उन्होने प्रथम दोनो मतों के खण्डन में दी है, दिग्दर्शन कराते हुए द्वितीय मत के साथ उसका समन्वय किया है और बतलाया है कि द्वितीय मत में निश्चय दृष्टि मे केवली के ज्ञान और दर्शन अभिन्न है जबकि सिद्धसेन की ताकिक दृष्टि में अभिन्न है। केवल दृष्टिकोण का ही अन्तर इन दोनों में है। इसीलिये सिद्धसेन के अभेदवाद का द्वितीय मत के अनुयायियों को परम्परा में प्रबल विरोध नहीं मिलता, अपितु प्रकारान्तर से समर्थन ही मिलता है । कहना नहीं होगा कि लेखक ने इस सम्बन्ध में नया दृष्टिकोण विद्वानों के समक्ष उपस्थित किया है जो विचारणीय और मननीय है।
"हिन्दी जैन भक्त कवियों की मधुर भावना" लेखक-श्री रंजन सूरि देव, पटना । लेखक ने उदाहरणपूर्वक बताया है कि जैन कवियों ने दाम्पत्य रति को भौतिक धरातल पर
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नहीं उतारा क्योंकि जैन कवि गृहस्थ होते हुए भी प्राचरण में साधु ही के समान होते थे। अतः जो कुछ उन्होंने कहा वह प्राध्यात्मिक स्तर पर ही कहा। उन्होंने अपनी कविता को विलासिता के स्तर से परे ही रखा । उनको दृष्टि में विलासिता या मधुर भावना ही अशांति का कारण है। फिर भी जैन कवि मधुर भावना से सर्वथा अछूते रहे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता।
'निसीहिया या नशियां" लेखक-- श्री हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, ब्यावर । भारत में बहुत से नगर एवं ग्राम ऐसे हैं जिनके बाहर जैन मंदिर बने हुए हैं जो नशियां कहलाते हैं । इन मंदिरों में पर्याप्त ऐसा स्थान होता है जहां साधु सन्त आदि रह सकें। यह नशियां शब्द कैसे बना, इमका पूर्व रूप क्या था आदि पर विचार करना ही इस लेख का विषय है। लेखक ने कई प्रमाणों और युक्तियों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि नशियां निसिहियां का ही बिगड़ा हुवा रूप है। "ॐ जय जय जय, निस्सही निस्सही निस्सही, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु" पाठ का जो अर्थ वर्तमान में प्रायः प्रचलित है लेखक ने उससे भी अपना विरोध प्रकट किया है और उन्होंने सयुक्तिक बतलाया है कि यह पाठ अशुद्ध है। शुद्ध पाठ 'निषीधिकारी नमोऽस्तु', अथवा ‘णमोत्थु मिसीहियाए" होना चाहिये । लेखक की युक्तियां विद्वानों के लिये वित्तारणीय हैं।
चतुर्थ खण्ड "Jainism as I understand." लेखक-श्री नरेन्द्रसिंह सिंघी। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जैन धर्म में ईश्वर, जैन साधु और गृहस्थों का प्राचार, धर्म एवं विभिन्न देशों में रहने वाले जैनों को एकता में बांधने वाले साधनों आदि की अति संक्षिप्त जानकारी दो है जिससे जैनधर्म के मोटे २ सिद्धांतों का ज्ञान पाठक प्राप्त कर सकता है।
"Jainism in the eye of Swami Vivekanand." लेखक-श्री समरेश बंदोपाध्याय, एम. ए. । वर्तमान युग के प्रसिद्ध वेदान्ती सन्त स्वामी विवेकानन्द का जैनधर्म के सम्बन्ध में क्या विचार था, यह इस लेख के पढ़ने से ज्ञात होता है। यद्यपि जेन वेदों को प्रमाण और ईश्वरकृत नहीं मानते तथापि वे हिन्दू हैं ऐमी स्वामीजी की मान्यता थी।
"Ahimsa in Indian Thought." लेखक-डा० सुकुमार सेन । अहिंसा सिद्धांत भारतीय धर्मों का प्राण है। प्रायः सभी धर्मों ने इस पर जोर दिया है। इतना होने पर भी जैन, बौद्ध और हिन्दू इन तीन प्रमुख धर्मों के अहिसा सम्बन्धी दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। इस अन्तर को संक्षेप में स्पष्ट करना ही इस लेख का उद्देश्य है जिसमें लेखक सफल हुआ है।
"Place of Jain Philosophy in Indian Thought." लेखक-महामहोपाध्याय डा० उमेश मिश्रा । सर्वोच्च सत्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के उपाय को खोज करना प्रायः सब ही भारतीय धर्मों का मूल उद्देश्य रहा है। विभिन्न ऋषि महषियों ने विभिन्न उपायों की खोज की है अथवा यों कहें कि उद्देश्य तो सबका एक है किन्तु उसकी प्राप्ति के मार्ग सबके भिन्न भिन्न हैं। जैनों का भी अपना एक मार्ग है। भारतीय दर्शनों में जैन धर्म की स्थिति और
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महत्त्व को स्पष्ट करना ही लेख का विषय है । लेख निष्पक्ष दृष्टि से लिखा गया है और पठनीय है।
'The Bold Jaina Conception of the Nature of Reality" के लेखक डा. भक्ती भट्टाचार्य एम.ए. पी. एच. डी. हैं । सत्य का स्थापन अनुभवों की भित्ति पर होता है। कोई भी बात केवल इसलिये सत्य नहीं है कि शास्त्रों में ऐसा लिखा है अथवा परम्परा से ऐसा चला पा रहा है अपितु, अनुभव से भी वह बात सत्य भासित होनी चाहिये और वह अनुभव तर्क की कसौटी पर खरा उतरना चाहिये । जैन दर्शन की इस विशेषता पर प्रकाश डालते हुए पदार्थ अनेक धर्मात्मक है. वह उत्पाद, व्यय और उभयात्मक है, परस्पर तीन और छह का विरोध रखने पाले धर्म भी एक ही पदार्थ में एक ही समय विभिन्न हष्टि कोणों से रह सकते हैं, जैन दर्शन के इस अनेकान्त वाद का प्रतिपादन लेखक ने बड़े ही सुन्दर और रुचिपूर्ण ढंग से इस लेख में किया है। जेन दर्शन के इस वाद जो कि केवल उसकी ही धरोहर है, को समझाने में लेख पूर्णतः सक्षम है।
"The Basic Idea of God" लेखक- डा. हरीश भट्टाचार्य, एम. ए. बी. एल., पी. एच. डी. । विश्व के जितने भी वर्तमान और भूतकालिक धर्म हैं उनकी ईश्वर संबंधी मान्यता अलग अलग हैं। कोई एक ईश्वर मानता है कोई दो और कोई इससे भी अधिक, कोई ईश्वर को सृष्टि कर्ता बताता है तो कोई इसका खण्डन करता है। किन्तु वह सर्वशक्तिमान है, पूर्ण ज्ञानी है, सम्पूर्ण रूप से सुखी है और निर्भय है ईश्वर के इस स्वरूप पर सब एक मत हैं । लेखक ने ईश्वर संबंधी विभिन्न मान्यतानों का दिग्दर्शन कराते हए बताया है कि किस प्रकार जैन ईश्वर के सर्वमान्य स्वरूप से सहमत होते हुए भी उनसे इस विषय में असहमत हैं कि वह एक है, सृष्टि कर्ता है और सुख दुख का देने वाला है। जैन प्रत्येक प्रात्मा में ईश्वर होने की शक्ति मानता है। चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर उसमें वे चारों शक्तिया आ जाती हैं जो ईश्वरत्व के प्रावश्यक गुण हैं । इसे ही जैनी अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति कहते हैं ।
'Omniscience, a Fiction or a Fact'' लेखक-प्रोफेसर जी. आर. जैन । जैन मान्यताओं के अनुसार प्रदेश की अवगाहन। शक्ति और वैज्ञानिक प्रादम्स और एडिग्टन की मान्यताओं को एक रूपता, पदार्थ और उसकी शक्ति के सम्बन्ध में आईस्टीन के सिद्धान्त के साथ जैनों के बताए हुए पदार्थ के स्थूलत्व सूक्ष्मत्व प्रादि गुणों के साथ समता, पुद्गल की पूरयन्ति और गालयन्ति क्रिया का वर्तमान पदार्थ विज्ञान के साथ समत्व बताते हुए बताया है कि एटम बम पुद्गल की गालयन्ति क्रिया का और हाईड्रोजन बम पूरयन्ति क्रिया का उदाहरण है। परमारण की वैद्य तिक शक्ति के सम्बंध में भी जैनियों को शान था। जैनियों के परमाणु में माने हए स्निग्धत्व और रूझत्व गुण वर्तमान में वैज्ञानिकों द्वारा विद्य त में मानी हुई ऋण और धन शक्तियाँ ही हैं। विश्व की स्थिति, उसकी परिमिति के सम्बन्ध में जैन मान्यता और वर्तमान में वैज्ञानिक मान्यता की परिवर्तनशीलता बताते हुए प्रसिद्ध वैज्ञानिक दीपक वसु के मत का उल्लेख किया है जिसके अनुसार विज्ञान विश्व की स्थिति, निर्माण प्रादि के सम्बन्ध में उस ही परिणाम पर पहुंचेगा जिस पर कि जैन पहुंचे थे। जेनों के धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के साथ वैज्ञानिकों के ईघर और फील्ड की तुलना करते हुए तर्कानुसार जैन
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मान्यता का मण्डन किया है। इस प्रकार जैनों को छह मान्यतामों का वैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ मेल बैठाते हुए लेखक ने पाठकों से यह निर्णय मांगा है कि प्राज के वैज्ञानिक असंख्य धनराशि खर्च करके एवं दिन रात परिश्रम करके जिन सिद्धान्तों का निर्माण कर रहे हैं वे जैन तीर्थंकरों ने पहले ही प्राज से हजारों वर्ष पूर्व स्थापित कर दिये थे। ऐमी अवस्था में वे केवलज्ञानी थे या नहीं अथवा जैनों का केवलज्ञान केवल एक ढकोसला ही है ? लेखक ने अपने लेख की स्वस्थ पालोचना भी आमंत्रित की है । आज वास्तव में ऐसे ही लेखों की आवश्यकता है। किन्तु खेद है कि इधर जैनों का ध्यान ही नहीं है। जैन प्रति वर्ष लाखों रुपया मेलों-ठेलों में खर्च करते हैं किन्तु अभी तक भी किसी धनी मानी का ध्यान इस ओर नहीं गया कि एक ऐसी वैज्ञानिक प्रयोगशाला की स्थापना की जाय जहाँ प्रयोगों द्वारा जैन मान्यताओं को कसा जावे और वर्तमान वैज्ञानिक अनुसंधानों के साथ उनके साम्य और वैषम्य का पता लगाया जावे। यदि हमें विश्व में जैनधर्म का प्रचार करना है और दुनिया को यह बता देना है कि जैन धर्म पूर्ण रूप से एक वैज्ञानिक धर्म है तो हमें एक न एक दिन ऐसा करना ही होगा। यह कार्य जितना शीघ्र हो सके उतना ही हितकर है।
___ "Essentials of Jaina Metaphysics and Epistemology." लेखकश्री हरिमोहन भट्टाचार्य, एम. ए. (दर्शन एवं संस्कृत)। पदार्थ विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिये केवल स्यावाद अथवा अनेकान्त ही सक्षम है यह लेखक ने बड़े ही तार्किक ढंग से सिद्ध किया है। जैसा कि लेखक ने स्वयं ही कहा है और हम भी उससे सहमत हैं लेखक का इस विषय के अध्ययन और मनन में पर्याप्त शक्ति और समय व्यय हुमा है।
"The Jaina Architecture-Ancient and Mediaeval." लेखक-डा. ज्योति प्रसाद जैन, एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी.। प्राच्य और मध्यकालीन जैन शिल्पकला, स्तूप, गुफा और मन्दिर आदि का अति संक्षिप्त परिचय देते हुए लेखक ने बताया है कि जैनों ने केवल निर्माण ही नहीं किया अपितु इस विषय के ग्रंथ भी लिखे । अर्थात् शिल्पकला के व्यावहारिक और भौतिक दोनों ही पक्षों को जैनों ने समृद्ध किया यह दिग्दर्शन कराना हो लेख का उद्देश्य है।
Religious Syncretism as Revealed in the Jaina Sculpture Art of the Eastern India." लेखक-श्री डी. के. चक्रवर्ती एम.ए.। पूर्वीय भारत की जेन मूर्तिकला के उदाहरण देकर लेखक ने सिद्ध किया है कि प्राचीन समय में भारत में धामिक सहिष्णुता अपने चरमोत्कर्ष पर थी और विभिन्न सम्प्रदायों की मान्यतामों का प्रभाव जैन मूर्ति कला पर भी पड़ा है । लेख चितनपूर्ण है और अपने विषय पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। लेखक स्वयं पश्चिम बंगाल सरकार के अधीन आर्कियोलोजिकल विभाग के अध्यक्ष हैं अतः इस विषय पर उनके निष्कर्ष एक अधिकृत व्यक्ति के निष्कर्ष हैं।
'Mathura-The Centre of Jaina Art." लेखक- श्री मिहिर मोहन मुखो. पाध्याय । मथुरा से प्राप्त जैनकला अवशेषों का परिचय देते हुए लेखक ने बताया है कि बौद्धों
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और हिन्दुओं के समान ही जैनों की भी कला के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी देन है और जैन कला अपनी एक अलग विशेषता रखती है।
· The Early Phase of Jaina Iconography.' लेखक- श्री प्रार. सी. शर्मा । लेखक स्टेट म्यूजियम, लखनऊ के क्यूरेटर हैं। वराहमिहर द्वारा प्रतिपादित जैन मूर्तियों की विशेषता का वर्णन करते हुए लेखक ने ऐतिहासिक दृष्टि से जैन मूर्तिपूजा का प्राविर्भाव काल खोजने का प्रयत्न किया है। वर्तमान में प्राप्त अवशेषों के अनुसार यदि लोहानीपुर पटना से प्राप्त नग्न प्रतिमा के भाग को जैन सन्यासी की प्रतिमा मानी जावे तो यह कान ईसा पूर्व द्वितीय तृतीय शताब्दी माना जा सकता है किन्तु इसका क्रमिक इतिहास ईसा की प्रथम शताब्दी से चालू होता है । डा० स्मिथ के मत का उल्लेख करते हुए लेखक ने बताया है कि मथुरा का देवनिर्मित स्तूप भारत के ज्ञात भवनों में प्राचीनतम है। जैन मूर्तिकला के विकास का अध्ययन करने वालों के लिये लेख की उपादेयता स्वीकार्य है ।
• The Iconography of Sacciya Devi. " लेखक M. A. Dhaky । सच्चिया देवी श्रोसवाल जैनो की गृह देवता है । वे प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में उसकी पूजा करते हैं। लेखक के मतानुसार उक्त देवी की पूजा ब्राह्मण भी करते हैं । श्रापने हेमाचार्य के शिष्य रत्न प्रभुसूरि के कथानक पर विस्तार से दृष्टिक्षेप करते हुए सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि श्रोसिया, जहाँ से कि श्रोसवालों का निकास हुआ है, में स्थित सचिया देवी की मूर्ति का पूर्वरूप परिवर्तित किया हुआ है। लेखक ने कथानक के अतिरिक्त अपने मत के प्रतिपादन में शिलालेख एवं अन्य तर्क भी प्रस्तुत किये हैं । लेख गवेषणापूर्ण है किन्तु उसमें प्रस्तुत तर्क विचारणीय हैं ।
“A Jaina Cameo at Chittoregarh." लेखक- श्री प्रादृशबनर्जी । चित्तोड़गढ़ अपने यहाँ समय समय पर हुए युद्धों और जौहर के लिये ही प्रसिद्ध नहीं है अपितु यह विभिन सम्प्रदायों का संगम स्थल भी रहा है। यहां पर स्थित शेव वैष्णव, जैन, सौर श्रौर बोद्ध मंदिर इसके प्रमाण हैं । लेख में 'शृङ्गार चँवरी" नामक जैन मन्दिर की कला और निर्माण शैली का जिसमें अब प्रतिमा नहीं है किन्तु जो कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और जिसका निर्माण महाराणा कुम्भा के समय में पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ था, विस्तृत वर्णन है ।
"An Introduction to the Iconography of Padmawati, The Jain Sasandevata " लेखक - श्री ए. के. भट्टाचार्य, एम. ए. पी. आर. एस. ए. एम. ए. ( लण्डन ) । पद्मावती प्रारंभ में यद्यपि २३ वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ से संबंधित शासन देवता रही है किन्तु कालान्तर में किस प्रकार वह एक विषहारी एवं मारगा उच्चाटन श्रादि कार्यों के लिए स्वतन्त्र देवता के रूप में पूजी जाने लगी इसका क्रमिक इतिहास तथा उसका प्राचीन नाग पूजा एवं हिन्दू देवी सरस्वती, लक्ष्मी एवं बौद्ध देवी तारा से उसका संबंध श्रादि विषयों पर महत्व पूर्ण प्रकाश इस लेख में डाला गया है। लेख में स्थापित तथ्य तर्कों और प्रमाणों की भिती पर श्राधारित है और इस विषय में रुचि रखने वाले विद्वानों के लिये वह महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है ।
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"Jain Art of Mathura." लेखक-डा. वी. एस. अग्रवाल । मथुरा जैन कला का केन्द्र रहा है प्रस्तुत लेख मथुरा में प्राप्त जैन कला के भग्नावशेषों पर एक संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है।
"The Image of Heaven in the Ceiling of the Adinath Temple at Ranakpur," लेखक-डा० Klans Fisher, Bonn. प्रस्तुत लेखमें भारत प्रसिद्ध राणकपुर के प्रादिनाय जैन मंदिर को वास्तुकना, खुदाई कना आदि पर कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है । लेव का महत्व इस कारण भी है कि वह एक विदेशी विद्वान द्वारा लिखा गया है।
"Gandhawal A Rare Jaina Site of Malva." लेखक-श्री एम.पी. गुप्ता । मध्य प्रदेश के देवास जिले की तहसील सोनकछ में गंधावल एक छोटा सा गांव है जहां बहुमूल्य मूतिकलाका स्वजाना है किन्तु अब तक यह गाव सरकार और विद्वान् दोनों की ओर से प्रायः उपेक्षित रहा है। यहाँ प्राप्त मूर्तियां कला की दृष्टि से ग्वालियर के अन्य स्थानों में प्राप्य वीं १० वीं शताब्दी की मूतियों से साम्य रखती हैं। प्रस्तुत लेख में वहाँ से प्राप्त कतिपय मूर्तियों की कला दृष्टि से विवेचना करते हुए मचित्र झांकी प्रस्तुत की गई है ।
'Temples of Orissa and Bundelkhand." लेखक-पद्मभूषण श्री टी. एन. रामचन्द्रन । लेख में जैसा कि शीर्षक से प्रकट है उड़ीसा और बुन्देलखण्ड के कोणार्क और खजुराहों के मंदिरों की कला की समीक्षा करते हुए नागर शैली के क्रमिक विकास पर विचार किया गया है।
_ "Nayanar Temple." लेखक-श्री जीवबंधु श्रीपाल । जैसा कि लेखक ने स्वयं कहा है, प्रसिद्ध ग्रंथ थिर कुरल के लेखक की स्मृति में मद्रास. माइलापुर में स्थित एक प्राचीन जैन मंदिर का इतिहास प्रस्तुत लेख में चित्रित किया गया है । लेख खोजपूर्ण है।
"Some Thoughts on Jain Wall Paintings." -1.. Goofsaa एम० ए० डी० एस० सी० । प्रस्तुत लेग्य में सित्तनवासन के जैन मंदिर, अलौरा की गुफाओं, तरुमलई के जैन मंदिर और तीरू परुट्टी करम् के जैन मंदिर के भित्ति चित्रों का कला दृष्टि से मूलाङ्कन करते हुए उनकी दीर्घकाल तक स्थिति रह सके इसके लिए वैज्ञानिक उपायों पर विचार प्रस्तुत किया गया है। कलात्मक चित्रों को दीर्घकाल तक ठीक अवस्था में रखने की एक विकट समस्या है जिस पर प्राधुनिक वैज्ञानिक विचार कर रहे हैं और इटली आदि में एतबंधी प्रयोग हुए हैं । लेखक की दृष्टि में इसके लिये Stripping and mounting की विधि श्रेष्ठ है । अन्य वैज्ञानिकों को इस पर विचार करना चाहिये और ऐसी विधि खोजने का प्रयत्न करना चाहिये जिससे कला की ऐसी अमूल्य निधियां काल के थपेडो से सुरक्षित रह सकें।
"Jain Mythology and Rituals.'' लेलक-प्रो० चिन्ताहरण चक्रवर्ती एम. ए. काव्यतीर्थ । जैन रामायण और हिन्दू रामायण में राक्षसों वानरों आदि के संबंध में दृष्टिभेद,
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रक्षाबंधन और दीवाली के प्रसिद्ध त्यौहारों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में हिन्दू और जैन कपानकों में भेद, जैनों के दैनिक षडावश्यक और हिन्दुओं के पांच महायज्ञ को समानता मादि पर संक्षिप्त चर्चा की गई है।
___ "The Sociological Approach of the Jaip Ritualistic study......" लेखक-श्री एल० के० भारतीय, एम० ए०। "पुराण और धार्मिक साहित्य जहां उनको मानने वाली जाति विशेष में एकत्व स्थापित करते हैं वहां वे अन्य जातियों के साथ जो उस साहित्य को नहीं मानते अनैक्य भी फैलाते हैं," यह बताते हुए लेखक ने जैनों की मंत्र विद्या, मूर्ति पूजा, यज्ञोपवीत, छटीपूजा, वैवाहिक संस्कार, ईश्वर संबंधी मान्यता, प्रादि धार्मिक और सामाजिक रीतिरिवाजों का वर्णन किया है और आगे बताया है कि इन सबसे भी महत्वपूर्ण बात जैनों की यह है कि वे चारित्र पर सर्वाधिक बल देते हैं। लेखक के विचार से पाज जो जैन केवल व्यापारिक समाज के रूप में ही रह गये है उसका भी एक कारण यह है कि जैन अपनी धर्म पुस्तकों में बताये हुए प्राचार विचार को केवल व्यापार करते हुए ही सुरक्षित रख सकते हैं योद्धा बन कर नहीं। अन्त में यह निष्कर्ष लेखक का है कि अहिसा और समत्व की निर्माण शक्ति तब तक फलीफूत नहीं हो सकती जब तक कि एक सम्प्रदाय विशेष की सीमा में वह कंद है क्योंकि ऐसी स्थिति में मानव मात्र उसका पालन नहीं कर सकता। लेखक के कुछ विचारों से किसी का विरोध हो सकता है किन्तु उसने जो निष्कर्ष निकाला है वह ध्यान देने योग्य है।
"Jaina Tradition Regarding Yasovarman's Lineage." लेखक-श्री डी० एम० सरकार । ७२८ से ७५३ ईस्वी तक कन्नौज पर राज्य करने वाले प्रतापी राजा यशो-वर्मन के वंश के सम्बन्ध में इतिहासकारों में मतभेद चला रहा है। लेखक ने जैन और जैनेनर प्रमाणों से सिद्ध किया है कि वह मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का बंशज था । लेख ऐतिहासिक महत्त्व का है।
'Simapati plates of Chahaman Prince Jayatsiha-Smvt. 1238" लेखक-श्री के० वी० सौन्द्र राजन्, एम० ए० सुप०-पाकिमोलोजीकल सर्वे आफ इण्डिया । राजस्थान के पाली जिले के नादोल ग्राम से लेखक को प्राप्त दो ताम्र पत्रों का विवरण प्रस्तुत लेख में है। ताम्रपत्र सम्वत् १२३८ की वैशाख ७, शनिवार का है जो २५ अप्रेल सन् ११८१ के समकक्ष है । ताम्रपत्र अनलपुरा के पार्श्वनाथ मंदिर को ४ स्थानीय व्यक्तियों द्वारा दिये गये दान से सम्बन्धित है । लेख के अन्त में दोनों ताम्र पत्रों की रोमन लिपि में नकल भी है। लेख से सीमापटी ग्राम और चौहान (चहमान) राजा जयसिंह के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण ऐति. हासिक जानकारी प्राप्त होती है ।
Jainism in Bengal.' लेखिका-श्रीमती वन्दना सरस्वती, एम० ए० । श्री रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर. प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान का मत है कि बंगाल पहले पार्य क्षेत्र में नहीं था किन्तु वह जैनों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर और अन्य जैन विद्वानों
और साधुओं द्वारा अपने धर्म के प्रचारार्थ वहां विहार करने के फलस्वरूप बाद में प्रार्य क्षेत्र में सम्मिलित किया गया था । विद्वान लेखिका ने ऐतिहासिक और पौराणिक प्रमाणों के आधार पर भण्डारकर के इस मत को सही प्रमाणित किया है । लेख पठनीय है।
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"Cultural Heritage of Bengal in Relation to Jainism." लेखकडा० एस० सी० मुकर्जी । जैनधर्म से सम्बन्धित जो विरासत बंगाल को मिली है उसकी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करामा ही इस लेख का उद्देश्य है जिसमें लेखक पर्याप्त सीमा तक सफल हुप्रा है ।
"Social and Cultural Glimpses from the Kuvalayamala." लेखकप्रो० डा० ए० एन० उपाध्ये । कुवनयमाला श्री उद्योतन सूरी की प्राकृत भाषा की एक रचना है। इस रचना का महत्व इस कारण से बढ़ जाता है कि इसके अध्ययन से तत्कालीन सामाजिक
और सांस्कृतिक गतिविधियों, रीति रिवाजों प्रादि का वर्णन मिलता है । इसके अध्ययन से कई रोचक बातों का पता चलता है। उदाहरणतः उस समय सोप्पार्य नामक नगर में व्यापारियों का एक क्लब था जहां विदेशी व्यापारी अपनी यात्रा के अनुभव व वृत्तान्त दूसरे व्यापारियों की सुनाते थे भौर वे इस प्रकार की जानकारी भी दूसरों को प्रदान करते थे कि विभिन्न स्थानों पर क्या क्या वस्तुएं प्राप्य हैं और कौन वस्तु किस जगह अधिक मूल्य पर बेची जा सकती है जैसे :- पलास के फूलों की एवज स्वरण द्वीप से सोना मिल सकता था। नीम की पत्तियां बेच कर रत्न द्वीप से रत्न प्राप्त किये जा सकते थे। प्रादि ।
___ "Jainism in Kongunadu." लेखक-श्री वी० एन० श्रीनिवास एम०ए०, बी० ए० (मानर्स) । इस में दक्षिण के कोंगूनाडू प्रदेश से संबंधित जैन इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री की चर्चा करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि कोंगूनाडू जो कि वर्तमान कोयम्बटूर जिले का ही एक भाग है ईस्वी सन् से तीन शताब्दी पूर्व भी जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र स्थल था। इतिहास के विद्वानों के लिये लेख महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
'A Note on Jainism in Orissa." लेखक-श्री K.S. Behira । लेखक उत्कल यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग की स्नातकोत्तर व क्षात्रों के व्याख्याता हैं अतः उनके निष्कर्ष एक अधिकृत व्यक्ति के निष्कर्ष हैं। लेखक के मतानुसार उड़ीसा में जैन धर्म का अस्तित्व भगवान महावीर से भी पहले कमसे कम ईसा से पाठ शताब्दी पूर्व तक था और वहां इस धर्म को कई बार उत्थान और पतन का सामना करना पड़ा तथा जैन धर्म की उड़ीसा को धर्म, कला, भवन निर्माण, भाषा और साहित्य के क्षेत्र में बड़ी महत्वपूर्ण देन है।
__"The Electro Magnetic Field in Man." लेखक-श्री ज्ञानचन्द जैन, एम. ए.। जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक सांसारिक प्राणी के भौतिक शरीर के अतिरिक्त तेजस
और कार्माण ये दो शरीर और होते हैं । कार्माण शरीर में प्राकर्षण शक्ति होती है जो अपने कार्यों से भावी जीवन के लिये पुद्गलों का आकर्षण करता रहता है और तेजस शरीर का कार्य जीवन शक्ति प्रदान करना है । लेख में डा० कासवीवाल के मत की आलोचना करते हुए वर्तमान गैज्ञानिक आधार पर जैन धर्म के इस सिद्धान्त की पुष्टि की है । लेख गैज्ञानिक महत्व का है और वैज्ञानिकों को शोध के लिये एक नई दिशा प्रदान करता है। ऐसे लेखों से पता चलता है कि जैनधर्म के सिद्धान्त कितने गैज्ञानिक हैं।
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"Growth and Development of Urban life in Rajasthan." लेखकडा० के नाशचन्द जैन, एम. ए. पी. एच. डी. डी. लिट् । राजस्थान में नागरिक जीवन के विकासक्रम का अध्ययन करते हुए लेखक ने बताया है कि राजस्थान के विभिन्न नगरों के नामकरण के प्राधार भिन्न भिन्न हैं। जैसे चित्तौड़, विशालपुर, अजमेर आदि का नाम उन नगरों की स्थापना करने वाले राजाओं के नाम पर है। आमेर शाकम्भरी प्रादि नगर किसी देवी अथवा देवता के मंदिरों के चारों ओर बस गए और उनका नाम करण उस देवी अथवा देवता के नाम पर ही होगया । माण्डव्यपुर (मण्डोर) और वशिष्ठपुर आदि ग्राम वहां रहने वाले सन्तों के नाम से हैं । कूछ नगर जातियों के नाम से भी हैं-जसे भीलमाल, (भीलों का), नागौर (नागों का), तक्षकगढ (तक्षकों का) आदि । कुछ नगरों के प्रारम्भिक नाम अपभ्रंश मे थे किन्तु बाद में विद्वानों ने उन्हें संस्कृत रूप दे दिया । यद्यपि लेख केवल राजस्थान के नगरो को दृष्टि में रख कर ही लिखा गया है किन्तु हमारा विश्वास है कि जो कारण लेखक ने राजस्थान के ग्रामों के नामकरण के संबंध में गिनाए हैं वे सारे भारत के नगरों के संबंध में पूर्णतः लागू होते हैं।
"Salient Common Features between Jainism and Buddhism" लेखक- डा०बी० एच० कापडिया। श्री कापडिया सरदार वल्लभ भाई विद्यापीठ में संस्कृत के रीडर हैं। जैसा कि लेख के शीर्षक से विदित है जैन और बौद्ध धर्मों के सिद्धान्त और प्राचार विचार में जो साम्य है उसका सविस्तार परिचय इसमें है।
"Gujarati Society and the Jainas." लेखक-. डा० एम. प्रार. मजूमदार एम० ए० पी. एच. डी., एम० ए० एल० एल० बी०। योग्य व्यापारी, वित्तीय बुद्धि के धनी, मुद्रा विनिमय में उनका नेतृत्व, मध्यकाल, लोककथानों में व्यापारी राजा, विदेशी व्यापारियों के साथ उनका व्यवहार, धार्मिक सहिष्णुता और समानता, गुजरात में महाजनों का प्रभाव, धनी. गरीब और मध्यम वर्ग, उनका साहित्य और संगीत, गुजरात की उन्नति में जैन धर्म का योगदान, आदि शीर्षकों के अन्तर्गत गुजराती समाज का अध्ययन करते हुए लेखक ने बताया के मजराती प्रधानतः प्राथिक दृष्टिकोण वाले, विशाल हदय वाले और पडौसियों में मेलजोल रखने वाले होते हैं। यही कारण है कि गुजराती सभ्यता ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा नैश्यों को सभ्यता न होकर भारतीय सभ्यता है और भारतीय होते हुए भी उसमें विश्वमंत्री के गुरण हैं।
“Some Forms of the Obligatory Participle in Prakrit." लेखक-श्री L. A. Schwrizschild, Australia । एक विदेशी विद्वान् द्वारा लिखे गये इस लेख में प्राकृत भाषा में विधिवाचक कृदन्त शब्दों के विकास पर महत्वपूर्ण शोध सामग्री प्रस्तुत की गई है जो स्तुत्य और स्पृहणीय है।
"Jaina Arungalam in Tamil Literature." लेखक--श्री के. जी. कृष्णन, एम० ए०, सुप. फार ईपीग्राफी ऊटकमाण्ड । मद्रास के उत्तरी अर्कोट जिले के वान्दीवास तालुके के सियामंगलम् ग्राम के स्थम्भेश्वर मंदिर से उत्तर पश्चिम की तरफ दो फाग दूर एक शिलालेख है । जैनों में अरुंगलान्वय भी एक अन्वय है । लेखक की कल्पना अनुसार गुण
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सागर के शिष्य अमित सागर जिन्होंने तामिल भाषा के दो महत्वपूर्ण ग्रंथों को (यप्प रुंगलम् और यप्पमंगलकारिके) रचना की वे इसी अन्गय के थे । लेखक की युक्तियां अन्य गिद्वानों के लिये विचारणीय हैं।
"Jaina Philosophy of Nodabsolutism and Omniscience." लेखक-प्रोफेसर रामजीसिंह । लेखक भागलपुर यूनिवर्सिटी में दर्शन विभाग के प्रोफेसर हैं। लेखक ने बड़े ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से स्याद्वाद और सर्वशता में भेद बताते हुए वेदान्तियों के उच्चतर और निम्नतर ज्ञान से तुलना करते हुए बताया है कि यर्याप बहुत सी बातों में दोनो सिद्धान्तों में साम्य है किन्तु एक बहुत बड़ा मतभेद भी है । लेख बड़े परिश्रम से लिखा गया है
और इस विषय पर जैनदर्शन और वेदान्तदर्शन के तुलनात्मक अध्ययन के लिये पर्याप्त सामग्री प्रस्तुत करता है।
___ "An Analysis of the Contents of the Kalkacharya Kathanak." लेखक-द्वा० बी० एन० मुकर्जी । लेखक ने कालकाचार्य कथानक की ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचना करते हुए स्थापना की है कि उसमें वरिणत लोअर इण्डस के पश्चिमी. किनारे पर शक बस्ती का अस्तित्व, उस प्रान्त पर पाथियन्स का अधिकार और सुराष्ट्र में शकों की हलचल तो ऐतिहासिक तथ्य माने जा सकते है किन्तु मुराष्ट्र में शकों की हलचल से जैनाचार्य कालक का कोई सम्बन्ध था या नहीं यह संदिग्ध है । विद्वानों को लेखक की इस स्थापना पर गम्भीरता से विचारना चाहिये।
"The Conception of Dravyas in Jain Philosophy." लेखकडा. कमलचंद सौगाणी। लेखक उदयपुर यूनिवर्सिटी में दर्शन विषय के व्याख्याता हैं। जैन दर्शन में जो जोवादि ६ द्रव्य माने गये हैं उन पर उन्होंने जैन दृष्टिकोण से गहन चितन कर अपने विचार प्रस्तुत किये है।
"The Nasal's Influence upon the Neighbouring Syllables." लेखकडा० एस. एन. घोपाल, व्याख्याता कलकत्ता यूनिवर्सिटी। अनुनासिक वर्ण का अपने समीपस्थ वर्ण के उच्चारण पर क्या प्रभाव पड़ता है इस पर सोदाहरण विस्तार से विचार करते हुए जेकोवी के मत की समीक्षा की गई है, जो तर्कपूर्ण है।
"The Spirit of Jaina Prayaschitta.' लेखक-श्री Colette Caillat. पेरिस । इस लेख द्वारा जेनों में प्रायश्चित की जो प्रवृत्ति है और उसके पीछे जो मूल भावना है उससे यह ठोक हो अनुमानित किया गया है कि जन प्रारम्भ से ही अपने दोषों की ओर दृष्टिपात करके उनको दूर करने के लिये और आध्यात्मिक उन्नति के लिये प्रयत्नशील रहे हैं। वास्तव में प्रायश्चित के मन में अपराधी को दण्ड देने की भावना उतनी नहीं है जितनी कि अपने अपराध को स्वीकार कर भविष्य में उसे न दुहराने की।
"On the Jaina School of Mathematics." लेखक-श्री एल० सी० जैन । लेखक गवर्नमेंट कालेज सीहोर में गणित विभाग के प्रोफेसर और हैड़ हैं। जन गरिणत के सम्बन्ध में बड़े परिश्रम से लिखा गया यह लेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । पोथागोरीय गणित और
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जैन गणित के तुलनात्मक अध्ययन से यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि जैन पीथागोरस के गणित सिद्धान्त से परिचित थे अथवा सम्भव हे पोथागोरस ने यह ज्ञान जैनों से ही लिया हो। भगवान महावीर और पोथागोरस. के काल में बहुत कम अन्तर है। लेखक के अनसार या तो दोनों समकालीन थे या महावीर पीथागोरस से कुछ ही पहले हए थे। कुछ भी हो लेख गरिणत विषय में बड़े ही रोचक तथ्य उपस्थित करता है और गणित विषयक अनुसंधित्सुओं के लिये बड़े वाम का है।
अन्त में दो शब्द ग्रन्थ की छपाई प्रादि के बारे में भी कहना है। छपाई करते समय कहीं कहीं कुछ टाइप ट जाने से कई स्थानों पर वे अक्षर छपने में नहीं आए हैं । अंग्रेजी के कुछ लेखों में चिन्हित टाइप की प्रेस में कमी हो जाने से कहीं कहीं वे टाइप ही नहीं लगाये जा सके हैं और साधारण टाइप लगा कर ही वहाँ काम चलाया गया है। विशेषकर 'The Nasal's Influence upon the Neighbouring syllables' में ऐसा हुआ है । कई लेखों की टाइप कापियों में spelling की पर्याप्त अशुद्धियाँ थीं जिन्हें ठीक करने पर भी कुछ अशुद्धियां रह ही गई है। प्रफ पढ़ने में असावधानी के कारण भी कुछ अशुद्धियाँ रही हैं। समयाभाव से और ग्रन्थ शीघ्र पाठकों के हाथ पहुंच सके इस विचार से क्योंकि पहले ही पर्याप्त विलम्ब हो चुका है, ग्रन्थ के साथ शुद्धि-पत्र नहीं लगाया जा सका है। इस सबके लिये हम पाठकों से क्षमाप्रार्थी हैं।
जयपुर ३१ अक्टबर, १९६७
-चैनसुखदास
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बाबूछोटेलाल जैन
स्मृतिग्रंथ
खण्ड
व्यक्तित्व कृतित्व, संस्मरणा एवं श्रद्धांजलियां
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णमो अरिहंताणं
णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं
णमो उवज्झायाणं णमो लोएसब्बसाहूणं
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ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम
ले० कल्याण कुमार जैन 'शशि' रामपुर
दिया राष्ट्र सेवाओं में, श्रजित, बहुचर्चित योग । दिया सतत् साहित्योन्नति में हितकारी सहयोग । श्रोल रखा दृष्टि से, फल की इच्छा का विनियोग | गोरण समझते रहे स्वयम् का, शारीरिक सुख भोग ।
अपने श्रम से दिया निरंतर श्रौरों को विश्राम | ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम ।
कोटि कोटि विपदानों में भी दिखे नहीं भयभीत । कर्मठता से भरा पुरा, सहकारी रहा प्रतीत । स्वार्थ रहित सक्रिय जीवन से, बनता प्रारण पुनीत । हित चिन्तन के दृष्टि कोण से, जीवन किया व्यतीत ।
करते रहे समस्याओं से, जीवन भर संग्राम | ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम
हर सुधार आन्दोलन में नित रहा प्रमुखतर हाथ । बढ़ते रहे सदा सक्रिय प्रग, नई प्रगति के साथ । शुमाचरण के पालन में दीखे नित उन्नत माथ । यहां अनेकों भटके जीवन, बनते रहे सनाथ ।
जीवन वह है जोकि प्रकाररण आये सबके काम 1 ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम ।
बढ़ा प्रयत्नों द्वारा इनके पुरातत्व का मान । पुरातत्व ही संस्कृतियों का उज्ज्वल गौरव-गान । शोध कार्य में किया इस तरह अपना योग प्रदान । जिसके द्वारा बढ़ा रुका पग नूतन अनुसन्धान ।
जीवन वह जो प्रादर्शो पर बढ़े नित्य श्रविराम । ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम ।
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उदारमना श्री बाबू छोटेलाल जी जैन
ले बंशीधर शास्त्री
०६६६ का जनवरी मास भारतीय इतिहास में भी उन्होंने उपयोग नहीं किया, अन्य वस्तुओं की
अशुभ माह समझा जावेगा। जिसमें डा० भामा तो बात ही क्या । वे बाजार में बनी हुई चीज जैसे महान अणु वैज्ञानिक एवं श्री लाल बहादुर जी कभी नहीं खाते थे, चाहे भयंकर गर्मी ही क्यों न शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री पाकस्मिक मत्य के शिकार हो पानी भी बाजार में न पीकर घर में ही पाकर बने । इनकी क्षति पूति होना निकट भविष्य में पीते थे। संभव नहीं लगता । यह माह जैन समाज के लिए आप प्रारम्भ से ही बोरा के व्यापार में लगे, भी विशेष तौर पर प्रशुभ रहा जिसमें २६ जनवरी
६ जनवरा जहां मापने अपने बुद्धि कौशल से धन कमाने के को प्रातः श्री छोटेलाल जी जैन जैसे पुरातत्व संस्कृति साथ-साथ अपने सहज निर्मल व्यवहार से प्रतिष्ठा के प्रेमी एवं निर्भीक कार्यकर्ता का देहावासन हो
भी अजित की । उस समय बोरा बाजार में अंग्रेज, गया।
मारवाड़ी, गुजराती, नाखूदा तथा बंगाली प्रादि उन जैसे विविध प्रवृत्तियों में लीन व्यक्ति की।
विभिन्न जातियों के व्यापारी थे, किन्तु वे सब जीवन गाथा पाने वाली पीढ़ी के लिए हमेशा प्रेरणा ।
उनको अत्यन्त सम्मान देते थे। उनकी जैन समाज स्पद रहेगी । वे वास्तव में महान थे। वे व्यापार
, में भी बहुत प्रतिष्ठा थी, वे कई दिगम्बर जैन व्यवसाय में व्यस्त रहते हुए भी पुरातत्व, शिक्षा,
मन्दिरों के ट्रस्टी थे। वे आवश्यकता पड़ने पर अपने साहित्य, संस्कृति, समाज सुधार संगठन तथा
प्राणों की परवाह न करते हुए मन्दिरों की रक्षा में अभावग्रस्त एवं पीड़ित मानवों की सेवा प्रादि में तत्पर रहते थे। एक बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे के अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहते थे।
समय नया मन्दिर की स्थिति बहुत भयावह हो गई
थी, वहां भय के कारण कोई भी नहीं जाना चाहता श्री छोटे लाल जी जैन का परिचित वर्ग उन्हें था; किन्तु वे सब के मना करने पर भी वहां गये "बाबू जी," "जैन जी," "सरावगीजी" प्रादि और मन्दिर की सुरक्षा की पूर्ण व्यवस्था करके हो नामों से पुकारता है, किन्तु इन नामो में उनका लौटे । इस पर भी जैनी भाई वहां पूजन पृक्षाल के 'बाबू जी' नाम ही अधिक प्रचलित है। लिए जाने में डरने लगे तब श्री रामजीवनदास जी प्रापके पूर्वज राजस्थान के फतहपुर (सीकर
स्वयं अपने दोनों पुत्रों को लेकर बहा गए जिनमें
श्री छोटेलाल जी भी थे। वहां पूजन पृक्षाल की जयपूर) से माए थे। मापके पिता श्री रामजीवन
समुचित व्यवस्था करवाई। दास सरावगी कलकत्ता जैन समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे । वे दीन दुखियों की गुप्त रीति से कलकत्ता जैन समाज के प्रमुख व्यक्ति होने के सहायता करते थे। वे मन्दिर जो में प्रातः और कारण उनका भारत के प्रमुख जैन बंधुनों से परिचय सायं नियमित रूप से शास्त्र सभा में उपस्थित रहते था। वे सस्थानों के पैसे को निजी काम के लिए
उन्होंने हमेशा सादा जीवन और उच्च विचार कभी उपयोग में नहीं लाते थे। यहां तक कि मन्दिर को अपना मूल मंत्र रखा । कलकत्ता जैसे बड़े शहर के कोष से अपने रुपये खुदरा कराना भी पाप में रहते हए भी साबुन और बर्फ जैसी वस्तुओं का समझते थे।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
ऐसे प्रादर्श सात्विक वृत्ति वाले श्री रामजीवन दास जी के शिखर चन्द, फूलचन्द, गुलजारी लाल, दीनानाथ, छोटेलाल, नन्दलाल, लालचन्द मौर दुलीचन्द (जिनका १७ वर्ष की अवस्था में ही देहावसान हो गया था) नामक ८ पुत्र तथा रतन बाई एवं नानीबाई नामक दो पुत्रियां हुई। इस प्रकार अपने सहोदरों में श्री छोटेलाल जी का ५ वां
स्थान था ।
अब इन दस भाई बहनों में श्री नन्दलाल जी एवं दो बहनें ही जीवित हैं ।
बाबू जी का जन्म ७० वर्ष पूर्व १६ फरवरी सन् १८१६ तदनुसार फाल्गुन शुक्ला २ वि० सं० १९५२ को हुआ था। आप बचपन से ही अपने पिता जी के अधिक सम्पर्क में रहे थे। पिता जी के पास पाने वाले व्यापारियों एवं विद्वानों की चर्चा धाप रुचिपूर्वक सुना करते थे एवं कभी कभी माप चर्चा में भाग भी लेते थे । इन सबका परिणाम यह हुआ कि बाबू जी प्रारम्भ से ही सार्वजनिक व सामाजिक क्षेत्र में प्रभिरुचि लेने लगे। इस अभि रुचि ने ही इन्हें मूक सेवक बनने की प्रेरणा दी।
rivet प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय दिगम्बर जैन पाठशाला में हुई। यहां पं० कलावर जी ने पाप को अक्षराभ्यास कराया। चापके साथ ही कलकत्ता के सुप्रसिद्ध पं जयदेव जी भी पढ़ते थे । श्रापने मैट्रिक परीक्षा भी विशुद्धानन्द सरस्वती विद्यालय से पास की। तत्पश्चात् कालेज में पढ़ना जारी किया, किन्तु कुछ विशेष काररणों से प्राप प्रध्ययन छोड़कर व्यापार में लग गये ।
प्रापका विवाह १४-१५ वर्ष की अल्पायु में ही सेठ सेतसीदास जी अग्रवाल को सुपुत्री मूंदा बाई से हुआ था। पाप की धर्म पत्नी हमेशा पतिभक्ति को सर्वोच्चस्थान देती रहीं । बाबू जी के यहां प्रायः प्रतिथियों का नियमित रूप से आगमन होता रहता था। आप उनकी सेवा में उत्साह पूर्वक लगी रहती थी। प्राप १९३९ ई० में बीमार
हुई। यह बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती गयी। अनेकानेक उपचार किये गए किन्तु सफलता नहीं मिली। अन्त में १६-८-४० को वह काल-कवलित हो गई ।
बाबू जी १४-१५ वर्ष
की उम्र से ही सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे थे। वे कलकला सुप्रसिद्ध रथयात्रा की व्यवस्था हेतु स्वयंसेवक
रूप में भाग लेते थे । जिस समय का उपयोग निकों के पुत्र प्रायः खेल कूद, सिनेमा, नाटक प्रादि में व्यतीत कर दिया करते हैं उसी समय का उपयोग बाबू जी समाज हित में करते थे । मापने व्यवसाय से सन् १९५२ के दिसम्बर में ही निवृत्तिलेकी थी। सबसे आप अपना पूर्ण are साहित्य पुरातत्व एवं समाज सेवा में देने लगे। जब किसी सहा व्यक्ति के बीमार होने का समाचार मिलता तो बाबू जी के पिताश्री स्वयं जाकर उसकी सेवा सुश्रुषा की व्यवस्था करते थे, वे अपने अन्य पुत्रों के साथ बाबू जी को भी रोगो के पास ले जाते थे । आप की निस्वार्थ सेवा से रोगी अपनी बीमारी के सारे दुख भूल जाता था। पाप बीमार के मसमूत्रादि साफ करने में भी नहीं हिचकते थे।
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स्वर्गीय कुमार देवेन्द्र प्रसाद जी से बाबू जी का घनिष्ट सम्बन्ध था। कुमारवी जब भी कलकत्ता आते थे इन्हीं के यहां ठहरते थे । वे एक बार इनके घर पर बाकर बीमार पड़ गये। उनका वर बड़ता ही गया, जो अन्त में भयंकर वेचक के रूप में परिवर्तित हो गया। उनके सारे शरीर पर बेचक के दाग हो गए। बाबू जी व उनके भाइयों ने उनकी चिकित्सा विशेषज्ञों से कराई। किन्तु इस चिकित्सा से भी बढ कर बाबू जी ने उनकी जो परिचर्या की वह चिरस्मरणीय रहेगी। बाबू जी उनको लेटे-लेटे ही पाखाना और पेशाब करवा कर अपने हाथों फेंकते रहे और वैद्यों द्वारा रोग को पोर संक्रामक बताने पर भी उनकी सेवा वे ही नहीं उनके सारे भाई भी करते रहे। द्वारा से कुमार जी के भावा
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म्व० श्रीमती मृगाबाई, धर्मपन्नी बाबू छोटलाम जो
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बाबू छोटेलाल जी जैन
उदारमना
गये। इन बहुत ही
जी, मामा जी प्रादि परिजन भी आ भाइयों की निस्वार्थ सेवा वृत्ति से वे प्रभावित हुए। अंतिम दिन उनके मामा के सुपुत्र भी मा गए। जब वे कुमार साहब से मिलने कमरे के भीतर जाने लगे तो बदबू के मारे उनका जी घबरा गया और वे उनके शरीर की भयंकर स्थिति देख कर बाहर ही रह गए तथा उनसे मिले भी नहीं । ऐसी परिस्थिति में भी बाबू जो उनकी प्रथक परिचर्या यथावत करने रहे ।
इसी प्रकार बिहार भूषण दयानिधि, रायबहादुर बाबू सखीचन्द्र जी को भी, हैजा होने पर, पांच दिन तक बाबू जी अनवरत सेवा करते रहे। इन्होंने उनकी विष्ठा, पेशाब आदि साफ करने में भी संकोच नहीं किया ।
इस प्रकार को परिचर्या बाबू जी केवल सम्बन्धी या परिचित की हो करते हों, ऐसा नहीं था। सन् १९१८ दिसम्बर में कलकत्ता में हुए इन्फल्यूएन्जा के समय बड़ा बाजार में गरीबों को ढूंढ २ कर बाबू जो उनकी चिकित्सा, पथ्य प्रादि की व्यवस्था करवाते थे। उन्होंने कलकता कारपोरेशन से लिखा पढ़ी कर एक चिकित्सक की व्यवस्था कराई। इस प्रकार रोगाक्रांत मानवों की सेवा में ग्राप एक माह तक लगे रहे ।
आप प्रारम्भ से ही सेठ पद्मराज जी रानी वालों के सम्पर्क में पाए। उनके पिता सेट फूलचन्द जी से आपके पिता जी का घनिष्ठ सम्बन्ध था, इसलिए आपका उनके यहाँ बराबर माना जाना बना रहता था। आप उनकी समाज सुधार एवं राजनैतिक विचारधारा से बहुत प्रभावित थे। सिद्धांत भवन धारा के बाबू करोटीचन्द जी कलकत्ता माते रहते थे। वे रानी वालों के यहां ठहरते थे अतः बाबू जी का भी उनसे परिचय हुमा जो आगे चलकर पनिष्ठता में परिवर्तित हो गया । ग्रापमें पुरातस्य एवं साहित्य के प्रति रुचि जागृत करते में श्री करोड़ो
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चन्द जी का बहुत बड़ा हाथ था। यह रुचि भापके जीवन का मुख्य अंग बन गई ।
आप कलकत्ता जैन समाज की ही नहीं अपितु बाहर की अनेक सार्वजनिक संस्थाओं में भी सक्रिय भाग लेते रहे थे जिनमें से कुछ का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है ;
१ - वे स्थानीय महावीर दि० जैन विद्यालय के २५-३० वर्ष तक मन्त्री रहे। आप अपने कार्यकाल में बच्चों की धार्मिक शिक्षा एवं संस्कारों पर विशेष जोर देते थे । जैन बच्चों के लिए धार्मिक विषय में सफल होना विषय में सफल होना अनिवार्य रखते थे, जिसका परिणाम हुआ कि उस काल के विद्यालयों के विद्यार्थियों में धार्मिक रुचि अधिक थी ।
२- अपने पिता श्री के ट्रस्टी होने के कारण आप भी प्रारम्भ हो से दिगम्बर जैन मन्दिरों की व्यवस्था आदि में सक्रिय भाग लेते रहे। जीवन के अन्त तक वे दिगम्बर जैन मन्दिरों एवं रथ यात्रा कमेटी के ट्रस्टी रहे।
३ - प्रापने जैन भवन के निर्माण में प्रमुख भाग लिया ।
४- वे महिसा प्रचार समिति के संस्थापकों में से थे एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सक्रिय भाग लेते रहे ।
५- कलकत्ता में सन् १९४४ में वीर शासन जयन्ती महोत्सव विशाल स्तर पर मनाया गया। उस समय वीर शासन संघ एवं विद्वत् परिषद् की स्थापना श्राप ही के प्रयत्नों से हुई थी ।
६ - आप कलकत्ता में श्वेताम्बर व दिगम्बर समाजों की संयुक्त रूप से महावीर जयन्ती मनाने के पक्ष में प्रारम्भ से ही रहे। आप जैन समाज के सभी सम्प्रदायों में ऐक्य चाहते थे। जैसे प्राप दिगम्बर समाज में प्रिय एवं सम्मानित थे वैसे ही श्वेताम्बर समाज में भी थे। धाप जैन समाज की एकता की प्रतीक जैन सभा कलकता में कार्य करते रहे। भाप
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
१९४७-४८ में इसके सभापति चुने गए थे । आपके कार्यकाल में सभा की ओर से राजगृह में श्रौषधानय की स्थापना की गई। इसी वर्ष में सभा को भोर से महावीर जयन्ती उत्सव मनाया गया जिसमें जैन एवं जैनेतर समाजों के उच्च कोटि के विद्वान सम्मिलित हुए थे। उसके बाद से सभा की कार्य समिति में आप बराबर रहे। आपने सदैव जैन समाज की सभी शाखाओं की एकता पर बल दिया।
७- श्री दिगम्बर जैन युवक समिति कलकत्ता की एक महत्त्वपूर्ण संस्था है । इसकी स्थापना एवं प्रारम्भिक कार्यों में बाबू जी का विशेष हाथ रहा है। इस समिति की घोर से महावीर पुस्तकालय संचालित होता है, उसमें थापने अपनी संग्रहीत बहुमूल्य पुस्तकें दी थी। समिति की घोर से सन् १९२१ में जैन विजय नामक पत्र प्रकाशित हुआ था, उसमें बाप सहायक संपादक नियुक्त किए गए थे। सन् १९२२ में बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए जो चन्दा हुआ उसके लिए भी प्रापने प्रयत्न किया था।
८- सन् १९१७ में सेठ पद्मराजजी रानी वालों एवं बाबू जी के प्रयत्नों से जैन समाज की एकता व उन्नति के लिए श्री महावीर जैन समिति की स्थापना की गई, जिसके सभापति उक्त रानी वाले एवं मन्त्री बाबू जी थे । समिति की ओर से मासिक सभा प्रायोजित करने तथा विशेषतः स्त्रियों में विद्या का प्रचार करने आदि का तय किया गया। समिति की ओर से १९१७ में जैन धर्म भूषरण स्वर्गीय ब्र० शीतलप्रसाद जी के सभापतित्व में भारत जैन महामंडल का अधिवेशन हुमा, जिसमें प्रायः सभी प्रान्तों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। समिति की ओर से कांग्रेस अधिवेशन के समय २७-१२१७ को All India Jain Association व Political Jain Conference का भी प्रायोजन किया गया था, जिसमें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक व देशपूज्य दादासाहब खापों भी सम्मिलित हुए थे ।
दादा साहब खापर्डे जैन पोलिटिकल कान्फ्रेंस सभापति थे लोकमान्य तिलक ने कहा था कि "स्वराज्य प्रान्दोलन के साथ ही मेरा दूसरा कार्य पण्डित अर्जुनलाल जी सेठी को छुड़ाना होगा ।"
समिति १६१७ में कांग्रेस द्वारा Affiliated हो गई थी और उस को प्रतिनिधि भेजने का अधिकार मिल गया था। बाबू जी भी अनेक वर्षों तक कांग्रेस के प्रतिनिधि नियुक्त होते रहे थे।
जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अनेक वर्षों तक मन्त्री रहे । ६ - बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा दिगम्बर बिहार प्रान्तीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी की एवं अखिल भारतीय दि० जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी की प्रबन्धकारिणियों में अनेक वर्षों तक वे सम्मानित सदस्य के रूप में रहे थे ।
१० - आपने खण्ड गिरि, उदयगिरि का इतिहास समाज के सामने रखा। भ० महाबीर के फूफा जितारी का निर्वाण स्थल सिद्ध कर इसे सिद्धक्षेत्र घोषित किया। इस क्षेत्र को प्रसिद्धि में लाने का श्रय प्रापको ही है।
११ - पाप कलकत्ता के गनी ट्रेड एसोसिएशन के स्थापनाकाल (सन् १९२५) से ही सक्रिय कार्यकर्ता रहे। प ३२ वर्ष तक इसकी कार्य कारिणी समिति के सदस्य रहे । दस वर्ष तक अवैतनिक संयुक्त मंत्री के पद को सुशोभित करते रहे । तीन वर्ष तक आप एसोसिएशन के उप-प्रधान एवं दो वर्ष तक प्रधान पद पर भी प्रासीन रहे । अपनी निष्पक्षता के आधार पर छापने जो ख्याति प्राप्त कर ली थी, उसके कारण श्रापका निर्णय सहर्ष स्वीकार होता था। आपके मंत्रित्व काल में एसोसिएशन को व्यापारिक कार्यों के प्रतिरिक्त जन-कल्याण की ओर भी प्रवृत्त किया गया, जिसमें लगभग पाँच लाख रुपए खर्च किए गए आप इस एसोसिएशन की ओर से अनेक व्यापारिक संस्थाओं के प्रतिनिधि भी रहे थे ।
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उदारमना श्री बाबू छोटेलाल जी जैन १२-आप जैन संस्कृति की सुरक्षा एवं उत्थान १५-~-पाप जैन संस्कृति के पुरातत्व विभाग से के लिए हमेशा अप्रसर रहते थे। पाप पं० जुगल- प्रेम रखते थे, इसलिए पुरातन जैन सामग्री की किशोर की मुख्तार की लेखनी से प्रभावित हुए। खोज में विभिन्न स्थानों पर जाते रहते थे। प्राप उनके कार्यों के प्रकाशन प्रादि के लिए हजारों वहाँ से सामग्री भी एकत्रित करते थे । माप के पास रुपये दान में देते रहते थे। बीर सेवा मन्दिर को पुरातत्व को दुर्लभ सामग्री के अनेक बहुमूल्य चित्र सरसावा जैसी छोटी जगह से लाकर देहली जैसे थे जिनमें से कुछ को विस्तृत करा कर स्थानीय बेलगकेन्द्रीय स्थान में लाने का श्रेय प्राप ही को है। छिया उपवन के हाल में सर्व साधारण के प्रदर्शनार्थ प्रापने स्वयं व पौरों से हजारों रुपया दिला कर रख दिया गया है । प्राप की इच्छा पूरे हाल में इस संस्था को स्थायित्व प्रदान किया। मन्दिर का ऐसे चित्र लगाने की थी जिससे कि दर्शनार्थी जैन अपना भवन बना जोमाने वाली पीढ़ियों के लिए संस्कृति के प्राचीन गौरव से परिचित हो सकें। प्रेरणा स्रोत एवं जैन इतिहास व संस्कृति के विद्या- किन्तु खेद है कि अपनी अस्वस्थता के कारण प्रापके थियों के लिए महत्त्वपूर्ण केन्द्र सिद्ध होगा। आपने जीवन काल में उनकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी । इस संस्था की ओर से प्रकाशित "अनेकांत" पत्र को प्राप के पास २५००-३००० के लगभग बहुमूल्य महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया। पाप अपनी रुम्णावस्था पुस्तकें थीं । प्रापका पुरातत्व के अनेक विशेषज्ञों में भी इस पत्र के लिए चितित रहते थे एवं एवं अधिकारियों से घनिष्ट संपर्क था । पाप यथाइसे समय पर निकालने की प्रावश्यक व्यवस्था भी वसर जैन पुरातत्व पर लेख भी लिखते थे। आपने करते थे । लेखादि के लिए विद्वानों को प्रेरित कलकत्ता के जैन मन्दिरों की मूर्तियों और यंत्रों के करते थे।
लेखों को भी पुस्तकाकार प्रकाशित कराया था।
मापने जैन बिबियोलोजी का प्रथम भाग प्रकाशित १३-साहू शांतिप्रसाद जी ने साहित्यिक कराया था । पाप दूसरा भाग तैयार कर रहे थे जो विकास उन्नयन एवं सांस्कृतिक अनुसंधान तथा लगभग प्रायः पूर्ण हो चुका था किन्तु प्रापको प्रकाशन के उद्देश्य से सन् १९४४ में भारतीय ज्ञान- निरंतर बीमारी के कारण वह उनके जीवन काल में पीठ की स्थापना की । इसकी स्थापा को प्रेरणना प्रकाशित नहीं हो सका । प्राशा है वह अब प्रकामें भी बाबूजी का प्रमुख हाथ था । माप इसके ट्रस्टी शित हो सकेगी। एवं संचालन समिति के सदस्य थे । माप इसके जन प्राप का विद्वानों के प्रति अपार प्रेम-भाव प्रकाशनों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सुझाव देते रहते रहता था। माप युवकों के प्रति असीम स्नेह रखते थे। स्वर्गीय पं० नाथूराम जी प्रेमी के अनुरोध पर थे। उनके पथ प्रदर्शन एवं सहायता के लिए पाप पापने ही माणिकचन्द्र ग्रंथ माला का कार्य भार सब कुछ करने को तैयार रहते थे। इन पंक्तियों ज्ञानपीठ को स्वीकार करने की प्रेरणा दी थी।
के लेखक ने गत १० वर्षों में उनसे जो असीम स्नेह १४-माप स्वामी सत्य भक्तजी एवं ब्र० शीतल
हो पाया उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। प्रसादजी से बहत प्रभावित थे। भाप ने सत्य भक्त जी आप रायल एसियाटिक सोसाइटी के सम्मानित के प्राश्रम के संचालन एवं साहित्य प्रकाशन के लिए सदस्य थे । अाप इसके प्रतिनिधि के रूप में हिस्ट्री हजारों रुपया दान दिया था। माप शीतल प्रसाद कांग्रेस में भी कई बार गए थे। आप कु०चन्दाबाई जी जी की धर्मप्रचार-भावना एवं साहित्य-सृजन की के जैन-बाल-विधाम मारा से भी सम्बन्धित प्रथक वृत्ति से बहुत प्रभावित थे। आप उन्हें हर रहे हैं । आप वहां की व्यवस्था, शिक्षा मादि से बहुत प्रकार का सहयोग देते रहते थे।
प्रभावित थे। किसी भी कन्या की पढ़ाई का जिक्र
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वायू इंटेलाल जी
( नवम्बर सन् १६१३, श्री नन्दलाल जी के विवाह में, छपरा में )
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बाबू छोटेलाल जी (नवम्बर सन् १६१३, श्री नन्दलाल जी के विवाह मे. खपरा में )
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उदारमना श्री बाबू छोदेलाल जी जैन सब के जरिये आप जन सामग्री प्राप्त करने के लिए प्रभावों की अनुभूति अन्तः करण से करते थे इसलिये हमेशा प्रयत्नशील रहते थे । प्रापकी पुरातत्त्व की हमेशा उनके दुःखो को दूर करने के लिए तन, मन, अभिरुचि एवं सेवाओं के सम्मानार्थ भारत सरकार धन से तत्पर रहते थे। ने पापको सन् १९५२ में पुरातत्त्व विभाग का अवैत
बाबूजी ने स्वयं बंगाल के प्रसिद्ध ४२-४३ के निक Correspondent बनाया था।
अकाल में पीडित प्रभावग्रस्त गरीबों की सहायता आपने जैन युवकों को पुरातत्व की ओर अभि- की । वे गनी ट्रेड एसोसियेशन की तरफ से माररुचि लेने के लिए प्रेरित किया था। एक बार सन् वाड़ी रिलीफ सोसाइटी के तत्वावधान में बंगाल के १९२३ में प्रापने हजारों पत्र लिख कर जन पंचायतों नोग्राखाली काण्ड के समय हिन्दुओं की सहायतार्थ को हस्तलिखित जैन ग्रन्थों की सूची तैयार करने की वहाँ गए थे। वहाँ महीनों रह कर असहाय अल्प प्रेरणा दी थी।
मरूपकों की हर प्रकार से महायता करते रहे। वे
निर्भीक होकर मुमलमानी मुहल्लों व गांवों में पहुँच १८-ग्राप देश-विदेश के जैन-प्रजन विद्वानो को
जाते थे एवं असहाय और लीगी नादिरशाही के जैन साहित्य एवं संस्कृति सम्बन्धी महत्वपूर्ण सामग्री
शिकार अल्प-संख्यको की महायता एवं रक्षा कर के देते रहते थे एवं उन्हें जैन विषयों को प्रकाश में
कृतकृत्य होते थे। लाने के लिए प्रेरित भी करते रहते थे। डा० विन्टर निटज, डा० ग्लामिनव, श्री पार डी. बनर्जी, राय प्राप जैसे दीन दुम्वी सेवकों के कारण जैन बहादुर प्रार.० पी० बनर्जी, श्री एन० जी० बनर्जी. समाज ही नहीं अपितु प्रत्येक भारतीय का सिर श्री एन० जी० मजुमदार, श्री के० एन० दीक्षित, गौरव में ऊँचा हो उठता है। ऐसे निःस्वार्थ सेवक अमूल्यचन्द्र विद्याभूपरण, डा० विभूतिभूषण दत्त, की याद हमेशा बनी रहेगी। डा० ए० प्रार० बनर्जी, डा० ए० आर० भट्टाचार्य,
लक्षाधिक दान देकर भी प्राप अपनी विज्ञापनडा० कालिदाम नाग आदि अनेक विद्वान जैन विषयों
बाजी से हमेशा दूर रहे। पाप हमेशा कृत्य को पर प्रापस जानकारी प्राप्त करते रहे।
प्रधानता देते थे, नाम को कभी चिन्ता नही करते प्रापका जैन विद्वानों से तो बहुत ही निकट का थे। पापने दान कभी प्रचार की भावना से नहीं सम्बन्ध रहता था। प्राप उनकी सेवा एवं सम्मान दिया था क्योंकि प्राप मानते थे कि 'परिग्रह पाप का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे। प्रापका है उस पाप का प्रायश्चित दान है किन्तु यह दान पं० नाथूराम जी प्रेमी, पण्डित जुगलकिशोर जी ख्याति लाभ पूजा के लिये नहीं होना चाहिए । मुख्तार अ० शीतलप्रसाद जी, बैरिस्टर चम्पत राय प्रायश्चित की दृष्टि अपने पाप का संशोधन अथवा जी. पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, डा० हीरा- अपराध का परिमार्जन करके प्रात्म शुद्धि करने की लाल जी जैन, डा० ए० एन० उपाध्याय, प्रो० पोर होती है । चक्रवर्ती, पण्डित कैलाशचन्द जी, पण्डित चैनसुख
आप अनेक संस्थाओं में विभिन्न पदों पर रहे। दास जी न्यायतीर्थ प्रादि से नियमित एवं मधुर
आपका सभी प्रकार के वर्गों से नियमित सम्पर्क सम्पर्क रहता था ।
रहता था किन्तु मापने स्वाभिमान को हमेशा प्रमबाब जी जहाँ पुरातत्त्व, संस्कृति और शिक्षा के खता दी। किसी धनी या बड़े प्रावमी के सामने प्रेमी थे वहाँ दीन दुखियों के दुखों से जल्दी हो द्रवित कभी नहीं झुके, इन्हे ठकुर मुहाती कहना या सुनना हो जाते थे । धनी होते हुए भी वे उनके दुम्वों और पसन्द नहीं था, किन्तु साथ ही योग्य पात्रों के
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प्रेरणादीप बा० छोटेलालजी
डॉ. ज्योति प्रसाद जैन एम.ए., एल.एल.बी., पी.एच डो., लखनऊ
कलकना निवासी प्रादरणीय बाबू छोटेलाल जी था, नथापि एक ने दूसरे को सहमा पहिचान लिया.
जैन अखिल भारतवर्षीय जैन समाज के तो एक मात्र दो शब्द 'ज्योतिप्रसादजी है। उन्होंने कहे और अमूल्य रत्न थे हो, वे सम्पूर्ण राष्ट्र के भी एक प्रति- साक्षात् परिचय हो गया। स्टेशन से बाहर निकलष्ठित नागरिक एवं महान मेवाभावी सज्जन थे । मेग कर अपनी गाड़ी में लेकर जैन भवन पहुँचे, मेरे सम्पर्क श्रद्धय पं० जगल किशोग्जी मुख्तार तथा उनके ठहरने ग्रादि की व्यवस्था की ओर चले गये। फिर वोर सेवा मन्दिर सरसावा एवं अनेकान्त मासिक तो नित्य उनसे भेट होतो, घंटों विचार विनिमय भी पत्र के साथ लगभग तीस वर्ष पूर्व हुमा और इन्ही के होता उनके स्वयं के निवास स्थान पर भी, व्यावसाद्वारा शने : शनं बाबूजी के साथ भी परोक्ष सम्पर्क यिक दफ्तर और जैन भवन के मेरे कमरे में भी । स्थापित होने लगा। मुख्तार साहब की प्रेरणा और एक-डेढ़ मास मै वही उनक सर्वथा निकट प्रात्मीय बाबूजी के सत्प्रयत्नों एवं प्रदम्य उत्साह से १९४४ की भाँति हो रहा । अपने साथ वे मुझे अपने सहमें राजगृह के पुनीत विपुलाचल पर्वत पर वीर योगियो यथा-स्व. बाबू निमंत कुमार जी, स्व० शासन का माद्ध-ति सहस्त्राब्दी महोत्सव व ही धूम- मेट बलदेवदासजी सरावगी, आदि में मिलाने के धाम से मनाया गया और उमी अवसर पर वीर लिये भी जब तब ले जाते । शीत्र ही कार्तिक शामन संघ की स्थापना हई। यह मात्र एक महोत्सव का अवसर था जिसे देखने के लिये बगाल के मंस्था न थी वरन इसके पीछे एक महत्वपुर्ण तत्कालीन प्रग्रेज गवर्नर तथा अन्य उच्च पदाधिकारी योजना थी जिसके लिये बाबजी ने बड़े ग्रामन्त्रित किये गये थे। बाबूजी की प्रेरणा पर प्रयत्नपूर्वक लगभग दस लाख रुपयों की सहायता के मंने उक्त महोत्सव की एक छोटी सी सनित्र विववचन विभिन्न धर्म प्रेमी श्रीमानों से प्राप्त कर लिये। ररिगका अग्रेजी में तैयार की, जो मुद्रित होकर संघ का केन्द्र कलकत्ता महानगरी निश्चित हुई और विशिष्ट प्रामन्त्रित अजैन एवं विदेशी दर्शकों में उसका कार्य प्रारम्भ करने के लिये उपयुक्त व्यक्ति की वितरित हुई । खोज होने लगी। अन्ततः श्रद्धय मुन्नार साहब के परामर्श से बाबूजी ने इस कार्य के लिये बाबूजी का स्वास्थ्य उस समय भी अच्छा नहीं मुझे चुना । विद्याव्यसन तो था ही, संस्कृति सेवा रहता था । महोत्सव के कुछ ही दिनों बाद कलकत्ता में की भी आकांक्षा थी और कुछ यौवनावस्था का भयंकर दंगा हुआ और उस दो के बीच ही मुख्तार उत्साह था, अम्तु किंचित उहापोह के उपरान्त मैने साहब भी वहां जा पहुँचे । उनके आगमन का उद्देश्य स्वीकति दे दी और सन १६४५ के अक्तूबर माम भी मंघ की व्यवस्था के सम्बन्ध में सन्नोप प्राप्त में एक दिन में हावड़ा स्टेशन जा पहुँना । ट्रेन से करना था। उस दगे के समय गोलियो की बौछार उतरते ही टोपी, बन्द गले के बोट और धोती में एक से बचते हुए मुख्तार साहब को स्टेशन लिवा लाने शान्त भव्य मूर्ति के दर्शन हुए । मैने वाबू जी को के लिये जाने का रोमांचक प्रसंग यहाँ वर्णन नहीं पहले कभी नहीं देखा था, न उन्होंने ही मुझे देखा करूंगा। अनेक कारणं। गे वीर शामन संघ का कार्य
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति पथ
स्वागत के लिए वे तन, मन, धन से तैयार रहते थे ।
आप स्पष्टवादिता में भी अपूर्व थे। प्रापका चाहे कोई कितना ही निकट का क्यों न हो, प्राप उसके दोष देखने पर उसे कहने में नहीं हिचकते थे । अपने मतभेद को प्रकट करने में संकोच नही करते थे, इसी कारण कई व्यक्ति इनसे सन्तुष्ट नहीं रह पाते थे । ये अपने विरोधी को भी श्रावश्यकता पड़ने पर सहयोग देने में आनाकानी नहीं करते थे।
आप प्रेमी जी एवं मुख्तार सा० जैसे परीक्षा प्रधानी साहित्यान्वेषियों के मंतव्यों से परिचित थे इसलिए आप प्रत्येक क्रिया की भूमिका, प्राधार का पूरा अध्ययन कर ही उसकी विधेयता या अविधेयता स्वीकार करने थे। आप कभी गलतरुदि को स्वीकार नहीं करते थे। जो भी रूढ़ि या ग्रंथश्रद्धा जनिता कार्य करता उसका माप विरोध करने थे । ग्राप कभी दूसरों की प्रसन्नता की खातिर अपने सिद्धांत की बलि नहीं करते थे। आपने जैन समाज के सुधारकों की यथा संभव सहायता कर सुधार का मार्ग प्रशस्त किया था ।
नवयुवक का हमेशा पथ प्रदर्शन करने ये किसी भी नवयुवक की मार्ग में लगाने, उसे व्यवसाय साधन जुटाने में हमेशा सहायता करते थे। आप विद्यार्थियों एवं विद्वानों को अध्ययन की प्रेरणा देते रहते थे । वे स्वयं रुग्णावस्था में भी थोड़ी सी होने पर अध्ययन में लग जाते थे। आपने कितने ही व्यक्तियों को नव-साहित्य सृजन की प्रेरणा दी और उनकी रचनाओं के प्रकाशन में भी सहयोग दिया ।
आपको जैन गम्कृति के सरक्षण एवं विकास की हमेशा मना बनी रहती थी। प्राप विद्वानों
नेताओं एवं समाज के कार्यकर्ताओं से अपनी चिता व्यक्त करते रहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने ढंग से अनेक कार्य किए। भाप पुरातत्व सामग्री का स्नाइडले म्प से प्रदर्शन भी यथावसर करते थे।
श्रापने कलकत्ता, देहली श्रादि केन्द्रीय स्थानों पर जैन कला एवं संस्कृति की प्रदर्शनियां भी लगाई थी जिसकी सभी ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी।
ऐसे निर्भीक समाज सेवी का अभिनंदन करने की योजना चल ही रही थी कि करान काल ने उन्हें हमेशा के लिए छी लिया। वे हमेशा अभिनन्दन का विरोध करते रहते थे। उन्होने कहा कि हमने जो कुछ भी किया था सेवा व कमव्य समझ कर किया था उसके लिए सम्मान या अभि नन्दन कैसा ? ऐसे मूक सेवक, निरभिमानी दानी, उदारमना बाबूजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करना अपना परम कर्तव्य समझता हूँ ।
गत नवम्बर-दिसम्बर माह में आप विशेष रूप से पीड़ित रहे। दिसम्बर के द्वितीय सप्ताह मे स्थानीय मारवादी रिलीफ सोसाइटी के अस्पताल में श्राप को भर्ती कराया गया था । आप इतनी भयंकर बीमारी में भी सांस्कृतिक व साहित्य की चर्चा में रुचि लेते थे। आपने इस शय्या पर रहते हुए भी वीर शासन संघ की ओर से प्रकाशित होने वाली जैन निबंध रत्नावली का प्रकाशकीय वक्तव्य लिखवाया जो आपका अतिम वन्य कहा जा सकता है ।
इस रुग्णशय्या पर ही आपने श्री अगरचन्द जी नाहटा के निबंधों को प्रकाशित करने की योजना बनाई थी।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ
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प्रारम्भ नहीं हो पा रहा था। मुख्तार साहब अम न्तुष्ट होकर चले प्राये में दस पांच दिन श्रौर वही रहा और तदनन्तर लखनऊ वापस चला आया ।
किन्तु उस प्रवास में बाबू छोटेलाल जी को जितना निकट से देखने व समझने का अवसर मिला उतना फिर नही मिला। मुझे तो यही लगा कि इस भद्र पुरुष में मनस्विता है, ममाजहित और संस्कृति संरक्षरण को उत्कट लगन है, उपयुक्त योजनायें बनाने और उनका ॐ नमः करने की निपुरगता है, दूमरों में उत्साह फूंकने और प्रेरणा देने की भी क्षमता है, किन्तु कुछ अपनी स्थायी अस्वस्थता एवं तज्जन्य मानसिक उद्विग्नता के कारण तथा बहुत कुछ सहयोगियों एवं मित्रों की उपेक्षा एवं ढील से शीघ्र ही असन्तुष्ट हो जाने को प्रवृत्ति के कारण उनकी श्रनेक महत्वपूर्ण योजनायें कार्यान्वित न सकी । प्रशा श्रौर निराशा के बीच उन्हें बहुत भूलना पड़ा तथापि अपनी शक्ति, समय और प्रभाव का उपयोग वे
यथाशक्य समाज और संस्कृति के हित में निरन्तर करते ही रहे ।
उक्त कलकत्ता प्रवास के पश्चात् बाबूजी से पत्र-व्यवहार चलता रहा । कभी-कभी वे किंचित् रुष्ट और असन्तुष्ट भी प्रतीत हुए-विशेषकर प्रारम्भ में, उक्त योजना के सफल न हो पाने के कारण, किन्तु दो तीन वर्ष बाद से फिर उनका स्नेह एवं सद्भाव पूर्व की अपेक्षा भी कुछ अधिक प्रतुभूत हुआ । सन् १९६३ के दिसम्बर में जैन सिद्धान्त भवन प्राग की हीरक जयन्ती के अवसर पर उनसे फिर साक्षात्कार एवं वार्तालाप हुआ जिसने उनके सौजन्य एवं स्नेह भावकी मधुर छाप नये सिरे से हृदय पर छोड़ी ।
बाबू छोटेलाल जी जैसे विद्वत्प्रेमी, संस्कृति प्रभावक एवं समाजसेवी, धर्म और देश के बन्धु प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।
विएण विप्पहूणस्स हवदि सिक्खा रित्थिया सव्वा । विएग्रो सिक्खाए फलं वियफलं सव्वकल्ला ॥
विनय रहित मनुष्य की सारी शिक्षा निरर्थक है । विनय शिक्षा का फल है और विनय के फल सारे कल्याण हैं ।
ज्ञान का महत्व
गाज्जोवो जोवो गागुज्जोवस्स पत्थि पडिघादो ।
इ
खेत्तम पं सूरो लाएं जगममेसं ॥
ज्ञान का उद्योत ही सच्चा उद्योन है; क्योकि उसके उद्योत की कही रुकावट नहीं है। सूरज भी उसकी समता नहीं कर सकता क्योंकि वह प्रक्षेत्र को प्रकाशित किन्तु ज्ञान सम्पूर्ण जगत को ।
करता
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बाबू छोटेलाल जी : मूक साधक
__ डॉ. प्रेमसागर जैन अध्यक्ष : हिन्दी विभाग, दि० जन कॉलिज, बड़ौत
प्रा"
जिसे वो-पूर्व की बात है। जर्मनी के कौन जानता है कि इसके पश्चात डॉ० ग्नासिनव,
का प्रसिद्ध विद्वान टॉ विण्टनित्म कलकना श्री पार० डी० बनर्जी, गयबहादुर आर० पी० विश्वविद्यालय में ठहरे थे। उस समय हिस्ट्री प्रांव चन्द्रा, श्री एन० मी० मजूमदार, डॉ०० आर० इण्डियन लिटरेचर' की रचना का कार्य चल रहा भट्टाचार्य, डा० एम० प्रार. बनर्जी और अमूल्यचन्द्र था। एक दिन कलकना का एक युवा जैन उनमे विद्याभूपण ग्रादि के जैन साहित्य और पुरातत्त्व मिलने प्राया । उमने बातचीत के मिलमिले में सम्बन्धी अनुष्ठान में बाबू छोटेलाल जी ने महत्त्वपूर्ण प्रोजस्विता- पूर्वक कहा कि भारतीय इतिहास के योगदान किया है । उन्होंने अपनी सहायता का प्रत्येक पहल में जैनों का महत्वपूर्ण योगदान है, उल्लेख तक नहीं किया । नाम के पीछे मनवाला उस पर लिख बिना प्रापका यह ग्रन्थ अधूग ही याज का विद्गज्जगत, उनकी इस मौन साधना का रहेगा । डाक्टर माहब ने उगी तेजी के माथ उनर सही प्राकलन कर सके. ऐसा मैं चाहता। दिया कि जैन लोग अपने साहित्य को छिपाये रहते आज से ४० वर्ष पूर्व के कलकत्ता के निवासी है, दिग्वाले नहीं, उस पर हम कैसे लिख सकते हैं। एक ऐसे युवा व्यापारी से परिचित थे, जो दिन-रात नौजवान कुछ क्षगण मौन खड़ा रहा, फिर एक सप्ताह वहाँ की 'पब्लिक लायब्ररी' में पड़ा रहता था। बाद मिलने का वायदा कर शीघ्रता से चला गया। उसने शतशः नहीं सहस्रशः ग्रन्थ और पत्र-पत्रिकामों यथा ममय वह लौटा, उसके हाथ में कागजों को लोटा-पलटा। उनमे जैन साहित्य इतिहास का एक बण्डल था । डॉ. विण्टरनित्म की और पुरातत्त्व-परक उद्धरण संकलित किये। उन्हें योर फेंकते हए उसने कहा कि इस आधार पर व्यवस्थित और सम्पादित किया । उनका एक अंश पाप अपने इतिहास का 'जैन खण्ड पूरा कर
जैन विडिलयोग्राफी के पहले खण्ड में प्रकाशित हो चुका मकेंगे, और प्रोटो पर मुस्कान लिये बिदा हो है। विश्व के ख्यातिप्राप्त विद्वानों ने इस पस्तक गया । डॉक्टर महोदय प्राश्चर्यान्वित हो उसे की प्रशंसा की है। रायल एशियाटिक सोसाइटी की देखते रहे । आश्वस्त हो बण्डल उठाया । एक बैठक में अनेक विद्वानों ने इसके दूसरे खण्ड के 'हिस्टी प्राव इण्डियन लिटरेचर' के तीसरे खण्ड का शीघ्र प्रकाश में आने का प्राग्रह किया था । जैनधर्म-सम्बन्धी विभाग, जिसमें लगभग २५० पृष्ठ
खण्ड भी रफ पेपसं पर लिखा पड़ा है, उसको हैं, अनेक पौर्वात्य और पाश्चात्य विद्वानों ने पढ़ा व्यवस्थित करना-भर है । किन्तु बाबू जी के प्रत्यहै। मेरी दृष्टि में जैन साहित्य का वंसा इतिहास धिक अस्वास्थ्य के कारण यह कार्य पूरा नहीं हो कोई जैन विद्वान नही लिख सका । वह अपने में सका। एक ऐने व्यक्ति की अावश्यकता है, जो यह पूग प्रामाणिक और अनूठा है । आज डॉ. विण्टर- काम कर सके । कोई आंग्लभाषा का जानकार नित्य को ममूचा विश्व जानता है, किन्तु उस जैन निष्ठावान व्यक्ति अभी तक प्राप्त नहीं हमा। नौजवान को वोई नहीं, जिसने यह मामग्री संजोयी काश, ऐसा हो सके । बाबू जी का यह जैन-संकलनथी । उसका नाम था बाबू छोटेलाल जैन । प्राज कार्य इतना महत्वपूर्ण है कि उसे उनकी जीवन
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बाबू छोटेलाल जन स्मृति प्रथ
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साधना कहें तो धनुपयुक्त न होगा। इसके लिए उन्हें बड़े-बड़े मूल्य चुकाने पड़े है। उनमें पत्नी का दिवावमान और व्यापार की क्षति मुख्य है । पर वालों का रोप भी अपना एक स्थान रखता है । उस दिन वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली के एक कक्ष में, मैंने उन्हें अपनी पत्नी की अन्तिम अस्वस्थ दशा की स्मृति में हिलते देखा था। वर्षो पूर्व का एक हृदय उनकी प्राँखों में बार-बार तरल हो उठता था । उन्होंने कहा कि जैन विब्लियोग्राफी के कार्य में में इतना संलग्न रहता था कि अपनी पत्नी के स्वास्थ्य पर ठीक ध्यान न दे पाया । उस मानवी ने इसकी एक क्षण को भी शिकायत न की । मरते समय भी उसने यह ही चाहा कि मेरी साधना पूरी हो पौर
प्रानन्द तथा सुख का अनुभव कर सकूँ । भारतीय नारी की यह प्रतिमा और किस देश में उपलब्ध होगी। यदि बाबूजी उसके ध्यान में द्रवित हो उठने थे तो यह उनका मानवीय रूप ही था । यदि कोई साधक मानव नहीं तो उसकी साधना पक्षाघात मे प्रपीडित रहेगी। जंनधर्म इसी कारण मानव को मोक्ष पाने के योग्य मानता है और किसी को नहीं । साहित्य साधना के मूल गुग्ण भी मानव की मून वृनियों ने ही सम्बद्ध हैं 'ब्रह्मानन्द' और 'ब्रह्मानन्द सहोदर एक ही प्रावार पर टिके हैं। दोनो का मूल एक ही है । बाबूजी ने उसे समझा और अनुभव किया था ।
भारतीय पुरातत्त्व विश्व का एक मूल्यवान अध्याय है। धनेक विदेशी पुरातत्वज्ञों ने उसे समीप से देखा और परखा है । वे उसको प्रशंसा करने से अपने को रोक नहीं सके। उनका मत है कि यदि उसमे से जैन खण्ड पृथक कर दे तो उसका महत्त्व अधूरा रह जायगा । बाबू छोटेलाल जो जैन पुरातत्व के प्रिय विद्यार्थी थे । अन्त तक उसके प्रति उनकी जिज्ञासा सतत जागृत रही इसीलिए विद्यार्थी शब्द का प्रयोग किया, अन्यथा मैने अपनी आँखों म भारत के सर्वोकृष्ट पुरातत्वी को उनकी पादबन्दना करते देखा है अभी उस दिन में उनके
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साथ दिल्ली के नेशनल म्यूजियम में चला गया। उसकी इमारत दिल्ली की शान के अनुरूप ही है । अनेक मूर्ति और स्तम्भों को पार करते हम एक कक्ष में पहुंचे । नितांत सादगी देखी वहाँ और एक बड़ी मेज के सामने कुर्सी पर बैठे सादा मानव के दर्शन किये सदर के कपड़े, बाल उड़ने हुए भात पर आड़ा तिलक, कुछ स्थूल शरीर हम लोगों को देखते ही उनका शरीर अविलम्ब हिला और उन्होंने बाबूजी के चरणस्पर्श किये । परिचय के उपरान्त विदित हुआ कि वे ही वे शिवराम मूर्ति हैं, जिनके पुरातात्विक निवन्ध 'एनसाइक्लोपिडिया ऑव वर्ल्ड भाकियोलाजी में प्रकाशित हुए हैं दुनियाँ के चोटी के विद्वानों ने उन्हे पुनः पुनः पढ़ा है । में आश्चर्य चकित था । जैन चैत्यों के सम्बन्ध में कुछ पुरातात्त्विक जानकारी बढ़ाने गया था वहाँ । जो कुछ जाना वह मेरे यागामी निबन्ध में प्रकाशित होगा | दो घण्टे वहां रहा, अभिभूत -सा, एक विनीय विद्यार्थीमा | भारतीय ज्ञान का वह प्रकाश स्तम्भ कितना अनूठा और विस्मयकारी था । उनकी यह विनम्र स्वीकारोकि उनके सरल हृदय की प्रतीक ही थी कि बापूजी (छोटेलालजी) के टोग ज्ञान में बहुत कुछ कर ही में इस दिशा में आगे बढ़ सका है। तो फिर समीप बैठा दुबला पतला मेरे हृदय में प्रेरणा जसा समाहिन हो उठा। बाबूजी किसी म्यूजियम के क्यूरेटर नहीं बने; किन्तु न जाने कितने क्यूरेटर्स उनके आशीर्वाद के अभिलापी रहे है। इसे शायद बहुत से लोग न जानते हों ।
इसी भांति भारत के प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ टी० रामचन्द्र बाबूजी के प्रति श्रद्धा ही नही, भक्ति-भाव संजोये रहते है । मैंने उन्हें दिल्ली में बाबूजी को सदैव श्रद्धानवत हो प्रणाम करते देखा है। टी० रामचन्द्र एक जंवता हा व्यक्तित्व शोध-खोजों में तपा निज़रा साधक दिनकर कौन प्रभावित न हो। प्रतिमा घोर परिश्रम की गजब कहानी है वे ।
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बाबू छोटेलाल जी : मूक साधक
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भारतीय धग ऐसे नर रत्न सदैव उगलती रही देवा । कुछ वर्ष पूर्व मोहनजोदड़ो की खुदाइयों में है । ऐसे ही लोगों को प्राचीन युग में मन्त्र-दृष्टा प्राप्त शिव की मूर्तियाँ भगवान ऋषभदेव की मान कहा जाता था। उनके जैन विषयों मे सम्बन्धित ली गई। वे जैनों के प्रथम तीर्थकर है। बनारम निबन्ध यदि एक अोर अनुसन्धान परक है तो दूसरी विश्वविद्यालय के डॉ.प्राणनाथ ने उन मनियों पर पोर निष्पक्ष हृदय के द्योतक । वे बाबू छोटेलालजी 'जिनाय नमः' पढ़ा और उसी प्राधार पर उपयुक्त को उच्चकोटि का पुगतन्वज्ञ मानते थे। बम्बई के मान्यता चल पड़ी। बाबू छोटेलालजी ने उसका नेशनल म्यूजियग के चीफ क्यूरेटर डॉ. मोतीचन्द्र सप्रामाणिक खण्डन किया। मुझे जहाँ तक स्मरण तो यदि दिल्ली या कलकत्ता प्रायें और वहाँ बाबू है, उनके कथन को किसी ने नुनौती नहीं दी। छोटेलालजी हों तो उनमे अवश्य मिलते थे। डॉ० विद्वानों के मध्य बाबू छोटेलालजी के पुरातात्विक मोतीचन्द्र ने अनेक ग्रन्थो की रचना की है । हिन्दी निबन्धों को सदैव प्रतिष्ठा हुई है । सन् १९२३ में ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई से प्रकाशित उनका उनकी एक छोटी-सी पुस्तक 'जैन प्रतिमा-यंत्र लेख 'शृगार हाट' एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । प्राचीन संग्रह' कलकत्ता की 'पुरातत्त्वान्वेषिगणी परिपद' से पापागों में राजा यह 'शृगार हाट' भारतीय प्रकापित हुई थी। इसमें बाबूजी ने कलकत्ता के संस्कृति के मध्यरात्रि के बाजागे की कहानी है। मन्दिरों में विराजमान प्रतिमानों और यन्त्रों पर साहित्य और पुरातत्त्व का ऐमा अनूठा समन्वय बुदे लेखों का संकलन मोर सम्पादन किया था। अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। डॉ. मोतीचन्द्र भी इस विषय पर कार्य करने वालों को संस्कृत का माहित्य और पुरातत्व के समन्वित रूप है, माथ- ज्ञान अत्यावश्यक होता है । बाबूजी उसमें पीछे नहीं ही-साथ मानव प्रवृत्तियों के पारखी। उनकी श्रद्धा थे। इस पुस्तक ने अनेक विद्वानों का मार्ग दर्शन सम्ती नही हो सकती । जिसके प्रति मंजोयेंगे, वह किया। आज विविध पत्र-पत्रिकाओं में जो यंत्र और उनकी कसौटी पर पहले ही खरा उतर चुका होगा। प्रतिमा-लेख संग्रह प्रकाशित होते हैं, उनके पीछे बाव छोलालजी उनके श्रद्धास्पद थे ।
बाबूजी की प्रेरगा ही थी । उन्होंने पं० परमानन्द
शास्त्री को दिल्ली के मन्दिरों के मूत्ति और यन्त्र
पसी जान लेखों को संकलित कर अनेकान्त में प्रकाशित करने कुछ वर्ष पहले दिल्ली में एक विशाल जैन का आदेश दिया था। इस विषय में बाबूजी की तीव्र म्यूजियम स्थापित करने का आयोजन किया गया। कचि पोर वैज्ञानिक जानकारी सुविदित है। भारत के राष्ट्रपति के पद पर प्रासीन होते ही डॉ० राधाकृष्णन में उसके उद्घाटन की बात भी सोच सन् १९६२ में बाबूजी वीर-सेवा-मन्दिर में ली गई । भारतीय पुरातत्व के एक विशेषज्ञ, जिन्हें ठहरे थे । 'अनेकान्त' के पुनः प्रकाशन का विचार डायरेक्टर के रूप में नियुक्त किया था, राजस्थान उठा, तो प्रारम्भ कर दिया । किसी पत्र का और मध्यप्रदेदा में जैन पुगतान्विक सामग्री ले प्राये। निकालना प्रासान कार्य नहीं है और विशेषकर तब. उस सामग्री से सजे भवन का निरीक्षण करने पहुँचे जब वह एक शोध पत्र हो । बाबूजो ने अकेले ही, पाटोटेलालजी। मैने देखा कि उन्होंने एक-के- अस्वस्थ दशा में सब कुछ किया। सब कुछ का बाद-एक दम प्रशद्धियाँ बनाई, जिनका समाधान अर्थ है-अर्थ का प्रबन्ध, सामग्री का संकलन. डायरेक्टर महोदय न कर सके । मामग्री के सस्ते सम्पादन, प्रकाशन, प्रूफ-रोडिंग और फिर यथारूप को देख कर प्रायोजन रोक दिया गया । उस स्थान भेजना, ग्राहक बनाना, चन्दा इकट्ठा करना। समय मैंने बाबूजी के सूक्ष्मावलोकन को साक्षात् एक या दो अंक उपरान्त मुझे बुलाया। सचिन्त
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बायू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ होकर कहा कि मैं अब कलकत्ता जाना चाहता हूँ, तीय ज्ञानपीठ को स्थापना, जैन साहित्य को शोधकोई 'अनेकान्त' के सम्पादन का उत्तरदायित्त्व ले खोज, सम्पादन और प्रकाशन के लिए ही हुई थी। तो मुझे शान्ति मिले । ग्रीष्मावकाश हो नुका था, ज्ञानपीठ ने वर्षों इस कर्तव्य का निर्वाह ईमानदारी में वीर-सेवा-मन्दिर में जाकर ठहर गया। उन्होंने से किया। स्वर्गीय पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य मुझे कार्य समझाया । कुछ विद्वानों के निबन्ध के निर्देशन में जो कार्य हुआ, उसका अपना एक प्रकाशन हेतू पाये हुए थे। बावजी के साथ विचार- प्रथक महत्त्व है। श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलोय विनिमय होता था। तब मैने जाना कि उनकी पकड़ भी इस दिशा में सजग, सावधान और रुचि सम्पन्न कितनी पैनी है और विद्वत्ता के क्षेत्र में कितनी बने रहे। किन्तु जैन ग्रन्थों के विक्रय की विकट सूक्ष्म पेंठ है । सस्ती विद्वत्ता उन्हें कभी नहीं रुचती। समस्या ने भारतीय ज्ञानपीठ के जैन वाङमय के कलकत्ता जाने के उपरान्त भी उनकी सम्मतियां प्रकाशन तक ही सीमित रहने के संकल को डिगा और निर्देशन सतत मिलते रहे । बाबूजी को तीत्र दिया । श्री लक्ष्मीनन्द्र जैन के सेक्रेटरी बनते ही अभिलाषा थी कि अनेकान्त एक उत्तम शोध पत्रिका लोकोदय ग्रन्थमाला का जन्म हमा। उससे नई के रूप में प्रकाशित हो, किन्तु उसके साथ कुछ ऐसी विधानों और विचारों को संजोये हिन्दी का सृजनापरिस्थितियां सम्बद्ध थी जिनसे बाबूजी विवश थे त्मक साहित्य प्रकाशित हो उठा। एकाकी नाटक, और मै तो निनांन परवश हूँ। बाबूजी ने बाबू छोटी-छोटी कहानियां, उपन्यास और कविता-संकलन जयभगवान जी, जो उस समय वीर-मेवा-मन्दिर धडल्ले से निकले । उनकी बिक्री होती है । अब ज्ञानके सेक्रटरी थे. को लिखा था कि डॉ० प्रेमसागर के पीट हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों को एक साथ विचार-विमर्श कर 'अनकान्त' को एक श्रेष्ठ प्रमुख संस्था है। मुझे या किसी जैन विद्वान को पत्रिका का रूप दें। उसी समय के पास-पाम बाबू उमके ऐमा होने में कोई मापन नहीं है। किन्तु जयभगवान के दिवावसान से वह कार्य सम्पन्न न हो साथ ही उसका मूल उद्देश्य भी धूमिल नहीं सका । 'प्रनकान्त' जैसे रूप में चल रहा था, होना चाहिए । प्रव देखा जाता है कि जैन-ग्रन्थों के बाबजी उससे सन्तुष्ट नहीं थे । उसे एक उनम का प्रति न वह रचि है और न सजगता । मैने बाबू प्राप्त हो. मेरी भी अभिलाषा है, मेरे ठोस सुझाव छोटेलालजी को एकाधिक बार भारतीय ज्ञानपीठ हैं, जिन्हें बाबूजी ठीक मानते थे, किन्तु उनके कार्या- की इस प्रवृति के प्रति गम्भीर रूप से सचिन्त होते न्वयन में विचित्र कठिनाइयाँ हैं, अतः एक हमस- देखा है। सभी दो-चार वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ भरी विवशता है। फिर भी 'अनेकान्त' में प्रकाशित में प्रकाशित कतिपय ऐसे जैन ग्रन्थ है जिनके लिये मेटर से विद्वान मन्तुष्ट हैं और अनुमन्यित्सुनो को यदि बाबूजी का कड़ा आदेश न होता तो शायद वहां पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हो जाती है। इसी कारण से प्रकाशित ही न हो पाते । बाबूजी चाहते थे कि बाबूजी उसके संचालन से सहमत थे और 'अनेकान्त' भारतीय ज्ञानपीठ केवल भारत में ही नहीं, अपितु निकल रहा है । इस अनुच्छेद का तात्पर्य इतना ही समस्त एशिया महाद्वीप में जैन साहित्य का मानस्तम्भ है कि बाबूजी 'अनेकान्त' को जैनशोध का एक रोचक बन सके । मुझे पूरा विश्वास है कि यदि वे भाज पत्र बनाना चाहते थे। उनकी यह भावना जंन इस मंमार में होते तो उसे इस रूप में परिणत कर गोध-खोज में सतत लगे रहने का परिणाम थी। ही दम लेते । यदि भारतीय ज्ञानपीठ के सेक्रेटरी
महोदय हिन्दी साहित्य और जैन साहित्य के मध्य भारतीय ज्ञानपीठ, काशी के डायरेक्टर्स में बाबू अपनी कचि निष्पक्ष भाव से मन्तुलित रख सके तो छोटेलालजी का नाम सबमे ऊपर था । मूलतः भार- भी बाबूजी की अभिलापा के पूर्ण होने के चिन्ह
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गन ट्रेडर्स प्रमोसिएशन, कलकता द्वारा बाबू जी के अभिनन्दन समारोह के अवसर पर प्रायोजित टी पार्टी का एक दृश्य । ( ११-१०-१९५८ )
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बाबू छोटेलाल जी मूक छाक
दृष्टिगोचर हो सकते हैं में भारतीय ज्ञानपीठ के संचालक साहू शान्तिप्रसाद जी के विचारों से परिचित है, वे उसे लेकर कोई व्यापार नहीं करना चाहते और न उसे घाव का साधन समझते हैं। फिर तो हिन्दी साहित्य से प्राप्त प्राय जैन साहित्य में खपाई जा सकती है। यहाँ मेरा उद्देश्य बाबू छोटेलालजी की, जैन साहित्य के संशोधन, सम्पादन ute विश्वव्यापी प्रकाशन के प्रति बलवती आकांक्षा को प्रगट करना ही है ।
मनुष्य स्वयं विद्वान बन सकता है और विद्वत्ता के उस पर भी चढ़ सकता है, क्योंकि यह उसके निज से सम्बन्धित बात है. किन्तु दूसरों को बनाना और उन्हें भागे बढ़ाना घासान कार्य नहीं है । यह वे ही कर सकते हैं, जो महासत्त्व है, जिनका दिल सवेषु मैत्री गुणषु प्रमोदम् से बना है। प्राज जैन समाज में अनेक विद्वान हैं, जिनकी विद्वत्ता और रूपाति की तह में बाबूजी की प्रेरणा श्रौर सहायता के ही दर्शन होते हैं। बाबूजी ने कभी उसका उल्लेख भी नहीं किया। उल्लेख तो तब करते जब उन्होंने यह कार्य अपने नाम के लिए किया होता । उनका यह स्वभाव था। स्वभाव-वशात् ही वे ऐसा करते थे। सौभाग्य से उनके पिता ने उनके इस स्वभाव को निखारने के अवसर भी दिये। बाबूजी ने मुझे सुनाया "जब भी कोई विद्वान कलकत्ता माता तो मेरे पिताजी मुझे उस विद्वान को कलकत्ता घुमाने के लिए भेज देते। इस भांति प्रारम्भ से ही मैंने विद्वानों के प्रति श्रद्धाभाव संजोया है।" इसी भाव ने उन्हें स्वयं विद्वत्ता की ओर उन्मुख किया। विसा उपार्जित कर भी वह श्रद्धा भाव तदवस्थ बना रहा। इसी भाव के कारण अपने से छोटे युवा विद्वानों के प्रति उनका श्रद्धा-गभित प्रेम उमड़ उठता था ये विद्वान प्रायः ऐसे होते कि उनके होते कि उनके कदम लड़खड़ाते, दिल काँपता और कुछ परिस्थितियों से विवस से हुए जारहे होते। बाबूजी का प्रगाथ स्नेह और प्रत्येक प्रकार का सहाय्य उन्हें मजबूत बना देता । प्रभी विगत वर्ष ही दिल्ली में 'Inter
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national oriental conference' का प्रायोजन था । वीर-सेवा-मन्दिर की तीसरी मंजिल के एक कक्ष में कलकता के एक युवा विद्वान ठहरे ये परिचय हुआ तो बाबूजी के स्नेह का स्मरण कर गद्गद् हो उठे, कण्ठ भवरुद्ध हो गया। केवल वे ही नहीं उस समय वहाँ ठहरे दक्षिण के एक वृद्ध भट्टारक, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, डॉ० कलापाचन्द्र, डॉ० कमलचन्द सोगानी, बाबू जयभगवान जी प्रादि सभी एक ही स्नेह-सूत्र में बंधे थे। सभी के हृदय बाबूजी के पावन स्मरण से प्रोत प्रीत थे में घरों को छोड़ अपनी कहता हूँ। सन् १९६९ के जून के मध्यान्ह में मैंने सब से पहली बार बाबूजी के दर्शन वीरसेवा मन्दिर दिल्ली के मुख्य भवन में किये । मेरे हाथ में अपने शोध-प्रबन्ध 'हिन्दी के भक्ति काव्य में जैन साहित्यकारों का योगदान' की पाण्डुलिपि थी। उन्होंने उसे पढ़ा और सराहा। तुरन्त भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशन हेतु स्वीकार कर लिया । मेरी एक बहुत बड़ी समस्या हल होगई। आज वह ग्रन्थ 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठ भूमि' और 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। प्रकाशन के समय इस ग्रन्थ के संशोधन में बाबू जी के ठोस सुझाव कार्यान्वित किये गये हैं । यह उनका स्नेह ही था। उनका स्नेह यहाँ तक बढ़ा कि जब वे कलकता गये तो पूरे वीर-सेवा-मन्दिर की देखभाल और 'अनेकान्त' की जिम्मेदारी मुझे सौंप गये । मैं उनका विश्वास प्राप्त कर सका, इससे गौरवान्वित हूँ। उनकी सतत प्रेरणा से प्रेरित होकर ही जैन शोध के क्षेत्र में मेरी रुचि बढ़ती गई और में उस पथ पर अग्रसर हैं ।
वीर-सेवा मन्दिर बाबू छोटेलाल जी की मूक साधना का प्रतीक है। यद्यपि इस मन्दिर की स्थापना बाबू जुगलकिशोर जी बाबू जुगलकिशोर जी मुख्तार ने सरसावा में की थी, किन्तु उसे पल्लवित और पुष्पित करने का समूचा श्रेय बाबू छोटेलाल जी को ही है। इस संस्था को उन्होंने विपुल प्रार्थिक सहायता स्वयं दी और दिलवाई । प्रनेकान्त के संचालन का समूचा श्रेय उन्हीं
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
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को दिया जा सकता है। पहले भी उन्होंने इसको जन्म दिया था और अब भी उन्होंने इसको पुनः प्रारम्भ किया। पहले तो वे इसके सम्पादक भी रहे और अनेक शोध-योज पूर्ण निबन्ध इसमें प्रकाशित हुए। पैसा उन्होंने दिया और सम्पादन, निबन्ध लेखन सब कुछ भी उन्होंने किया। कभी ख्याति की आकांक्षा नहीं की । ख्याति उन्हें मिली भो नहीं, वह किसी और को उपलब्ध होती रही । विन्तु बाबू जी को इससे हार्दिक प्रसन्नता मिली, वे ऐसा ही चाहते थे । इस बार 'अनेकान्त' का संचालन उनके श्रद्वितीय साहस और लगन शील हृदय का प्रतीक था, उन्होंने विद्वान लेखकों की सूची बनाई, उनसे सम्बन्ध स्थापित किया, श्रीमन्त सेठों को दान के लिए अनुप्राणित किया, ग्राहक बनाये, प्रस तै किया, मुख पृष्ठ की रूपरेखा स्वयं बनाई । संकलित लेखों को पड़ा और सम्पादित किया। समूची प्रफ रीडिंग की । जब छपकर भाया तो अपने हाथ से डिस्पैच किया । लेई से कागज तक चिपकाये। यह सब कार्य उस समय किया जब कि वे अस्वस्थ थे । इस पर भी न तो वे प्रकाशक थे और न उनका नाम सम्पादक मण्डल में था। दूसरे अंक के पश्चात् जब वे कलकना चले गये तो एक सज्जन यह कहते सुने गये "नौकर तक के काम उन्होंने खुद अपने हाथ से किये इसकी क्या जरूरत थी, फिर कहते हैं कि मैंने इतना काम किया, उतना काम किया ।” में उनकी बात सुन भिन्न रुचिहि लोकः' पर विचार करता रहा । भला वे सज्जन कैसे सोच सकते थे उस भाव भीने प्रेम और उत्तरदायित्व को जो उनके दिन में 'अनेकान्त' के प्रति भरा था। इस बार भी सम्पादक मण्डल में बाबूजी का नाम नहीं था किन्तु उनके सुझाव और निर्देशन इतने ठोस होते थे कि कोई भी सम्पादक बिना विरोध के उन्हें कार्य रूप में परि
रगत करने को उद्यत हो जाता। मुझे जहाँ तक स्मरण है, उन्होंने अपना कोई सुझाव थोपा नहीं और न 'अनेकान्त' की गति में कोई हस्तक्षेप किया । 'अनेकान्त' एक उत्तम पत्रिका बन सकता है, यदि 'अनेकान्त' से सम्बन्धित व्यक्ति बाबूजी की आत्मा को समझ सकें ।
विद्वत्ता के परिप्रेक्ष्य में बाबूजी का यह संक्षिप्त प्राकलन है । विद्वान विद्वद्मन्यः हो जाते हैं, अहंकार उनका सहचर बन जाता है। बाऊजी इन दोनों ही से मुक्त रहे। धन्त तक वे अपने को न कुछ मानते हुए विद्वानों का मादर-सम्मान करते रहे। विद्वानों में सबसे बड़ा दुगुरंग होता है यशः कांक्षा । वे इसके लोलुप होते होते हैं, धनिकों के धन से भी अधिक । बाबूजी यश के समूचे स्थल उदारता-पूर्वक दूसरों को देते रहे या मिला उन्हें भी, किन्तु उसकी गति धीमी और ठोस है । यदि हम मि० स्टीवेन्सन के शब्दों में कहें तो उनकी 'पोपुलरिटी' 'इन्टीमेट' है 'लोग' नहीं । अर्थात् समाचार पत्रों में अपना नाम ग्रन्थों पर नाम और व्याख्यानों के लिए अपने नाम की इच्छा उन्हें कभी नहीं हुई। इन प्राधारों पर नाम कमाने की उन्होंने कभी चेष्टा भी नहीं की। जो भी व्यक्ति उनके पास जाकर रहा, वह अवश्य ही यह प्रभाव लेकर गया कि हमने एक विद्वान के दर्शन किये और उससे भी पूर्व एक मानव के । मानवता के शवों पर उगने वाली विद्वत्ता को ही मि० स्टीवेन्सन ने 'लोग पोपुलरिटी' की संज्ञा से अभिहित किया था। बापूजी की मूक साधना ने उन्हें 'इन्टीमेट पोपुलरिटी का प्रतीक ही बना दिया। उनमें विद्वत्ता और मानवता का प्रभुत
समन्वय था ।
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चमन में इनसे इबरत है
नेमीचन्द्र शास्त्री, एम.ए., पी.एच.डी., प्राध्यापक एच. डी. जैन कॉलेज, धारा (मगध विश्वविद्यालय)
दिन
पाते हैं और चले जाते है, पर वे अपनी मधुर स्मृतियाँ मानस पटल पर सदा के लिए अंकित कर जाते हैं । जो घटना मर्म को छू जाती है, वह सर्वदा के लिए टंकोत्कीर्ण हो जाती है। श्रादरणीय श्री बाबू छोटेलालजी का प्रथम दर्शन आज से २२ वर्ष पूर्व हुआ था, पर उनके प्रथम साक्षात्कार का प्रभाव प्राज भी तदवस्थ है । बाबूजी का व्यक्तित्व वस्त्र, वायु, वाक्, विद्या और विभूति रूप पञ्चवकार से नहीं ग्रांका जा सकता है, बल्कि महनिय की प्रत्येक कार्यवाही उनके व्यक्तित्व की महत्ता सूचक है। जीवन के प्रतिपल को प्रत्येक घटना दीपावली की विद्यवल्लरी के समान अपने लोक की स्निग्धकिरणों को विकीर करती है। समाज संस्कृति, साहित्य और धर्मोत्थान की भावना बावुजी में पूर्णतया व्याप्त थी। उनका व्यक्तित्व हिमालय की हिमधवल गगनस्पर्शी चोटियों के समान उम्रन और श्रद्धास्पद था। हिमालय की करुणा जिस प्रकार अगणित निर्झरों और सरिताओं के रूप में विगलित होती है, उसी प्रकार बाहुजी की करुणा भी असहाय धौर निराधयों को आजीविका दिलाने में बाबूजी के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने दीपशिखा की भांति अपने जीवन को तिल-तिल कर जलाया था, मात्र इसलिए कि साहित्य, संस्कृति, कला और समाज का उत्थान हो । उनमें दया, क्षमा, शालीनता, नम्रता और सहनशीलता मादि गुग्ण वर्तमान थे । जीवन भर रोगों से भने पर भी कार्य करने की क्षमता ज्यों की त्यों थी उनका अदम्य उत्साह कास और श्वांस के प्रबल वेग से भी धूमिल न हो सका था। वे जीवन का एक-एक क्षण सरस्वती
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को माराधना में समर्पित करते थे। यद्यपि उन्होंने मुक्त हप्त से समाज और साहित्य के विभिन्न क्षेत्रों में लाखों रुपयों का दान दिया था, पर वे नामाङ्कन से सदा दूर रहे। विश्व में ऐसी विभूतियां कम ही परिलक्षित होती है, जिसमें सरस्वती और लक्ष्मी का एक साथ समवाय पाया जाय । यह सत्य है कि बाबूजी का तन, मन धौर धन दूसरों की सेवा के लिए सदा प्रस्तुत रहता था। वे साहित्यिक, विचारक और सार्वजनिक कार्यकर्ता होने के साथ २ बदान्यवरेण्य भी थे, जो व्यक्ति जिस साथ या इच्छा को लेकर उनके समक्ष उपस्थित होता, उसकी वह साध या इच्छा अवश्य पूर्ण हो जाती। उदार चेता बाबूजी का पर विद्वानों के लिए धनलस प्रतिथिशाला था, बिना सूचना के पहुँच जाने पर भी समुचित प्रतिथिसत्कार प्राप्त होता था। बाबूजी दुर्दान्त दमे से मल्लयुद्ध करते हुए अतिथि को समस्त सुख-सुविधाएँ पहुँचाने का प्रयास करते थे। भोजन, स्नान प्रभृति समस्त प्रावश्यकताओं को वे स्वयं ही भागे भाकर पूर्ण करते थे। उनका सौजन्यमय व्यवहार प्रत्येक अतिथि को मुग्ध कर देता था ।
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हाँ, तो मैं अपने प्रथम साक्षात्कार के प्रभाव का अंकन करने का प्राभास कर रहा हूँ । संभवतः सन् १९४३ का जुलाई मास था। नया सत्र धारम्भ हो चुका था । विद्यार्थीगण महत्वाकांक्षाओं के कुहासे से घिरे हुए अपनी २ कक्षा में प्रविष्ट हो रहे थे में जैन बालाविधाम धारा में धर्म-संस्कृताव्यापक था । सहग़ा एक दिन ज्ञात हुआ कि कल इस संस्था के सभापति कलकत्ता निवासी दानवीर बाबूजी श्री छोटेलालजी धाने वाले हैं। सर्वत्र एक
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बाबु छोटेलाल जैन स्मृति मंध
नयी चहल पहल थी। सफाई स्वच्छता के निर्देशों के साथ छात्राओं को सावधानी सम्बन्धी अन्य प्रकार के निर्देश भी दिये जा चुके थे।
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प्रातः कालीन कक्षाएँ चल रही थीं, जिनमें प्रमेयकमल मार्त्तण्ड, प्रष्टसहस्त्री और गोम्मटसार के अध्यापन की व्यवस्था थी में स्मावतीचं परीक्षा में प्रविष्ट होने वाली छात्राओं को 'मार्तण्ड' पढ़ा रहा था कि एक गौरवर्ण, क्षीणकाय, मध्यमकद, उपतललाट, प्राजानबाहु और दूध जैसी धवल मेषभूषा से विभूषित व्यक्ति ने प्रवेश किया। शिष्टाचार प्रदर्शन के अनन्तर के बैठ गये और मुझे पाठ चालू रखने का भावेश दिया । प्रकरण कारक साकल्य का चल रहा था। कुछ पंक्तियों के अध्यापन के पश्चात् उन्होंने छात्राों से पूछा- 'नैयायिकादि के यहाँ प्रमा में किस वस्तु को साधकतम भाना गया है ? छात्राओं द्वारा इन्द्रिय और सन्निकर्ष के उत्तर दिये जाने पर उन्होंने उनकी श्रप्रमाणता सिद्ध करने के लिए प्रादेश दिया, पर जब छात्राएँ मौन दिखलायी पड़ी तो वावुजी ने बतलाया कि जानना या प्रमाप क्रिया के चेतन होने से साधकतम ज्ञान ही हो सकता है, प्रचेतन सन्निकर्षादि नहीं । सभिकर्णादि के रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता और सन्निकर्षादि के प्रभाव में भी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। भ्रतएव जानने रूप क्रिया का साक्षात् अव्यवहित कारण ज्ञान ही है, सन्निकर्षादि नहीं। प्रमिति या प्रमा घज्ञान निवृत्तिरूप होती है और इस अज्ञान निवृत्ति में प्रज्ञान का विरोधी ज्ञान ही कारण हो सकता है, जैसे अन्धकार की निवृत्ति में अन्धकार का विरोधी प्रकाश इन्द्रिय सन्निकर्षादि स्वयं प्रचेतन है, अतः बज्ञान रूप होने के कारण प्रमिति में साक्षात्कार नहीं हैं। यद्यपि कहीं-कहीं
दि ज्ञान की उत्पादक सामग्री में सम्मिलित है, पर सार्वत्रिक और सार्वकालीन अन्वयव्यतिरेक न मिलने से उनकी कारणता श्रव्याप्त हो जाती है। ज्ञान का सामान्य धर्म अपने स्वरूप को जानते
हुए पर पदार्थ को जानना है । वह अवस्था विशेष में पर को जाने या न जाने पर अपने स्वरूप को हर स्थिति में जानता है। स्वसंवेदी होना ज्ञान का स्वभाव है। इस प्रकार अपने जानने रूप क्रिया में साधकतमता - श्रव्यवहितकारणता ज्ञान को हो प्रतिपादित है ।
आयोजित सभा में शिक्षा के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा- "वर्तमान में हमारे विद्यालयों का पठन क्रम सदोष है । अध्ययन और अध्यापन ग्रन्थानुसार किया जाता है, जिससे एक ही विषय कई बार पुनरावृत होता है, फलतः छात्रों का सर्वाङ्गीण विकास नहीं होता। प्राचार्यों ने ग्रन्थों का प्रणयन स्वाध्याय के हेतु किया है, पाठ्य क्रम को दृष्टि में रखकर ग्रन्थ नहीं लिखे गये हैं, अत: जैन विद्यालयों में विपयानुसार कतिपय शीर्षक निश्चित कर धर्म और न्याय की शिक्षा दी जानी चाहिए। प्रवेशिका प्रथम खण्ड से लेकर शास्त्रीय परीक्षा के अन्तिम खण्ड तक धर्म और न्याय के अनेक विषय बार-बार दोहराये जाते हैं, अतएव भा० द० जैन परीक्षालय को अपने पाठ्यक्रम को ठोस और व्यापक बनाना चाहिए। धार्मिक शिक्षा जीवन विकास की दृष्टि से अत्यावश्यक है, इसकी उपेक्षा करने से समाज को उन्नति नहीं हो सकती। मतः धन के बिना भी मनुष्य उठ सकता है. विद्या के बिना भी बड़ा बन सकता है, पर चरित्र बल के बिना मनुष्य सर्वचा हीन और पंगु है। प्रावरणहीन शान पाखण्ड है । नैतिक व्यक्ति ही अपने प्रति सच्चा एवं ईमानदार हो सकता है। अतएव कलिज भौर स्कूलों में भी धर्म शिक्षा का प्रबन्ध होना चाहिए। मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि यहाँ की छात्राएँ प्रमेयकमल मासष्ट धौर प्रष्ट सहस्त्री जैसे उच्चकोटि के ग्रन्थों का अध्ययन करती हैं। आदरणीय बाईजी ( ० पं० चन्दाबाईजी) ने दासत्व की श्रृंखला में जकड़ी, घूँघट में छिपी अज्ञान और कुरीतियों से प्रताड़ित नारी को प्रात्मबोध ही नहीं कराया,
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मनी ट्रेडम एसोसियेशन, कलकसा द्वारा बाबू जी के अभिनन्दन समारोह के अवसर पर प्रायोजित टीपार्टी का एक दूसरा दृश्य । ( ११-१०-१९५६ )
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चमन में इनसे इबरत है बल्कि उसके लिए उच्चशिक्षा का प्रबन्ध कर उसे पीड़ित थे, खाँसी बहुत परेशान कर रही थी; पर उच्च पद पर प्रतिष्ठित किया है । चन्दना, प्राश्चर्य की बात यह थी कि उत्सव प्रारम्भ होते खेलना और सीता जैसी सती नारियाँ ज्ञान के क्षेत्र ही प्रापका दमा न मालूम कहाँ चला गया । प्राप में प्राशातीत उन्नति कर रही हैं। मेरा तो यह इतुमत सभामों में तीन-चार घण्टे लगातार बैठे रहते है कि नारियां ही देश के कलेवर का परिष्कार कर थे, पर एक बार भी खाँसी नहीं भाती थी। ऐसा सकती हैं। वह समाज, जो अपनी नारियों को प्रति- मालूम पड़ता था मानो मापने किसी योग क्रिया के ष्ठित करने की बात नहीं सोच सकता, कभी भी बल से दमा को जीत लिया हो । मापकी लगन, विकास की पोर नहीं बढ़ सकता । मैं बाईजी के तत्परता और प्रत्येक कार्य को सून्दर ढंग से सम्पादन कार्यों को पुनः पुनः प्रशंसा करता हूँ।"
करने की क्षमता दर्शनीय थी। जिस स्थान पर सभा में मापने पुरातत्त्व और इतिहास की विद्वान ठहरे हए थे, उस स्थान पर पाप कई बार महत्ता पर भी प्रकाश डाला। कलापूर्ण मूत्तियों पधारे और उन से मिलकर एवं चर्चा कर बड़े और मन्दिरों के चित्र भी दिखलाये । आपका प्रसन्न हए। मत है कि अतीत के गौरव की गन्ध ही समाज को उत्सव समाप्त होने के अनन्तर प्राप जैन उत्तेजिन की है और इसी गन्ध को मस्ती उसे सिद्वान्त भवन की उन्नति के हेतु कई दिनों तक चर्चा नया जीवन दान देती है। प्राचीन खंडहरों में हमारा करते रहे। समाज और साहित्य के कार्यों में आप प्रतीत छिपा है. हम उसे ढह कर अपने भविष्य विशेष रुचि लेते थे तथा छोटे-बड़े सभी प्रकार के को स्वर्णमय बनाना है। अभी तक जैन साहित्य लेखकों को उत्साहित करते थे । आपकी प्रेरणा से का इतिहास नही लिखा गया है। दिगम्बर जैन कलकत्ता में कितनं ही विद्वान जैन साहित्य के साहित्य भण्डारी में उद्धारको की प्रतीक्षा कर रहा अध्येता बन गये हैं। वीर-शासन-जयन्ती महोत्सव हे । सहस्त्रां प्रन्थ नष्ट हो चुके है, अतएव हमें इस को सम्पन्न करने में आपने जो अथक परिश्रम किया और भी ध्यान देना है वस्तुतः साहित्य जीवन की था, उसे समाज सदैव याद रखेगा। इतने बड़े सतत गतिशील प्रेरणामों में से एक है। समाज उत्सव की सफलता का श्रेय वावजी को ही था । का अस्तित्त्व साहित्य पर ही प्रवलम्बित है। आपकी बहुमुखी प्रतिभा, दूसरों के सुख के लिए
प्रथम साक्षात्कार के पश्चात् तो बाबूजी के सर्वस्व वितरण करने की भावना, राष्ट्र और देश निकट सम्पर्क में पाने का अनेक बार अवसर मिला। सेवा का संकल्प एवं परोपकार करने की सत-बद्धि वे अत्यन्त कर्मठ, परोपकारी, सेवाभावी एवं समाज ऐसे गुण थे, जिनके कारण आपकी गणना विश्व और साहित्य के लिए सतत चिन्तित रहते थे। जब के महान व्यक्तियों में की जा सकती है। बाबु कोई भी विद्वान उनके पास पहुंचता, तो वे घण्टों छोटेलालजी जैसे लाल किमी भी समाज को दो बैठकर उसके साथ समाज और साहित्योत्थान की पूण्योदय से ही प्राप्त होने हैं। प्र.पको सस-प्रेरणा चर्चा करते रहते । विद्वान् के पहुंचने से उन्हें अपूर्व से अनेक नेतर विद्वान् और श्रीमान् जैन साहित्य प्रसन्नता होती । शास्त्रीय और ऐतिहासिक चर्चा के मणि-माणिक्यों से परिचित हो गये हैं। में उन्हें इतना रस पाता कि चर्चा के समय में कलकत्ता में गया बाहर का कोई भी जन आपके उनका चिर सहचर दमा भी न मालूम कहाँ चला पास पहुँच कर सुखसुविधाएँ तो प्राप्त करता ही, जाता । श्री अनसिद्धान्त भवन मारा के हीरक उसे रोजी-रोटी दिलाने में भी भाप पूर्ण सहायता जयन्ती महोत्सव के बाबूगी स्वागताध्यक्ष होकर करते। प्रापका जीवन वास्तव में प्रादर्श, अनुकरणीय पधारे। जब पाप मारा में पाये तो दमा से एवं अभिनंदनीय था।
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प्रवास्पद बाबू जी साथ भेजी गई थी । बाबू जी के स्नेह और ममता अनेक पूर्वाग्रहों और कदाग्रहों का प्रावरण चीर कर की मिठास का स्वाद उन ग्रामों में हम लोग लेते हमारे प्राचीन वैभव के कलापक्ष की जो मान्यताएं रहे। प्रात्मीयता की यह अथाह गहराई ? सोचता स्थापित हो सकी हैं वे हमारी पीढ़ियों को सीढ़ियों का हैं शब्दों की पतवार के सहारे मे नापना क्या काम देंगी। उनकी निरन्तर और बलवती प्रेरणा से मूर्खता नहीं है ?
इस दिशा में टी० एन० रामचन्द्रन् और
श्री. सी. शिवराम मूर्ति जैसे कतिपय विद्वानों पूज्य वर्णी जी के अन्त समय में बाबू जी के
द्वारा जो साहित्य प्रस्तुत हुआ है वह जैनसाथ मैं भी लगभग बीस दिन वहाँ रहा। इस बीच
कला के अनुसन्धान पथ पर प्रकाश स्तम्भ बाबू जी की अनेक विशेषताएं देखने-जानने को
बन कर रहेगा। उन्होंने स्वयं भी जो लिखा मिली । वर्णी जो के प्रति उनकी दृढ़ और गहन
है वह यद्यपि बहुत अधिक नहीं हैं तथापि उनके भास्था, समाधि-मरण के समय अन्तिम क्षणी सक
ज्ञान और अनुभव का परिचायक है । उनके बरी जी की सेवा-सम्हाल, और भारी भीड़ में
द्वारा संयोजित "जैन बिबलियोग्राफी" का दूसरा उनकी प्रबन्ध-पटता, बीच बीच में विद्वानों में चर्चा
भाग यदि प्रकाणित होकर सामने आ सका तो वह के समय उनका गहन गम्भीर ज्ञान और कतिपय
उनकी दीर्घ, एकान्त, मौन साधना का प्रमाण प्रवांछनीय प्रसंगों पर उनका माध्यस्थ तथा हम
होगा। वीर सेवा मन्दिर के प्रति उनका मौदार्य सबके प्रति उनकी ममता और अनेक विशेषताओं
तथा वीर शासन संघ के प्रति उनकी सेवाएं उनकी का प्रागार उनका सम्मोहक व्यक्तित्व प्रायः प्रत्येक
या-पताका का मेरु-दण्ड बनकर बहुत समय तक उस व्यक्ति पर जो बाबू जी के सम्पर्क में पाया.
हमारे बीच रहने वाली हैं । वे स्वयं महान थे और एक अमिट छाप छोड़ता है
अनेक महान कार्यों का सम्पादन उनके प्रयास से, बाव जो अपने आप में एक सम्पूर्ण संस्था थे। उनके वित्त से और उनकी लगन मे हया है। प्राने जैन पुरातत्त्व की अनगिनत अनजानी निधियों को वाले कलके लिये कुछेक बहत उपयोगी और प्रकाश में लाने की दिशा में उन्होंने जो श्रम-साध्य महत्वपूर्ण योजनाओं की संभावनाएँ अभी उनके साधना की है तथा उस दिशा में उनकी जो उर- सपनों में तैर रही थीं कि कराल काल ने उन्हें हमसे लब्धियां है उनका मूल्यांकन करने के प्रयास प्रभी छीन लिया। हमारी कामना है कि उनके जीवन से प्रारम्भ नहीं हये । देश के वर्तमान गण्यमान्य पूरा- प्रेरणा लेकर हम उनके कार्यान्वयन काशीघ्र ही स्तत्व विशारदों से उनकी घनिष्टता के फलस्वरूप प्रयास करें।
-
सब लोगों की प्रौचित्य की धारणा एक सी नहीं होती।
+
घटना का जो पहलू बाहर से दिखाई देता है वही उसका पूर्ण रूप नहीं होता ।
+ विपत्ति में राहगीर को भी प्राश्रय दिया जाता है।
-बाबू जी की गायरी से
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श्रद्धास्पद बाबू जी
नीरज जैन
जात पाठ वर्ष पहले की बात है। पूज्य वर्णी जी शारदा प्रसाद जी से जब इसकी चर्चा हुई तब बाब
"की जयन्ती पर उनकी चरण रज लेने हम लोग छोटेलाल जी का मानों एक नया ही परिचय मुझे ईसरी गये थे। जब तक बाबा जी ईसरी प्राथम में मिला। इसी बीच भाई अमरचन्द के माध्यम से कुछ रहे तब तक प्रतिवर्ष उनके जन्म दिन पर एक अच्छा और उन्हें जाना और कलकत्ता में जब पहली बार खासा मेला वहाँ लग जाता था। उस वर्ष भी उनके घर जाने का अवसर मिला उसके पूर्व ही भक्तों की भीड़भाड़ खूब थी और एक बड़े तथा उनके स्नेह को धारा का प्रवाह मेरे मन को छू चुका सज्जित पण्डाल में सभा का आयोजन था। था। स्नेह की यह सरिता बाबू जी के पास से धारा
प्रवाह होकर बहती ही रहती थी। न जाने कितना रात्रि में उसी स्थान पर जैन तीर्थों के सिनेमा गम्भीर था वह अजस्र स्रोत जो इतनी प्रात्मीयता, स्लाइड दिखाये जाने की योजना की गई और उसी
अनुकम्पा और सद्भाव का उद्गम बना उनकी कार्यक्रम में सर्वप्रथम श्रीमान बाबू छोटेलाल जी का
दूवरी देह के किमी कोने में छिपा था । उसके माधुर्य दर्शन मुझे प्राप्त हया। वे प्रोजेक्टर पर स्लाइड
का, उसकी शीतलता का अनुभव मेरे जैसे अनेक दिखलाते थे और उनका विवरण ध्वनि-विस्तारक
कृपा पात्रों को समय-समय पर होता रहता था। पर प्रस्तुत करते जाते थे । देश के अनेक प्रसिद्ध
पूज्य वर्गी जी के अयमान के कुछ समय पूर्व और अप्रसिद्ध तीर्थस्थानों की सुन्दर और महत्त्वपूर्ण
रक्षा-बन्धन के दिन की बात है। मैं मकुटुम्ब ईसरी विविध शिल्प सामग्री की एक संक्षिप्त परन्तु अविस्मरणीय झाँकी उस दिन देखने को मिली। बाबू
में था। बाबू जी पहिले से वहाँ बाबा जी की मेवा
में मंलग्न धे। बच्चों ने सावन का पर्व मनाया और छोटेलाल जी की प्रसिद्धि और उनके नाम के
बिटिया की एक राखी मेरो कलाई तक पहुंच गई। "बात" शब्द का प्राधार लेकर उनकी बहुत 'टिप
हम मव मगन थे पर मरी पलली कुछ न्यूनता का टाप' और भारी-भरकम शरीर को कल्पना मैने कर
अनुभव कर रही थी। वाचू जी की अनुभवी दृष्टि से रखी थी, पर उसके एकदम विपरीत इकहरी देह पर
उसकी वह उदामी छिपी न रह सकी और एक साधारण धोती कमीज का पहिरावा और प्रगाघ
प्यार भरा प्रादेश देकर तत्काल उन्होंने मेरी पत्नी ज्ञान-गरिमा के बावजूद अत्यन्त सहज और नम्रता
में न केवल राखी बंधवाई वरन् उचित सम्बोधन भरा व्यवहार पाकर मुझे कुछ और ही अनुभव
देकर उसकी अनमनस्कता भी दो ही क्षण में दूर हुमा। उस वर्ष उनको व्यस्तता (या अपनी परवशता) के कारण यद्यपि वह परिचय परोक्ष ही
करदी। एक बार भाई प्रमरचन्द सतना मा रहे थे।
उनके हाथ बाबु जी ने हम लोगों के लिये कलकत्ता रहा परन्तु श्रद्धास्पद व्यक्तियों की तालिका जो मेरे मानस-पटल पर थी उसमें यह एक नाम और उस
से कुछ ग्राम भेजे । बनाया गया कि बड़ी रुचि
पूर्वक दो तीन प्रकार के ग्राम स्वयं पसन्द करके दिन अंकित हो गया।
उन्होंने खरीदे थे और न केवल उन ग्रामों के नाम सतना लौटकर रामवन प्राश्रम के संस्थापक वरन् उनके पकने के हिसाब से उन्हें उपयोग में लाने और विन्ध्य-क्षेत्र के एकमेव पुरातत्यान्वेषक बाबू के लिये दिन तथा तारीखों तक की हिदायत उनके
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बयाना जैन समाज को बाबूजी का अपूर्व सहयोग
कपूरचन्द्र नरपत्येला मान १९२८ ई० में बयाना जैन समाज दिनांक तिनके के सहारे के समान बंगाल-बिहार-उड़ीसा
६-१२२८ से १-१२-२८ तक "रथोत्सव दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के मंत्री श्रीमान वाब मेला" करने की भरतपुर मरकार से स्वीकृति छोटे लाल जी जैन कलकत्ता का तन-मन-धन से प्राप्त कर चुका था। मेले की समस्त तैयारियां पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन प्राप्त हुभा । इस बड़े समारोह और धमधाम से की जा चुकी थी। प्राश्वासन के प्राप्त होते ही हम लोगों में उसी किन्तु समाज विरोधी तत्वों के कारण इसमें प्रकार शक्ति जागृत हो गई जैसे कि लक्ष्मण जी में सफलता नहीं मिल सकी थी।
विशल्या के स्पर्श से हुई थी।
प्रब क्या था हम धीमान् छोटेलालजी कलकत्ता मेला न होने में हमारी पांवों तले जमीन
के इस प्रसाधारण बल और सहयोग को पाकर खिसक गई । हम किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये । हमारा
मुकदमा लड़ने में पूर्ण रूप से सुट पड़े। कलकत्ता समस्त उत्साह एक उफान की तरह थोड़ी ही देर में
और बयाना के बीच बड़ा फासला है। मगर बाबूजी ठंडा हो गया। हमें चारों ओर घोर अन्धकार हो
ने इस फामले को मिटा दिया। उनके और हमारे अन्धकार दिखाई देने लगा। हमारे लिये अपने इस घोर अपमान को बर्दाश्त करना असहा हो गया
बीच प्रति दिन तारों, पत्रों, रजिस्टर्ड पत्रों और
पार्मला एवं समाचार पत्रों द्वारा वार्तालाप होता और इसलिये तत्काल ही हमने रथोत्सव न होने देने वाली घटना को धर्म और समाज पर कलंक लगना
__ था। हम यही मालूम न पड़ा कि बाबूजी हमारे
पास न होकर कलकत्ता में रह रहे हैं। मापने हमें समझ कर मुकदमा लड़ने का निश्चय कर लिया।
यह पूर्ण विश्वास दिला दिया कि यह विपति मानों लेकिन मुकदमा दायर करने के पश्चात् हमें मालूम पड़ा कि हमारी परिस्थिति बड़ी ही कमजोर और
हम पर न पाकर स्वयं बाबूजी ही पर पाई है। दयनीय है । जैनेतर समाज के सन्मुख सफलता हम अपने साथ ऐसे उदार-त्यागी-कर्मठमिलना अाकाश कुसुम तोड़ना है। जैसे मुख के सेवाभावी, परदःखहर्ता, परम विद्वान, धर्मात्माप्रन्दर बत्तीस दांतों से घिरी हुई जीभ रहती है उसी कर्मवीर और महान उत्साही व्यक्ति को पाकर प्रकार हम भी उन के बीच में घिरे हए थे। हम निहाल हो गये। अपने कमजोर पैरों को देख कर बुरी तरह घबड़ा उठे। पाखिर, हमने समस्त जैन समाज के कगंधारों
प्रापने इस मुकदमे के सम्बन्ध में हमें जो से अपनी दुखभरी अपील की तथा समाज से सहयोग
सहायता दी वह निम्न प्रकार है :--- देने की मांग की । लेकिन बिगड़ी में कौन किसका १-दुःख और निराशा के भयंकर गर्त से हमें साथी होता है। हमें कहीं से भी सहयोग न मिला। निकाल कर प्रापने समय समय पर हमारा उत्साह उस समय हमें जो मर्मान्तक पीड़ा हो रही थी उसे वर्द्धन किया एवं हमें अपनी प्रमूल्य सम्मति देते हम ही बान रहे थे । किन्तु अचानक ही होवो को रहने की महान कृपा की।
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बयाना जैन समाज को बाबूजी का अपूर्व सहयोग
२--आपने जैन एवं भर्जन श्रीमानों, धीमानों, नेताओं, पदाधिकारियों, बकील-रिस्टरों मौर सम्पादकों से हमारा सम्बन्ध स्थापित कराकर उन्हें हमें सहयोग देने को बाध्य किया।
३ -- भरतपुर राज्य के दीवान साहब की सेवा में जैन-अर्जनों की तरफ से काफी संख्या में स्थान स्थान से तार एवं महत्वपूर्ण पत्र भिजवाये ।
४ -- हिन्दी, उर्दू और प्रग्रेजी के अनेकों पत्रों में आपने रथोत्सव को विरोधियों द्वारा रोके जाने पर इसके विरोध में अनेकों जैन-अर्जन विद्वानों, नेताओं एवं पदाधिकारियों द्वारा लेखादि प्रकाशित कराये ।
५- हिन्दू महासभा के कार्यकर्तायों से सम्पर्क स्थापित करके आपने हमारे इस रथोत्सव के सम्बन्ध में एक महान महत्वपूर्ण धौर उपयोगी प्रस्ताव हिन्दू महासभा के सूरत अधिवेशन में पास कराया।
६हजारों की संख्या में "बयाना कांड" नामक एक महान महत्वपूर्ण और सफलताप्रद ट्रॅक्ट छावाकर विरोधियों में बँटवाया।
७- भरतपुर राज्य के दीवान साहब से मिलने के लिये जैन समाज के श्रीमन्तों व विद्वान बैरिस्टरो का एक शिष्ट-मण्डल तैयार कराया ।
८- हमारे इस मुकदमे सम्बन्धी समस्त कागजात श्रीमान् बानू भजीतप्रसादजी वकील लखनऊ एवं विद्या वाशिष जैन दर्शन दिवाकर बैरिस्टर चम्पतरायजी साहब के पास भिजवाये । जिनको देखकर दोनों महानुभावों ने हमें मुकदमा लड़ने के बारे में उचित परामर्श दिया।
।
E-हजारों की संख्या में प्रभावशाली पैम्फलेट छपवाकर विरोधियों में समय समय पर वितरण करवाये ।
२५
भरतपुर एवं बयाना धाये पर इस मुकदमे के सम्बन्ध में समस्त जानकारी प्राप्त की ।
आपने हमारे यहाँ के रथोत्सव निकलवाने के सम्बन्ध में जो प्रयत्न किये व परिश्रम किया एवं हमें तन-मन-धन से जो सहयोग दिया वह कहने और लिखने में पाने वाली बात नहीं है। समय समय पर आपके हमें अनेकों पत्र प्राप्त हुये जिनमें कुछ पत्रों का संक्षिप्त सार में इसलिये दे रहा हूँ कि लोग यह जान जाय कि आपका धर्म व समाज के प्रति कितना अगाध प्रेम व सेवा भाव था तथा मैंने ऊपर जो कुछ भी आपके विषय में लिखा है वह कहाँ तक उचित है |
दिनांक १६-२-२६ के पत्र में आपने हमें निसा रथोत्सव स्थगित होने के ममं भेदो समा चारों के बारे में मैने धापसे भावश्यक बातें पूछ थीं। निहायत सेद की बात है कि अभी तक प्रापका किसी प्रकार का उत्तर नहीं मिला है। कई पत्रों में लेख निकल चुके हैं और प्रयत्न करने से जैन जीवन पर यह घोर कलंक दूर हो सकता है।"
दिनांक २० -२-२६---" प्रताप कानपुर, जैन मित्र, कृष्ण सन्देश आदि आदि पत्रों में प्रथम लेख प्रकाशित कराया गया है। हम प्रापके सहयोग से और प्रबल भान्दोलन कर सकेंगे । इस सम्बन्ध में कौन ऐसा जैनी होगा जिसका हृदय दुख से न भरा हो इस राष्ट्रीयता और संगठनवाद के युग में
जैन जनता पर यह अत्याचार दूर करने में यदि ढोल की जायगी तो भारी अप्रभावना का कारण होगा। मामला केवल बयाना का नहीं किन्तु सारी भरतपुर स्टेट धौर अन्य द्वेष भरे स्थानों में अंन जाति के धार्मिक स्वत्व रक्षा से सम्बन्ध रखता है। यह कलंक बयाना के सिर पर न रहे इसके लिये श्राप चिन्ताशील हैं यह जानकर सन्तोष है। इस सम्बन्ध में प्रकार की शक्ति भर सेवा करने
१०. श्रीमान् बैरिस्टर चम्पतरायजी, श्री राम स्वपनी भारतीय एवं अन्य नेताओं के साथ स्वयं आहे हिलेर
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
। दिनांक ६-३-२६-"मैं पापको विश्वास है उसको जानकर महासभा अपना खेद प्रकट करती दिलाना चाहता है कि हमारी कमेटी और हमारी है तथा देश में परस्पर प्रेम व संगठन की समाज तन-मन-धन से इस कार्य में सहायता प्रावश्यकता देखकर बयाना के हिन्दू भाईयों से यह करने को तैयार है। माप लोग यहाँ का पूरा भरोसा अनुरोध करती है कि वे जैनियों के रथोत्सव व अन्य रखें। साथ साथ भाप लोग भी पूरी तरह कटिबद्ध धार्मिक कार्यों में किसी प्रकार का विरोध न रहें तो संसार की कोई भी शक्ति हमारी पवित्र डालकर हर तरह की सहानुभूति दिखावें । हिन्दू यात्रा को नहीं रोक सकेगी। पाप लोगों की राय महासभा के मंत्री इस सम्बन्ध में उचित योजना पहिले जोर से प्रान्दोलन करने की नहीं थी और करें।" ठीक भी था, नही तो मैं इतने जोर से प्रान्दोलन
दिनांक ८-५-२६-"यहाँ मैं यह सूचना कर को उठाता कि सारे भारत में हल चल मच जाती।
देना मुनासिब समझता हूँ कि हमें श्री १००८ हिन्दी-उर्दू अखबारों में तो खूब लिखा गया है, पर
जिनेन्द्र भगवान की सवारी निकालने का जन्मसिद्ध अभी अंग्रेजी अखबारों में मैंने कुछ भी नहीं लिखा
प्रधिकार है और उससे रंच मात्र भी हटना अपने है । आज बाबू अजीतप्रसादजी की राय मगा रहा
पैरों में कुल्हाड़ी मारना होगा।" हैं फिर जोरों से इसकी तैयारी की जायगी । दीवान साहब के पास अंग्रेजी की चिट्रियाँ सारे भारतवर्ष दिनांक ६-६-२६-"प्रस्तु इम पत्र को प्राप से पहुँचाने का प्रबन्ध कर रहा है। साथ ही साथ तार समझ कर तुरन्त कुछ सज्जन शिमला पधारें । जहाँ जहां से ऐसी चिट्टियां जायेंगी उनकी सूचना वहाँ आप लोगों को ठहरने प्रादि का कष्ट नहीं पापको भेज दी जायगी।"
होगा । प्राशा है. आप लोग यह मौका और दिनांक १७-३-२६-"हिन्दू नेताओं के पास
बैरिस्टर साहब का सहयोग नहीं चूकेंगे। सफलता जो पत्र भेजे गये है एक मेरी तरफ से दूसरा बाबू
की पूरी प्राशा है। केवल पत्रों से कुछ लाभ नहीं अजीतप्रसादजी की तरफ से। उनकी नकल कल होगा। यही मूरत कामयाब होगी । विशेष क्या मापको भेज दी जायगी । इनका जवाब माने से लिखें। पाप लोग अवश्य रवाना होकर सूचना पत्रों में प्रकाशित किया जायगा और मापको सूचित कर दिया जायेगा।"
दिनांक :-६-२६-"हिन्दु महासभा के प्रधान दिनांक २७-३-२६-"माज राय बहादुर सेठ मंत्री ने दीवान साहब, जुडीशल संक्रेटरी साहब चम्पालालजी, रामस्वरूपजी व्यावर, रा०प० सेठ और पुलिस सुपरि० साहब को जो खत रवाना टीकमचन्दजी सोनी अजमेर और सर सेट हुकम किये हैं उनकी नकल पापकी सेवा में भेजी जाती चन्दजी इन्दौर को पत्र लिख दिये गये हैं। हम इसी है। हमारी सम्मति में प्रब अच्छे मजमून की प्रयल की विशेष चेष्टा में हैं कि किसी तरह रथ दरख्यास्त बनवाकर महतं सुदवाकर रथोत्सब की यात्रा निकल जाय ।
प्राज्ञार्थ पुनः राज्य से निवेदन करने का समय मा दिनांक १४-४-२६-हिन्दू नेताओं के पास गया है। प्राण मसौदा दरख्वास्त का माननीय पत्र भेजे गये थे। इनके फलस्वरूप हिन्दू महा सभा विद्यावारिधि जैन दर्शन दिवाकर बैरिस्टर चम्पतराय ने सूरत में एक मत से निम्नलिखित प्रस्ताव पास जी से बनवाइयेगा और हिन्दू महासभा के मंत्री जी किया है :
के पत्र की नकल भी उनके पास भेज दीजियेगा। 'बयाना (भरतपुर) के सनातनी हिन्दू भाईयों अच्छा हो यदि पाप साहब में से एक योग्य सज्जन नियों के रथोत्सव निकालने में जो विघ्न किया जरूरी कागजात लेजाकर उनसे मसविदा बनवा लें।
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बयाना जैन समाज को बाबूजी का भपूर्व सहयोग इस सम्बन्ध में पाप शीघ्र कार्यवाही करें और हमें उनके बँट जाने के १०-१२ घन्टे बाद यह नोटिस तुरन्त अपने विचार से सूचित करें।"
भी जरूर जरूर भिजवा दें।
प्रसिद्ध पत्र इंगलिश मैन ने भी हाल छापा है। दिनांक १०-८-२६-"कृपा कर २७ तारीख तक रोजाना एक लिफाफा भेजते रहिये, जिसमें
कटिंग भेजते हैं।" नित्य का समाचार मालूम होता रहे। यहां इंगलिश दिनांक २६-८-२६-"नजीरें दिखाने के लिये का बंगाली एक प्रसिद दैनिक पत्र है। सरकार भी हमने एक स्थानीय बैरिस्टर से तय कर लिया है, इस पत्र का ख्याल करती है। इसमें बयान के प्रापको लिखेंगे । जो लोग विरोध को पहुँचे हों वे सम्बन्ध में लेख छपा है। सम्पादक ने भी टिप्पणी वे ही होने चाहिये जो समय समय पर प्रापको लिखी है । सो प्रापके पास भेजते हैं।
धमकी देते रहे होंगे और जिनसे अपने को खतरा
हो सकता है। सालभर इन लोगों को नेक चलनी १५ तारीख के लीडर ने भी इस सम्बन्ध में
के राज मुचलके ले ले, ऐसी दरख्वास्त फौजदारी "जैनियों का दुःख" शीर्षक सम्बाद छापा है ।" .
अदालत में प्रापको कर देनी चाहिये।" दिनांक १७-८-२६-"अाज बुक पोस्ट से दिनांक ६-६-२६-"श्री चांदकरणजी शारदा २५ व अनरजिस्टर्ड पार्सल से १०० ट्रैक्ट रवाना को पत्र डाल दिया गया है और प्राशा है उसमें भी किये जाते हैं । खास खास विरोधियों के घरों में, अपने को सफलता मिलेगी।" दुकानों में जहाँ मिले जल्दी से जल्दी पहुंचा दें।" प्रापके सभी पत्र विस्तार के साथ लिखे हये हैं।
किन्तु मैने तो केवल कुछ पत्रों की कुछ पंक्तियाँ ही दिनांक २०-८-२६-“२०० कापियाँ कल दिन रजिस्टर्ड पार्सल से और भेजी हैं। हमने काफी
देने का प्रयास किया है। आपके अदम्य उत्साह और
अपार सहयोग को पाकर ही हमारी समाज की संख्या में छपाई हैं, सो अच्छी तरह बांटियेगा । एक भी विरोधी ऐसा न रहना चाहिये जिस तक इसकी
विजय हुई और शीघ्र ही हमारे यहाँ बड़े समारोह प्रति न पहुंचे।"
और धूमधाम के साथ जैन रथोत्सव मेला हुप्रा ।
बयाना जैन समाज प्रापकी चिर ऋणी है । प्रापकी दिनांक २२-८-२६-"प्राज बुक पोस्ट से स्मृति स्वरूप भारतवर्षीय जैन समाज की पोर से २०० विज्ञापन भेजे हैं। दक्ट मापने बंटवा दिये जो ग्रंथ निकाला जा रहा है वास्तव में ही वे उसके होंगे। न बँटवाये हों तो तुरन्त बंटवा दीजिये और अधिकारी थे।
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बा० छोटेलाल जी और स्याद्वाद महाविद्यालय
कैलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी
बार छोटेलालजी के पिता सेठ रामजीबनजी
• सरावगी विद्वानों के बड़े प्रेमी थे । उनका स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी पर असीम अनुराग था । मेरे विद्यार्थी जीवन काल में विद्यालय के छात्र संस्कृत की परीक्षा देने प्रति वर्ष कलकत्ता जाते थे । उस समय सेठजी सब छात्रों को अपने घर पर आमंत्रित करके प्रातिथ्य सत्कार करते और उन्हें कलकत्ता घूमने के लिये अपनी घोड़ा गाड़ी दे देते थे । जब उनका स्वर्गवास हुना तो उन्होंने पांच हजार रुपया स्याद्वाद महाविद्यालय को प्रदान किया ।
उनके स्वर्गवास के पश्चात् उनके सुपुत्रों का विशेषतः बाबू छोटेलालजी का जीवन के अंतिम क्षरण तक इस विद्यालय पर बही अनुराग रहा जैसा कि उनके स्वर्गीय पिताजी का था। उनेक द्वारा बांधी गई ५) मासिक की सहायता प्रति वर्ष बराबर आती है । इसे प्राते हुए प्राधी शताब्दी बीत चुकी है ।
जब इनके एक भाई सेठ गुलजारीलालजी बीमार हुए तो बाबू छोटेलालजी की प्रेरणा से उन्होंने स्पाद्वाद विद्यालय को २५०००) रुपया प्रदान किया था । उसी तरह दूसरे भाई सेठ दीनानाथजी ने बाबू छोटेलालजी की प्रेरणा से १५००० ) विद्यालय को प्रदान किया था। ये तो मुख्य दान हैं। समय समय पर हजार दो हजार का दान तो कितनी ही बार इस परिवार से मिलता रहा है । अतः स्याद्वाद महाविद्यालय स्वर्गीय सेठ रामजीवनदासजी और उनके कुटुम्ब का बड़ा ऋणी
है । दानवीर साहू शान्तिप्रसादजी के बाद विद्यालय को दान देने वालों में दूसरा नम्बर इसी परिवार का है ।
विद्यालय को कार्य करते हुए पचास वर्ष पूर्ण होने पर जब स्वर्णजयन्तीमहोत्सव मनाने का विचार मैंने बाबू छोटेलालजी पर प्रकट किया तो वे प्रसन्नता से तत्काल सहमत हो गये और कलकत्ता में मेरे साथ घर घर घूमकर उन्होंने लगभग पच्चीस हजार का चन्दा कराया। साहू शान्तिप्रसादजी, सेठ गजराजजी, सेठ मिश्रीलालजी काला प्रादि को प्रेरणा दी और सम्मेद शिखर पर पूज्य क्षुल्लक श्री गणेशप्रसादजी वर्गीजी की छत्र छाया में विद्यालय का स्वर्ण जयन्ती महोत्सव शान से हुआ तथा विद्यालय को एक लाख से भी अधिक रुपयों की सहायता प्राप्त हुई। उस महोत्सव के स्वागत मंत्री 'बाबू छोटेलालजी ही थे। स्वास्थ्य के प्रत्यन्त खराब व कमजोर होते हुए भी उन्होंने जो शीत ऋतु में रात दिन श्रम किया उसे में कैसे भूल सकता हूँ । हाड़ चाम के मू से कलेवर में ऐसी दृढ़ निश्चयो, विद्या और साहित्य की प्रेमी ग्रात्मा का प्रवास देखकर मस्तक श्रद्धा से नत हो जाता था। बाबू छोटेलालजो जैसा व्यक्तित्व दुर्लभ हैं । प्रशंसा प्राकांक्षा से सर्वथा दूर रहकर कार्य करना उनको विशेषता थी । कहावत है-गुण ना हिरानो गुuires हिरानो है। किन्तु बाबु छोटेलालजी सच्चे गुणग्राही थे। ऐसे आदरणीय व्यक्तित्व का सम्मान करने वाले स्वयं सम्मानित होते हैं । इसमें कोई प्रतिशयोक्ति नहीं है ।
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बाबू छोटेलाल जी जैन ( बांये); श्री शिवराम मूर्ति डाइरेक्टर जनरलमा चलोजिकल डिपार्टमेन्ट (बीच में) तथा श्री टी. एन. रामचन्द्रन (दाएं) के साथ
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बाबूजी की मधुर स्मृतियां
स्वामी सत्यभक्त करीब तेतीस वर्ष पुरानी बात है । मैं उन दिनों बाबूजी ने पाश्चर्य से कहा-पांच वर्ष ! यह
बम्बई में रहता था और सुबह तारदेव से तो बहुत लम्बा समय है । जीवन का क्या ठिकाना ! पौपाटी पूमने जाया करता था । वही सेठ ताराचन्द माणके ये विचार आपके साथ ही समाप्त र जो का बंगला था। सेठ ताराचन्द मी मेरे हर पान्दो- तो यह तो समाज की बड़ी हानि होगी। लन में सहयोगी रहे थे, और पीछे तो ये सत्य मैंने कहा---यह तो ठीक है । परन्तु पाज तक समाजी भी बन गये थे इसलिये उनसे काफी घनिष्ठता जो भी प्रान्दोलन मेने किये है वे तभी किये हैं जब थी और इसी नाते कुछ समय उनसे गपशप भी हो अन्त तक समर्थन करने की क्षमता अपने में जाया करती थी। एक दिन जब मैं उनके यहाँ गया देखली है। तो यहाँ बाब छोटेलालजी भी बैठे थे। एक दूसरे का
बाबूजी बोले-यह तो ठीक है। परन्तु कोई परोक्ष परिचय तो था ही, एकाध बार मिलना भी
बात समाज में विचार करने के लिये पेश करने में हो गया था, पर निकट परिचय का यह पहिला ही
क्या बुराई है ! प्राप घोषित कर दें कि ये विचार प्रबसर था। बाबू छोटेलालजी ने कुछ प्रश्न पूछ। मेरे निश्चित या अन्तिम विचार नहीं है किन्तु सत्य मैंने कहा-एक जैन पंडित की हैसियत से प्रचलित की खोज के लिये विचारणीय सामग्री के रूप में मान्यता के अनुसार उत्तर दूं या मेरा जो स्वतंत्र हैं। इन पर जो चर्चा होगी उसके आधार से चिन्तन है उसके अनुसार उत्तर दू । मापने कहा- निश्चित विचार बनेंगे' इस प्रकार की घोषणा करके प्रचलित मान्यता के अनुसार तो उत्तर बहुत मुन अाप अपने विचार समाज के सामने रखदें। चुका हूँ प्रापका स्वतंत्र चिन्तन ही मुनना चाहता हूँ। इसके बाद सर्वजता, उत्मपिंगी प्रवसर्पिणी, जैन
___ में कुछ देर सोचता रहा । स्वीकारता हूँ कि न धर्म की प्राचीनता, जैन पुराणों का रूप मादि पर
हूँ इसी चिन्ता में रहा कि प्रापने फिर जोर दिया।
अन्त में मैंने स्वीकारता देदी । कई घंटे चर्चा होती रही और मैंने अपने विचार नि संकोच भाव मे रखव । चर्चा के उपसंहार में वे
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स्वीकारता कोरा शिष्टाचार न थी। उसके बोले-अापके पास ऐसे असाधारण विचारों का पीछे बड़ी भारी जिम्मेदारी थी। दिन रात की घोर सजाना है पर अाफ्न उसे छिपा क्यो रक्खा है ? तपस्या, जैन समाज में निन्दा और विरोध का ___ मैंने कहा- ये विचार जैन समाज के लिये इतने ।
तूफान, नौकरी से छुड़ाया जाना, जीविका की
चिन्ता, बीमार पत्नी के साथ यह सब बोझ उठाना, कान्तिकारी हैं कि इनसे सारे समाज में तहलका
इतना सब बवंडर उस स्वीकारता के पीछे था जो मच जायगा । जैन समाज-खासकर जैन पंडिन-मुझ
बाद में सब सहन करना पड़ा पर इससे जीवन निखर पर टूट पड़ेंगे। ऐसी अवस्था में मुझे सब का
गया। जिस देवता के चरणों पर यह जीवन चढमा सामना करना पड़ेगा। इसलिये में अपने इन विचारों
चाहिये था वहीं चढ़ गया, जीवन सफल हो गया। पर इतना मनन चिन्तन कर लेना चाहता हूँ कि जिससे में उनके सामने टिक सकू। इसलिये में इन अगर उस दिन बाबू छोटेलालजी से यह पर्वा पर पांच वर्ष और चिन्तन करना चाहता हूँ। न होती और उन्होंने मुझ से स्वीकारता न लेली होती
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ तो भी सत्यसमाज स्थापित होता, क्योंकि सन् २४ २-दान के लिये अनुरोध प्राग्रह प्रादि की में ही इस प्रकार का संकला अपनी डायरी में लिखा अपेक्षा नहीं करते थे। था परन्तु उसमें पांच वर्ष की और कदाचित दस ३-दान के लिये उन्हें अपने नगर आदि का वर्ष की देर होती और इस समय भेद से कौन कौन मोह नहीं था । जहाँ भी कहीं जनसेवा की दृष्टि से सी घटनाएं घटती कह नहीं सकता। हाँ ! इतनी उपयोगिता दिखसी कि उनने शक्ति भर दान दिया। बात तो निश्चित है कि सत्य साधना की तपस्या के
४-दान को वे उपकार नहीं समझते थे किन्तु लिये इतने वर्ष कम मिले होते । और इसका हिसाब
अधिक धन पैदा करने में जो थोड़ा बहुत पाप हो जब में प्राज देखता हूँ तब सत्य साधना की शीघ्रता
जाता है उसका प्रायश्चित समझते थे। के लिये बाबू छोटेलालजी ने जो प्रेरणा दी उसका
५-दान देने पर नाम प्रकट होना चाहिये, मूल्यांकन बहुत ऊंचा होता है ।
उनका चित्र निकलना चाहिये, उनकी तारीफ छपनी उस समय न उन्हें पता था, न स्पष्ट रूप में
चाहिये, इस प्रकार का कोई भाव वे प्रकट नहीं मुझे पता था कि इसका पर्यवमान सत्य समाज की
करते थे। स्थापना में होगा। पर उनकी प्रेरणा अमोघ साबित हुई । उनके जीवन के अनेक पुण्य कार्यों में यह ये विशेषताएं बहुत कम दानियों में पाई जाती भी एक महान पुण्य का कार्य था ।
हैं । सत्याधम को उनसे बीस हजार से भी अधिक पवित्रतम दान
रुपयों का दान प्राप्त हुआ है । और यह सब बिना
मांगे या बिना किसी प्रेरणा के हुमा है। दुर्भाग्य इस देश में लाखों दानी पडे हैं और वे लाखों
या सौभाग्य से मैं दान मांगने में बहुत कच्चा हूँ । रुपयों का दान करते हैं। परन्तु अधिकांश दान
साधारणत; सत्याश्रम के लिये कभी किसी से मांगा किसी न किसी तरह कलंकित रहते हैं। कोई दानी
नहीं हूँ। फिर भी समय समय पर बिना मांगे ही अपने नगर में ही दान करते है और दान की
बाबू छोटेलालजी से हजारों रुपया मिलता रहा है। हई सम्पति के पूर्ण संचालक बने रहकर उस दान के ठीक उपयोग में बाधक बने रहते हैं। कोई सिर्फ एक बार, सन् ४५ में, जब वे वर्धा प्राये तब मान प्रतिष्ठा खरीदने के लिये दान करते हैं, अर्थात् दम हजार रुपये का ड्राफ्ट मेरे नाम का लेते पाये। प्रतिष्ठा का मूल्य चुकाते है। कोई कोई तो ऐसे मैंने कहा-इतनी बड़ी रकम पाप लायेंगे इसकी तो होते हैं कि उनकी मान प्रतिष्ठा में कुछ कमी रह मैंने कल्पना भी नहीं की थी। बोले-पापके पत्रों की जाय तो दान की रकम रोक लेते हैं। कोई दान फीस भी तो नही है। की उपयोगिता का विचार ही नहीं करते जहाँ हो सकता है कि मेरे पत्रों में उन्हें कुछ प्रानन्द अधिक वाहवाही मिलती हो वहीं दान देते हैं। कोई मिला हो. मन को सान्त्वना मिली हो, पर हर दिन भिक्षुषों के अनुरोध से विवश होकर दान देते हैं। दस पांच पत्र घसीटने वाला में हजारों पत्र लिख इस प्रकार दान में नाना तरह की अपवित्रताएं हैं। चुका है, और उनमें भी अनेक पत्र वैसे महत्वपूर्ण परन्तु बाबू छोटलालजा क दान मय अपावत्रताए रहें होंगे परन्तु इस तरह मेरे पत्रों की फीस सुकाने कभी नहीं दिखाई दीं । उनके दान की ये विशेषताएँ वाली कितने हैं । यह सब बाबू छोटेलालजी की
असाधारण कृतज्ञता, उदारता, दानशीलता का १-जनहित की उपयोगिता देखकर ही वे दान । परिणाम हैं । सचमुच उनको दानशीलता पवित्रतम करते थे।
थी। जो उनसे कई गुणा दान करने वालों में भी
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बहुमूल्य अनुरोध
नहीं पाई जाती । यों उनका दान भी कम नहीं है । लाखों पर तो पहुँचा ही हुआ है ।
उनके दान में एक विशेषता और थी कि दान देने पर फिर उस रकम से मोह नहीं रखा जाता न उस रकम वो अपने उपयोग में लाया जाता है । या तो वह रकम जहां के लिये होती वहीं पहुँचा दी जाती, या प्रन्तन करके उसका व्याज चालू कर दिया जाता । दान की यह ईमानदारी भी असाधा
है।
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ही प्रच्छे विद्वान भी थे प्रग्रेजी के लेखक भी थे । फिर भी उन्हें किसी बात का अभिमान नही था । श्रात्मगौरव का पूरा ध्यान रखते हुए भी वे बड़े विनीत थे। कई बार मेरे कलकत्ता प्राने पर बीमार रहने पर भी वे स्वागत के लिये स्टेशन पर आये । जब सत्याश्रम भाये तब में विदा करने के लिये स्टेशन तक साथ चलने लगा पर उनने किसी तरह न माने दिया । तांगे में इस तरह सामान जमा दिया कि में पहुँचने के लिये तांगे में बैठ भी न सकूं। सभी के साथ उनका यथोचित विनीत व्यवहार था । इतने श्रीमान विद्वान और दानी होने पर भी उनकी ऐसी विनीतता असाधारण थी ।
विनयशीलता
बाबू छोटेलालजी, श्रीमान थे दानी थे, साथ
देव टेढ़ा हो तो आदमी की चतुराई काम नहीं देती । असंभव घटना भी तब संभव हो घट जाती है ।
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मनुष्य झूठ के साथ समझौता करके जीवन की किननी सम्पदा नष्ट कर डालता है ।
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frer और व्यवहार में मतभेद होते हुए भी किसी पर श्रद्धा की जा सकती है ।
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से ग्रहण किये हुए दुःख को ऐश्वर्य के समान भोगा जा सकता है।
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बहु परिग्रह के भीतर जीवन तुद्ध होने लगता है । दुःख दैन्य और अभाव में से गुजर कर मनुष्य का चरित्र महान और सत्य हो जाता है।
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संसार में अपने पराये का जो व्यवहार चल रहा है वह अर्थ हीन है। यहाँ न कोई अपना है न पराया। यह कोई नहीं जानता कि संसार के इस महा समुद्र के प्रवाह में पड़कर कौन कहाँ से बहता हुआ पास भा जाता है और कौन बहकर दूर चला जाता है।"
- बाबू जी की डायरी से
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पुरातत्व प्रेमी बाबूजी
शारदा प्रसाद पासना के श्री छोटेलाल मारवाड़ी का अपना इतना रुपया नहीं है कि इसको खरीद सके । मैं
पुश्तैनी घरोपा था । उनकी लडकी का मापसे भिक्षा मांगता है। मैंने उसर दिया, "मैंने तो विवाह कलकत्ता के श्री लालबन्द जैन के साथ इसे अपने लिये संग्रह किया है ।" "तो पाप बदला हमा। मैं अपने मोटर के व्यापार क्रम में बहुधा कर लीजिये । संग्रहालय में प्रदर्शित सब मूतियाँ कलकत्ता जाया करता था और नाते के अपने आपने देखी हैं । गोदाम की भी देख लीजिये । पितामह के यहाँ मुक्ताराम बाबू स्ट्रीट में ठहरा इनमें से कोई भी दो भाप ले लीजिये और यह हमें करता था। समीप ही चित्तरंजन एवेन्यू में थी दे दीजिये ।" उन्होंने कहा गोदाम देखने का लालचन्द का घर था। हर यात्रा में इनसे भेंट अवसर चूकना तो अब उचित था ही नही । जाकर होती थी । इन्होने ही अपने बड़े भाई बाबू मैने देखा वहाँ भी भरहुत की मूर्तियां रखी हैं। छोटेलालजी जैन से भेंट करा दी।
बहुत मूर्तियां थी गोदाम में। इन्हें प्रदर्शित करने पुरातत्व में उनकी विशेष अभिरुचि थी और का स्थान भवन में नहीं था । श्री मजुमदार
साहब एक एक मूति दिखला कर कहते थे पाप यह में प्राचीन मूत्तियों का संग्रह कर ही रहा था। हर यात्रा में उनसे मिलने लगा। सम अभिरुचि के।
ले लीजिये, यह ले लीजिये। मैंने कहा, "प्राप तो
स्वयं ही स्वीकार कर रहे हैं कि प्रापके यहां संग्रहित विषयों पर वार्तालाप होता था।
किन्हीं दो मूर्तियों से मेरी मूर्ति श्रेष्ठ है ।" "बाबू पुरातत्त्व प्रेमी के लिये कलकत्ता का जादूघर छोटेलालजी ने कहा, ये स्वयं प्रेमी हैं, देंगे नहीं।" तब (संग्रहालय) तो एक तीर्थ स्वरूप ही है । हर यात्रा श्री मजुमदार साहब ने अन्य प्रसंगों पर बातें की । में मैं वहाँ जाने का अवसर निकालता ही था। एक
इसके पदयात् बाबू साहब के दर्शन नहीं मिले बार बाबू छोटेलालजो मुझे अपने माथ वहाँ
पर श्री नीरज जैन से यह जानकर संतोष हुमा कि ले गये । उनका पूर्ण परिचय तत्कालीन सुपरिण्टेण्डेट श्री एन० जी० मजुमदार से था।
वे मुझे भूले नहीं। हम लोग उनसे मिले । मैने अपने संग्रह की कुछ उनके प्राकस्मिक देहावसान के कारण उनके मूत्तियों के फोटो उन्हें दिखलाये । भरहुत के चक्कर पुनदर्शन की कामना यों ही रह गई। प्रभु से को देखकर वे उछल पड़े । झुककर दोनों हाथ मेरे प्रार्थना है कि उनको प्रात्मा को शांति एवं सद्गति सामने पसार दिये । “भारत सरकार के पास लाभ हो ।
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स्मरणाञ्जलि
प्रो० डॉ० राजाराम जैन M.A. Ph.D., आरा
नाम तो छुटपन से ही सुन रखा था किन्तु
सन् १९५४ के नवम्बर या दिसम्बर मास में ज्ञानोदय (मासिक) का सहायक सम्पादक होकर जब कलकत्ते में रहने का सुअवसर मुझे मिला तब मैंने पूज्य बाबूजी के प्रत्यक्ष दर्शन किये थे । कलकत्ते जैसी विशाल, प्रत्यन्त व्यस्त एवं वैभवपूर्ण नगरी को देखने, नौकरी करने एवं रहने का यह मेरा सर्वप्रथम अवसर था। कलकत्ते की भीड़भाड़ में भी मैं अकेलेपन का अनुभव किया करता था। वहां के जीवन से ऊबकर में शीघ्र ही भागने की सोच रहा था कि महमा ही मुझे बाबूजी के कलकत्ता निवास का स्मरण हो धाया और अत्यन्त संकोच भाव से उनके घर बेगछिया पहुँचा फोटो की रौनक, अपनी दरिद्रता तथा एक रईस के सम्भावित उपेक्षा पूर्ण व्यवहार की कल्पना करके दस्तक देने का माहम न कर सका और दरवाजे से में वापिस लौटने को ही था कि बाबूजी किसी कार्यवश बाहर निकले और मुझे देख मेरा परिचय पूछने लगे । मेरी सामान्य जानकारी प्राप्त कर वे मुझे भीतर ले गये और सर्वप्रथम भोजन करने का प्रादेश दिया। मुझे स्वीकृति सूचक सिर हिलाने के अलावा श्रौर कोई चारा ही न रहा। वैसे में स्वभावतः ही संकोची हूँ, किन्तु उनकी प्रास्मीयता से मेरा सारा संकोच काफूर हो गया और तभी से में उन्हें 'बाबूजी' कहकर पुकारने लगा । कलकत्ते में उनके परिचय के बाद जो ५-६ माह रह सका, वह मात्र उनके स्नेह एवं प्रेम के कारण ही, अन्यथा में शायद ही वहाँ रह पाता में क्या खाता हूँ, कहाँ खाता । हूँ, कहाँ रहता है, घर के लोग कहाँ हैं, माफिस से लौटकर बाकी समय का क्या उपयोग करता हूँ, क्या पढ़ा करता हूँ, आदि प्रश्न वे मुझ से करते और मेरे उतरों से यदि उन्हें सन्तोष नहीं होता तो तज्जन्य परेशानी उनके माथे से स्पष्ट झलकने
लगती। मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि कलकत जैसी स्वार्थपूर्ण नगरी में उन्होंने मुझे पितृवत् स्नेह. गुरुवत् ज्ञान और वयोवृद्ध होने के नाते पथ प्रदर्शन एवं आशीर्वाद दिया । साधनहीन जिज्ञासु नवयुवक के हृदय पर विजय प्राप्त करने के लिये और क्या चाहिये ?
सन् १९५५-५६ में जब में गवर्नमेण्ट कालेज शहडोल (विन्ध्यप्रदेश ) में हिन्दी प्राध्यापका में सोच रहा था कि स्थानान्तरित होने के बाद बाबूजी मुझे भूल चुके होंगे। अतः हमारा पत्रव्यवहार बन्द हो गया। प्रचानक ही एक दिन देखता हूँ कि पोस्ट माफिस की कितनी ही सील मुहरों से ठुका-पिटा एक पत्र मुझे मिला। पढ़ने पर में शर्म से झुक गया। वह पत्र बाबूजी का था जिसमें मुझे हितचितापूर्ण उलाहने एवं डांट-फटकार के बाद मेरी प्रगति प्रादि के सम्बन्ध में जानकारी चाही गई थी। समाज के उदीयमान नवयुवकों के प्रति ऐसा स्नेह था उनका मुप्रसिद्ध सुभाषित ग्रन्थ बज्ज लग्गं की यह उक्ति उनके ऊपर कितनी फलती है:--
दूरद्विया न दूरं सज्ज चितारापुव मिलियाणं । गयाट्ठियो वि चन्दो सुणिन् कुशाद कुमुयागां ॥ कसो उम्गमइ रवी कत्तो विसन्ति पंकयवणाई | सुरगाणा जत्थ नेहो न चल दूरट्टियारणं पि ॥
सन् १९५६ से ६१ तक राजकीय प्राकृत शोष संस्थान वैशाली मुजफ्फरपुर के सेवाकाल में तो मेरा उनसे निरन्तर पत्र व्यवहार रहा और पिता एवं गुरु के समान सदैव ही मुझे उनका पथप्रदर्शन मिलता रहा, किन्तु मुझे इस बात का निरन्तर दुख बना रहा कि कई बार उनका प्रादेश मिलने पर भी में उनसे दूसरी बार भेंट न कर सका ।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
प्रतः
२८ / २९-१२-६३ को जैन सिद्धान्त भवन की हीरक जयन्ती के अवसर पर धारा में पुनः उनसे भेंट हुई तो उनकी शारीरिक स्थिति देखकर अत्यन्त खिन्न हो उठा । वे स्वयं उससे परेशान थे। बोले। भाई, प्राप लोगों के धाग्रह को न टाल सका, मतः प्रसमर्थ होते हुए भी यहाँ जिस किसी प्रकार प्रा गया हूँ, अब सम्भवतः कलकल से बाहर जाने का यही भातिरी अवसर होगा। नहीं कह सकता कि कब में जगत से विदा हो जाऊँ । लम्बी सांस खींचने 'जाऊँ । लम्बी सांस खींचने के सिवाय और कुछ न बोल सका। भाई बद्रीप्रसाद जी पटना श्रादि कई सज्जन वहाँ बैठे थे । वातावरण इतना गम्भीर हो उठा कि कोई भी प्रत्युत्तर में कुछ कह न सका ।
धारा-प्रवास में वे श्री जैन बाला विश्राम में ठहरे थे । कलकत्ता वापिस लौटने के पूर्व में पुनः उनसे भेंट करने गया। बातचीत के दौरान मेरे शोध प्रबन्ध की बात छिड़ गई । महाकवि रघू की रचनाओं के परिचय के प्रसंग में मैंने सचित्र "जसहर चरिउ (यशोपर चरित्र) की हस्तलिखित ग्रन्थ की चर्चा उनसे की। यह भी बताया कि साधनाभाव में में उसकी फोटो कापी भी नहीं करा सका हूँ यह सुनकर वे बड़े चिन्तित हो गये । तुरन्त ही मुझे पटना चलने का आदेश दिया । यद्यपि तत्काल कार्य होना सम्भव न हुआ हफ्तों बाद थोड़ा सा हुआ, किन्तु मूल प्रेरणा उन्हीं की थी जो धाज मेरे अध्ययन कर सकने लायक वह प्रति बन सकी ।
फरवरी १९६५ में अचानक ही मुझे शान्तिनिकेतन (बंगाल) जाना पड़ा, तभी सोचा कि कलकत्ते में तीर्थस्वरूप पूज्य बाबूजी से भी भेंट करता चलूं । उनके घर पहुँचा तो मालूम पड़ा कि लगभग छह माह से उनकी स्थिति बहुत ही खराब है । हफ्तों से चारपाई से नीचे नहीं उतर सके हैं। उनके कमरे में प्रविष्ट हुआ तो देखा कि वे तकिये के बल पर झुके बैठे थे, प्रयास करने पर भी लगभग मापे घण्टे तक एक भी शब्द न बोल सके। जब
कुछ ताकत भाई तब कुशलवृत्त पूछने के बाद उनसे मेरे शोध-प्रबन्ध की चर्चा हुई। मैंने कुछ सूचनाएँ उनसे चाहीं । मेरी जिज्ञासा शान्त करने हेतु पता नहीं उनमें कहाँ से बल भा गया। वे तुरन्त ही पलंग से नीचे उतरे, बगल के कमरे से चाभियों का गुच्छा खोजा और अपने अध्ययन कक्ष में पहुँच कर आलमारी खोली एवं शोध पत्रिकाएँ, इतिहास ग्रन्थ, रिपोर्टस यादि एक के बाद एक निकालकर लगे मुझे सूचनाएं देने मेरा ध्यान उपलब्ध सामग्री की । और उतना अधिक न था जितना बाबूजी के अचानक प्राप्त शक्ति एवं उत्साह की थोर । वे बोले" श्रापको श्राश्चर्य क्यों हो रहा है ? में भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं पुरातत्त्व का पुजारी हूँ। इनकी मैंने सतत् सेवा की है और इनकी सेवा के लिये ही में अभी कुछ समय और जीवित रहना चाहता हूँ । मुझे यदि कोई बच्छा सहयोगी मिले तो में पुनः कुछ शोध कार्य प्रारम्भ करना चाहता हूँ । साहित्य सेवा एवं पुरातत्वात्येपण मेरे परम अभिरुचि के विषय हैं। इन कार्यों में डूबने से मेरी जीवनी पाति में वृद्धि होती है ।" वृद्धयुवा बाबूजी के जीवन का यह गूढ़ रहस्य मुझे उसी दिन ज्ञात हुआ। में अवाक् रह गया ।
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श्रद्धय बाजी समाज, साहित्य एवं पुरातत्व की अमूल्य निधि थे। समाज में जब भी कोई आन्दोलन हुआ, संघर्ष छिड़ा, योजना बनी अथवा कहीं कोई प्रकान मादि पड़ा, वे उसके धगुषों में रहते । सेवा की लगन ने उन्हें आराम हराम बना दिया था। नवयुवकों के वे सच्चे हितैषी थे। साप्तपदीन मंत्री का निर्वाह भी वे बड़े ही उत्तरदायित्व के साथ करते थे। सरस्वती का वरदहस्त तो उन पर था ही, लक्ष्मी को भी अटूट कृपा उन पर थी। सरस्वती और लक्ष्मी का ऐसा अपूर्व समन्वय उन्हें मिला था। उनके भाग्य पर किसी को भी ईर्ष्या हो सकती थी। वे सच्ची श्रद्धा के पात्र थे । उनकी पवित्र स्मृति में श्रद्धा के ये कुछ सुमन भेंट चढ़ा रहा हूँ ।
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लक्ष्मी
उसमें
मनीषी बाबु छोटेलालजी
( नेमीचंद पटोरिया M. A. L. L. B. कलकत्ता )
( १ ) वर्षाई विभूति,
पर उससे कभी नहीं,
वे बहके
वाणी के थे वे
उसके पद पर
इनके खोजे
कुछ मंदिर,
उसके न ( २ )
युग-युग तक
तन नश्वर,
उसके ही ढूंढा प्रतीत बा जिससे कि पुरातन चमक उठा, इतिहास पा गया ( ४ ) कुछ शिला लेख,
कभी वे
कृपा-पुत्र,
सब
उसके आराधन में निशि - दिन । चढ़ा दिया, अजित धन, यश, यौवन, जीवन ॥ ( ३ ) इंगित पर इनने,
सदा उदाम
AAMKARANA
( ६ ) कितनी संस्था को जन्म दिया,
कुछ छिपी मूर्ति, कुछ ग्रंथ राज । कुछ गिरि गुफाऐं.
रहे ।
दास रहे ||
कहती प्रतीत - इतिहास श्राज ॥ ( ५ ) इनकी खोजें ही,
गावेंगी इनका प्रचुर गान । किन्तु अनश्वर है,
इनकी
खोजों का यश-महान ॥
कितनों को श्राश्रय मिला मधुर,
वात्सल्य श्रंग की
वह प्रवाह ।
नई राह ॥
कितनी संस्था को प्राण मिले ।
वे स्वर्ग गये हा ! छोड़ हमें,
सम्मान
कितनों को निश्चय श्रारण मिले || ( ७ ) स्वयं मूर्ति,
ये बड़े किन्तु कहते
कीर्ति वैभव
छोटे ।
रोते ॥
WEWE MERE WHO WERE WERE REESE'RE VENUE WAS a www wwwW HW W WWW Gre
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जी
बाबू पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ
दिवंगत
वंगत बाबू छोटेलाल जी जैन की गणना देश के प्रमुख समाज एवं साहित्य सेवियों में की जाती है । देश की विभिन्न संस्थाओं से उनका निकट सम्बन्ध था और उनके माध्यम से वे गत ५० वर्षों से देश, समाज एवं साहित्य सेवा में अनुबद्ध थे । सन् १९१७ में कलकत्ता में जब इज का भीषण प्रकोप हुआ तब उन्होंने पीडित व्यक्तियों की भोजन, श्रौषधि श्रादि की व्यवस्था कर भरपूर सहायता की भी और यही सार्वजनिक सेवा में प्रवेश का सर्वप्रथम अवसर था । सन् १९४३ में बंगाल में जो भीवरण अकाल पडा था धौर जिमने लाखों इन्सानों की जान ले ली थी उस समय बाबू जी ने सारे बंगाल में घूम घूम कर अकाल पीडितों की तन मन धन से जो सेवा की थी वह अविस्मरगीय रहेगी । इसी तरह पूर्वी पाकिस्तान के नोपाखाली क्षेत्र में जब भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुये और मनुष्य मनुष्य का दुश्मन बन गया उस समय भी अपने जीवन का खतरा मोल लेकर वहाँ रिलीफ कंम्प खोलें और सैकड़ों हिन्दूद्धों के जीवन की रक्षा की । कलकत्ता में हिन्दू मुसलिम दंगों के समय भी बाबू जी ने स्वयं पीडितों को प्रशंसनीय सेवा की। सरदार पटेल को अपील पर सोमनाथ मन्दिर के पुनरुद्धार के लिये कलकत्ता नगर के गनी ट्रेड एसोसिएशन द्वारा जो दो लाख की भारी रकम एकत्र हुई थी उसमें भी बाबू जी का पूरा सहयोग था ।
सन् १९१७ में आप कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने और कांग्रेस के विशेष अधिवेशन पर मापने अखिल भारतीय जंन राष्ट्रीय कान्फ्रेंस का कलकत्ता में अधिवेशन आमंत्रित किया। श्री बी० खापर्डे इस कांफ्रेंस के अध्यक्ष थे तथा लोकमान्य तिलक
जैसे उच्च नेताओं ने इस में भाग लिया था। बाबूजी सी० प्रार० दास के अनुयायियों में से थे । इस कारण उन्हें काफी परेशानियां भी उठानी पड़ी थी पर आपने कभी भी दास बाबू का साथ नहीं छोड़ा।
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कलकत्त के सम्पन्न जैन परिवार में आपका ७० वर्ष पूर्व जन्म हुमा धौर शिक्षा प्राप्ति के पदचात् प्रापका जीवन कारवां यात्रा की ओर बढने लगा। अपने व्यापारिक कार्यों के पश्चात् जो भी समय आपको मिलता उसे पाप समाज एवं देश सेवा में व्यतीत करने लगे शर्मः शनैः भाप सेवा के क्षेत्र में अधिक तत्परता से बढ़ने लगे और बुध समय पदचात् श्राप पूरे समाज सेवो ही बन गये । आपका सारा जीवन ही देश एवं समाज सेवा में समाप्त हो गया । बाबू जी कितनी ही संस्थानों के प्रध्यक्ष, मंत्री एवं ट्रस्टी थे आप कलकता जैन मन्दिर के ट्रस्टी, कार्मिक महोत्सव कमेटी एवं [अ०] भा० तीर्थ क्षेत्र कमेटी के सक्रिय सदस्य जीवन के अन्त तक रहे। इससे पूर्व से बंगाल बिहार उडीसा तीर्थ क्षेत्र कमेटी के मंत्री भी रहे समाज के सभी सुधार आन्दोलनो एवं सम्मेलनों मे श्रापका प्रमुख हाथ रहता था। समाज में बहुत से विकास कार्य आपके निर्देशन में चलते थे।
साहित्य एवं पुरातत्व के धाप विशेष प्रेमी थे। देश की प्रमुख साहित्यिक संस्था वीर सेवा मन्दिर देहली के भाप वर्षों से अध्यक्ष थे। धनेकान्त पत्र के संचालन में प्रापका प्रमुख हाथ था और वे उसके काफी समय तक सम्पादक भी रहे। रायल एशियाटिक सोसाइटी के श्राप सन् १६२१ से सम्मानित सदस्य थे । खण्डगिरी उदयगिरी के पुरातत्व महत्व को प्रकाश में लाने में आपका
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बाबू जी ( बाऍ सबसे पहले खड़े हुए ) बंगलोर में मोलोजिकल प्रमरों की मीटिंग के पश्चात् लिये गये ग्रुप फोटो में (२७-६-५६ )
बाबू जी महाबलिपुरम् में श्री टी. एन. रामचन्द्रन और ग्राफिसर इन चार्ज टूरिस्ट मेन्टर मद्रास (महिला) के माथ ( ३-३-५६)
बाबू जी ( दाएँ) का महाबालिपुरम में श्री टी. एन. रामचन्द्रन (बाएँ) तथा ग्राफीसर इन चार्ज टूरिस्टर मेन्टर, मद्रास ( मोचमें) के साथ एक और चित्र ( ३-३-५६ )
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बाबूजी
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प्राप वर्षो तक मंत्री एवं प्रध्यक्ष भी रहे । श्रापकी व्यावसायिक योग्यता देखकर बंगाल चंम्बर श्राफ कामर्स एण्ड इन्ड्रस्ट्रीज तथा इण्डियन चैम्बर ग्राफ कामर्स एण्ड इन्डस्ट्रीज ने अपनी श्रोर से प्रापको पंच (Arbitrator) नियुक्त किया ।
विशेष हाथ था । पुरातत्व की खोज में आपने दक्षिण भारत के अतिरिक्त बिहार, उडीसा, बंगाल, राजस्थान प्रादि प्रदेशों में भ्रमण किया था और वहां से महत्वपूर्ण सामग्री खोज निकाली थी । प्राप की सर्व प्रथम पुस्तक 'कलकत्ता जैन मूर्ति यंत्र संग्रह ' सन् १९२३ में प्रकाशित हुई। फिर जैन fafa लियोग्राफी का प्रथम भाग सन् १९४५ में प्रकाशित हुआ और दूसरा भाग भी शीघ्र प्रकाशित होने की स्थिति में था कि प्रापका स्वर्गवास हो गया । पुरातत्व एवं शिला लेखों के सम्बन्ध में प्रापने एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक का संग्रह किया है जिसका प्रकाशन आवश्यक है । देश विदेश के विद्वानों को जैन साहित्य पर शोध कार्य में प्राप बराबर सहयोग देते रहते थे। डा० विन्टर निट्ज डा० ग्वासिनव, श्री प्रार० डी० बनर्जी, रायबहादुर श्रार० पी० चन्द्रा, श्री एन० जी० मजूमदार, श्री के० एन० दीक्षित, श्रमूल्य चंद्र विद्याभूषण, डा० विभूतिभूषरगदत्त, डा० ए० प्रा० भट्टाचार्य, डा० एस० प्रा० बनर्जी आदि सैकड़ों विद्वानों ने श्रापमे जैन साहित्य एवं पुरातत्व में पूरा सहयोग लिया था ।
बाबू जी सदैव सफल व्यापारी रहे । एक लम्बे समय तक आप कलकत्ता की प्रसिद्ध गती ट्रेड एसोसियेशन के प्रमुख सदस्य रहे । इस संस्था के
इन सबके अतिरिक्त प्राप दानी, परोपकारी, एवं कर्मठ कार्यकर्ता थे । आपने विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को सब मिला कर लाखों रुपये का दान दिया होगा । ग्रापको समाज के नवयुवकों का बड़ा खयाल था । उन्हें मार्ग दर्शन देने तथा व्यवसाय धन्धे में लगाने में पाप सतत् प्रयत्नशील रहते थे । कलकत के बंगाली एवं जैनेतर समाज में भी प्राप विशेष प्रिय थे तथा वहां के प्रतिष्ठित साहित्य सेवियों एवं समाज सेवियों से प्रापका विशेष
सम्बन्ध था ।
प्रापका स्वास्थ्य आपका साथ नहीं देता था और बीमारी चाहे जब श्रापको परेशान करती रहती थी । अस्वस्थ रहने पर भी उत्साह एवं लगन के साथ ग्राप समाज एवं देश की सेवा में व्यस्त रहते थे। ऐसे देश से वी समाज सेवी, साहित्य सेवी, साधक एवं संस्कृति के अनन्य सेवक का स्मरण देश और समाज के लोगों को निश्चय ही प्रेरणा और स्फूर्ति प्रदान करता है । उनके चरणों में श्रद्धा के ये कुछ पुष्प अर्पित हैं ।
इस पृथ्वी के नीचे बहुत से ऐसे लोग गाड़े गये हैं जिनके अस्तित्व का कोई भी चिन्ह इस दुनियाँ में अब शेष नहीं है। नौशेरवां की वृद्ध लाश को जमीन ने ऐसा खाया कि उसकी एक हड्डी भी अब बाकी नहीं रही मगर उसका नाम आज भी जीवित है । यद्यपि और भी बहुत से मनुष्य इस पृथ्वी पर आये और मर गये। स्वयं नौशेरवा भी नहीं रहा । श्रतः ऐ मनुष्य, यह आवाज आने से पूर्व कि अमुक व्यक्ति मर गया नेकी कर और अपनी उम्र को गनीमत समझ ।
- शेख सादी
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एक सहज प्रेरक व्यक्तित्व
डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री
बार छोटेलालजी का व्यक्तित्व उस सरल, स्निग्ध एवं स्वच्छ चांदनी की भांति था जिसने अपने शीतल कर निकरों से सहज ही भारतीय जन-मानस को प्राप्यायित किया है। जिस में मानस सी पवित्रता, ज्ञान- रश्मियों सी प्रखरता और हिम-सीकरों सी तरलता एवं-दीप्ति थी और जो अपने लिए कुछ नहीं पर दूसरों के लिए सब कुछ थे। जिस ने अनेक बाधाओं को झेल कर अपना निर्माण किया और जो देश तथा समाज की सेवा में विकीर्ण हो गया। जो समाज एवं संस्कृति का सजीव विग्रह था। जिस में श्रात्मनिष्ठा, तत्परता एवं लगन थी । ऐसे सत्य शोधक तथा प्रन्वेषक के रूप में त्यागमूर्ति बाबू छोटेलालजी का जीवन चित्र मेरे अन्तर्मन में उभर कर याता है।
सन् १६६१ की बात है। मई का महीना था । मैं शोध कार्य के सिलसिले में दिल्ली गया था । तभी बाबूजी से मेरा प्रथम परिचय वीर सेवा मन्दिर के विशाल भवन में हुआ । मेरे कार्य श्रीर उत्साह को देख कर बाबूजी को बड़ी प्रसन्नता हुई । और उससे मेरा मन भी आल्हादित हुआ कि समाज में अभी ऐसे सत्सेवी तथा पारखी विद्यमान हैं जो साहित्य एवं संस्कृति विषयक शोध कार्य की सराहना कर उसका वास्तविक मूल्यांकन करने वाले हैं। धीरेधीरे मुझे यह भी पता चला कि बाबूजी भारतीय साहित्य, संस्कृति एवं पुरातत्त्व आदि विषयों में केवल रुचि ही नहीं रखते वरन् स्वयं गम्भीर जयन करते और अन्य विद्वानों को उसके लिए प्रेरित करते थे। यही नहीं, सभी प्रकार के आधुनिक साधन एवं तत्संबंधी सामग्री जुटाने और अन्य सहायता पहुंचाने में भी सक्रिय भाग लेते है । उनको
इस मूक लगन तथा सेवा से प्रभावित होना स्वाभाविक ही था। मैं क्या, मेरे जैसे अन्य नवयुवक भाज देश, समाज तथा संस्कृति की सुरक्षा एवं उद्धार के लिए कई प्रकार की संविधानों में कार्य करना चाहते हैं पर उचित निर्देशन, पर्याप्त सामग्री का प्रभाव तथा किसी प्रकार का साहाय्य एवं प्रोत्साहन न मिलने के कारण उनका उत्साह बिखर जाता है । मुझे भलीभांति स्मरण है कि उन दिनों अस्वस्थ होने पर भी बाबूजी अध्ययन और मनन में अपना अधिक समय लगाते थे और केन्द्रीय पुस्तकालय का भरपूर उपयोग करते थे। मुझे भी उन से प्रेरणा प्राप्त हुई और ज्ञान-संवर्द्धन तथा विकास में
बहुत कुछ योग मिला। में कई दिनों तक उन के साथ रहा । मैने देखा कि वे भीतर और बाहर से समान है तथा विविध प्राधिव्याधियों से संत्रस्त रहने पर भी वे दूसरों की भलाई और सहायता के लिए तत्पर रहते हैं तथा विद्वानों की सहायता के लिए तो सभी प्रकार से प्रस्तुत रहते है । प्रतएव मेरे लौटने के प्राग्रह करने पर भी वे कुछ दिनों तक मुझे रोके रहे और अपने ज्ञान तथा अनुभवों का लाभ प्रदान करते रहे। उन्होंने मुझे एक यह सुझाव भी दिया कि मैं हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी में भी लिखना प्रारंभ कर दूं, क्योंकि बंगाल तथा दक्षिण एवं अन्य देशों के विद्वान् जैन साहित्य के सम्बन्ध में नई जानकारी पाने के उत्कट अभिलाषी हैं पर हिन्दी न जानने से वे लोग इससे वञ्चित रहते हैं । बाबूजी का यह परमोपयोगी सुझाव भाज भी मेरे हृदय पटल पर अंकित है और उसके लिए यह जन कृतज्ञ है ।
यथार्थ में बापूजी का व्यक्तित्व बहुमुखी था । श्रापने सरल तथा निश्छल भाव से समाज की जो
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एक सहज प्रेरक व्यक्तित्व
३६ अनन्य सेवा की उससे लगभग अर्ध शताब्दी का प्रेरक व्यक्तित्व । उसके उत्साह प्रदान एवं सत्प्रेरणा दीर्घ काल परिव्याप्त है । माप का त्याग एवं से प्राज समाज में अनुसन्धित्सुत्रों को संख्या उत्सर्ग अनुकरणीय तथा अभिनन्दनीय है । बहुत कम वृद्धिगत होती जा रही है । वास्तविकता तो यह लोगों को यह पता है कि श्रवणबेलगोला में संस्थित है कि जैनेतर विद्वानों में जैन-साहित्य के अनुशीलन गोमटेश्वर बाहुबलि की विशाल प्रतिमा के जीर्णो• एवं अनुसन्धान की जो रुचि जागृत हुई उसका द्वार तथा दक्षिण भारत में स्थित जैन भण्डारों की अधिकांश श्रेय बाबूजी को था। वे सत्यनिष्ठ मूक ग्रन्थ-सूची तैयार कराने में बाबू छोटेलालजी का प्राराधक की भांति स्वसंचालित सूत्र से ज्ञान-विज्ञान विशेष योगदान था । साहित्यसेवी तथा पुरातत्त्ववेत्ता को प्राहुतियों का प्रक्षेपण करते रहे और उन्होंने के रूप में भी प्राप के कार्य उल्लेखनीय हैं । स्वयं फल प्राप्ति की कभी कामना तक नहीं की। ऐसे सफल व्यापारी रहते हुए भी प्रापने जो साहित्य- समाजसेवो बिरले ही होते हैं। भारतीय श्रमरण रचना की वह महत्त्वपूर्ण एवं गौरवास्पद है। संस्कृति की सुरक्षा के लिए आप ने समय समय पर समाज, राष्ट्र एवं साहित्य सेवा जैसे महत्त्वपूर्ण अपनी सूझ-बूझ से समाज की अमित सेवा की । कार्यों में पाप बराबर सहयोग देते रहे । इन सब इतना ही नहीं, विदेशों को जैन-साहित्य सम्बन्धी रूपों में बाबूजी का अपना व्यक्तित्व था-किसी में अमूल्य सूचनाएं एवं-साहित्य प्रेषित कर प्राप ने कम और किसी में अधिक । किसी में कोमल तो उन शोध-वेत्ताओं को भी प्रेरित कर अपने सहज किसी में कठोर । परन्तु इन सब से ऊपर उनका प्रेरक व्यक्तित्व को चरितार्थ किया । जिस ने अपनी सहज प्रेरक व्यक्तित्व ही मेरे अन्तर्मन पर अपनी सुरक्षा एवं प्रगति के चरणों को कई दिशामों में छाप छोड़ सका है और जो अमिट है।
गतिमान किया। ऐसे उदार व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति ___ जो भी स्नातक या विद्वान् बाबूजी के सम्पर्क को श्रद्धाञ्जलि अपंग करना प्रत्येक व्यक्ति का में पहुँचता वह उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं कर्तव्य है । रहता । इसका एक मात्र कारण था उनका सहज
मैं दूसरों के दृष्टिकोण को भी उतना ही महत्व देता हूँ जितना कि अपने दृष्टिकोण को।
-सर हेनरी फोर्ड
हम इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करें कि हमारी मृत्यु के पश्चात् हमें दफनानेवाला भी दो बूंद आंसू बहा दे।
-पेट्रार्क
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पुरातत्त्व वेत्ता श्री बाबू जी
पं० नन्हेलाल शास्त्री, राजाखेड़ा सार में भाग्यशाली पुरुषों को ही प्राकर्षक प्रापको विद्वानों और धर्मात्मा पुरुषों से बहुत ही
व्यक्तित्व प्राप्त होता है । हजारों व्यक्तियों में स्नेह था । उनकी मुख-मुविवानों का ध्यान रखना, अपनी प्रोजस्वी वाणी, प्रतिभा मोर प्रामाणिकता उनके सत्संग में अपना समय व्यतीत करना एवं के कारण जिस नररत्न का व्यक्तित्त्व चमकता हुमा उनके मान सम्मान का ध्यान रखना पाप का नजर आता है वह मनुष्य विशिष्ट, पुण्यशाली और स्वाभाविक कार्य था। भाग्यवान ही नहीं बल्कि सबका प्रादर्श होता है। जैन संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये
श्रीमान बाबू छोटेलालजी अग्रवाल कलकत्ता प्रापने पुरातत्त्व विषयों की खोज की और उसमें से कौन परिचित नहीं है। प्रापका घराना कलकत्ता अपना अमूल्य समय लगाया । शारीरिक दशा कमजोर समाज में ही नही प्राय : सभी जैन समाज में होने पर भी प्रापने अपने गन्तव्य मार्ग को नहीं छोड़ा प्रसिद्ध है । इस परिवार ने लाखों का दान धर्मायतनों और अनेक विषयों में अच्छी सफलता प्राप्त की। एवं धर्म संस्थानों को समय समय पर दिया है।
समय समय पर प्रापके इस विषय के लेख समाचार बाबू छोटेलाल जी ने भी अपने हाथों से कई संस्थानों पत्रों में निकलते रहते थे। वे इस कार्य के लिये सदा को भरपूर दान देकर खूब ख्याति प्राप्त की थी। प्रयत्न शील रहते थे और अन्न तक रहे। प्रापकी पाप जैन समाज के प्रमुख स्तम्भ थे। मूक सेवा, इस
इस लगन की जितनी प्रशमा की जाय थोड़ी है। निर्भीकता एवं अदम्य उत्साह आपके व्यक्तित्व की अनेक दीन-दखियों, निराश्रित प्राणियों एवं प्रधान विशेषतायें थीं। प्रापका व्यक्तित्व लोगों के बहिनों को प्राथिक महायता देकर अपने पैसे का मस्तिष्क को कम परन्तु हृदय को अधिक प्रभावित
सदुपयोग करना विरले जनों में ही होता है। बाबूजी करता था।
की ऐसे कार्यों में भी दिलचस्पी थो । आपका हृदय धर्म या समाज के विषय में कठिन से कठिन बड़ा कोमल और दयालु था । यही कारण था कि उलझने उपस्थित होने पर उन्हें बड़ी कुशलता के अर्थविहीन दुखियों को दुख से विमुक्त करना पापका साथ निबटा देने में मापकी प्रखर बुद्धि जो कार्य करती थी वह देखते ही बनती थी । किसी विचारे जैन समाज और धर्म की सेवा करने में आपने हृये विषय में बाधायें आपको निराश नहीं कर जीवन अपंग कर दिया था। बाबूजी बड़े धैर्यवान सकती थी । जिस कार्य को करना सोच लेते थे उसे पुरुष थे। जैन धर्म के उत्थान के लिये एवं पुरातत्त्व करके छोड़ते थे।
कार्यों की खोज और उन्हें प्रचार में लाने के लिये जिज्ञासा प्रवृत्ति भी प्राप में कूट-कूट कर भरी हुई प्रापके प्रयत्न भुलाये नहीं जा सकते। थी । ग्राम्यो देखो बात है । अनेक बार पयूषण पर्व मापके इन गुणों एवं उनकी सामाजिक, ऐतिमें मे कलकत्ता गया । उस समय जहाँ भी मेरा या हासिक एवं साहित्यिक सेवाप्रो के लिये समाज अन्य प्रागन्तुक विद्वानों का शास्त्र प्रवचन होता उनकी जितनी कृतज्ञता ज्ञापन करे थोड़ी है।. उसमे भाग लेना प्रापका सदा का कार्य रहता।
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आदर्श व्यक्तित्व के प्रतीक
विमल कुमार जैन सोरया, मड़ावरा (झाँसी)
व्यक्ति क्ति के व्यक्तित्व पूर्ण कार्य ही उसके सम्मान के कारण होते हैं । श्रीमान बाबू छोटेलालजी कलकत्ता अभिनन्दन से भी अधिक श्रादर और सम्मान के पात्र थे ।
यद्यपि बाबूजी को मे निकट से नहीं के बराबर जानता था, लेकिन उनका प्रदर्शपूर्ण व्यक्तित्व, सच्ची कर्म निष्ठा, और व्यापक अध्यवसाय मुझे उनके प्रत्यंत समीप ला देता था ।
बाबूजी ने जैन पुरातत्व को प्रकाश में लाने का सतत् प्रयत्न किया । एतदर्थं प्रापने देश के विभिन्न प्रान्तों में भ्रमण किया, और खण्डगिरी- उदयगिरि जैसे जैन संस्कृति से परिपूर्ण पुरातत्व स्थानों को प्रकाश में लाए। जैन संस्कृति के उत्थान में आपका जो सफल सहयोग रहा उसके कारण ही उनको पुरातत्त्व विशेषज्ञ के रूप में जानते हैं । अनेकों विद्वानों ने जैन साहित्य एवं पुरातत्त्व की खोज में आपसे इच्छित सहयोग पाकर विशेष सफलताएँ प्राप्त की। प्राचीन जैन संस्कृति के उत्थान में आपका सिद्धहस्त योग रहा।
आपका ध्येय पुराने साहित्य एवं संस्कृति की शोध, असहायों की सहायता, नवीन लेखकों एवं अन्वेषकों को प्रोत्साहन, श्रागन्तुकों को सत्परामर्श देना एवं सत्य का अन्वेषरण करते रहना था ।
"प्रनेकान्त" पत्रिका के संचालन एवं सम्पादन के गुरुतर कार्य को आपने अपनी सच्ची लगन एवं अथक प्रध्यवसाय के द्वारा संचालन कर समाज जागृति में प्रशंसनीय योग दिया । प्रनेक संस्थाओं के गणमान्य पदाधिकारी होने के
साथ
हो आप "वीर सेवा मंदिर" जैसी उच्च कोटि की संस्था के वर्षो तक अध्यक्षीय पद पर रहकर उसको उन्नति के शिखर पर लेजाने वाले एक अनवरत साधक सिद्ध हुए ।
आपकी प्रतिभा चहुमुखी थी । आपके द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में उठाए गए कदम अनुकरणीय है । सन् १९१७ में कलकत्ता में फैले भीषण इन्फ्लुयेन्जा के प्रकोप से पीड़ित व्यक्तियों, तथा १९४३ में बंगाल के भीषण अकाल में आपने तन मन और धन से जो उदारतापूर्ण सहायता एवं सेवा कार्य किया उसके लिए श्राज भी हजारों व्यक्ति आपकी गौरव गाथा गाते हैं ।
नोआखाली के भीषण साम्प्रदायिक दंगे के समय आपने हिन्दुनों की जो सहायता की वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है ।
आपका अपना निजी व्यक्तित्व था । कलकत्ते के एक सफल व्यवसायी होने के साथ ही आपने राजनैतिक क्षेत्र में काफी सम्पर्क रखा । 'रायल एसियाटिक सोसायटी के सम्मानित सदस्य होने के साथ ही 'इन्डियन चेम्बर ग्राफ कामर्स' जैसी व्यापारिक संस्थानों की मनोनीत सदस्यता का पाना प्रापकी विशाल प्रतिभा का द्योतक है ।
अन्वेषण के क्षेत्र में किए गए प्रापके कार्य आपकी कार्यक्षमता, श्रमशीलता और प्रसाधारण सफलता के प्रतीक हैं। ऐसे साधक, पुरातत्व सेवी, एवं समाज हितैषी व्यक्ति की सेवानों के कृतज्ञता स्वरूप जो भी श्रद्धांजलि अर्पित की जाय थोड़ी है ।
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तीन पुश्त का सम्पर्क
सुबोध कुमार जैन, पारा कौन पुश्त का सम्पर्क और वह भी बिल्कुल अपने सुख-दुख में लोग इनका सहयोग सहज में पा लेते
॥ निर्दोष रहे यह कम प्राश्चर्य की बात थे। यह निश्चित रूप से कहा जासकता है कि इनके नहीं है ? लेकिन श्रद्धय बाबू छोटेलाल जी ने जिन्हें व्यक्तित्व से इनके परिवार की शान बढी और सभी हम प्यार से चाचा जी कहते थे यह संभव कर संस्था वाले इनका नाम अपनी संस्था में जोड़ने पर दिखाया। हमारे प्रातः स्मरणीय पू० दादा जी, गौरव का अनुभव करते थे। राजर्षि देव कुमार जी, जिस समय प्रत्यंत बीमारी की हालत में इलाज के लिये कलकत्ते पहचे. उस जन वाङ्मय और पुरातत्त्व के शोध और समय छोटेलालजी ने सपरिवार उनकी जो सेवाएं की प्रकाशन की मापकी जो लगन थी वह मनुकरणीय उसे आज भी हमारे परिवार वाले याद करते हैं। है। भगवान महावीर के उपदेशों के प्रचार की ऐसी हमारे पूज्य पिता जी, बा. निर्मलकुमार जी से लगन उन्हें थी कि हम युवकों को भी अपनी भी इनकी मंत्री अत्यन्त घनिष्ठ और अनुकरणीय अकर्मण्यता पर झेप प्राती है । वीर शासन रही। मुझे भी उनका अत्यधिक प्रेम और पाशीर्वाद
जयन्ती का जो अविस्मरणीय उत्सव कलकत्त में प्राप्त था।
हमा था, उसके पीछे एक मात्र इन्हीं की शक्ति और
उत्साह कार्य करता था। मैंने अपनी प्रांखों उन्हें श्री जैन वाला विधाम आरा में उन्होंने स्वयं
दिन-रात एक करते हुए देखा है। एवं उनकी प्रेरणा से उनके परिवार वालों ने प्रचुर मात्रा में धन लगाकर स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में प्रद्भुत ऐसे गुणी, प्रेमी, धर्म वत्सल सज्जन का योग दान दिया । अन्त तक वे बाला विश्राम की गुणस्मरण जितना भी हो थोड़ा है । ऐसे व्यक्ति तो प्रबन्ध कारिणी समिति के अध्यक्ष थे और प्रति समाज के लिये, देश के लिये और देश के नवयुवकों समय वे इस संस्था की उन्नति के लिये प्रयत्नशील के लिये जीते जागते उदाहरण होते हैं। रहते थे।
एक संस्मरण और उल्लेखनीय है । दिल्ली में पारा की दूसरी संस्था जिससे उनका अनुराग कुछ वर्ष हुये एक ऐसा प्रायोजन किया गया था, था और जो उनकी साहित्यिक रुचि का दिग्दर्शन जिसमें दिसम्बर जैनों की प्रमुख संस्थानों में एकता कराती है-"श्री जैन सिद्धान्त भवन पारा" है। के लिये बड़ा भारी प्रयास हया था । छोटेलालजी कुछ समय पूर्व जब कि इस संस्था की हीरक जयंती का रोल इस प्रायोजन में मैंने बहन निकट से देखा बिहार के राज्य पाल की अध्यक्षता में मनाई गई था। क्या यह कम पोश्चर्य की बात है कि वो थी, आप अस्वस्थ होते हुये भी उसमें शामिल हुये एकत्र सैकड़ों व्यक्तियों में इनके जैसा ऐमा व्यक्ति भी थे और सभी समारोहों में प्रापने सोत्साह भाग हो जिमे दोनों ही न.पों का विश्वाम प्राप्त हो। लिया था। इस महोत्सव को सफलता बिषयक न जाने कैसे इस दुबले-पतले, कमजोर, बीमार
आप के उद्गार अभी तक मेरे कानो में गूंजते भौर व्यक्ति में इतनी कर्मठता विद्यमान थी। उत्साह प्रदान करते हैं।
हमारी कामना है कि पूज्य चाचा जी का अपने परिवार और अपनी मित्र मंडली में जीवन हम लोगों को प्रकाश स्तम्भ की भांति उन्हें सदा मादर की दृष्टि से देखा जाता था। सत्कार्यों के लिये प्रेरित करता रहे। .
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श्रद्धय बाबू जी
सुरेन्द्र गोयल, धारा
दिनांक
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२८-१२-६३ का सुहावना प्रभात । मन्द मन्द सुरभित वायु जन-जीवन में प्राण का संचार कर रही थी। उस दिन में प्रातःकाल से ही बहुत प्रसन्न था क्योंकि जैन सिद्धान्त भवन धारा के पाश्ववर्ती शान्तिनाथ मंदिर के विशाल प्राङ्गण में भवन की हीरक जयन्ती महोत्सव का प्रायोजन किया गया था 1 हीरक जयन्ती के सम्माननीय अतिथि थे बिहार के राज्यपाल श्री अनन्तशयनम आयंगार और स्वागताध्यक्ष के पद को सुशोभित कर रहे थे कलकत्ते के सुप्रसिद्ध रईस एवं पुरातत्वविद स्वनामधन्य श्रीमान बाबू छोटे लाल जी । मैंने उनका नाम तो पहले भी सुना था किन्तु दर्शन का अवसर प्राज ही प्राप्त हो रहा था। यह मेरे लिए एक महान सौभाग्य की बात थी । प्रथम झांकी में ही में बाबू जी की ओर आकृष्ट हो गया । उनकी कृश काया सफेद धोती और कुरते में खूब फब रही थी। सिर पर रखी गोल टोपी उनकी रईसी की परिचायिका थी । अभी तक मुझे सिर्फ यही अवगत था कि भाप एक धनी मानी रईस हैं, किन्तु आपकी प्रतिभा की झलक मैने उक्त महोत्सव में ही देखो और मुझे लगा कि लक्ष्मी और सरस्वती का प्रद्द्भुत समन्वय यदि कहीं है तो बाबू छोटे लाल जो में । प्राचीन काल से ही यह लोकोक्ति चली श्रा रही है कि लक्ष्मी और सरस्वती दोनों एक साथ निवास नहीं करती, उनका समन्वय संभव नहीं । किन्तु बाबू छोटेलाल जी इसके अपवाद थे। जब वह व्यक्ति मंचपर अपने प्रासन से बोलने के लिए उठा तो मानों सरस्वती जिह्वा पर ही भाकर बैठ गयी । भाप लगातार अपना विद्वत्ता पूर्ण प्रोजस्वी भाषण देते रहे। सभी की
इस सरस्वती के पुजारी पर टिकी रहीं । मैं
तो मानों मुग्ध ही था । सबसे विशिष्ट बात यह थी कि बाबू जी उन दिनों अस्वस्थ थे । दमा ने उन्हें बुरी तरह पीडित कर रखा था और उनका पाँच मिनट बोलना भी कठिन था । किन्तु जब वे सभामंच से तारस्वर में अपना भाषण करते रहे तब कुछ निकट के लोगों के विस्मय का ठिकाना न रहा । कहा जाता है कि साहित्यचर्चा के समय वे व्याधि मुक्त हो जाते थे। ऐसी लगन थी उनमें साहित्य सेवा श्रर चर्चा के प्रति ।
उसी अवसर पर एक दिन और मुझे प्रधिक निकट से उनके दर्शनों का सुप्रवसर प्राप्त हुआ । श्राप श्री जैन बाला विश्राम के विश्रान्ति भवन में ठहरे थे। मैं पूज्य गुरु देव डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के कार्य हेतु उनके पास गया था। मुझे स्वयं भी उनसे मिलने की तीव्र उत्कण्ठा थी । उसी समय उनसे वार्तालाप का सोभाग्य भी मुझे मिला । वार्तालाप के क्रम में मुझे ऐसा श्रवगत हुआ कि आप मानवता के प्रबल समर्थकों में से एक हैं । श्राप जैसे महानुभावों के बल पर हो आज जैन धर्म साहित्य एवं संस्कृति को सर्वत्र गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हो रहा है । प्राप अपनी रुग्ण शैय्या पर पड़े-पड़े भी जैन साहित्य एवं पुरातत्त्व के प्रभ्युत्थान के बारे में सोचते रहते थे । जैन धर्म, माचार, संस्कृति एवं पुरातत्त्व संबंधी अधिकांश चर्चा प्राकृत भाषा में है । में प्राकृत भाषा का विद्यार्थी था अतः उनकी बातें मुझे बड़ी ही रुचिकर लग रहीं थीं ।
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बानू जी में केवल साहित्य प्र ेम ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति की प्रमुख प्रतीक सचाई, सहानुभूति एवं सहृदयता प्रादि भी कूट-कूट कर भरी
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
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हुई थी । दीन व्यक्तियों का दुःख देखकर वे शीघ्र ही द्रवित हो जाते थे और वे उनकी सहायता हेतु सदा तैयार रहते थे । "जो रहीम दीनहि लखे attery सम होय" बाबू जी " दीनबन्धु सम" थे । 'दीनबन्धु सम' होने के कारण ही उन्होंने हमारे प्रज के जरा से अनुरोध पर उनकी पूर्ण रूप से सफल सहायता की थी। जिसके लिए वे हमेशा उनके कृतज्ञ रहेंगे । ऐसे ही न जाने कितने बंधुघों की सहायता उन्होंने की होगी। किन्तु इस सम्बन्ध में विशिष्ट बात यह है कि सभा अथवा अन्य किसी व्यक्ति से वे अपनी सहायता की बात नहीं कहते थे । उनकी सहायता मूक होती थी जो उनके चरित्र का सबसे बड़ा गुण था । बाबू जी के माध्यम से जैन साहित्य की अनेक अप्रकाशित रचनाएं
प्रकाश में आई हैं। वे हमेशा ही लेखकों भौर शोध कर्त्ता को प्रोत्साहित करते रहते थे । उनके व्यक्तित्व से कालिदास के ये श्लोक स्मरण हो भाते
हैं
:--
ज्ञाने मौनं क्षमा शक्ती त्यागे श्लाषा विपर्ययः । गुणा गुरणानुबन्धित्वात् तस्य सप्रसवा इव ॥ अनाकृष्टस्य विषये विधांना पारहश्वन : । तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरमा विना ॥
खेद है कि ऐसा महान् व्यक्ति, साहित्य प्रेमी, समाज सेवी, पुरातत्वविद् एवं सरस्वती का अनन्यतम पुजारी प्राज हमारे बीच नहीं रहा। उनके छोड़े हुए कार्यों को आगे बढ़ाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धाञ्जलि है ।
बात सोच कर मुँह से निकाल और लोगों के 'बस खत्म कर' कहने से पहले ही बोलना बंद कर दे । वाक् शक्ति के कारण ही मनुष्य पशु श्रेष्ठ है, यदि तुम अच्छी बात नहीं करते तो तुमसे तो पशु ही भले । + + + बिल्ली चूहे के पकड़ने में तो शेर है लेकिन चीते के सामने स्वयं चूहा बन जाती है ।
- महात्मा शेख सादी
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श्री बाबू छोटेलालजी-राक मूक सेवक
____ भंवरलाल न्यायतीर्थ, जयपुर
गह किसको पता था कि जिस महान व्यक्ति के ही भामेर जाने का उन्होंने निश्चय किया। डा.
लिए अभिनन्दन की तैयारियां की जा रही सत्यप्रकाराजी-डाईरेक्टर पुरातत्त्व विभाग राजहै-वह इन श्रद्धा सुमनों को ग्रहण करने से पूर्व स्थान से उसी दिन संपर्क स्थापित किया और उन्हें ही हमारी प्राशानों पर पानी फेर सदा के लिए साथ ले में एवं बावूजी पामेर गये । करीब ५०० हम से विदा ले लेगा । जब छोटेलालजी ने सुना वर्ष कछवाहों का राज्य वहाँ रहा है । इस राज्य कि उनके अभिनन्दन की कोई योजना चल रही है वंश के साथ जैनों का विशेष सम्पर्क रहने से यहाँ तो उन्होंने इससे अपनी प्रसहमति प्रकट की और जैनों का भी अच्छा प्रभाव रहा है। आमेर में कहा कि मुझ जैसे छोटे से प्रादमी के लिए ऐसा मट्टारकों की गद्दी थी । भट्टारको में बहुत से विद्वान प्रायोजन उचित नहीं है । वे मूक सेवक थे-प्रतः थे जिनने महत्वपूर्ण साहित्य संग्रह एवं रचनाएँ की उन्हें यह अभिनन्दन नहीं जवा और हुआ भी यही। थी। वहाँ का शास्त्र भंडार विशाल था। आमेर में वे चले गये बिना अभिनन्दन स्वीकार किये ही। कई विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ था । वहाँ के अब तो यह अभिनन्दन ग्रंथ स्मृति मंच के स्वरूप खण्डहरों में प्रतीत का वैभव छिपा पड़ा है। में ही परिवर्तित हो गया है। सचमुच बाबूजी महान थे-उनकी सेवाएं, उनके विचार और उनके
हम लोगों ने करीब दो तीन घन्टे तक घूमकर
कई स्थानों के चित्र लिए मगर हमारी ओर से प्रादर्श महान थे । वे कर्मठ और मिशनरी स्प्रिट
यह प्राग्रह होते हुए भी कि ग्राप की तबियत ठीक से कार्य करने वाले एक लगन शील व्यक्ति थे ।
नहीं है, पाप एक जगह बैठिए हम चित्र ले पाते अपने कार्य कलापों से वे अपनी स्मृति को स्थायी
हैं बाबूजी हमारे साथ ही रहे । ऐसा लगता था बना गये हैं । उनके संस्मरण वास्तव में प्रेरणा
जैसे उनमें बहुत जोश आ गया हैं । वे जरा भी
थकान महसूस नहीं कर रहे थे। यह था उनका श्री बाबू छोटेलालजी से मेरी भेंट सर्व प्रथम उत्साह, लगन और कार्य के प्रति निष्ठा । बीमारी करीब १५-१६ वर्ष पूर्व हुई जब पाप जयपुर पधारे का हर व्यक्ति ध्यान रखता है और धनाढ्य के ये मोर स्वास्थ्य लाभ के लिए यहाँ ठहरे थे। वैसे यदि साधारण सर्दी जुकाम भी हो जाता है तो नाम पहले से सुना था-पर साक्षात्कार दिगम्बर डाक्टरों का तांता लग जाता है, वह पलंग से भी जैन संस्कृत कालेज में पूज्य गुरुवयं पं० चैनसुख नहीं उठता। पर बाबूजी इसके अपवाद थे । अपने दासजी के समक्ष हुमा था। चर्चा चल रही थी कि शरीर और स्वास्थ्य को पर्वाह न करते हुए पुरातत्त्व जयपुर के विभिन्न स्थानों पर बिखरी पुरातत्व सम्बन्धी शुष्क काय में इतनी लगन रखना सचमुच सम्बन्धी सामग्री का संकलन किया जाय । उनके प्रशंसनीय है। बात यह है कि इसके महत्व को विचारों से यही प्रेरणा मिल रही थी कि जो काम वे खूब समझते थे । जयपुर में ही नहीं, इसी कार्य करना है-धीन किया जाय, उसमें विलम्ब नहों के लिये वे सारे भारत में धूमे मोर काफी सामग्री होना चाहिए । अस्वस्थ होते हुए भी दूसरे दिन का संकलन किया जो प्राज उनकी थाती है।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ . वीरवाणी में जयपुर के जैन दीवानों के दे और जो कुछ करना है वह यों ही रह जाय ? प्रतः सम्बन्ध में मैंने एक लेख माला चलाई थी। उन जितना जल्दी हो सके काम करना चाहिए । हल्की लेखों को पढ़ने की उनकी बड़ी विज्ञासा रहती थी। सी हंसी हंसते हुए पुनः कहा कि यह बीमारी एक दो मक में तत्सम्बन्धी लेख यदि नहीं रहते मेरी सहचरी है, मुझे अकेला नहीं छोडेगी-साथ तो फौरन बाबूजी का लम्बा चौडा पर प्रेरणास्पद लेकर ही जावेगी। सचमुच इस प्रकार का कर्मठ पत्र मा जाता कि लेख माला का क्रम क्यों टूट व्यक्ति होना बडा मुश्किल है । 'छोटे' शरीर 'छोटे' रहा है, क्यों नहीं जल्दी जल्दी सामग्री का संकलन नाम और कार्य उनके महान थे। किया जाकर प्रकाश में लाया जाता । उनके पत्रों
___उनका साहित्यिकों के प्रति भी उतना ही प्रेम ने सचमुच कई बार मुझे प्रेरणा और स्फूति था जितना अपने मात्मीयजनों के प्रति। ये साहित्य प्रदान की है।
और साहित्यिकों की सेवार्थ सदा तत्पर रहते थे । ___एक बार जब मैं किसी कार्यवश कलकत्ता गया किसी को पता तक नहीं कि साहित्य एवं अन्य उपयोगी तो मापसे भी मिला उस वक्त वे अस्वस्थ थे। कुशल मावश्यक कार्यों के लिए वे कितना मूकदान करते थे। मगल व स्वास्थ्य सम्बन्धी बातचीत मुश्किल से एक उनका सदा यही कहना था कि मेरा नाम प्रकाश में मिनट हुई होगी पर वह एक घन्टे का समय उनके लाने की प्रावश्यकता नहीं, काम होना चाहिये । प्रिय विषय पुरातत्त्व सम्बन्धी चर्चा में गया। रुम्ण अपने जयपूर प्रवास काल में स्थानीय कई संस्थानों शैय्या पर होते हुए भी वे स्वयं उठे, जो अलबम को मार्थिक सहायतायें उन्होंने दी थी । बंगाल के दक्षिण के चित्रों का उन्होंने तैयार कराया था दिखाने प्रख्यात कार्यकर्ता श्री सी० मार० दास के प्राप लगे और कहने लगे कि अमुक २ स्थानों पर जाकर सहयोगी रहे हैं। इस प्रकार लगभग प्राधी शताब्दी चित्र मावि लेना बाकी है जल्दी ही जाने का विचार तक जनता जनार्दन एवं साहित्य-पुरातत्त्व की जो कर रहा हूँ । मैंने कहा-बाबू साहब ! पहले सेवा मापने की है-वह हमारे लिए आदर्श है और स्वास्थ्य लाभ कीजिए, फिर जाने की सोचना। प्रेरणा देती है कि हम भी उनके पदचिन्हों पर चलें। उनने तत्काल उत्तर दिया कि यह रुग्ण शरीर ही यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि है। . मुझे प्रेरणा देता है । न जाने कब यह साथ छोड
जो व्यक्ति अपने कर्तव्य का परिपूर्ण शक्ति से निर्वाह करता है वह किसी भी देशभक्त से कम नहीं चाहे फिर वह धोबी, दर्जी अथवा मंगी ही क्यों न हो।
-श्री प्रकाश जी
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बाबू जी की अमर सेवायें
सत्यधर कुमार सेठी, उज्जैन
दरणीय बाबू छोटेलालजी जैन जैसे तपः पूत सेवक का स्मृति ग्रंथ प्रकाशित करना जैन समाज के लिए गौरव की बात है । वास्तव में बाबू छोटेलालजी इसके योग्य थे । धनिक परिवार में जन्म लेने पर भी उनकी सेवायें विविध क्षेत्रों में रहीं। इसी लिए इस महान् सेवक की गणना देश के प्रमुख समाज, साहित्य और इतिहास सेवियों में की जाती है।
जगत में कई मानव जन्म लेते हैं और यों ही चले जाते हैं लेकिन कई ऐसे भी इस वसुंधरा पर अवतरित होते हैं, जो सेवा त्याग और सदाचार के बल पर इस वसुंधरा को पवित्र कर भ्रमर बन जाते हैं। बाबू छोटेलालजी जैन की गणना भी यदि ऐसे व्यक्तियों में की जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी ।
बाबूजी का जन्म एक धनिक परिवार में हुआ । कलकत जैसे महानगर में उन्होंने अपने जीवन का बहु भाग व्यतीत किया । बाबूजी ने अपने जीवन का निर्माण इतना सुन्दर ढंग से किया था कि देखकर प्राश्चर्य होता था । मुझे उनके संसर्ग में पाने का कई बार सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनका व्यवहार और उनके कार्य हमेशा मार्ग दर्शक के रूप में रहेंगे। उन्होंने वैभव का कभी गर्व नहीं किया श्रौर अपने आपको एक सेवक के रूप में देखा । आपके जीवन की कई घटनायें ऐसी हैं जो भाज भी हम सबको प्रेरणा देती हैं । जैसे सन् १९१७ में कलकता में इन्फ्लुएंजा के प्रकोप के समय को गई उनकी सेवाएं | यह प्रकोप बड़ा भीषण था । इससे पीड़ित व्यक्तियों का कष्ट भाप देख नहीं सके। आपकी कररणा उमड़ पड़ी और वे संतप्त प्राणियों की सेवा
के लिए आगे बढ़े। इसी तरह कलकत्ता में जब सन् १९४३ में भीषण अकाल पड़ा, जिसकी कहानी बड़ी लोमहर्षक रही है तो उसमें भी बाबूजी ने सेवा कार्य में बड़ी तत्परता दिखलाई और उन्होंने घर घर में घूम कर अकाल पीड़ितों की खोज की । और उनकी तन मन धन से सेवा करके ऐसा प्रादर्श उपस्थित किया जो कलकत्ते के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। बंगाल में नोप्राखाली का ऐतिहासिक दंगा हुआ और महात्मा गांधी को भी वहां तत्काल जाना पड़ा। उस समय हमारे माननीय बाबू छोटेलालजी भी पीछे नहीं रहे । ग्राप भीषरण दंगे में वहाँ गये और बड़े साहस के साथ श्रापने वहाँ पर भ्रातृ भाव का प्रचार किया । इसी तरह कलकत के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में भी आपने शेर की तरह निडर रह कर पीड़ितों की सेवायें की । बाबूजी के सार्वजनिक जीवन के ऐसे कई उदाहरण है ।
सार्वजनिक क्षेत्र की तरह आपका सामाजिक और धार्मिक जीवन भी चमत्कृत रहा। प्रारंभ से ही आपके विचार रूढिवाद भौर संकीर्णता से दूर रहे। श्रापने सामाजिक क्रांतियों में साहस के साथ कदम बढ़ाया -- विजातीय विवाह और विलायत यात्रा के प्राप प्रारंभ से ही समर्थक रहे । श्री धर्म चन्दजी सरावगी की विलायत यात्रा के विरोध के प्रसंग में आपने जो साहस दिखाया वह चिर स्मरणीय रहेगा।
सच कहा जाय तो बाबूजी सेवा के प्रतिबिंब मौर सादगी के प्रतीक थे । भापकी सेवाएं श्रमर रहेंगी और हमें सदा प्रेरणा देती रहेंगी ।
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बाबू जी का वीर सेवा मन्दिर को योगदान
प्रेमचन्द जैन, बी० ए० सं० मन्त्री, वीर सेवा मन्दिर
बार छोटेलाल जी जैन को
बाब छोटेलाल जी जैन की गणना जैन समाज के सन १६४४ के अक्टूबर-नवम्बर में जब वीर
उन प्रमुख साहित्य और समाज सेवियों में को शासन का प्रद्धशताब्दी महोत्सव फलकप्ता के कातिजाती है, जिन्होंने निस्वार्थ भाव से राष्ट्र, धर्म और कीय मेले पर मनाने का निश्चय किया। गया तब समाज की सेवा निर्भीकता और उत्साह के साथ आपने उसके लिये रात-दिन एक कर दिया। इतना की । गत पचास वर्षों में बाटूजी ने देश, समाज और अधिक परिश्रम किया कि उत्सव के सम्पन्न होते ही साहित्य की जो सेवा की है वह चिरस्मरणीय रहेगी। आपको भस्वस्थता ने प्रा घेरा, और प्रारोग्य प्राप्त प्राप अग्नवाल कुलावतंश सेठ रामजीवनदास सरावगी करने के लिये कलकत्ता से बाहर कई महीनों का के पंचम पुत्र थे । माप अनेक संकटापन्न दशाओं में समय व्यतीत करना पड़ा । उनके विचारों में हड़ता भी अपने स्वास्थ्य की चिन्ता न कर सेवा के क्षेत्र में और अदम्य उत्साह था जिससे वे सफलता प्राप्त अग्रसर रहे । प्रापको जैन पुरातत्व, स्थापत्य और किये बिना किसी भी कार्य को कभी नहीं छोड़ते थे। चित्रकला प्रादि से अधिक प्रेम था। जैन साहित्य वीर सेवा मन्दिर एक ऐतिहासिक संस्था है के विशेषज्ञ थे। पाप अनेक संस्थात्रों का प्रति- जिसके संस्थापक पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार हैं । निधित्त्व भी करते थे। उनमें वीर सेवा मन्दिर के तो इस संस्था में शोध-खोज का कार्य होता है । जैन प्राप प्राण ही थे। वे उसके अध्यक्ष और ग्रन्थमाला साहित्य और इतिहास के सम्बन्यों में अन्वेषण करने के संरक्षक थे । माप अकाल, रोग तथा प्रापत्काल वाली यह एक प्रमख प्राचीन संस्था है जिसकी में अपने प्रारणों की बाजी लगा कर भी जनता जना
स्थापना सन् १६२७ में हुई थी। यह संस्था रजिदेन को सेवा करते थे । साधर्मी वात्सल्य की प्राप स्टर्ड है। अब तक जैन साहित्य और इतिहास के में कमी नहीं थी। अतिथि सत्कार के लिए आप सम्बन्ध में इसने बहुत-कुछ छान-बीन की है । परिप्रसिद्ध ही थे। पापको जैन साहित्य और इतिहास
रणामस्वरूप बहुत से लुप्त और अप्रकाशित ग्रन्थों से इतना अनुगग था कि वे उसे अपनी बीमारी की
की खोज होकर वे प्रकाश में प्रा चुके हैं । कितने ही अवस्था में भी कम नहीं कर सके-उसका कुछ न
प्राचार्यों के समय निर्णय में भी शोध-खोज हुई है। कुछ काम करते ही रहे । पाप एक मुयोग्य
बाबूजी इस संस्था के मरणपर्यन्त अध्यक्ष रहे और लेखक थे। प्रापके कई महत्वपूर्ण लेख भनेकान्त
उसकी प्रगति के निमित्त अनेक योजनाओं का प्रादिपत्रों में प्रकाशित हुये हैं । प्राप दानादि सत्कार्यों
निर्माण किया तथा सलाह मशविरा देते रहे । में अपने द्रव्य को लगाते रहते थे। पाप एक सफल
जब कभी ४-४, ५-५ महिने ठहर कर संस्था के व्यापारी और अनुसन्धानकर्ता भी थे।
संचालन एवं विकास में योगदान देते रहे । संस्था प्रापकी सेवानों का क्षेत्र केवल जैन समाज की प्रार्थिक स्थिति को सुधारने के लिये बाजी तक ही सीमित नहीं था। वे सेवा को धर्म और सतत् प्रयत्नशील रहते थे और स्वयं तथा अपने इष्ट कर्तव्य मानते थे और उसे निरपेक्ष भाव से करते मित्रों को उचित प्रेरणा देकर बिल्लिग, अनेकान्त थे। वे सेवा कार्य में इतने तन्मय हो जाते कि शरीर मासिक और अन्य प्रकाशन के लिए समुचित प्रार्षिक की अस्वस्थता का ध्यान भी नहीं रख पाते। सहयोग देते दिलाते रहते थे। इसी से मुख्तार साहब
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बाबू जी का बीर सेवा मन्दिर को योगदान
ने सन् १९५३ में अनेकान्त में लिखा था कि- "बाबू छोटेलाल जी से यद्यपि श्रार्थिक सहायता अभी तक माठ हजार से ऊपर ही प्राप्त हुई है परन्तु प्राप संस्था के प्रधान हैं-प्राण हैं, और आपका सबसे बड़ा हाथ इस संस्था के संचालन में रहा है । संस्थापक सदा ही आपके सत्परामर्शो की अपेक्षा रखता भाया है । संस्था को कितनो ही प्रार्थिक सहायता आपके निमित्त से तथा भापकी प्रेरणाओं से प्राप्त हुई है। आप सच्चे सक्रिय सहयोगी हैं और संस्था के विषय में आपके बहुत ही ऊंचे विचार है । हाल में आपने और आपके छोटे भाई नन्द लाल जी ने अपनी स्वर्गीया माताजी की ओर से वीर सेवा मन्दिर को एक जमीन दरियागंज देहली में अन्सारी रोड पर खरीदवा कर दी है। जिस पर बिल्डिंग बनने के लिये समाज का सहयोग खास तौर से वांछनीय है ।"
बाबूजी ने बिल्डिंग के निर्माण में अच्छा सहयोग ही नहीं दिया किन्तु साहू शान्ति प्रसाद जी से उसके लिये अच्छी रकम भी दिलवाई। इतना ही नहीं अपनी शारीरिक अस्वस्थता का ध्यान न करते हुये भी ग्रीष्म ऋतु की चमचमाती धौर कड़कती धूप में बिल्डिंग निर्माणार्थ इन्जीनियरों धादि से उन्होंने परामर्म किया और स्वयं बैठ कर इच्छानुसार निर्माण कार्य कराया। गर्मी की इस भीषण तपन में जबकि प्रायः सभी धनिक वर्ग ठंडे और शीतल स्थानों (मसूरी भादि) में जाते है तब बाबूजी उन खुधों में बिना किसी स्वार्थ के वीर सेवा मन्दिर के भवन निर्माण में दलवित रहे। प्रापको यह महान सेवा सच्चे समाज सेवकों में सत्यय प्रदर्शन का काम करती है । इससे पाठक बाबूजी का वीर सेवा मन्दिर के प्रति होने वाला सहज निस्वार्थ प्रतुराग तथा सेवा का मूल्य ग्राँक सकते हैं। उनका यह महान सेवा कार्य यों ही भुलाया नहीं जा सकता । वह सध्ये सेवकों को प्रेरणादायक है, और रहेगा। वीर सेवा मन्दिर के कार्यों से समाज में जागृति और उत्साह का जो संवर्धन हुआ है, और जो शोध
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खोज को प्रश्रय मिला है उस सबका श्रेय बाबूजी को ही प्राप्त है।
'अनेकान्त' में बाबूजी का सहयोग
वीर सेवा मन्दिर (समन्तभद्राश्रम) का मुखपत्र अनेकान्त है । उसका प्रकाशन सन् २६ में मुख्तार साहब ने करोल बाग दिल्ली से किया था। पत्र ने एक वर्ष के अल्प समय में ही अपनी रूपाति और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। यह एक शोध-पत्र है. जिसमें साहित्यिक ऐतिहासिक दार्शनिक और तुलनात्मक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित होते हैं। एक वर्ष के पश्चात् अनेकान्त का प्रकाशन मकान की किल्लत और प्रार्थिक कठिनाई के कारण बन्द करना पड़ा । मौर समन्तभद्राश्रम को सरसावा ले जाना पड़ा। इसी बीच बाबू छोटेलालजी ने अनेकान्त का प्रकाशन बन्द हुआ जान कर मुख्तार साहब को एक पत्र लिखा था कि "मैं अनेकान्त के घाटे की कुल रकम ३६००) रुपया अपने पास से दे दूंगा, आप अनेकान्त का प्रकाशन स्थगित न करें, और अपने ऐतिहासिक कार्य में संलग्न रहें। मुझसे जितना भी बन सकेगा आपकी सेवा के लिए प्रस्तुत रहूंगा।" परन्तु मुस्तार साहब उस समय सरसावा में सेवा मन्दिर की बिल्डिंग का निर्माण करा रहे थे धतः उत्तर में लिखा
कि में आपके इस सौजन्य के लिए आभारी हूं। अभी बिल्डिग के निर्माण कार्य में व्यस्त है । उसके बाद अनेकान्त निकालने का प्रयत्न करूंगा।"
सन् १९४१ में अनेकान्त का पुनः प्रकाशन शुरू हो गया । यद्यपि उसे बीच में एक दो बार और भी मार्थिक कठिनाइयों के कारण कुछ समय के लिए बन्द करना पड़ा । परन्तु बाद में वह पुनः चालू हो गया । सन १९५७ में प्रार्थिक कठिनाई के कारण अनेकान्त का प्रकाशन बन्द करना पड़ा; और वह ५ वर्ष तक बराबर बन्द रहा। बाद में कुछ मित्रों की प्रेरणा से बाबूजी ने अार्थिक सहयोग दिला कर सन् ६२ में प्रकाशित किया। तब से प्रब तक उसका बराबर प्रकाशन हो रहा है। बाबूजी
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ
अनेकान्त के सम्पादक भी रहे हैं और लेखक भी. सब बाबूजी की सोजन्य और उदारता का ही आपका अनेकान्त के ११वें वर्ष में 'उदगिरि-खण्ड- परिणाम है। गिरि परिचय' नाम का सचित्र लेख प्रकाशित हमा
जैन लक्षणावली (लक्षणात्मक जैन पारिहै । आपकी अन्य महत्वपूर्ण रचनाए भी अनेकान्त
भाषिक शब्दकोष) लक्षण संग्रह का यह कार्य लगमें प्रकाशित हुई हैं । अनेकान्त के प्रकाशन में बाबूजी
भग दो सौ दिगम्बर और दो सौ श्वेताम्बर ग्रन्थों पर का बड़ा योगदान रहा है। वे उसकी मार्थिव कटि
से हुआ है और उन्हें काल क्रम से दिया गया है । नाई को दूर करना चाहते थे और उसे बहुत ही
उस पर से लक्षण दाब्दों के क्रमिक विकास का अच्छा उच्चकोटि का शोध-पत्र बनाना चाहते थे। अनेकान्त ।
परिज्ञान होता है, साथ ही उन उन ग्रन्थकर्तामों के प्रकाशन में उनका अन्त तक सहयोग रहा।
के मौलिक, संगृहीत एवं अनुकरणात्मक लक्षणों का उनका छोड़ा हुमा यह महान कार्य अब समाज के
सही पता चल सकेगा। अधिकांश ग्रन्थकर्ताओं के विद्वानों और धनीमानी सज्जनों के सक्रिय सहयोग
समय सम्बन्ध में भी प्रस्तावना में विचार किया मे ही पूर्ण हो सकता है।
जायगा । इससे यह ग्रन्थ एक मौलिक कृति के रूप
में प्रत्येक विद्वान, रिसर्च स्कॉलर, लाइरियों और धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों का समुद्धार
स्वाध्याय प्रेमियों के लिए बहमूल्य सिद्ध होगा। मूड बिद्री के 'सिद्धान्त वसदि भण्डार, की स्वाध्यायी जनों को तो तत्व निर्माण में इससे विशेष धवलादि ग्रन्थों की ताडपत्रीय प्रतियां जीण-शीर्ण महायता मिलेगी। इस ग्रन्थ का प्रथम भाग प्रायः हो रही थी। बाबू छोटेलालजी के सतत् प्रयत्न मे वे तैयार है। इसके लिए वायू साहब वर्षों तक प्रतियां श्रीमान धर्मसाम्राज्य द्वारा दिल्ली लाई गई निरन्तर प्रेरणा करते रहे। उन्होंने छपाई की व्यऔर उनका वीर सेवा मन्दिर की ओर से जीर्णो- वस्था का भी प्रबन्ध कर दिया था। परन्तु वे द्वारकार्य नेशनल पार्काईब्ज में कराया गया और अपनी अस्वस्थता के कारण दिल्ली नही पा सके। मूडबद्री में उन ग्रन्थों का फोटो कार्य सम्पन्न किया उनके आने पर ग्रन्थ प्रेम में दिया जाता। वे इस गया। यह सब कार्य बाबू साहब के निर्देशानुसार महत्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए बहुत ही उनके आर्थिक सहयोग मे ही सम्पन्न हवा है । उत्कौटित थे। संद है कि उनकी यह अभिलाषा उनके जीर्णोद्वार का यह कार्य अत्यन्त प्रावश्यक था। जीवन काल में पूर्ण न हो गका । अब शीघ्र ही इससे उन ग्रन्थों को प्रायु कई सौ वषों तक को पूर्ण होगी ऐनी माना है। और बढ़ गई है।
सेवा कार्य की महत्ता धीर सेवा मन्दिर-ग्रन्थ माला
वीर सेवा मन्दिर उनकी प्राणप्रिय संस्था थी। वीर सेवा मन्दिर ग्रन्थमाला के प्रकाशन में भी उसे अपने प्राधिक सहयोग के माथ अपने उच्च बाबु साहब का पूर्ण सहयोग था। वे उसकी प्राधिक विचारों और कतव्य परायणता गे संरक्षित तथा कठिनाई को दूर करने में प्रयलगील रहे है। परि. संचालित किया था। यह उनकी सबसे बडी देन है। रणामस्वरूप वहां से २०-२५ ग्रन्थों का प्रकाशन प्रर्थ सहयोग प्राप्त हो सकता है, परन्तु हर समय हमा है। प्रकाशित ग्रन्थ बड़े ही महत्वपूर्ण हैं और संस्था की उन्नति का ध्यान और उपयुक्त योजनाओं अनमन्धानकर्तामों के लिए उपयोगी है। संस्था को द्वारा पल्लवित करने की बात अलग है। जीवन प्राधिक महयोग के माथ समय-समय पर बाबूजी और धन का नि:स्वार्थ उपयोग करना बड़ा कठिन का उचित परामर्श भी मिलता रहा है । यह है। ऐसे बिरले ही सबक होते हैं जो जीवन को
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बाबू जी का वीर सेवा मन्दिर को योगदान
धार्मिक या साहित्यिक सेवा कार्य में खपा देते हैं। वे निस्पृह मूक समाज सेवक थे। उनकी भावना बड़ी उच्चकोटि की थी। उन्होंने थोर सेवा मन्दिर के अतिरिक्त जैन बालाश्रम धारा, स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस को भी अार्थिक सहयोग स्वयं प्रदान किया धीर कराया है। इतने सभी कार्यों को फरके भी बाबूजी ने कभी अपनी प्रसिद्धि नहीं पाही । यह सब कार्य उन्होंने निःस्पृह वृत्ति से सम्पन्न किये हैं जब उनसे विवाद मांगने गये तब उन्होंने
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"आपने भाई फूलचन्द जी का चित्र मंगायासो मुस्तार साहब भाप जानते हैं हम लोग नाम से सदा दूर रहे हैं। चित्र तो उनका लगना चाहिए जो दान करें। हम लोग तो मात्र परिग्रह का प्रायश्चित-अधूरा ही करते हैं, फिर भी जरा जरा सी सहायता देकर इतना बड़ा नाम करना पाप नहीं तो दम्भ श्रवश्य है । श्रस्तु क्षमा करें। श्रानको शायद याद होगा इन्हीं भाईसाहब को उत्साहित कर श्राराम (जैन बाला विश्राम) को तीस हजार दिनवाये थे और उस सहायता के सम्बन्ध में भाज तक मैने पत्रों में जिक तक न होने दिया। वास्तव में दान वही है जो बिना किसी विज्ञापन के दिया जाता है। उसी गात्विक दान का फल लोक में उत्तम बतलाया गया है।"
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स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया । वे नामवरी मे कोनों दूर भागते थे। उनकी यह हि वृति उनके व्यक्तित्व की महना का द्योतक है । बाबुजी दान को मात्र परिग्रह का प्रायश्चिन मानते थे । परिग्रह में होती है उसके प्रायश्चित की भावना का बराबर बना रहना उनके विवेक और
नाम का सूचक है। इस सम्बन्ध मे बाबू छोटे वीर सेवा मन्दिर को बाबू बोटेलाल जी की लालजी के मन् १९४१ के पत्र को निम्न पनि यही महत्वपूर्ण है और वह सदा इतिहास
तौर से उसनीय है की उन्होंने मुस्तार गा० के नाम लिखी थी। उससे उनकी मानसिक विचारवारा का सहज ही पता चल जाता है
एवं गाहित्य जगत में स्वरों में पति रहेंगी । समाज बाजी की मूल्यों के प्रति कृतज रहेगा |
"संसार में क्यों इतनी खींचा तानी, बांधाबांधी और भले बुरे का विवाद चलता
है। क्यों मनुष्य अपने चारों ओर बहुत सी भूलों और वचनों को जमा करके स्वेच्छा से अंधा बन रहा है। दारिद्रय का निष्ठुर दुःख, धर्म हीनता की गहरी ग्लानि थोर निर्बलता से उत्पन्न भीरुता में भी बद्द छलना और अभिमान का सामान हूँढ लेता है।"
展
拖
胎
sari आदमी की आवश्यकता आसानी से नहीं मिटती ।
- पाबूजी की डायरी से
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बाबू छोटेलाल जी और उनका व्यक्तित्त्व
भी 'स्वतन्त्र' सूरत
छोटा हो या बड़ा यदि वह गुदड़ी में
लाल छोटा हो या बड़ा यदि वह गुदड़ी में
छिपा है तब भी वह चमकता है । श्री बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता इसी तरह के लाल थे। उनका व्यक्तित्व समाज पर छाया रहता था। बाबूजी में अनेक विशेषतायें थी; वे किसी से मिलें या कोई उनमे मिले वह छोटा हो या बड़ा, रंक हो या राव, पर आप अपना प्रेम, वात्सल्य सौहार्द मिलने वाले पर उड़ेल देते थे। तब मिलने वाले को लगता था कि मानों बाबूजी हमारे ही परिवार के एक अनन्य सदस्य हैं ।
बापूजी पंचवाद की चाहार दीवारों, संकोच वृति, सम्प्रदायवाद कौमवाद, पदलिप्सा, इनसे बहुत ऊंचे उठे हुए थे। इतना ही नहीं, इन विषमताओं को गहरी खाई को पाटने का भरसक प्रयत्न समय-समय पर किया भी था । यह सत्य है कि श्राप नाम से पत्रकार नहीं थे पर मेरी दृष्टि में आप पत्रकारों के भी पत्रकार थे । अनेकान्त पत्र के तो आप संचालक, व्यवस्थापक एवं सम्पादक आदि सभी कुछ थे। हमारे समाज में अनेक पत्रकार हैं। जिनमें कुछ पत्रकार निकम्मे, भोडे, स्वार्थी एवं प्रपात्र हैं और पत्रकारिता के नाते अपना उल्लू सीधा करते हैं। कुछ पत्रकार ऐसे हैं जो केवल अपनी मान प्रतिष्ठा हो चाहते हैं, जानने कुछ नहीं पर उनका नारा है कि हम ही सब कुछ हैं हम जैसा कोई सेवक हो ही नहीं सकता। उनका दुरभिमान बालू के पहाड़ पर खड़ा होकर ठहाका मारता है और सेवा के नाम पर खा कमा जाना उनका साधारण सा काम है। लेखक का मत है कि ऐसे पत्रकार हमारे बाबूजी में मार्गदर्शन लेकर अपने आप में पर्याप्त सुधार कर सकते हैं और पत्र
कारिता में जो जगने वाले कलंक हैं उनसे वे सहज ही बच सकते हैं ।
बाबूजी सन् १९४७ में सूरत प्राये थे। आपके साथ प्रापकी भतीजी भी थी। भाप मेरे लेखों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से तो जानते ही थे, सूरत घाते ही आपने मुझे याद किया और में प्रापसे उसी समय मिलने गया । दुबला पतला इकहरा गोरांग दारीर, चदमे द्वारा गहराई से भांकते हुये, हृदय में एक टीस दबाये, प्रसन्न मुद्रा, इस रूप में सर्वप्रथम मैने बाबूजी के दर्शन किये थे ।
यह सच है कि बाबूजी ने मुझे कभी नहीं देखा या और न मैंने बाबूजी को देखा था मेरे माते ही बापूजी ने कहा- माइये स्वतन्त्र जी भाजकल तो श्राप बहुत अच्छा लिख रहे हैं। मानव जीवन को गति में मोड देने के लिये धापके लेख बड़े उपयोगी हैं। मैने विनम्रतापूर्वक कहा- बाबूजी यह सब ग्राप जैसे महानुभावो के पवित्र आशीर्वाद और सद्भावनाओं का परिणाम है में किचन इस योग्य कहाँ ? जैसा कि आप मुझे मान रहे हैं।
यह वाक्य में पूरा नहीं कर पाया था कि आपने मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया। पारिवारिक परिचय के बाद आपमे सामाजिक एवं धार्मिक पर्यायें होती रही चर्चाधों के दौरान मुझे लगा कि बाबूजी की विद्वता किसी बहु तज्ञ अनुभवी कर्मठ विद्वान से कम नहीं है। सामाजिक प्रान्दोलनों का भी प्रापको गहरा अनुभव था । इतना ही नही, किसी प्रान्दोलन के श्राप सूत्रधार श्रौर किसी आन्दोलन के श्राप संचालक भी रहे थे ।
आपने मुझसे एक बड़ी मार्मिक बात कही जो मेरी दृष्टि में एक सूत्र की तरह है । श्रापके शब्द निम्न प्रकार है
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बाबू छोटेलाल जी और उनका व्यक्तित्व
“भाई स्वतन्त्रजी ! लोग सुधार की बातें करते हैं, पर वे अपना स्वयं सुधार नहीं करते। जो । जितना कहता है उतना करने लगे तो वर्तमान में जो कुछ भी कलुषित गंदा वातावरण देख रहे हैं वह कभी का नष्ट हो जाये ।"
बाबूजी पुरातत्व के खोजी थे।
कार्यों में आप विशेष रुचि रखते थे । कार भी थे और साहित्य सेवी भी ।
शोध खोज के आप साहित्य
बाबूजी अपने साथ तीर्थ क्षेत्रों की फिल्म भी लाये थे। मूरत में नवापुरा स्थित फूलवाड़ी में जैन समाज की उपस्थिति में फिल्म प्रदर्शन किया था, साथ में बाप टिप्पणी भी करते जाते थे। टिप्पणी तो नाम था पर वास्तविकता तो यह थी टिप्पणी के रूप में आपका भाषण ऐतिहासिक तथ्यों पर
प्राधार रखता था ।
साधारण जनता नहीं जानती होगी कि बाबूजी लेखक थे, ऐसा में मानता हूँ पर बाबूजी पच्छे खाने ऐतिहासिक लेखक थे। सर्वप्रथम आपकी पुस्तक सन् १९२३ में " कलकता जैन मूर्ति यन्त्र संग्रह " प्रकाशित हुई थी । फिर सन् १९४५ में "जैन विबिलियो ग्राफी" प्रथम भाग प्रकाशित हुआ था। शोध खोज के कार्यों में पाप भारतीय विद्वानों को ही नहीं पितु पाश्चात्य देशों के विद्वानों को भी बराबर सहयोग देते रहते थे । प्राज अनेक विद्वान पी० एच० डी० हुए हैं उनमें अधिकांश विद्वानों ने जन साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध में पूरा-पूरा सहयोग महकार बाबूजी से ही लिया है । बाबूजी स्वयं पी० एच० डो० न हों पर भापने अनेकों
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विद्वानों को पी० एच० डी० बना दिया, यह निस्संदेह कहा जा सकता है।
बाबूजी का जीवन महान था और बाबूजी महान थे। प्रापकी करनी धौर कथनी में समानता थी और उसमें लेखक को मानवता के दर्शन होते थे।
सन् १९६० के अक्टूबर मास में प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद क्षु० गणेशप्रसाद जी वर्णी की जन्म जयन्ती ईशरी मे ठाटबाट एवं शान शौकत के साथ मनाई गई। उस समय सूरत से में भी गया था, मुझे मालूम हुआ कि बाबू छोटेलालजी को टाईफाइड चल रहा है। में उसी समय बाबूजी से मिलने गया तो देखा कि बाबूजी को १०३ डिग्री बुवार है और लेटे हुए 'पंच संग्रह प्रन्थ' (भारतीय ज्ञान पीठ का प्रकाशन) पढ़ रहे हैं। मेने कहाबाबूजी ग्राप समय का ठीक-ठीक उपयोग कर रहे हैं। बाबूजी ने कहा- हां भाई स्वतन्त्र जी ! जब उपयोग दूसरी ओर लगा रहता है तब वर का दाह और वेदना मालूम ही नहीं होती।
बाबूजी के इस उत्तर से मुझे महान प्रसन्नता हुई। शाम को देखा तो आप स्टेज पर भाषण देते हुए वर्गीजी के चरणों में श्रद्धांजलि अर्पण कर रहे थे, दुलार इस समय भी था। बाबूजी की यह घटना बताती है कि वे सहनशील और कष्टसहिष्णु थे । सहनशीलता प्रोर कष्ट सहिष्णुता में ही प्रापके जीवन का निर्माण हुआ था।
बाबूजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और आपका समूचा जीवन साहित्य एवं समाज की सेवा में ही व्यतीत हुधा ।
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श्रद्धांजलिया
गत १५ वर्षों से श्री छोटेलालजी से मेरा निकट सम्पर्क रहा था। उनकी विचारधारा कार्यशैली एवं दूरदर्शी निर्णयों से में प्रभावित रहा है। पापके व्यक्तित्व में एक अलौकिक एवं बेजोड़ प्रतिभा का प्रभास मिलता था । श्रापकी निर्भय एवं स्पष्ट मनोवृत्ति का दिग्दर्शन आपके द्वारा अनुप्राणित उन कतिपय सामाजिक समारोहों से होता है जिनमे आपने अपनी मौलिक विचारधाराओं के आधार पर, व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन हेतु अनेक कार्यक्रम अपनाए थे। सामाजिक संगठन तवं सामूहिक कार्यप्रणाली में प्रारम्भ से ही ग्रापका अटल विश्वास था एवं आपने अपने जीवन में ऐसे अनेक कार्य किये थे जिनगे जैन समाज में पारस्परिक प्रेम एवं सद्भावना की अभिवृद्धि हुई है। आपका दृष्टिकोण सदा ही सुधारवादी एवं सामंजस्य युक्त था। प्रापको सौम्य प्रकृति ने तो समाज के प्रत्येक सदस्य के हृदय में आपके प्रति अभूतपूर्व श्रद्धा उत्पन्न कर दी थी। श्रापके मानस में मैन केवल समाज प्रेम ही नहीं वरन् मानव मात्र के प्रति सराहनीय स्नेह का धनुभव किया है। कई सामाजिक संस्थाओं की व्यवस्था आपके संचालन में सुचारु रूप से चल रही थी । ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता के निधन से देश और समाज की महान क्षति हुई है।
मिश्रीलाल जैन
में श्रीमान् बालानजीको ४० वर्षों से जानता हूँ। बाबूजी के निकट श्राने का जिन्हें भी अवसर मिल सका है वे उनकी विद्वत्ता और सौजन्य से प्रभावित हुए बिना न रह सके। उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व से कौन ऐसा है जो प्रभावित श्रीर चमत्कृत न हुआ हो। श्राप जैन समाज के उन रत्नों में से थे जिनका प्रकाश वर्तमान में ही नहीं
वरन् भविष्य में भी सदैव समाज के नवयुवक कार्यकर्ताओं का पथ प्रदर्शन करता रहेगा।
।
बाबूजी गत ५० वर्षों से देश समाज एवं साहित्य की सेवा में संलग्न थे पुरातत्त्व सम्बन्धी प्रापका अध्ययन तथा प्रनुभव बड़ा गहरा था। भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में भ्रमण करके प्रापने वहाँ से अनेक महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्त्व की सामग्री को खोज निकाला था। आप खासकर देश-विदेश के जंनंतर विद्वानों को जैन साहित्य पर शोधकार्य में बराबर सहयोग देते रहते थे। आप एक दानीपरोपकारी एवं कर्मठ कार्यकर्ता थे ।
।
कई अवसरों पर आपने उपकार पाने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ है। मुझ पर आपकी बडी कृपा थी। आप अपने पत्र मे सदा मुझे 'प्रमबन्धु' शब्द से ही संबोधित करते रहते थे । यद्यपि आपका स्वास्थ्य हमेशा खराब रहता था तो भी पाप उत्साह और लगन के साथ समाज, देश एवं साहित्य की सेवा में व्यस्त रहते थे मेरी हार्दिक शुभ भावना है कि प्रापका सफल तथा प्रदर्श जीवन सदैव ही लोगों को अपना जीवन मानव सेवा में व्यतीत करने की प्रेरणा देता रहे।
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के० भुजवती शास्त्री सं० गुरुदेव' मूडबद्री (मंसूर )
३० जनवरी ६६ को प्रातः ग्रहमा प्रचार समिति हाल में थी जैन सभा के तत्वावधान में श्री लक्ष्मीचन्दजी जैन की प्रत्यक्षता में समस्त जन समाज की ओर से एक शोक सभा का प्रायोजन कर जैन समाज के नेता श्री छोटेलाल जी जैन की दिवंगत धारमा के प्रति निम्न प्रस्ताव द्वारा श्रद्धां जलियां अर्पित की गई
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श्रद्धांजलियाँ
"कलकत्ता जैन समाज की यह सार्वजनिक सभा जैन समाज के नेता धर्मानुरागी पुरातत्ववेत्ता, एकता के समर्थक श्री छोटेलालजी जैन के प्राक free fart पर शोक प्रकट करती है। श्री छोटेलाल जी जैन ने ग्रपने समय में सामाजिक, धार्मिक सांस्कृतिक, तीर्थक्षेत्र, शिक्षा पुरातत्व तथा समाज सुधार के क्षेत्रों में घपना सक्रिय योगदान दिया
था। वे कलकत्ता जैन समाज की प्रायः सभी संस्थाओं में अपना महत्वपूर्ण सहयोग दे रहे थे जिनके लिए समाज उनका आभार मानता है ।
जैन समाज उनके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके वियोग में संतप्त परिवार के प्रति संवेदना प्रकट करता है, एवं उनको महान आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करता है।"
श्रद्धय भाई जी के निधन के समाचार से बड़ा दुःख हुमा पर्याप उनका स्वास्थ्य पिछले कुछ समय से होगा चल रहा था, तथापि वह कल्पना भी नहीं थी कि उनमें इतनी जल्दी बिछोह हो जायेगा ।
उनके निधन से एक बहुत ऊंचा व्यक्ति उठ गया उनकी सेवायें और उनके गुगा समाज एवं हम सब को चिरकाल तक अनुप्राणित करती रहें, ऐसी मेरी कामना श्रीर प्रभु से प्रार्थना है। में उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।
यशपाल जन, सस्ता साहित्य मंडल एन-७७ कनाटस नई दिल्ली
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को वर्तमान रूप देने का गम्यतः उन्हीं को है । इस संस्था के द्वारा उन्होंने अनेक लोकोपयोगी प्रवृत्तियों का संचालन किया।
वीर सेवा मन्दिर की यह ग्राम सभा जैन धर्म और जैन समाज के अनन्य सेवी तथा जैन पुरातत्व के विद्वान बाबू छोटेलाल जैन के निधन पर गहरा शोक प्रकट करती है, और बाबू छोटेलाल जी उन इने-गिने व्यक्तियों में से थे, जिन्होंने अपने जीवन के बहुत से वर्ष सेवा में व्यतीत किये। वीर सेवा मंदिर
है
समाज पर बाबू
बाबू छोटेलाल जी के निधन से जैन समाज की विशेष कर वीर सेवा मन्दिर की जो क्षति हुई उसकी पूर्ति कदापि नहीं हो सकती। वीर सेवा मन्दिर के रूप में दिल्ली जैन छोटेलालजी का भारी ऋण है, और यह सभा विश्वास प्रकट करती है कि जैन समाज उसके संचालन की ऐसी व्यवस्था करेगी कि जैन धर्म की प्रभावना की दिशा में उनकी ऊनी भावनाएं पूर्ण हो सके। यह सभा दिवंगत आत्मा के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करती है और प्रभृ से प्रार्थना करती है कि उनकी धारमा शान्त उच्च पद प्राप्त करे और उनके परिवार के साथ यह सभा सहानुभूति प्रकट करती है।
वीर गंवा मन्दिर देहली
श्रद्धेय श्री बाबू छोटेलाल जी के स्वर्गवास का समाचार सुनकर स्तब्ध रह गया । विधि का विधान ही ऐसा है, उस पर किमी मावा नहीं। श्रव बाहूजी के चले जाने से बड़ा जबर्दस्त धक्का लगा है। अब धर्य के सिवा कोई चारा नहीं है । अतः जिनेन्द्र देव से प्रार्थना है कि मृतात्मा को शान्ति एवं समस्त समाज को उनके अभाव का दुःख सहन करने की शक्ति प्रदान करें।
- बाबूलाल जैन, फागुल्ल, वाराणसी
श्री वायु छोटेलाल जी जैन के अचानक वियोग का हृदय विदारक दुःखद समाचार पाकर चित बहुत ही दुखित हो रहा है।
दुखित हृदय जुगलकिशोर एटा
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
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हृदय विदारक समाचार को सुनकर बहुत दुःख हुआ । बानू छोटेलाल जी का निधन कुटुम्ब के लिये ही नहीं, अपितु समाज के लिये भी प्रति दुःखदायी है । आपकी साहित्य सेवा सदैव अमर रहेगी ।
- चन्दाबाई जैन
जैन बाला विश्राम, आरा, बिहार ।
श्री बाबू छोटेलाल जी जैन प्रव इस संसार में नहीं रहे । यह समाचार समाज के लिए वज्राघात
के समान था । बाबूजी के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जैन संस्कृत कालेज में सभा कर शोक प्रस्ताव पारित किया गया एवं जयपुर जैन समाज की प्रोर से भी बड़े दीवाणजी के मन्दिर में एक शोक प्रस्ताव पारित किया गया ।
चैनसुखदास
अध्यक्ष, श्री दिगम्बर जैन संस्कृत कालेज जयपुर (राजस्थान)
त्याग और विसर्जन की दीक्षा में सिद्धि प्राप्त करना ही हमारी सब से बड़ी सफलता है । इसी मार्ग का अवलम्बन लेकर हमारी कितनी ही विधवा बहिनें जीवन की सर्वोत्तम सार्थकता का अनुभव कर गई हैं।
+
+
+ atr और दुःसह नैराश्य के बीच ऐसे बहुत दुख, बहुत मनुष्यों के भाग में, बहुत बार आए हैं। सुख-दुख की इस परम्परा में कोई नवीनता नहीं है। यह उतनी ही सनातन है जितनी कि सृष्टि । उफनते हुए शोक-सागर की लहरों को संसार भर में फैला देने में, न तो कोई पौरुष है और न ही इसकी कोई आवश्यकता है।
+
+
पति को त्याग देना कोई बड़ी बात नहीं। उसे फिर से पाने की साधना ही स्त्री के लिए परम सार्थकता है। अपमान का बदला लेने की होड़ में ही स्त्री की वास्तविक मर्यादा नष्ट होती है. अन्यथा वह तो कसौटी है जिस पर कस कर प्रेम परखा जाता है । अन्त तक सर्वस्व दान करके ही आदमी यथार्थ में अपने आपको पाता है । स्वेच्छा से दुःख स्वीकार करने में ही आत्मा की यथार्थ प्रतिष्ठा है ।
- बाबू जी की डायरी से
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बाबूजी : एक संस्मरण
साहू श्री शान्तिप्रसादजी जैन
बाबू छोटेलाल जी के सम्बन्ध में लिखने के समस्यामों की चर्चा करते, प्रत्येक दिशा में जो काम लिए जब-जब उद्यत हमा विशेष कर भनेकान्त' के हमा है और जो करना है उसकी व्यवस्था प्रादि के स्मृति अंक के लिए. तो उनके साथ घनिष्ट संपर्क के बारे में विचार विनिमय करते और प्रावश्यक बातों पिछले पच्चीस-तीस वर्षों के इतिहास पर मन-ही- की ओर ध्यान दिलाते। उनकी बातचीत सदा ही मन विचार करता रहा और लिखने के योग्य अनेक एक झरोखा थी जिसके द्वारा स्थानीय तथा बाहर घटनाएं, संस्मरण और विचारों का प्रादान-प्रदान की सामाजिक गतिविधियों का संपूर्ण चित्र मेरी दिखाई दिया किन्तु वह सब स्थिर होकर लिखना दृष्टि में प्रा जाता था। व्यवसाय के कामों से मंभव नहीं हुमा । स्मृति ग्रन्थ के लिए संक्षेप में विरक्त होने के बाद अपने जीवन के अन्तिम १५ वर्ष अपना अभिनन्दन पोर श्रद्धांजलि व्यक्त कर रहा हूँ। उन्होंने जैन समाज और जैन संस्कृति की सेवा में
पूरी लगन के साथ अर्पित कर दिये । मुझे बराबर बाय छोटलालजी के प्रति मेरे मन में जितना
लगा है कि बाबू छोटेलालजी के स्वास्थ्य ने उनका प्रादर है, और उन्हें मुझसे, मेरे परिवार से जितना
साथ दिया होता, यदि उन-जैसी लगन के दो चार स्नेह था वह अविस्मरणीय है। वे स्नेही थे. हित
कार्यकर्ता उन्हें मिल जाते तो समाज की अनेक चिन्नक थे, और सतत सहयोगी थे। सन १९४४ में
महत्त्वपूर्ण योजनामों का सफल-रूप सामने प्राया वीर शासन जयन्ती के अवसर पर कलकसे में
होता और समाज का, संस्कृति का, हित कई गुना एक बड़े पायोजन में उनके साथ दायित्व लेने
अधिक हुमा होता । अपने बल-बूते पर अपनी एकांत का मेरा पहला अवसर था। उस अवसर
साधना पर उन्होंने जो किया, जो वे कर सके, वह पर सर सेठ हकमचन्दजी सभापति थे, मैं स्वाग
काम महत्त्व का है। जैन साहित्य के संदमों का ताध्यक्ष था और वे संयोजक तथा मन्त्री। उस
संकलन, 'जन चिब्लियोग्राफी' के रूप में स्वयं इतना समय से उनकी लगन, कर्तव्य निष्ठा. विद्वानों के
बड़ा काम है जो अकेले व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी प्रति वात्सल्यभाव, जैन दर्शन, जैन पुरातत्व, जैन
उपलब्धि है। उदयगिरि खंडगिरि के महत्त्व को साहित्य के प्रचार-प्रसार, शोध-खोज के लिए उनकी
ऐतिहासिक प्राधार पर प्रतिष्ठित करने और इस चिन्ता तथा मननशील स्वभाव की जो छाप मेरे मन
तीर्थ को भारतवर्ष के मानचित्र पर उजागर करने पर पड़ी वह सदा पमिट रही। यह ठीक ही है कि
की दिशा में भी उन्होंने अद्वितीय काम किया। वे व्यक्ति नहीं, एक संस्था थे। जब-जब वे मिलते-पोर कलकत्ते में रहते हुए ऐसा कोई सप्ताह सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों के लिए नहीं बीतता था अब एक-दो बार वे मिल न लेते उनके मन में जो लगन थी। वह उन्हें रात-दिन हों तब-तब ये अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यस्त रखती थी। समाज की प्रमुख संस्थानों
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बाबूजी : एक संस्मरण
की उन्नति कैसे हो, उनकी तात्कालिक समस्यायें धर्म-प्रभावना की ही भावना नहीं है, उनका अपना क्या हैं और उनके समाधान के लिये क्या करना ज्ञान और मनन भी क्रियाशील है। नाहिए अमुक अमुक विद्वान या शोधछात्र किस विचारों में वे बड़े उदार थे। समाज में विषय पर काम कर रहा है और उसकी प्रावश्य- घामिक प्रास्था बढ़े, तत्वज्ञान का प्रचार और जैन कतायें क्या हैं. पूर्वी तथा उत्तरी भारत के ही नहीं, कला का परिचय व्यापक हो इस प्रयास के साथदक्षिण भारत के तीर्थ क्षेत्रों पर वहाँ क्या महत्त्वपूर्ण साथ वह युग के अनुकूल समाजिक सुधारों के भी है और वहां की जैन समाज की स्थिति क्या है इस सब की वे खोज खबर रखते थे। समाज के सर्व- महयोग देते रहना, उनका सहयोग प्राप्त करना साधारण व्यक्ति भी उन्हें इतना प्रात्मीय मानते थे और धीरे-धोरे नयी जागृति, नये चिन्तन को मोर कि निजी अथवा स्थानीय समस्या निस्संकोच उनके उन्हें प्रग्रसर करना तथा जैन धर्म की मात्मा को सामने रखते थे और आशा करते थे कि वे अपने रुढि-मुक्त करना ये सब बड़ी सहनशीलना भोर निजी साधनों अथवा अपने संपकों के प्रधार पर धोरज का काम है। उनके मन की सहज गति इसी अवश्य कोई हल निकालेंगे कोई सहायता देंगे या प्रकार की थी। यही कारण है कि उनके माथ मेरे प्राप्त कर देंगे । जब-जब बे मिलते सब प्रकार की विचारों और भावनामों का सामंजस्य बैठता था समस्याओं को बड़ी सहानुभूति पूर्वक मेरे सामने और हम लोग मिल कर सामाजिक क्षेत्र में इतना रखते । इस प्रकार दूर की समस्यायें भी मेरे लिए कुछ कर सके । निकट की बन जाती और यथा-साध्य उनके निवारण बाब छोटेलाल जी प्रारम्भ से ही भारतीय का प्रयत्न होता रहता।
ज्ञानपीठ के दुग्टी थे और संचालक समिति के
सदस्य । ज्ञानपीठ के सांस्कृतिक-धार्मिक प्रकाशनों जैन विद्वानों में तो उनके निकट-तम संपर्क ये के कार्यक्रम में उन्होंने मदा व्यक्तिगत रुचि ली और ही, वे उन जैनैतर विद्वानों से प्रात्मीयता बढ़ाते भारतीय साहित्य की उन्नति की दिशा में जो योजजो जन साहित्य, जैन दर्शन या जैन कला के क्षेत्र में नायें ज्ञानपीठ ने बनाई उन सबको हार्दिक समर्थन काम करते थे। इन विद्वानों पर बाद छोटेलालजी दिया। वे एक ऐमा प्रभाव छोड गये जिसको प्रति का प्रेरणा प्रभाव इसलिए विशेष रूप से पड़ता था मब असंभव लग रही है। उनके मधुर व्यक्तिल कि वे जानते थे कि उनकी इस लगन के पीछे केवल और उनके अकपट स्नेह की स्मृति अमर रहेगी।
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साहित्य और पुरातत्त्व प्रेमी, बाबूजी
त्रिजयसिंह नाहर, एम. एल. ए., कलकत्ता
साहित्य और पुरातत्व के प्रेमी विद्वान् बात छोटेलालजी जैन के निधन से केवल जैन समाज ने ही एक उज्ज्वल रत्न को नहीं खोया परन्तु सारे पुरातत्व जगत को हानि पहुँचो । सरल स्वभाव, सदा ममुख farar छोटेलालजी से जो भी मिलता उनके चरण से गद्गद् हो जाता। मुझे याद आता है जब में छात्र था बाबू छोटेल लजी हमारे परम पूज्य पिताजी स्व० पूरणचन्दजी नाहर के पास आते और जैन शोध खोज की वातें होती । मुझे हो उनको साथ लेकर पिताजी के पुस्तकालय "श्री गुलाब कुमारी लायब्रेरी" में उनको किताब दिखाने ले जाना होता । श्रत्यन्त श्रद्धा से, मनन से पुस्तकें देखने और उनसे अपने खाने में नंट करते। हमे समझाते कि जैन साहित्य में समुद्र ऐमा गंभार है. खोज के निकालने से हर विषय का पांडित्यपूर्ण समाधान प्राप्त होगा ।
सन् १९३३ को बात है, में कलकत्ता कारपोरेदान के चुनाव में खड़ा हुया । बाबू छोटेलाल जी एक दिन प्राये | मुझ से कहा कि तुम्हें करा मदद चाहिए। उन्होंने कई गाड़ियाँ भेज दो और उनके परिचित कई वोटरों के पास मुझे ले गये। वे स्वयं श्राये । मैंने उनसे कोई निवेदन नहीं किया था । क्योंकि वे हमारे चुनाव इलाके से बाहर रहते थे । कितना प्रेम था एक समाज के नवयुवक के प्रति ।
कई साल हुए जब में बंगलोर जा रहा था उनसे बात हुई। उन्होंने मुझे मूलवित्री दर्शन करने को
कहा और वहां जो अलग-अलग जवाहरात की प्राचीन जैन प्रतिमायें है उसका वर्णन किया। खुद कष्ट कर कई मित्रो को पत्र लिखा जिससे मुझे सहूलियत रहे। शरीर स्वस्थ होते हुए भी उत्साह का प्रभाव नहीं ।
उन्हें देखा है जब-जब कोई विद्वान् उनके पाप प्राये और कोई पुस्तक की जरूरत पड़ी तो मुझे टेलीफोन करते और स्वयं ही उन विद्वान् को लिए पहुँच जाते और पुस्तकें दिलाते । कोई श्रालम् उनके पास नहीं था ।
पुरातत्व विषय की कई पुस्तकें उनकी लिखी हुई हैं । ऐसियाटिक सोस. ईटी के ही सदस्य थे। प्राचीन जैन लेखों से उनका प्र ेम था और उन्हें प्रकाशित करते रहने ।
देश विदेशों के अनेक विद्वानो से उनका परिचय था । पत्र प्राते रहते और मित्रों को वे सब पत्र दिखाते और उन पत्रों के विषय में मालोचना भी करते ताकि उनकी जिज्ञासा को पूर्ण करके उत्तर देने में सहूलियत हो ।
स्व० बानू छोटेलालजी जैन 'मृति ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है । श्राशा है इससे जैन विद्वानों को एक रास्ता मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगी । में उस दिवंगत आत्मा के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि निवेदन करता हूँ ।
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श्रद्धाञ्जलि
स्व० बाबू छोटेलालजी जैन की सेवाओंों के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करने के लिए श्री छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ समिति, एक स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन कर रही है । एक दानी, परोपकारी, साहित्य एवं समाज की सेवाधों में अपना सारा जीवन समर्पित करने वाले महानुभाव के संस्मरण श्रौर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह प्रायोजन सराहनीय है । प्रच्छा होता यदि यह उनके जीवनकाल में हो अभिनन्दन के रूप में सम्पन्न हो जाता ।
दिगम्बर जैन समाज कलकता और वीर सेवा मन्दिर दिल्ली तथा तीर्थ क्षेत्र कमेटी के प्रमुख कार्यकर्ता होने के नाते मेरा और मेरे घराने का उनसे संपर्क रहा है।
पुरातत्व के अन्वेषण में स्व० बाबूजी ने सफल प्रयत्न करते हुए सैकड़ों विद्वानों को इस सम्बन्ध में सहयोग दिया है। उनके प्रोत्साहन के फलस्वरूप मध्यप्रदेश के प्रतिभाशाली पुरातत्वज्ञ श्री नीरज, सतना अपने प्रदेश के पुरातत्व एवं शिलालेखों के अन्वेषण में प्रयत्नशील हैं ।
मै स्व० बाबूजी की सार्वजनिक, सामाजिक एवं साहित्यिक सेवाओं का हृदय से समादर करते हुए इस अवसर पर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ ।
- राजकुमार सिंह
MA. LLB F.R.E.S.; F. R.G.S.
इन्दौर
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ज्योति-शिखा को अन्तिम प्रणाम
लक्ष्मीचन्द जैन
जनवरी १६६६ के तीसरे सप्ताह की बात है; देख लीजिए, क्या है।" मैं विचलित हो गया। बाबू छोटेलालजी बीमार थे और कलकत्त के मार- मैंने उन्हें प्राश्वस्त करने का प्रयत्न किया । 'भाई वाडी रिलीफ मोसायटी के हस्पताल में उपचारार्थ साहब, मापने इतना कुछ किया है अकेले, कि वे एक प्राइवेट कैबिन में लगभग अर्ध चैतन्य प्रापका कृतित्व सदा स्मरण रहेगा। पाप व्याकूल अवस्था में लेटे हा थे। मैं उमी शाम दिल्ली जा न हों। पाप जो बीज बो गये हैं. और पाल-पोस रहा था और जाने से पहले उनके दर्शन अवश्य कर गये हैं वह फूल दे रहा है। फन दे रहा है । प्राज लेना चाहता था। क्योंकि बीमारी उसरोत्तर बढ़ जैन साहित्य का प्रचार-प्रसार अधिक सुगम हो गया रही थी और कुछ ठिकाना नहीं था कि क्या हो है। साहित्य सृजन की अोर भी लोगों की रुचि हुई जाये। में पहुँचा तो कमरे में परिवार की केवल है। जैनेतर विद्वानों में जैन धर्म को जानने-समझने एक महिला ही थीं। भेट का वह समय भी नहीं की वास्तविक जिज्ञासा है। विरोध भाव प्रायः नहीं था कि भीड़भाड़ होती। बाबू छोटेलालजी प्रांखें है। इस सब में आपका विशेष हाथ है।" । बन्द किये पड़े थे। वेदना कितनी थो यह तो स्पष्ट मैं चाहता नहीं था कि बात लम्बी बढ़े और नही था किन्तु उसे सहन करने के प्रयत्न की छाप बाब छोटेलालजी को अधिक थकान हो। बीच-बीच मुस्ख पर अंकित थी। फिर भी चेहरे का भाव मुदु में उन्हें खासी भी उठ रही थी। मैंने कहा-"प्राज
और शान्त था। मैं पास की कुर्सी पर चुपचाप बैठ रात की गाड़ी से में दिल्ली जा रहा हूं। लौट कर गया। दो-चार मिनिट में ही उन्होंने प्राँखें खोली दर्शन करूंगा। तब तक प्रापकी तबियत भी काफी और मुझे देख कर अपना दुखदर्द भूल कर हर्ष से कुछ ठीक हो जायेगी ।" वे एक फीकी हंसी मुस्कगद्गत् दिखे और बोले-'पाप कितनी देर से बैठे हैं, राये । बोले-अच्छा प्रापको फिर देर हो रही होगी। मैं शायद सो रहा हूं, ऐसा प्रापको लगा होगा, प्राप जब प्रायेंगे तब"", देखिए।' मैंने पहलीबार लेकिन में मो नहीं पाता : प्रापको चाहिए था उनके चरण छये.."ौर अन्तिम बार। वे विचमुझे जगा लेते।' इतना कह कर उन्होंने पानी मांगा. लित हो गए...'पाप यह क्या कर रहे हैं ?' मे बात करने का उत्साह जितना प्राकुल था, दुर्बलता जल्दी-जल्दी जीने से उतर गया। लगा जैसे किसी उतनी ही मुखर । बोले-लक्ष्मीचन्दजी, जीवन का तीर्थ की वन्दना की हो, किसी साधु के चरण छुये कुछ भरोसा नहीं। कोशिश कर रहा हूं कि परि- हों; क्योंकि जीवन की अन्तिम सन्ध्या में वह महाणाम शान्त रहें और रोग का प्रभाव व्याकुल न पुरुष 'बाबू छोटेलाल' को संज्ञा से कहीं बहुत ऊपर करे। कितना कुछ काम करने को पड़ा रह गया; उठकर रोग-शैया को और रोग की वेदना की मेरे स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया और अब तो हालत सीमानों को पार करके निराकुल, निर्विकल्प ज्ञान
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ज्योति-शिखा को अन्तिम प्रणाम
और चिन्तन की दीप-शिखा सा उद्भासित था- करनी होती। उसमें से कुछ अंश पढ़ देते पौर पत्र- . स्नेह-तरल !
लेखक की समस्या को अपनी बना कर इस प्रकार जब पहली बार वीरशासन जयन्ती के अवसर प्रस्तुत करते कि जिससे जो कुछ बन पड़ता बह पर कलकत्ते में उनसे भेंट हुई थी तो अप्रत्यक्ष करने को तैयार हो जाता। स्वयं उन्होंने क्या-कुछ परिचय की श्रद्धा में प्रत्यक्ष साक्षात्कार की गहन कर दिया है यह वे प्रायः नहीं बताते-प्रात्मश्लाघा प्रात्मीयता प्रा-जडी थी। पहले से ही वे एक उनका गुण कभी भी नहीं रहा। कई बार मेरा 'लीजेंड' थे, 'एक पुरा-कथा के से पात्र।' जैसाहित्य मन होता कि जिस पत्र में से वह अंश पढ़ रहे हैं
और जैन पुरातत्व के क्षेत्र में निष्ठापूर्वक काम वह पूरा पत्र में देख पाता क्योंकि उस प्रमक व्यक्ति करने वाले विद्वान और प्रेरक के रूप में उन्हें जाना न साहू शान्तिप्रसादजी को भी पत्र लिखा होता था. था । अब उनके प्राकर्षक व्यक्तित्व के अनेक ग्रायाम या कभी-कभी मुझे भी, और समस्या को किमी प्रत्यक्ष हुए। जिस किसी व्यक्ति में उन्हें ज्ञान की दूसर पहलू से प्रस्तुत किया होता-जो स्वाभाविक चमक या क्षमतानों की संभावना या कुछ भी प्रसा- भी था-; किन्तु पत्र मांगने में मुझे संकोच होता धारण-सा दिखा, उसे वे समस्त हृदय से अपना लेते।
मोर उन्हें देने में। कारण दोनों भोर से समान थे। उनके इस अपनाने का अर्थ एक प्रोर तो होता था।
होता-मैं जानना चाहता था कि इतने लम्बे पत्र अकृत्रिम स्नेह और दूसरी पोर एक विशेष प्रकार का
में और क्या-क्या लिखा है जो समस्या के अन्य दायित्व-बोष कि बाय छोटेलालजी के संपर्क में
में पहलुमों से संदर्भित है, और वे नहीं चाहते होते
पहलुमा स सदाभत आने और उनका स्नेह पाने का अर्थ है उसके योग्य
कि जिस व्यक्ति ने खुल कर अनेक-अनेक बातें अपनी बनने और बने रहने का प्रयत्न । वे यों तो इतने
पराई लिखी है वे सब दूसरों तक पहुँचें। उनकी निरभिमानी और निःशल्य थे कि यदि कोई उनके इस महिमा की गहरी छाप मेरे मन पर पड़ी है। स्नेह से और उस स्नेह के अधिकार से मुक्त होना धी साहू शान्तिप्रसादजी की अनेक सामाजिकचाहे, उच्छं खल होना चाहे, या उपकार के प्रति साहित्यिक प्रवृत्तियों से सम्बन्धित होने का प्रर्थ मेरे अपकारी होना चाहे तो हो ले-कहीं कोई रुकावट लिए यह था कि बाबू छोटेलालजी का सतत सानिध्य नहीं थी। उनके पास कोई दंड-पाश था ही नहीं पाऊँ । ज्ञान और अनुभव के अनेक खाली कक्षों को सक्रिय विरोध भी नहीं था-एक सरल सी प्रतिकूल वे अपने व्यक्तित्व की समृद्धि से भरते थे। मेरा प्रतिक्रिया भी उन पर भारी पड़ती थी। सारी जैन यह सौभाग्य रहा है कि साहूजी ने मुझे निर्देशन समाज से उनके संपर्क थे। सब कोई अपनी समस्यायें भी दिया है और कार्य करने की स्वतंत्रता भी। कई बेझिझक उनके पास लिख भेजने थे-प्रधिकतर बार ऐसे अवसर भी प्राते थे जब किसी विपय या प्राथिक या व्यक्तिगत कटिनाई की या किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में, एक विशेष पृष्ठभूमि के माध्यम से अपना कोई काम साधने का अनुरोध । अाधार पर लिखा गया निर्णय बाबू छोटेलालजी इन सब चिन्तामों को वे अपने ऊपर प्रोढ़ लेते थे। की सम्मति के साथ मेल नहीं खाता था। विशेष उनका दफ्तर उनके साथ चलना था। बात करते. कारण यह होता था कि उनकी दृष्टि में सदा ही करते व जेब में हाथ डालते-एक लिफाफा निका. प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहानुभूति का प्रातरेक रहता लने जिममें ढेर सारी चिट्रियाँ होती। सब मिली- था अतः अनुशासन का व्यक्ति-निरपेक्ष रुख बे जुली और फिर धीरे-धीरे संभाल कर एक-एक बहुत कम समझना चाहते थे। यूबी यह कि अपने कागज बन्द का बन्द छाँटने जाते और कोई एक या विचार या अपनी असहमति प्रगट कर देने के बाद दो कागज निकाल लेते। जिनके बारे में उन्हें चर्चा सामूहिक निर्णय के साथ हो जाते थे। लेकिन
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
समूह
मुझे लगता है ऐसे अवसरों पर कर्तव्यों की द्विविधा में के निर्णय को मान्यता देते हुए भी वास्त विक सहानुभूति उनकी व्यक्ति के प्रति ही रहती थी। योजनायें उनकी बड़ी-बड़ी होती थीं क्योंकि न उत्साह की कमी होती थी, न साधनों की, न परिकल्पना के विवरणों को लगता था कि एक महत्व पूर्ण कदम उठा लिया गया, एक बहुत बड़ी बात होने वाली है, कदम ठीक दिशा में बढ़ रहे हैं किन्तु मंजिलें दूर रह जाती थीं. मादमी पीछे छूट जाते थे—गामी रहने थे तो केवल बाबू छोटेलालजो अपनी भावनाओं में सदा हरे-भरे । कारण कि उनका मन प्रकाश के महत् विस्तार में तैरता था लेकिन रोग जर्जर शरीर धरा पर उठाये गये पगों का संतुलन नहीं भान पाता था। रोग जितना ही
.
५६ छ
प्राक्रामक होता, उससे जूझने का उनका पाग्रह
उतना हो प्रबल हो उठता और जब जीत रोग की होती तो स्वस्थ होने की प्रतीक्षा दूभर हो उठती और अधूरे कार्यक्रमों को स्वास्थ्य के अगले चरण में जल्दी से जल्दी पूरा कर लेने की व्यग्रता तन-मन को फिर झकझोर जाती । रोग की तीव्रता और कार्य कर डालने की व्यपता की होड़ का परिणाम होता अधिक रोग, अधिक दुर्बलता और यह क्रम चलता रहता । उनके कृतित्व के अनेक आयामों को चर्चा अभिनन्दन ग्रन्थ में होगी ही उस सबके, परिपेक्ष्य में मेरी पलों के सामने तैर जाती है जनवरी १९६६ की संध्याकी वह ज्योति शिखा जिसे मैंने श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया था और जिसके बालोक में स्नेह - सिक्त होने का सौभाग्य मुझे मिला था।
।
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गायन्ति देवाः किल गीतकानि
धन्यास्तु ते भारतभूमि भागे। स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते
भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वान् ॥
-विष्णुपुराण १११११४
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SABRETO
बाबुछोटेलाल जैन स्मृतिग्रंथ
खण्ड
इतिहास,
पुरातत्त्व एवं शोध
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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा
गोकुल चन्द्र जैन, एम० ए०
प्राचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी
सोमदेवकृत यशस्तिलक (६५६ ई०) में भारतीय
तथा विदेशी वस्त्रों के अनेक उल्लेख हैं । इन उल्लेखों से एक पोर प्राचीन भारतीय वेशभूषा का पता चलता है, दूसरी धोर प्राचीन भारत के समृद्ध वस्त्रोद्योग एवं विदेशी व्यापारिक सम्बन्धों पर भी प्रकाश पड़ता है। भारतीय साहित्य में वस्त्रों के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं । किन्तु यशस्तिलक के उल्लेखों की यह विशेषता है कि उनसे कई - एक वस्त्रों की सही पहचान पहली बार होती है । इन वस्त्रों को मुख्यतया दो भागों में विभक्त किया जा सकता है
१. सामान्य वस्त्र
२. सिले हुए वस्त्र
सामान्य वस्त्रों में नेत्र, चीन, चित्रपटी, पटोल, रल्लिका, दुकूल, प्रांशुक और कौशेय आते हैं । पोशाकों में कंचुक, वारवारण, चौलक, चण्डानक. पट्टिका, कौपीन, वैकक्ष्यक, उत्तरीय, परिधान, उपसंख्यान, निपोल, उष्णीष, भावान, चोवर और कपट का उल्लेख है । कुछ अन्य गृहोपयोगी वस्त्रों में हंसतुलिका, उपधान, कन्था, नमत, वितान, चेलचोरी माये हैं. इन वस्त्रों का विशेष परिचय निम्न
प्रकार
चीन, चित्रपटी, पटोल और रल्लिका का उल्लेe for में एक साथ हुआ है । सभा
मण्डप में जाते समय सम्राट् यशोधर ने देखा कि घोड़ों को उक्त वस्त्रों की जोनें पहनाई गई हैं ।'
यशस्तिलक के उल्लेखों से इन वस्त्रों पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ता, इसलिए इनका सही परिचय सोमदेव के पूर्वानरकालीन साहित्य से प्राप्त करना होगा ।
नेत्र - श्रुतदेव ने नेत्र का अर्थ पतला पट्टकूल किया है। इससे अधिक जानकारी यश· तलक से से नहीं मिलती । नेत्र के विषय में डा० वासुदेव शरण अग्रवाल ने हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययनः तथा जायसी के 'पदमावत' में सर्वप्रथम विशेष रूप से प्रकाश डाला है। इसके पूर्व किसी भी हिन्दी या प्रग्रेजी ग्रन्थ में नेत्र का इतना विशद विवेचन नहीं किया गया। उसी सामग्री के प्राधार पर तंत्र का परिचय इस प्रकार है
नेत्र एक प्रकार का महीन रेशमी वस्त्र था । यह कई रंगों का होता था । इसके थानों में से काट कर तरह-तरह के वस्त्र बना लिये जाते थे ।
साहित्य में नेत्र का उल्लेख सबसे पहले कालीदास ने किया है । 3 बार ने नेत्र के बने विभिन्न प्रकार के वस्त्रों का कई बार उल्लेख किया है । मालती धुले हुए सफेद नेत्र का बना केंचुली की तरह हलका कंचुक पहने थी । हर्ष निर्मल जल से
१. नेत्रचीन चित्रपटीपटोलरल्लिकाद्या वृतदेहानां वाजिनाम्, यश० सं० पू० पू० ३६८ २. नेत्राणां सूक्ष्मपट्ट्कूलवारलानाम्, यशः सं० पू०, पृ० ३६८. सं० टीका ३. नेत्रक्रमेोपरुरोधसूर्यम्, रघुवंश ७/२६
४. starवलनेत्रनिमितेन निर्मोकलघुतरेणाप्रपदीन-कंचुकेन, हर्षचरित, पृ० ३१
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
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धुले हुए नेवसूत्र की पट्टी बांधे हुए एक अधोवस्त्र पहने थे।
बाण ने अन्य प्रसंग पर अन्य वस्त्रों के साथ नेत्र के लिए भी अनेक विशेषरण दिये हैंसांप की केंचुली की तरह महीन, कोमल केले के गामे की तरह मुलायम, फूंक से उड़ जाने योग्य हलके तथा केवल स्पर्श से ज्ञात होने योग्य बाण ने लिखा है कि इन वस्त्रों के सम्मिलित प्राच्छादन से हजार-हजार इन्द्रधनुषो जैसी कान्ति निकल
।
रही थी। इस उल्लेख से रंगीन नेत्र का पता लगता है। वाण ने छापेदार नेत्र के भी उल्लेख किये हैं। राज्यधी के विवाह के अवसर पर खम्भों पर छापेदार मंत्र लपेटा गया था। एक अन्य स्थान पर छापेदार नेत्र के बने सूचनों का उल्लेख है। सम्भवतया नेत्र की विनावट में ही फूलपत्तियों की भांत डाल दी जाती हो।
नाकर में चौदह प्रकार के नेत्रों का उल्लेख है । १०
चौदहवीं शती तक बंगाल में नेत्र अथवा नेत एक मजदूत रेशमी कपड़े को कहते थे। इसकी पाचूड़ी पहनी और बिछाई जाती थी।"
पदमावत के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि सोलहवीं शती तक नेत्र का प्रचार था, जायसी ने तीन बार नेत्र अथवा नेत का उल्लेख किया है । रतनसेन के शयनागार में अगर चन्दन पोतकर नेत के परदे लगाये गये थे । १२ पदमावती जब चलती थी ती नेल के पांवड़े बिछाये जाते थे। एक अन्य प्रसंग में भी मार्ग में नेत बिसाने का उल्लेख है । १४
। मण्डित
है
भोजपुरी लोकगीतों में नेत का उल्लेख प्रायः भाता है। १४ बंगला में भी नेत के उल्लेख मिलने
(नेतर यांचते चर्म मति करिया घर पर वाशिनि पोले, अर्थात नेत के प्रांत में चमड़े से डंकी हुई स्त्री रूपी व्याघ्री पर घर में पोसी जा रही है, धमंमंगल में गोरखनाथ का गीम) १६
चीन - चीन का प्रर्थव तदेव ने चीन देश में होने वाले वस्त्र का किया है। १७ सोमदेव के बहुत समय पहले से भारतीय जन चीन देश में भाने वाले वस्त्रों से परिचित हो चुके थे। डा० मोतीचन्द ने "भारतीय वेशभूषा" में चीन देश में मानव मे व के विषय में पर्याप्त जानकारी दी है। उसके आधार पर उन यत्रों का परिचय यहां दिया गया है।
५. विमलपयो धोनेन नेत्रसूत्रनिवेशशीभिनाधरवामसा, वही, पृ० ७०
६.
निर्मोकनिमैः, अक्टोररम्भागर्भकोमलैः, निश्वासहायें, स्पर्शानुमेये: वामोभिः वही, पृ०१४३
७. स्फुरद्विभरिन्द्रायुधमह रिव संचादितम् वही, पृष्ठ १४३
८. चित्रपटवेष्ट्यमानंश्च स्तम्भः, वही पृष्ठ १४३
,
१. उत्रिनेत्रकुमारस्वस्थानस्थगित जंपाकाण्डे वही, पृष्ठ २०६
१०. हरिणा, वेगना, नखी, सर्वाग, गरु, सुचीन, राजन, पंचरंग, नील, हरित, पीत, लोहित, चित्रवर्ण एवम्बिध चतुर्दश जाति नेत देयु ॥ रत्नाकर, पृष्ठ २२
११. तमोनाशचन्द्रदास -ग्रासपैक्टस श्राफ बंगाली सोसायटी फाम बंगाली लिटरेचर, पृष्ठ १८०-१८१ १२. वर जूडि तहां सोवनारा अगर पति सुख नेत मोहारा । प्रवाल- पद्मावत ३३६४
१३. पालक पांव कि माहिपाटा नेता जोन वाटा । वही ४८५७
१४. नेत विद्यावा वाट, वही, ६४११८
१५. राजा दशरथ द्वारे चित्र उरेहन, ऊपर नेत फहरामु है। जनपद, वर्ष १ अ ३, अप्रैल १९३६, पृ० ५२ ।
१६. उद्भुत, अग्रवाल, पद्मावत, पृष्ठ ३३६
१७. चीनानां चीनदेशोत्पन्नवस्त्राणाम् यश० मं० पू० ० ३३६, मं० टी०
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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा मध्य ऐशिया के प्राचीन पथ पर बने हुए एक होते हैं, जिनमें बुनावट में ही फूलपत्तियों की भांत चीनी रक्षागृह से एक रेशमी थान मिला, जिस पर डाल दी जाती थी । बंगाल इन वस्त्रों के लिए सदा ई० पू० पहली शताब्दी की ब्राह्मी में एक पुरजा से प्रसिद्ध रहा है । वाणभट्ट ने लिखा है कि प्राग्ज्यो. लगा हुमा था। यह इस बात का द्योतक है कि तिषेश्वर (मासाम) के राजा ने श्रीहर्ष को उपहार भारतीय व्यापारी चीनी-रेशमी कपड़े को खोज में में जो बहुमूल्य वस्तुयें भेजी उनमें चित्रपट के तकिये चीन को सीमा तक इतने प्राचीन काल में पहुँच गये भी थे, जिनमें समूर या पक्षियों के बाल या रोए थे।15
भरे थे।२३ चीन देश से आने वाले वस्त्रों में सबसे अधिक उल्लेख चीनांशुक के मिलते हैं । १६ यह एक रेशमी पटोल-पटोल का अर्थ यशस्तिलक के संस्कृत वस्त्र था । वृहत् कल्पसूत्र भाष्य में इसकी व्याख्या टीकाकार ने पट्ट कूल वस्त्र किया है । २४ गुजरात में कोशकार नामक कीडे से अथवा चीन जनपद के अभी भी पटोला नामक साड़ी बनती है तथा इसका बहुत पतले रेशम से बने वस्त्र से की गई है ।२० व्यवहार होता है। इस साड़ी को लड़की का मामा
विवाह के अवसर पर उसे भेंट करता है । यह साड़ी चीनांशुक के अतिरिक्त चीन और वाह लीक से
बांध रंगने की विधि से रंगे गये ताने-बाने से भेड़ों के ऊन, पश्म (गंकव), रेशम (कीटज) और
वनती है। इसकी बिनावट में सकरपारे पड़ते हैं, पट्ट (पट्टज) के बने वस्त्र माने थे। ये ठीक नाप के,
जिनके बीच में तिपतिये फल होते है। कभी कभी खुशनुमा गंगवाले तथा स्पर्श करने में मुलायम होते
अलंकारों में हाथियों को पंक्ति, पेड़-पोचे, मनुष्यथे । इन देशों से नमदे (क्ट्रीकृत) कमल के रंग के
प्राकृतियां और चिड़िया भी होती हैं । २५ हजारों कपड़े, मुलायम रेशमी कपड़े तथा मेमनों की खालें भी पाती थी।२१
रल्लिका-रल्लिका का अर्थ यगस्तिलक के चित्रपटो-यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार संस्कृत टीकाकार ने रक्त कबल किया है। ने चित्रपटो का अर्थ रंग-बिरंगे सूक्ष्म वस्त्र किया रत्नक एक प्रकार का मृग होता था जिसके ऊन है। २२ चित्रपटी या चित्रपट वे जामदानी वस्त्र ज्ञात से यह कपड़ा बनता था। सोमदेव ने जंगल का
१८. सर पारल स्टाहन-एशिया मेजर, हर्थ एनिवर्सरी बानुम १९२३, पृ० ३६७-३७२ १६. प्राचारोग, २,१४,६। भगवती,३३,९। अनुयोगद्वार ३६, निशीथ ७,११ । प्रश्नव्याकरण ४,४ २०. कोशिकाराख्या.कृमिः तस्माज्जातम , अथवा चीनानाम् जनपदः तत्र यः श्लक्षणतरपट.तस्माज्जातम्
वृहत्वल्प० ४,३६६२ । २१. प्रमाणरागस्पर्शादयं बाल्हीचीनसमुद्भवम् । औरणं च रांकवं चैव कीट पट्ट तथा ॥ कुटीकृतं
तथैवात्र कमलाभं सहस्रशः । इलक्षणं वस्त्रमकसपामाविकं मृदुचाजिनम् । महाभा० सभा
पर्व ५११२७ २२. चित्रा नानाप्रकारा याः पट्यः सूक्ष्मवस्त्राणि, यश सं० पू० पृ० ३६८, सं० टी० २३. अग्रवाल-हारतः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १६८ २४. पटोलानि च पट्टयूलवस्त्राणि, यश० सं० पू०. पृ० ३६८ २५. वाट-इडियन आर्ट एट दो देहली एक्जिविशन, पृ० २५६-२५६ । उद्धत, मोतीचन्द्र भारतीय ____ वेशभूपा, पृ० ६५ २६. रल्लिकारच रक्तादिकंबल विशेषाः, यश ० सं० पू० पृष्ठ ३६८, स० टी ।
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बायू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ वर्णन करते हुए सेही के द्वारा परेशान किये जाते पहिने । ४ अन्य प्रसंगों में भी दुकूल के उल्लेख रल्लकों का उल्लेख किया है।२७
हैं । डा. मोतीचन्द्र ने दुकल का परा परिचय निम्न रल्लिका या रस्लक को अमरकोष कार ने भी प्रकार दिया हैएक प्रकार का कम्बल कहा है। जिस समय प्राचारोग के संस्कृत व्याख्याकार शीलांकाचार्य युवांगच्वांग भारत माया उस समय भारत. ने दुकूल को बंगाल में पैदा होने वाली एक विशेष वर्ष में इस वस्त्र का खूब प्रचार था। उसने प्रकारको रुई से बनने वाला वस्त्र कहा है.३५ अपनी यात्रा विवरण में होलाली अर्थात् रल्लक का किन्तु यह व्याख्या बारहवीं शती की होने से विश्व. उल्लेख किया है। उसने लिखा है कि यह वस्त्र सनीय नहीं है । निशीथ के चूणिकार ने दुकूल को किसी जंगली जानवर की ऊन से बनता था। यह दुकून नामक वृक्ष की छाल को कूट कर उसके कन भासानी से कत सकता था तथा इससे बने रेशे से बनाया जाने वाला वस्त्र कहा है। वस्त्रों का काफी मूल्य होता था।२६
अर्थशास्त्र से दुकूल के विषय में कुछ और भी सोमदेव ने एक अन्य प्रसंग पर प्रौर अधिक जानकारी मिलती है। इसके अनुसार बंगाल में m: हिा है कि रल्लकों के रोगों से कम्बल बनने वाला दुकूल सफ़ेद और मुलायम होता था। बनाये जाते थे, जिनका उपयोग हेमन्त ऋतु में किया पौंड देश के दुकूल नीले और चिकने होते थे तथा जाता था।३०
सुवर्णकुइया के दुकूल ललाई लिये होते थे। . दुकूल-सोमदेव ने दुकूल का कई बार उल्लेख कौटिल्य ने यह भी लिखा है कि दुकूल तीन तरह किया है। राजपुर में दुकूल और अंशुक की वैजयन्तियां से विना जाता था तथा बिनाई के अनुसार उसके (पताकायें) लगायो गयी थी ।३१ राज्याभिषेक के एकांशुक, अर्षाशुक, दयंशक तथा वयंशुक ये चार बाद सम्राट यशोधर ने धवल दुकूल धारण भेद होते थे।३६ किये।३२ बसन्तोत्सव के अवसर पर गोरोचना से डा० अग्रवाल ने दुकूल के विषय में एक प्रश्न पिंजरित दुकूल धारण किए ३ तथा सभामण्डप उठाया है। उन्होंने लिखा है कि "सम्भवतः दुकल (दरबार) में जाते समय उदगमनीय मंगल-दुकूल का अर्थ देश्य या प्रादिम भाषा में कपड़ा था,
२७. क्वचिनिः शल्यशल्लकशनाकाजालकोल्यमानरल्लकलोकलोकम् यश० उत्त०१०२०० । २८. अमरकोष ३॥६॥ ११६ २६. वाटस-युवांगच्यांगम ट्रावल्स इन इंडिया, भाग १, लन्दन १९०४ । प्रा०२० उडत, डा.
मोतीचन्द्र भारतीय वेशभूषा, पृ० ३०. रल्लकरोमनिष्पन्नकम्बललोकलीलाविलासिनी-हैमने महति । यश० सं० पू० ५७५ ३१. दुकूलाँशुकवैजयन्तीसंततिभिः, यश०सं०पू०१०१६ ३२. धृतधवलद्कूलमाल्यविलेपनालंकारः, वही, पृ०३२३ ३३. त्वं देव देहेऽभिनवे दधानो, गोरोचना पिजरिने दुकूले । वही, पृ० ५९२ ३४. गृहीतोद्गमनीयमंगलदुकूल, वही, उन० पृ०८१ ३५. दुकूलं गौणविषयविशिष्टकामिकम्, प्राचारांग २, वस्त्र० सू० ३६८ सं० टी० । ३६. दुगुल्लो रुक्खो नरस वागो धेतु उदूखले कुट्टिजति पागिएण ताव जाव भूसीभूतो ताहे कज्जति
एतेसु दुगुल्लो । निशीथ ७, १०-१२ । ३७. वांगकं श्वेतं स्निग्धं दुकूलं, पौण्डकं श्यामं मणिस्निग्ध, सौवर्णकुड्यक सूर्यवर्णम्, अर्थशास्त्र २०११ ३८. मणिस्निग्यौदकवानं चतुरत्रवानं व्यमित्रवानं च । एतेषामेकांशुकमध्यर्षद्वित्रिचतुरंशुकमिति । वही२.११
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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा जिससे कौलिक (हि. कोली) शब्द बना । दोहरी बाण ने लिखा है कि शूद्रक ने जो दुकूल पहन रखे बादर या पान के रूप में विक्रयार्थ पाने के कारण वे अमृत के फेन के समान सफेद थे. उनके किनारों यह विकूल या दुकूल कहलाने लगा।" साहि- पर गोरोंचना से हंस मिथुन लिखे गये थे तपा त्यिक सामग्री की साक्षीपूर्वक इस विषय पर विचार उनके छोर कमर से निकली हुई हवा से फड़फड़ा करने से डा० साहब के इस कथन का समर्थन रहे थे।४४ युद्धक्षेत्र को जाते समय हर्ष ने भी हंसहोता है।
मिथुन के चिन्हयुक्त दुकूल का जोड़ा पहना था।" सोमदेव ने तीन बार सम्राट यशोधर को दुकूल प्राचारांग (२, १५, २०) में एक जगह कहा गया पहनने का उल्लेख किया है। बसन्तोत्सव के समय है कि पाक ने महावीर को जो हंस दुकूल का जोड़ा तो निश्चित रूप से सम्राट ने दो दुकूल धारण पहनाया था, वह जना
पहनाया था, वह इतना पतला था कि हवा का किये थे, क्योंकि यहां पर सोमदेव ने 'दकले' इस मामूली झटका उसे उड़ा ले जा सकता था। उसकी द्विवचन का प्रयोग किया है।४.
बनावट की तारीफ कारीगर भी करते थे। वह
कलाबतू के तार से मिला कर बना था और उसमें दूसरे प्रसंग में उद्गमनीय मंगल कहा है।"
हँस के प्रलंकार थे। अन्तगढ़सदामो (पृष्ठ ३२) के अमरकोषकार ने लिखा है कि धुले हुए वस्त्रों के
अनुसार दहेज में कीमती कपड़ों के साथ दुकूल के जोड़ों को (दो वस्त्रों को उद्गमनीय कहते हैं । ४२
जो भी दिये जाते थे। कालिदास ने भी इंस इससे यही तात्पर्य निकलता है कि सम्राट ने इस
चिन्हित दुकूल का उल्लेख किया है। किन्तु उससे प्रसंग में भी दुकूल का जोड़ा पहना था। तीसरे
यह पता नहीं चलता कि दुकूल एक था या जोड़ा स्थल पर फूल का विशेषण धवल दिया है।
था। इसी तरह भट्टिकाव्य में भी दो बार दुकूल इस समय भी सम्राट ने दुकूल का ही जोड़ा पहना
शब्द पाया है,४६ परन्तु उससे भी इसके जोड़े होने होगा । अन्यथा सोमदेव अधोवस्त्र के लिए किसी
या न होने पर प्रकाश नहीं पड़ता। गीतगोबिन्द अन्य वस्त्र का उल्लेख अवश्य करते।
में करीब चार बार से भी अधिक दुकूल का उल्लेख गुप्त युग मे तो किनारों पर हंस मिथुन लिखे हुमा है, उसी में एक बार "दुकूल" इस द्विवचन हुए दुकूल के घोड़े पहनने का माम रिवाज था। का भी व्यवहार हमा है।
३६. अग्रवाल-हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन-५०७६ ४०. गोरोचनापिंजरिते दुकूले, यश० सं० पू०, पृ० ५६२ ४१. गृहीतोद्गमनीयमंगलदुकूलः, यश २ उत्त० पृ० ८१ ४२. तत्स्यादुद्गमनीयं यद्धौतयोर्वस्त्रयोयुगम्, प्रमरकोष २, ६, ११३ । ४३. धृतधवलदुकूलमाल्पविलेपनालंकारः, यश०सं०पू०, ए०३२३ ४४. प्रमतफेनधवले गौरोचनालिखितहसमिथुनसनाथपर्यन्ते चारुचमरवायूप्रतितान्तदेशे दूकूले वसानम,
कादम्बरी, पृ०१७ ४५. परिधाय राजहंसमिथुनलक्ष्मणि सदृशे दुकूले, पृ. २०२ ४६. उद्धत, मोतीचन्द्र, भारतीय वेशभूषा, पृ० १४७-१४८ ४७. प्रामुक्ताभरणः सग्बी हंसचिह्नदुकूलवान्. रघुवंश १७४२५ ४८. उदक्षिपन्यदुकूलकेतून, भटिकाव्य, ३॥३४॥ अथ स वल्कदुकूलकुपादिभिः, वही १११ ४६. शिथिलीकृतजघनदुकूलम्, गीतगोविन्द २,६, ३ । श्यामलमृदुलकलेवरमण्डलमधिगतमोरकूलम्,
वही ११, २२, ३ । विरहमिवापनयामि पयोधररोधकसुरसिदृकूलम्, वही, १२, २३, ३ ५०. मंजुलवंबुलकु जगतं विचकषं करेण दुकूले, वही १, ४, ६ ।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
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इस विवरण से इतना तो निश्चित रूप से ज्ञात हो जाता है कि दुकूल जोड़े के रूप में प्राता था । इसका एक चादर पहनने और दूसरा प्रोढ़ने के काम में लिया जाता था। दुकूल के पान को काट कर अन्य वस्त्र भी बनाये जाते थे। बाण ने दुकूल के बने उत्तरीय, साडियां, पलंगपोश, तकियों के गिलाफ प्रादि का वर्णन किया है।"
दुकूल के विषय में एक बात और भी विचा रणीय है । बाद के साहित्यकारों तथा कोपकारों ने क्षोम और दुकूल को पर्याय माना है। स्वयं यशस्तिलक के टीकाकार ने दुकूल का अर्थ क्षोमवस्त्र किया है । ५२ अमरकोषकार ने भी दुकूल को पर्याय माना है। वास्तव में दुकूल और क्षीम एक नहीं ये । कौटिल्य ने इन्हें अलग-अलग माना है । ५४ बाण ने क्षोम की उपमा दूधिया रंग के क्षीर सागर से तथा प्रांशुक की सुकुमारता की उपमा दृफूल की कोमलता से दी है । ५५
५३
इस तरह यद्यपि क्षोम और दुकूल एक नहीं थे फिर भी इनमें अन्तर भी अधिक नहीं था। दुकूल । और क्षोम दोनों एक ही प्रकार की सामग्री से बनते थे। इनमें अन्तर केवल यह था कि कुछ मोटा कपड़ा बनता वह क्षोम कहलाता तथा जो महीन बनता वह दुकूल कहलाता। दुकूल की व्याख्या करने के
बाद कौटिल्य ने लिखा है कि इसी से काछी धौर पोटदेश के सोम की भी व्याख्या हो गयी। गणपति शास्त्री ने इसका खुलासा करते हुए लिखा है कि मोटा दुकूल ही शोम कहलाता था। हेमक्षोम । ५७ चन्द्राचार्य ने इसे और भी अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है कि शुभा प्रतसी क्षुमा (अलसी) को कहते हैं, उससे बना वस्त्र क्षोम कहलाता है। इसी तरह शुमा से (अलसी से ) रे निकाल कर जो वस्त्र बनता है वह दुकूल कहलाता है।" साधुमुन्दर गरिए ने भी लिखा है कि दुकूल अलसी से बने कपड़े को कहते हैं । पूर्वी भागों में (घासाम बंगाल) - अलसी नामक घास बहुतायत से होती थी। बंगाल में इसे कांसुर कहा जाता था।" दुकूल मौर सोम क्षोम इसी घास के रेशों से बनने वाले वस्त्र रहे होंगे ।
भारतवर्ष के
में
यह क्षुगा या
सोमदेव ने दुकूल का कई बार उल्लेख किया है, किन्तु क्षोम का एक बार भी नहीं किया। संभव है सोमदेव के पहले से ही दुकूल धोर क्षोम पर्यायवाची माने जाने लगे हों और इसी कारण सोमदेव ने केवल दुकूल का प्रयोग किया हो । सोमदेव के उल्लेख से इतना अवश्य मानना चाहिये कि दावी शताब्दी तक दुकूल का खूब प्रचार था तथा यह वस्त्र सम्भ्रान्त और बेशकीमती माना जाता था ।
५१. प्रग्रवाल - हरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन २७६ ५२. दुकूलं क्षोमवस्त्रम्, यश० सं० पू० पृ० ५६२ सं० टीका ५२. क्षौमं दुकूलं स्यात् । भ्रमरकोष २,६,११३ ॥
५४. अर्थशास्त्र २, ११
५५. क्षीरोदायमानं क्षोमैः, हर्षचरित, पृ० ६० ।
चीनांशुकसुकुमारे- दुकूलकोमले, वही पृ० ३६
५६. ते कामिकं पौण्डकं च क्षौमं व्याख्यातम् पशास्त्र २, ११
५७. स्कूलमेव हि क्षौममिति व्यपदिश्यते, वही सं० टी०
५८. धुमा तमी तस्या विकारः क्षोमम्, दुह्यते क्षुमाया श्रकृष्यते दुगूलम् अभियानचिन्तामण,
३।३३३
५६. दुकूलन्तसीपटे, शब्दरत्नाकर ३२११
६०. डिनरी ग्राफ इकोनोमिक प्रोडक्टस, भा० १ ० ४६८४६६ उद्धत, डॉ० वासुदेवशरण
3
अग्रवाल पंचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० ७६-७७
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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा
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अंशुक - यशस्तिलक में कई प्रकार के अंशुक का उल्लेख है यथा - अंशुक सामान्य या सफेद अंशुक, " कुसुमांशुक या ललाई लिये हुये रंग का शुक, २ कामिकांक अर्थात् नीला या मटमैले रंग का अंशुक
अंशुक भारत में भी बनता था तथा चीन से भी प्राता था। चीन से माने वाला अंशुक चीनांशुक कहलाता था। भारतीय जन दोनों प्रकार के अंशुकों से बहुत प्राचीन काल से परिचित हो चुके थे । arrige के विषय में ऊपर चीन वस्त्र की व्याख्या करते हुए विशेष लिखा जा चुका है, प्रतएव यहाँ केवल अंशुक या भारतीय अंशुक के विषय में विचार करना है ।
६७
६८
कालिदास ने सितांशुक, ६४ प्ररुणांशुक, ६५ रक्तांशुक, ६ ६ नीलांशुक, तथा श्यामांशुक, का उल्लेख किया है । सम्भवतः अंशुक पहले सफेद बनता था, बाद में उसकी विभिन्न रंगों में रंगाई की जाती थी । कार्दमिकांशुक का अर्थ यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने कस्तूरी से रंगा हुआ वस्त्र किया है। कात्यायन के अनुसार भी शकल धौर
६६. ऋतुसंहार, ६,४,२६
६७. विक्रमोर्वशी, पृ० ६०
६३
कर्दम से वस्त्र रंगने का रिवाज था, जिन्हें शाकलिक या कादमिक कहते थे । (४।२।२ वा० ) ७०
1
बाग ने अंशुक का कई बार उल्लेख किया है । वे इसे अत्यन्त पतला और स्वच्छ वस्त्र मानते थे । एक स्थान पर मृणाल के रेशों से अंशुक की सूक्ष्मता का दिग्दर्शन कराया है । ७२ बारण ने फूल पत्तियों और पक्षियों की प्राकृतियों से सुशोभित sire का भी उल्लेख किया है । ७३
प्राकृत ग्रन्थों में 'अंसुय' शब्द आता है । प्राचाराँग में अंशुक और चीनांशुक दोनों का पृथक पृथक निर्देश है । ७४ वृहत् कल्पसूत्र भाष्य में भी दोनों को अलग-अलग गिनाया है । ७५ प्राचीन भारतवर्ष में दुकूल के बाद सबसे अधिक व्यवहार अंशुक का हो देखा जाता है । सोमदेव के उल्लेखो से ज्ञात होता है कि दशवीं शताब्दी में श्रंशुक का पर्याप्त
प्रचार था ।
कौशेय कौशेय का उल्लेख सोमदेव ने विभिन्न देशों के राजाओंों द्वारा भेजे गये उपहारों में किया है । कौशल नरेश ने सम्राट यशोधर को कौशेय वस्त्र उपहार में भेजे।
६१. सितपताकांक, यश० उत्त०, पृ० १३ ६२. सुम्मांशुकपिहितगौरीपयोधर, वही, पृ० १४ ६३. कार्दमकांशुकाधिकृतकायपरिकरः, वही, पृ० २२० ६४. सितांशुका मंगलमात्र भूपरणा, विक्रमोर्वशी, ३, १२ ६५. अरुण रागनिषेधिभिरंशुकैः, रघुवंश, ६,४३
६८. मेघदूत, पू० ४१
६६. कार्दमिक कर्दमेण रक्तम्, यश० उत्त०, पृ० २२०, सं० टी० ७०. उडत अग्रवाल- पाणिनीकालीन भारतवर्ष, पृ० २२५
७१. सूक्ष्म विमलेन प्रज्ञावितानेने वांशुकै नाच्छादितशरीरा, हर्षचरित, ७२. विषतन्तुमयेनांशुकेन, वही, पृ० १० ।
७३. बहुविधकुसुमशकुनिशतशोभितादतिस्वच्छादंशुकात्. वही, पृ० ११४ ७४. सुयाणि वा श्रीमुपाणि वा, प्राचारांग, २, वस्त्र० १४, ६ ७५. अंग ची च विगलंदी, बृहत् कल्पसूत्र ०४, ३६६१
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नाम था ।
कौशेय शहतूत की पत्ती खाकर कौवा बनाने वाले कीड़ों के रेशम से बनाए जाने वाले वस्त्र का ७६ देशी भाषा में अब इसका "कोशा" नाम शेष रह गया है। कोशा तैयार करने की वही पुरानी प्रक्रिया अब भी अपनाई जाती है। कौशा मंहगा, खूबसूरत तथा चिकना वस्त्र होता है महंगा होने के कारण जन साधारण इसका सदा उपयोग नहीं कर पाते, फिर भी विशेष अवसरों के लिए कौयो के वस्त्र बनवा कर रखते हैं। सुन्बेल खण्ड में अभी भी कोनो के साफे बांधने का रिवाज है।
बाबू छोटेलाल जैन स्मृति मंच
कौशेय के विषय में कौटिल्य ने कुछ अधिक जानकारी दी है। अर्थशास्त्र में लिखा है कि पत्रो की तरह कौशेय की भी बार योनियां होती हैं अर्थात कौशेय के कीड़े नागवृक्ष, लिकुच, वकुल तथा वट के वृक्षों पर पाले जाते हैं धौर तदनुसार कौशेय भी चार प्रकार का होता है। नागवृक्ष पर पैदा किया गया पोतव, लकुचि पर पैदा किया गया रेहुधा रंग का वकुल पर पैदा किया गया सफेद तथा बट पर पैदा किया गया नवनीत के रंग का होता है। कौशेय चीन से भी प्राता था। ७७
२. सिले वस्त्र
कंचुकचुक एक प्रकार का कोट था, किन्तु सोमदेव ने चोली अर्थ में कंचुक का प्रयोग किया
७६. कौशेयः कौषलेन्द्रः यश० सं० पू० पृ० ४७० ७७. मोतीचन्द्र - भारतीय वेशभूषा, पृ० १५ ७८ नागवृक्षी लिकुचौ वकुलो वटवच यौनयाः वाकुली, शेषा नवनीतवर्णा । - तथा कौशेयं २, ११ । ७९. देखो - उद्धरण संख्या ७८
1
है। "खेतों में जाती हुई कृषक वए कंचुक पहने थीं, जो कि उनके घटस्तनों के कारण फटे जा रहे थे। ७८
यशस्तिलक के संस्कृत टीकाकार ने कंचुक का अर्थ कूर्पासक किया है । ७०
दरबारा वारवारण का उल्लेख यशस्तिलक में अमृतमति के वर्णन के प्रसंग में धाया है। प्रमृतमति जब घण्टवक्र के साथ रति करके लौटी और जा कर यशोधर के साथ लेट गयी, उस समय जोर जोर से चल रहे उसके श्वासोच्छवास से उसका वारवारण कंपित हो रहा था । * श्रुतदेव ने वारवाण का अर्थ कंचुक किया है। 59 भ्रमरकोषकार ने भी कंचुक और वारवाण को एक माना है । ८२ किन्तु वास्तव में वारवाणु मंजुक की । तरह का हो कर भी कंचुक से भिन्न था। यह कंचुक की अपेक्षा कुछ कम लम्बा, घुटनों तक पहुँचाने वाला कोट था। डा० अग्रवाल ने इसका परिचय निम्न। प्रकार दिया है-
काबुल से लगभग २० मील उत्तर खेरखाना से चौथी शती की एक संगमरमर की मूर्ति मिली है । वह घुटने तक लम्बा कोट पहने हैं, जो वारबाग का रूप है। ठीक वैसा ही कोट पहने महिष्यता के खिलौनों में एक पुरुष मूर्ति मिनी है । ४
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पीतिका नागवृक्षिका, गोधूमबर्ग लौकुची, श्वेता चौनपटारच चीनभूमिजा व्याख्याताः । प्रर्थशास्त्र,
८०. कंचुकानि कूर्पासकाः, यश० सं० पू० पृ० १६ सं० टी० । ८१. निरुन्धाना चौत्कम्पोतालितवारवारणम्, यश० उत०, पृ० ५१
८२. बारवाणं कंचुकम्, वही, सं० ट० 1
८३. कंचुकी वारबाणों स्त्री, भ्रमरकोष, २, ८, ६४ १
८४. अग्रवाल हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १५०
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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा
मथुरा कला में प्राप्त सूर्य और उनके पावंचर अंगरक्षक सफेद वारबाण पहने था। १ कादम्बरी दण्ड और पिंगल की वेशभूषा में जो ऊपरी कोट में भी बाणभट्ट ने वारबारण का उल्लेख किया है। है वह वारबाण ही ज्ञात होता है । मथुरा संग्रहालय, चन्दापीड जब शिकार खेलने गया तब उसने वारमूर्ति सं० १२५६ की सूर्य को मूर्ति का कोट उपयुक्त बाण पहन रखा था । मृग-रक्त के सैकड़ों छोटे पड़ने खैरखाना को सूर्य-मूर्ति के कोट जैसा ही है। मृति से उसकी शोभा द्विगुणित हो गयी थी। २ मृगया संख्या ५१३ को पिंगल मूर्ति भी घुटने तक नीचा से लौट कर चन्दापीड परिजनों द्वारा लाये गये कोट पहने है । मथुरा में और भी प्राधी दर्जन मूर्तियों प्रासन पर बैठा और वारबाण उतार दिया। 3 में यह वेशभूषा मिलती है ।६५
उपयुक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ___ बारबारण भारतीय वेशभूषा में सासानी ईरान वारवारण केवल जिरह बस्तर के लिये नहीं, बल्कि की वेशभूषा से लिया गया। वारवारण पहलवी शब्द साधारण वस्त्र के लिये भी प्राता था । कौटिल्य के का संस्कृत प है। इसका फारसी रूप “वरबान" । उल्लेखानुसार तो वारबाग ऊनी भी बनते रहे होंगे। प्ररमाइक भाषा में “वरपानक (Varpanak) बागभट्ट को वारबारण की जानकारी हर्ष के दरबार सीरिया की भाषा में इन्हीं से मिलता जुलता में हुई होगी। भारतवर्ष में यह वस्त्र कब से माया, "गुरमानका" (gurmanaka) और अरबी में यह कहना मुश्किल है किन्तु इसके अत्यल्प उल्लेखों "जुरमानकह" (Gurmanaqah रूप मिलते हैं, से लगता है कि वारबारण का प्रयोग राजघरानों जो सब किसी पहलवी मूल शब्द से निकले होने तक ही सीमित रहा । सम्भव है अधिक मंहगा होने चाहियें।८६
से इसका प्रचार जनसाधारण में न हो पाया हो।
सोमदेव के उल्लेख से इतना निश्चय अवश्य हो जाता भारतीय साहित्य में चारबाग के उल्लेख कम
है कि दशवीं शताब्दी तक भारतीय राज्य-परिवारों मिलते हैं । कौटिल्य ने ऊनी कपड़ों में वारबाण की
में वारबाग का व्यवहार होता आया था तथा गणना यी है। ८७ कालीदास ने रघु के योद्धानों को
कंचक की तरह वारबाग भी स्त्री-पुरुष दोनों वारवारण पहने हुए बताया है।८८ मल्लिनाथ ने
पहनते थे। वारबाग का अर्थ कंचुक किया है। वारणभट्ट ने सेना में सम्मिलित हए कुछ राजाओं को स्तवरक बोलक-चोलक का उल्लेख सोमदेव ने सेनामों के बने वारबारण पहने बताया था।. दधीच का के वर्णन के प्रसंग में किया है । गौण सैनिक पैरों
८४. अग्रवाल-पहिच्छत्रा के खिलौने, चित्र ३०५, पृ० १७३, ऐन्गेण्ट इंडिया ८५. अग्रवाल-हर्षवरितः एक सांस्कृतिक प्रध्ययन, पृ०१५०, फुटनोट ८६ ८६. ट्रांजेक्शन माफ दो फिलोलाजिकल सोसायटी माफ लन्दन, १९४५, पृ० १५४, फुटनोट, हेनिंग ।
उद्धत, अग्रवाल-हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १५१ ८७. पारबाणः परिस्तोमः समन्तभद्रकं च प्राविकम्, अर्थशास्त्र, २६, ११ ८८. तद्योषवारबारणानाम्, रघुवंश ४।५५ ८६. वारवाणानां कंचुकानाम्, वही, सं० टी. ६०. सारमुक्तास्तवक्तिस्तवरकबारबारश्च, हर्षचरित, पृ. २०६ ६१. धवलवारबारधारिणम्, वही, पृ० २४ १२. मृगरुविरलवशतशवलेन वारबाणेन, कादम्बरी, पृ० २१५ ।
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बाबू छोटेलास जैन स्मृति ग्रन्थ तक लम्बा (माप्रपदीन) चोलक पहने थे। संस्कृत धुर सामने से खुला हुमा एक कोट दिखाया गया है, टीकाकार ने चोलक का प्रर्ष कूर्पास किया है।५ जिसकी पहचान चोलक से की जा सकती है। किन्तु देखना यह है कि टीकाकार इन वस्त्रों के मथुरा से प्राप्त हुई सूर्य की कई मूर्तियों में भी इसी वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट किये बिना ही कुछ भी प्रकार के खुले गले का ऊपरी पहरावा पाया जाता अर्थ कर देता है। ऊपर कंचुक के लिए कूर्पासक है। बष्टन की मूर्ति का भी ऊपरी लम्बा वेश चोलक कहा है यहां चोलक के लिए। वास्तव में ये सभी ही ज्ञात होता है । इसका गला सामने से तिकोना वस्त्र अलग-अलग तरह के थे।
खुला है । कनिष्क और चष्टन के घोलकों में अन्तर चोलक के विषय में डा. अग्रवाल ने निम्न
है। ये दोनों दो प्रकार के हैं। कनिष्क का धुराधुर प्रकार जानकारी दी है
बीच में खुलने वाला है और चष्टन का दुपरता
जिसका ऊपर का परत बायीं तरफ से खुलता है चोलक एक प्रकार का बह कोट था, जो कंबुक
तथा बीच में गले के पास तिकोना भाग खुला दिखाई या अन्य सभी प्रकार के वस्त्रों के ऊपर पहना जाता
देता है। कनिष्क की शैली का बोलक मथुरा संग्रथा। यह एक सम्मान्त या भादर-सूचक बस्त्र समझा जाता था। उत्तर-पश्चिम भारत में सर्वत्र मोशे के
हालय की टी०४६ संज्ञक मूर्ति में और भी स्पष्ट लिए इस वेश का रिवाज लोक में अभी भी है. जिसे चोला कहते हैं । चोला ढीला-ढाला गुल्फों तक सम्बा मध्य एशिया से लगभग सातवीं शती का एक खुले गले का पहनावा है, जो सब वस्त्रों से ऊपर ऐसा ही पुरुष पोलक प्राप्त हया है, जिसका गला पहना जाता है ।
तिकोना खुला है। कस्टन शैली के चोलक का मध्य एशिया से पाने वाले शक लोग इस बेश एक सुन्दर नमूना लाप मरुभूमि से प्राप्त मृण्मय को भारत में लाये होंगे और उनके द्वारा प्रचारित मूर्ति के चोलक में उपलब्ध है। यह उसरी वाईवंश होकर यह भारतीय वेशभूषा में समा गया।७ (३८६-५२५) के समय का है।०१
मथुरा संग्रहालय में जो कनिष्क की मूर्ति है, बाणभट्ट ने राजाओं के वेश-भूषा में चीन-चोलक उसमें नीचे लम्बा कंचुक और ऊपर सामने से धुरा- का उल्लेख किया है।०२
६३. परिजनोपनीत उपविश्यासने वारबारणमवतायं, वही, पृ० २१६ १४. प्र.प्रपदीनचोलकस्खलितगतिवलक्ष्य, यश०सं०पू०. पृ० ४६६ १५. चौलकः कूर्पासकः, वही, सं० टी० । १६. अग्रवाल-हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० १५२ ६७. अग्रवाल-वही, पृ० १५१
मोतीचन्द्र-भारतीय वेशभूषा, पृ० १६१ ६८. मथुरा म्युजियम हैंडबुक, चित्र ४, उद्धत, अग्रवाल-हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन,
पृ० १५१ ६६. अग्रवाल-वही, पृ० १५२ १००. वायवी सिलवान-इन्वेस्टिगंशन प्राफ सिल्क फाम एडसन गौल एण्ड लापनार (स्टाकहोम, १६४६)
प्ले०८-ए । उद्धत, अग्रवाल-वही, पृ. १५२ १०१. वायवी सिलवान-वही, पृ.८३, चित्र सं० ३२ । उद्धतं, अग्रवाल-वही, पृ० १५२ १०२. चाचितचीनचौलकैः, हर्षचरित, पृ० २०६
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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश भूषा
पण्डालक-चण्डातक का उल्लेख सोमदेव ने से एकदम सटा हा वस्त्र पहने थे, जिससे वे कौपीनघण्हमारी देवी का वर्णन करते हुए किया है । गीला धारी थेबानल की तरह लगते थे।०७ चमड़ा ही उस देवी का चण्डायक था।
कौपीन एक प्रकार का छोटा चादर कहलाता चण्डातक का अर्थ अमरकोषकार ने जांघों तक था जिसका उपयोग साधु पहनने के काम में पहुंचने वाला प्रधोवस्त्र किया है। यह एक करत च। प्रकार का जांघिया या घंघरीनमा वस्त्र था. जिसे उस्तरीय-उत्तरीय का उल्लेख भी तीन बार स्त्री और पुरुष दोनों पहनते थे।१०४
हुमा है । मुनिकुमार युगल शरीर ही शुम्र प्रथा के
कारण ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे उन्होंने दूकूल का __उष्णीव - शिरोवस्त्र में सोमदेव ने उष्णीष
उत्तरीय प्रोढ़ रखा हो।'०८ कुमार यशोधर के और पट्टिका का उल्लेख किया है। उत्तरापथ के
राज्याभिषेक का मुहूर्त निकालने के लिए जो ज्योतिषी सैनिक रंग-बिरंगा उष्णीष पहनते थे।०५ दक्षिणापथ
लोग इकट्ठे हुए थे. वे दुकूल के उत्तरीय से अपने मुह के सैनिकों ने बालों को पट्टिका से कस कर बांध
ढके थे। " रखा था।
राजमाता चन्द्रमति ने संध्याराग की तरह सोमदेव के उल्लेख से उष्णीष के प्राकार प्रकार हलके लाल रंग का उत्तरीय प्रोढ रखा था (संध्याया बांधने के ढंग पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता, केवल रागोत्तरीयवसनाम्, उत्त. ८२)। पोड़ने वाले इतना ज्ञात होता है कि उष्णीष कई रंग के बनते चादर को उत्तरीय कहा जाता था। अमरकोषथे। सम्भव है इनकी रंगाई बांधने के ढंग से की कार ने उतरीय को प्रोडने वाले वस्त्रों में गिनाया जाती हो । बुन्देलखण्ड के लोकगीतों में पंचरंग पाप है।" (उष्णीष) के उल्लेख पाते हैं।
चीवर-एक उपमा अलंकार में चीवर का डा. मोतीचन्द्रजी ने साहित्य का मरहत, सांची
उल्लेख है। चीवर की ललाई से अन्त करण के और अमरावती की कला में अकित अनेक प्रकार अनुराग की उपमा दी गयी है। १२ की पगड़ियों का वर्णन 'भारतीय वेशभूषा' पुस्तक में बौद्ध भिक्षुमों के पहिनने मोढ़ने के काषाय वर्ण किया है।
के चादर चीवर कहलाते थे। महावग्ग में चोवरकोपोन-कोपीन का उल्लेख सोमदेव ने एक पखन्धक नाम का एक स्वतन्त्र प्रकरण है. जिसमें उपमालंकार में किया है । दाक्षिणात्य सैनिक जांघों भिधुनों के लिए तरह तरह की कथाओं के माध्यम
१०३. चण्डातकमा चर्मारिण, यश०सं०पू०, पृ० १५० १०४. मोरकं वरस्त्रीणां स्याञ्चण्डातकमस्त्रियाम्, अमरकोष, २, ६, ११६ । १०५. मोतीचन्द्र-भारतीय वेशभूषा, पृ० २३ १०६. भागभागापितानेकवर्णवसनवेष्टितोष्णीषम्, यश० सं०पू०, ४६५ १०७. पट्टिकाप्रतानघटितोद्भटट्म, वही, पृ० ४६१ ।। १.८. प्रावंक्षणोश्विप्तनिबिडनिवसनं सकोपीनं वैखानसवृन्दमिय, यश• सं० पू०, पृ० ४६२ ११६. वपुप्रभापटलदुकूलीतरीयम्, यश. स. पू., पृ०, १५६ ११. उत्तरीयदुकलांचलपिहितविम्बिना, वही, पृ० ३१६ १११. संव्यानमुत्तरीयं च, अमरकोष, २, ६, ११८ ११२, चीवरोपरागनिरतान्तःकरणेन, यश उत्त०, पृ.८
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वाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ से चोवरों के विषय में ज्ञातव्य सामग्री प्रस्तुत की यूखोन्मुखराजिरंजितोपसध्यानाम्, उत्त० ८२) यहां गयी है।१३ चीवर कपड़ों के अनेक टुकड़ों को संस्कृत टीकाकार ने अधोवस्त्र ही प्रर्थ किया है। एक साथ सिलकर बनाए जाते हैं।
परिधान और उपसंख्यान में क्या अन्तर था, अबान-पाश्रमवासी तपस्वियों के वस्त्रों यह स्पष्ट नहीं होता। अमरकोषकार ने दोनों के लिए यशस्तिलक में प्रवान शब्द पाया है।१४।
को अधोवस्त्र कहा है। हेमचन्द्र ने भी दोनों को परिधान-अधोवस्त्रों में सोमदेव ने परिधान अधोवस्त्र कहा है ।१२° यशस्तिलक के संस्कृत और उपसंख्यान शब्दों का उल्लेख किया है । एक
टीकाकार द्वारा एक स्थान पर प्रधोवस्त्र और एक उक्ति में सोमदेव कहते हैं कि जो राजा अपने देश स्थान पर उत्तरीय प्रथं करने से प्रतीत होता है की रक्षा न करके दूसरे देशों को जीतने की इच्छा कि टीकाकार को उपसंख्यान के पर्थ का ठीक पता करता है वह उस पुरुष के समान है जो धोती खोल नहीं था। अमरकोपकार ने अधोवस्त्र के लिए कर सिर पर साफा बान्धता है।'१५ अमरकोष- उपसंव्यान और उत्तरीय के लिए संज्यान २१ पद कार ने नीचे पहनने वाले वस्त्रों में परिधान की दिया है। सम्भवतया इसी शब्द व्यवहार से प्रमित गरणना की है। बुन्देलखण्ड में अभी भी घोती हो कर टीकाकार ने यह प्रर्थ कर दिया। को पर्दनी या परदनिया कहा जाता है, जो इसी गुह्या-गुह्या का उल्लेख शंखनक नामक परिधान गब्द का बिगडा हुअा रूप है। दूत के वर्णन में हुअा है । शंखनक ने पुराने गोन
उपसंत्र्यान-उपसंव्यान का दोबार उल्लेख की गुह्या पहन रखी थी ।।२२ गुह्या . का अर्थ है। एक कथा के प्रसंग में एक प्रध्यापक बकरा श्रुतसागर ने कच्योटिका किया है । १२३ खरीदता है और अपने शिष्य से कहता है कि इसे बुन्देलखण्ड में बिना सिले वस्त्र को लंगोट की उपसंध्यान से अच्छी तरह बांध कर लाना।" सरद पहनने को कछटिया लगाना कहते हैं। यहां पर संस्कृत टीकाकार ने उपसंव्यान का अर्थ
यहां गुह्या से मोमदेव का यही तात्पर्य प्रतीत
यो पर उत्तरीय वस्त्र किया है।१८
होता है। राजमाता ने सभा मंडप में जाते समय उप- हंसतूलिका--हंसतूलिका का उल्लेख सोमदेव मंव्यान धारण किया था। (अरुणमणिमौलिम- ने अमृतमति महारानी के भवन के प्रसंग में किया
११३. महावग्ग, चीवरक्खन्धकं । ११४. अपरगिरिशिखराश्रयाश्रमवासतापसावानवितानितधातुजलपाटलपटप्रतानस्मृशि, यश० उत्त. पृ०५ ११५. प्रकृत्वा निजदेशम्य रक्षा यो विजिगीषते मः नृपः परिधानेन वृत्तमोलिः पुमानिव ।।.
यश. स. पू.,पृ. ७४ । ११६. अन्तरीयोपसंव्यानपरिधानान्य घों शुके । अमरकोष, २, ६, ११७ । ११७. तदतियलमुपसंव्यानन बद्धवानीयताम् , यश. उत्त. पृ. १३२ ११८. उपसंव्यानन उत्तरीयवस्भरण, वही, सं.टी.। ११६. देखिए-उद्धरण ११६ १२०. परिधानं त्वधोंशकए, अन्तरीयं निदसनमुपसंव्यानमित्यपि । प्रभिधान चिन्तामणि १२१. संव्यानमुत्तरीयं च, अमरकोष, २, ६,११८ १२२. पटच्चरपर्यागगोरगीगृह यापिहितमेहनः, यश. सं. पू., पृ. ३९८ १२३. गृह या कच्छोटिका, वही, सं. टी.
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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा
। प्रमृतमति के पलंग पर हंसतुलिका बिछी थी, जिस पर तरंगित दुकूल का चादर बिछा था । ११४ संस्कृत टीकाकार ने हंसतुलिका का प्रथं प्रास्तरण विशेष किया है । १२४
उपधान - तकिए के लिए सोमदेव ने प्रत्यन्त प्रचलित संस्कृत शब्द उपधान का प्रयोग किया है । अमृतमति के अन्तःपुर में पलंग के दोनों और दो तकिए रखे थे, जिससे दोनों किनारे ऊंचे हो गये थे । १२६
कन्था - यशस्तिलक में कन्था का उल्लेख दो वार श्राया है। शीतकाल के वन में सोमदेव ने लिखा है कि इतने जोरों की ठंड पड़ रही थी कि गरीब परिवारों में पुरानी कन्याएं विथड़ा हुई जा रही थीं । १२७ एक अन्य स्थल पर दु.स्वप्न के कारण राज्य छोड़ने के लिए तत्पर सम्राट यशोधर को राजमाता समझाती है कि जू के भय से क्या कन्या भी छोड़ दी जाती है ।१२६
कन्या, जिसे देशी भाषा में कथरी कहा जाता है, अनेक पुराने जींशी कपड़ों को एक साथ सिल कर बनाए गये गद्दे को कहते हैं। गरीब परिवार जो ठंड से बचाव के लिए गर्म या रूई भरे हुए कपड़े नहीं खरीद सकते वे कन्थाएं बना लेते हैं।
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प्रोढ़ने और बिछाने दोनों कामों में कन्याओं का उपयोग किया जाता है। मोटी होने से इन्हें जल्दी से धोना भी मुश्किल होता है, इसी कारण इनमें हू भी पड़ जाती है।
नमत १२६ - यशस्तिलक में नमत (हि० नमदा) का उल्लेख एक ग्राम के वर्णन के प्रसंग में प्राया हैं। उज्जयिनी के समीप में एक ग्राम के लोग नमदे और चमड़े को जीनें बना कर अपनी भाजीविका चलाते थे । १३० संस्कृत टीकाकार ने नमत का अर्थ ऊनी खेल या चादर किया है । १३१
नमदे भेड़ों या पहाड़ी बकरों के रोएं को कूट कर जमाए हुए वस्त्र को कहते हैं। काश्मीर के नमदे प्रभी भी प्रसिद्ध हैं ।
निचोल --- यशस्तिलक में निचोल के लिए निवल शब्द श्राया है । १३२ संस्कृत टीकाकार ने एक स्थान पर निचोल का अर्थ कंचुक किया है 33 तथा दूसरे स्थान पर प्रावरणवस्त्र किया है । १३४ सुन्दरलाल शास्त्री ने भी इसी के आधार पर हिन्दी अनुवाद में भी उक्त दोनों ही अर्थ कर दिये हैं । ११५ प्रसंग की दृष्टि से निचल का अर्थ कंचुक यहां ठीक नहीं बैठता । श्रमरकोषकार ने
१२४. तरंगित दुकूलपट प्रसाधितंतूलिकम् यश० उत्त०, पृ० ३० १२५. हंसतुलिका प्रास्तररणविशेषः, वही, सं० टी० ।
१२६. उपधानद्वयौतम्मितपूर्वापर भागम्. यश० उरत०, पृ० ३०
१२७. शिथिलयति दुर्विचकुटुम्बेषु जरत्कन्थापटच्चराणि यश० सं० पू, पृ० ५७
१२८, मयेन किं मन्दविसर्पिणीनां कन्यां त्यजन्कोऽपि निरीक्षितोऽस्ति । यश० उत्त०, पृ० ८
१२६. मुद्रित प्रति का तमत पाठ गलत है ।
१३०. नमताजिनजेरण जीवनोटजाकुले, यश० उत्त० पृ० २१८
१३१. नमतम् ऊमियास्तरणम्, वही, सं० टी० ।
१३२. जगद्वलयनीलनिचलेष, निश्चलसनाथनुपतिचापसपादिपु, यश० सं० पू० पृ० ७१-७२
१३३. नीलनिम्चिल: कृष्ण वर्णनिचोलकः, कुचुकः, वही, सं० टी० ।
१३४. निचलसनाथानि प्रावरणवस्त्रसहितानि, वही, सं० टी० । १३५. सुन्दरलाल शास्त्री - हिन्दी यशस्तिलक, पृ० ४०
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बायू बोदलाल जैन स्मृति प्रथ निचोल का अर्थ प्रच्छद पट अर्थात बिछाने का प्राकाश-सक्ष्मी के भवन में चन्दोवा सा बन रहा चादर किया है। 13 क्षीरस्वामी ने इसे पोर था। भी अधिक स्पष्ट किया है कि जिससे शय्या मादि एक दूसरे प्रसंग में सोमदेव ने लिखा है कि प्रच्छादित की जाए उसे निचोल कहते हैं। १३७ प्रसूताचल पर रहने वाले साधुओं ने अपने प्रवान शब्दरत्नाकर में भी निचोलक, निचुलक, निचोल सूखने के लिए वितान (चन्दोवा) की तरह डाल निचोलि और निचुल ये पांच शब्द प्रच्छादक वस्त्र रखे थे। चण्डमारी के मन्दिर में पुराने के लिए भाए हैं। १३८ यही भयं यशस्तिलक में चमड़े के बने वितान का उल्लेख है । भी उपयुक्त बैठता है। सोमदेव ने लिखा है कि अमरकोप में उल्लोच और धितान समानार्थी काले काले मेध पृथ्वी-मण्डल पर इस तरह छा शट। गये, जैसे नीला प्रच्छदपट बिछा दिया हो। १३॥
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन भारतीय चन्दौवा-चन्दौवा के लिए यशस्तिलक में वस्त्र एवं वेश भूषा के अध्ययन के लिये यशस्सिलक सिचयोल्लोच तथा वितान शब्द पाए हैं। सोमदेव चम्पू एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिससे तत्कालीन ने लिखा है कि राजपुर में गगनचुम्बी शिखरों पर भारतीय एवं विदेशी वेश भूषा पर पर्याप्त प्रकाश लगे हुए सुवर्ण-कलशों से निकलने वाली कान्ति से पड़ता है ।
१३६. निचोलः प्रच्छदपटः, अमरकोष, २, ६, ११५ १३७. निचोलते अनेन निचोलः येन तूलशयादि प्रच्छाद्यते, वही, सं० टी० । १३८. निचोलको निजलको निचौलं च निचौल्यपि। निचुलो वसत्धिकायां स्मृता पर्यस्तिकायुता ।।
शबूदरलाकर ३, २२५ । १३६. पयोधरोन्नतिजनितजगद्वलयनोलनिचलेषु, यश० सं० पू०, पृ०७१
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'बप्पभट्टिचरित्' : ऐतिहासिक महत्त्व
हरिअनन्त कड़के
इतिहास विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय नाचार्य प्रभाचंद्र लिखित प्रभावकत्ररित जैनियों उपयुक्त और सुन्दर विषय अन प्राचार्यों का जीवन
" का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। विक्रम की ही हो सकता है। इसे ही माध्यम बनाकर १ली शती से लेकर १३वी शती के पूर्वभाग तक घटनामों का वर्णन किया गया है । ऐतिहासिक के जैनधर्म के अनेक प्राचायों के जीवन का इतिहास घटनाओं को भी इस तरह घुमाया गया है जिससे इस ग्रंथ में संकलित किया गया है। इसका कि जैनधर्म की महिमा प्रकट हो। इसलिये हमारी प्राधार जैसा कि ग्रंथकार ने प्रस्तावना में लिखा माधुनिक दृष्टि में यदि इस पंथ का ऐतिहासिक है प्राचीन ग्रंथ और बहुत विद्वानों से सुनी हुई महत्व कम हो जाता है तो इसमें पाश्चर्य नहीं। परम्पराएं हैं। ' ई० स० १२७७ में इस पथ की परन्तु हमें यह ध्यान रखना है कि प्रथ का स्वरूप रचना पूरी हुई इमलिये कतिपय माधुनिक विद्वान् धार्मिक होते हुए भी प्रसंगवश इसमें अनेक ऐतिभारत के प्राचीन इतिहास को जानने के लिये इसका हासिक तथ्यों की भोर संकेत किया गया है जिसके प्रामाण्य स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं। २ सूक्ष्म अध्ययन से उस समय के इतिहास को स्पष्ट लेखक के विचार में इस ग्रंथ में भी ऐतिहासिक करना संभव है। पाश्चर्य तो यह है कि बप्पभट्टि सामग्री भरी पड़ी है। प्रथ कुछ बाद का होने से चरित में वरिणत घटनामों की पुष्टि स्कन्दपुराण उसकी प्रामाणिकता के बारे में हमें संदेह नहीं और प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज की ग्वालियर होना चाहिये । बृहत्कथा और मुद्राराक्षस का प्रशस्ति से हो जाती है जो इस ग्रंथ के महत्व को अध्ययन क्या हम मौर्य साम्राज्य के इतिहास के स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है। इस दृष्टि को ध्यान लिये नहीं करते ? ग्रंथ में वरिणत ऐतिहासिक में रखकर ही इस ग्रंथ में सूचित ऐतिहासिक घटघटनाओं का दूसरे ऐतिहासिक साधनों के साथ नामों की विवेचना प्रस्तुत निबंध में की गयी है। तुलनात्मक अध्ययन करने से यदि उसकी सस्यता
'बप्पट्टिचरित्' प्रभावकचरित का एक अंश है। प्रमाणित होती है तो उसे स्वीकार करने में हमें
कन्नौज के राजा प्राम-नागावलोक के सभा पंडित कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
प्राचार्य बप्पभट्रि का जीवनचरित इसका विषय है। जैनधर्म के महत्व को स्थापित करना इस इस माम-नागाबलोक का समीकरण इतिहासमंथ का प्रधान उद्देश्य है । इसके लिये प्रत्यन्त कारों 3 ने कन्नौज के प्रतिहार सम्राट नागभट १. बहुच तमुनीशेभ्यः प्राग्ग्रन्थेभ्यश्च कानिचित् । उपत्येतिवृत्तानि वर्णयिष्ये कियन्त्यपि । १ ।
-प्रभावकारित ( सिंधी जनअपमाला ) प्रस्तावना, संवत् १६६७ ।। २. रा. रमेशचन्द्र मुजुमदार "हिस्ट्री प्रॉफ बंगाल" पृ० १११-१३, सिनहा डिक्लाइन मॉफ द किंगडम
पॉफ मगध पृ. ३६५। ३. इंडियन इंटीक्वेरी, १६११, पृ० २३६-४०, डा. त्रिपाठी, 'हिस्ट्री प्राफ कन्नौज, पृ. २३५ डा.
अलसेकर, राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स' पृ०६३, एपि• इंडि०, भा॰ २, पृ० १२१-२६ ।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ
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द्वितीय के साथ किया है। प्रतिहारों का मूलस्थान राजस्थान में था और उनकी राजधानी संभवतः जालौर थी। नागभट द्वितीय के समय में ४ प्रतिहारों ने कन्नौज जीता और वहीं अपनी राजधानी बदली । सम्भवतः इस ऐतिहासिक तथ्य को ध्यान में न रखने के कारण ही बप्पभट्टिवरित में ग्राम-नागावलोक को कन्नौज के राजा यशोवर्मन का पुत्र और उत्तराधिकारी बताया है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात सत्य जान पड़ती है क्योंकि नागावलोक का शासनकाल इसी ग्रंथ के आधार पर लगभग ७९२-८३३ ६० स० तक रहा है। यह समय कन्नौज के शासक यशोवर्मन ( ई० स० ७२४ -७५२) के बहुत बाद का है प्रतः इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता पठारी स्तम्भलेख के धनुसार राष्ट्रकूट कर्क ने नागावलोक को पराजित किया था। सम्भवतः उसने गोबिन्द तृतीय के साथ उत्तरभारतीय युद्धों में भाग लिया जिसमें नागभट द्वितीय की पराजय हुई थी। इसी नागभट्ट के प्रपितामह नागभट प्रथम को भी उसके भडोंच
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के सामन्य राजा भतृवष्य द्वितीय के हन्सोट अभिलेख में नागावलोक कहा है । अतः यह संभव है कि कुछ प्रतिहार सम्राटों ने नागावलोक की उपाधि धारण की हो । बप्पभट्टिचरित में भी इसे उपाधि के रूप में ही बताया गया है। इसके अतिरिक्त स्कन्द पुराण के धर्मारण्य महात्म्य में कन्नौज के ग्राम-नामक राजा का वर्णन है जो सार्वभौम राजा था और जिसके समय में जैनधर्म का प्रचार हुआ था। यह वन चप्पभट्टि के ग्रामनागावलोक से बहुत मिलता है।
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८वीं-हवीं और १०वीं शतियां भारतीय इतिहास में प्रत्यन्त महत्व की है । कन्नौज के प्रतिहार बंगाल के पाल तथा दक्षिण के राष्ट्रकूटों में खिल भारतीय प्रमुख के लिये एक भयंकर संघर्ष इसी समय हुआ था । कन्नौज के प्रतिहार भोर बंगाल के पाल गंगाघाटी पर अधिकार करने लिये किस तरह निरन्तर युद्धरत रहे थे इसका प्रमाण उनके शत्रु राष्ट्रकूटों के अभिलेखों से भी प्राप्त होता
४. जैन ग्रन्थ कुवलयमाला के अनुसार ई० स० ७७८ में वत्सराज जाबालिपुर (जालोर) का शामक
था। इस वत्सराज को विद्वानों ने प्रतिहार राजा वत्सराज माना है।
६. वही. भा० १२. पृ० २०२ ।
५ एपि० इंडि० भा० ६, पृ० २५५ । ७. इदानी च कलौ प्राप्ते धामो नाम्ना वभूव हि कान्यकुब्जाधिपः श्रीमान धर्मो नीतिततरः ॥११॥ एसत्त्वा गुरोरेव कान्यकुब्जाधिपो बलि राज्यं प्रकुरुते तत्र मामी नाम्नाहि भूतले ||३४|| सार्वभौमत्वयापत्रः प्रजापालनतत्परः । प्रजानां कलिना तत्र पापे बुद्धिरजायत ||३५|| वैष्णवं धर्ममुत्सृज्य बौद्धधर्ममुपागताः । प्रजास्तमनुर्वातन्यः क्षपणैः प्रतिबोधिताः ॥३६॥ अधुना वाडव घष्ट ग्रामो नाम महीपतिः शासनं रामचन्द्रस्य न मानयति दुर्मतिः जामाता तस्य दुष्टो वै नाम्ना कुमारपालकः पाण्डवेष्टितो नित्यं फालधर्मेण सम्मतः इन्द्र
जैनेन प्रेरित बौद्धधर्मणा । १६४-६६ । स्कन्दपुराण ब्रह्मखंड-धर्मारण्य महात्म्य | ऐसा प्रतीत होता है कि इस पुराण में जैन धर्म और बौद्ध धर्म में अंतर नहीं रखा गया है। दोनों का ही एक साथ उल्लेख इस प्रसंग में किया गया है। एक दूसरे प्रसंग में इस पुराण में मोहेरक नामक नगर की चर्चा है। प्रभावक परित् के अनुसार वप्पमट्टि के गुरु सिद्धसेन मोडेरक के निवासी थे क्या इन दोनो में श्रभिन्नता संभव नहीं ? प्रश्न विचारणीय है । लेखक के विचार में इनकी समानता गुजरात के मोढेरा से हो सकती है। धाम नागावलोक का प्रभाव गुजरात तक था। ग्वालियर प्रशस्ति में उसके द्वारा भावर्त के अपहरण का उल्लेख है । वप्पभट्टिचरित के अनुसार भी उसने सोमनाथ की यात्रा की थी।
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arrafट्टचरित' : ऐतिहासिक महत्व
है | उस युग की इस महत्वपूर्ण घटना को विस्मृत कर देना किसी भी प्रतिभाशाली लेखक के लिये संभव नहीं था । बप्पभट्टिचरित में बंगाल के राजा धर्मपाल प्रोर कन्नौज के ग्राम नागावलोक के बीच चिर शत्रुता का संकेत है । 8 इसका उपयोग भी जैन सिद्धान्तों की सर्वोच्चता दिखाने के लिये करना था इसीलिये सम्भवतः यह संघर्ष इस ग्रंथ में धर्मपाल के सभा पंडित सौगताचार्य वर्धन कुंजर और जैनाचार्य बप्पभट्ठि के बीच दार्शनिक यादविवाद का स्वरूप धारण कर लेता है ।" विजय अंत में बणभट्ट की होती है। प्रतिहार शासक बाउक की जोधपुर प्रयास्ति से ज्ञात होता है कि उसके पूर्ववर्ती शासक कवक ने मुद्गगिरी में गौड़ों को परास्त कर यश प्राप्त किया था। ११ यह शासक सम्राट नागभट का समकालीन मौर प्रधीन शासक प्रतीत होता है। उसके लिये धकेले
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हो गौड़ों को हराना सम्भव नहीं जान पड़ता सम्भवतः उसने अपने सम्राट् नागभट की भोर से पालों के विरूद्ध संघर्ष में भाग लिया हो । ऊपर वारंगत दार्शनिक वाद-विवाद भी दोनों राज्यों की सीमा पर हुआ था। क्या यह संकेत मुद्गगिरि के संघर्ष की ओर नहीं ? इस विवाद के परिणाम स्वरूप धर्मपाल को पराजय वरित है। ग्वालियर प्रशस्ति १२ में भी नागभट् और बंगपति के बीच भयंकर संघर्ष का वर्णन है जिसमें वंगपति की बुरी तरह हार हुई थी। बंगाल जाने के पूर्व । बप्पमट्टिचरित के अनुसार ग्राम नागावलोक गोदाबरी १३ के तट पर गया था। ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार मांध्र, सैन्धव, कलिंग और विदर्भ ने उसके सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया था। जैसा दि डा० मजुमदार महोदय ने लिखा है नागभट ने इन राज्यों का बंगाल के विरुद्ध एक संघ बनाया
चंडीगढ़ के समीप पिंजौर नामक एक स्थान है। प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष माज भी वहां दिखाई देते हैं । मनुष्य के कद की जैन तीर्थंकरों की प्रतिमायें वहां विद्यमान हैं । अलवेरुनी ने पिंजौर का उल्लेख किया है। क्या इन मन्दिरों का इस समय के इतिहास से कोई सम्बन्ध है ? लेखक के मन में अनेक शङ्कायें हैं। इन पुरातन अवशेषों का प्रध्ययन इस दृष्टि से श्रावश्यक है । अपने मित्र डा० मिश्रा के हम कृतज्ञ हैं जिन्होंने वहां स्वयं जाकर यह सूचना प्राप्त की है।
८. राधनपुर वाणी डिडोरी तथा संजान ताम्रपत्र
९. परंमेस्त्यामराजेन दुपहो विग्रहाग्रहः तदारखानाद् यदा पश्चात् याति तन्मे तिरस्कृतिः ।। १६८ ।। गृहागतो नृपः नवितो न च साधितः । द्विधापि चिरवंरस्य निवृतिनंप्रवर्तिता ॥ २६१ ॥
१०. राज्ये नः सौगतो विद्वान् नाम्ना वर्धनकु जरः ।
बप्पभट्टिवरित् ।
महावादी दृढ़प्रज्ञो जितवादी शतोलतः || ३६२ ||
देश सन्धी समागत्य वाद मुद्रां करिष्यति ।
सम्यै सह वयं तत्र समेष्यामः कुतूहलात् ।।३६३।।
धर्मपाल बौद्ध था । पाल प्रभिलेखों में उसे 'परम सौगत' कहा गया है । तिब्बती परम्परा के अनुसार विक्रमशिला के बौद्ध मठ की स्थापना उसने ही की थी, जो ६ वीं से १२ वीं शती तक विद्या का महत्वपूर्ण केन्द्र रही । विरूपात बौद्ध विद्वान् हरिभद्र उसकी सभा में थे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि arraft में वर्णित बौद्ध विद्वान वर्धनकुंजर भी उसके दबाव में रहा हो ।
११. ततोऽपि श्रीयुतः कवकः पुत्रो जातो महामतिः
यशो मुद्गागिरी लब्ध येन गौडे संभ रहे ||२४|| एपि. ई, भाग १८, १०६८
१२. ग्वालियर प्रशस्ति श्लोक १-१० ।
१३. गच्छन् गोदावरीतीरे ग्राम कंविधवाप सः ॥ २२३॥ भट्टिवरित तथा यानियर प्रथास्ति, फ्लो०८
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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या और संभव है इसी कारण उसे गोदावरी के प्रदेशों से सम्बन्ध स्थापित करना पड़ा हो ।
इस ग्रंथ में बरिंगत एक धम्म घटना राजगिरिदुर्ग १४ की विजय है । यह ग्राम-नागावलोक की अंतिम विजय थी । राज गिरिदुर्ग एक दुर्भेद्य किला था जिसे जीतने के लिये नामावलोक को बहुत पत्न करने पड़े थे । उसके पौत्र भोज के जन्म के बाद हो वह उसे जीतने में समर्थ हो सका था । इस राजगिरिदुर्ग की स्थिति एक विवाद्य विषय है । प्रस्तुत लेखक ने अन्य यह करने की चेष्टा की है कि इस राजगिरिदुर्ग का समीकरण ग्वालियर प्रशस्ति में उल्लिखित राजगिरिदुर्ग से हो सकता है जो संभवतः पंजाब में था मोर घरब इतिहासकार अलबरूनी द्वारा उल्लिखित है । यह संभव है कि इस गिरिदुर्ग की विजय ग्राम नागावलोक ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये की हो क्योंकि जैसा कि इस समय के अभिलेखों से विदित होता है उत्तरी पश्चिमी सीमा पर अरबों के आक्रमण हो रहे थे और प्रतिहारों ने उन्हें रोक कर देश की रक्षा की थी। ग्वालियर प्रशस्ति में भी नागभट की विजयों में सैन्धव और तुरुष्क की विजय वरित है । स्कन्दपुराण १६ से हमें म्लेच्छों के शासन का पता चलता है। इसके अनुसार ब्रह्मावर्त तक ग्राम-नागावलोक के प्रभाव की भी जानकारी प्राप्त होती है। वहां का राजा कुमारपाल ग्राम का जामाता था और उसके समय में
पंजाब में जैनधर्म का प्रभाव बढ़ रहा था ।
बप्पभट्टिरित से ज्ञात होता है कि गोपागिरि १७ (गोपालनिरि) या ग्वालियर ग्राम-नागावलोक के अधिकार में था। एक दूसरे जैन लेखक राजशेखरसूरि के प्रबन्धकोश से भी इस बात की पुष्टि होती है । मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति से उस प्रदेश का उसके अधिकार में रहना सिद्ध है । संभव है वह उसके पितामह नागभट के भी अधिकार में रहा हो। इसी ग्रंथ के अनुसार ग्राम नागावलोक का पुत्र दुन्दुक था। ग्वालियर प्रशस्ति में उसका नाम रामभद्र दिया हुआ है । सम्भव है रामभद्र का दूसरा नाम दुन्दुक रहा हो। नाम में होने पर भी उसकी प्रयोग्यता के विषय में पट्टिकर और अभिलेख एकमत हैं । १ इसके दुराचारी शासन में दूर के प्रदेश साम्राज्य से अलग हो रहे थे और शत्रुनों के प्राक्रमरण हो रहे थे। उसके पुत्र मिहिर भोज ने इस प्रव्यवस्था को दूर कर शासन किया। इस ग्रंथ के अनुसार भी भोज ने अपने पितामह नागावलोक से भी अधिक प्रदेश जीते, भ्रष्ट राज्यों पर अपनी प्रभुता फिर से स्थापित की ।
१६
उपरोक्त विवेचन से वह स्पष्ट है कि बप्पभट्टिचरित् भी प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के लिये कितना महत्वपूर्ण साधन है । इसकी उपादेयता प्रभिलेखों और दूसरे साहित्यिक प्रमाणों से इसके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है ।
१४. बप्पभट्टिचरित || श्लो० ६६१-६७५ ।
१५. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, संव० २०२१, अंक ० १ २, पृ० १८२-८३ । अखिल भारतीय प्राच्य परिषद्-गौहाटी अधिवेशन 'सारांश' । - १९६४
१६. स्कन्दपुराण, ब्राह्मखंड धर्मारण्य महात्म्य, श्लो० ३१ ।
१७. तथा गोपगिरी लेप्यमयविम्वयुतं नृपः ! श्री वीरमंदिर तत्रत्नयोविंशतिहस्तकम् ॥१४०॥ १८. एडि० इंडि० भा० १६, पृ० १६-१६, भा० ५, पृ० २१३, बप्पभट्टिचरित, पृ० १०६ - ११० । १६. भोज राजस्ततो नेक - राज्यभ्रष्टग्रहः । ग्रामादप्याधिको जश जैन प्रवचनोन्नती ॥७६५॥
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महाकवि रइधयुगीन अग्रवालों की साहित्य सेवा
प्रो० दा० राजाराम जैन M. A., Ph. D. भारा. महाकवि रइधू साहित्य-गगन के ऐसे उज्जवल उत्तरभारत-विशेषतः मध्यभारत-की ऋद्धि-समृद्धि
नक्षत्र थे, जिन्होंने अपनी दैवी-प्रतिभा से मादि की प्रामाणिक जानकारी के लिये रइधू-साहित्य मध्यकालीन समाज एवं राष्ट्र के अन्तर्तम को प्रदीप्त का महत्व एक विश्वकोष से कम नहीं ठहरता । किया था। विविध राजनैतिक प्राक्रमणों की बोछारों
___ महाकवि रहबू तथा उनके साहित्य के स्मरण से सन्तप्त, त्रस्त एवं उत्पीड़ित मानव-क्रन्दन की के समय उस वर्ग को निश्चय ही विस्मृत नहीं किया करुण पुकार पर लोकनायक की तरह उन्होंने अपने जा सकता. जिसके स्नेह में पगकर रइधू की प्रतिभा को सजग किया और सरस्वती के वरद पुत्र बनकर मुखरित हई, भावना को प्रोजस्वी वाणी मिली और जो अमृतत्व का दान दिया वह भारतीय साहित्ये
निरन्तर प्राप्त हुई प्रेरणाओं से जिसे विस्तार तिहास के एक विशिष्ट प्रध्याय के रूप में सदा सुर
मिलता रहा। यह वह वर्ग है जो आज "अग्रवाल क्षित रहेगा।
जाति" के नाम से जाना जाता है। रइधू ने इसे ___रइधू, जिनका कि समय वि.सं. १४५०-१५४६ "अगोय' (भप्रोत) "प्रयरवाल" (प्रप्रवाल) मादि के लगभग निर्धारित किया गया है, ने अपने जीवन- नामों से सूचित किया है । इस जाति के उद्भव और काल में कई ग्रन्थों का प्रणयन किया था. जिनमें से विकास के सम्बन्ध में विविध मत-मतान्तर हैं लेकिन लगभग तीस ग्रन्थों का पता चल सका है और अभी निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि इसके तक चौबीस रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं, जो कार्यों ने राष्ट्रीय एवं सामाजिक क्षेत्र में सदैव चार पुराण, चरित, प्रारुपान, सिवान्त, प्राचार, अध्यात्म चाँद लगाए हैं। समाज एवं राष्ट्र की हर परिस्थिति एवं दर्शन प्रादि विषयों से सम्बद्ध हैं।' उक्त समस्त में इस वर्ग के नेता अपवा अनुयायी बनकर प्रत्यक्षतः साहित्य पद्यमय है और काव्यशास्त्र की प्रायः सभी अथवा परोक्षतः तन, मन एवं धन सभी दृष्टिकोणों विधामों से अलंकृत है। उनकी भाषा सन्धिकालीन से यथाशक्ति सक्रिय सहयोग किया है। अपभ्रंश है, किन्तु कुछ ग्रन्थ प्राकृत एवं हिन्दी तथा महाकवि रइधू का साधना केन्द्र ग्वालियर था। कुछ पा संस्कृत के भी उपलब्ध हैं । समग्र रइधू- उसे कवित्व शक्ति एवं प्रभाव पैतृक विरासत के साहित्य प्रभी अप्रकाशित ही है और हस्तलिखित रूप में उपलब्ध हुए थे; किन्तु साधनाभाव में प्रस्त रूप में उत्तर भारत के शास्त्र मण्डारों में यत्र-तत्र कवि प्रतिभा के प्रवरोष की स्थिति ग्वालियर तथा सुरक्षित है । भारतीय मध्यकालीन इतिहास, संस्कृति, सुदूर देशवासी विद्यारसिक भगवालों से छिपी न पूर्ववर्ती, एवं समकालीन साहित्य तथा साहित्यकारों, रही । शीघ्र ही अग्रवाल कुल शिरोमणि कमलसिंह भट्टारकों, मध्यकालीन राजनैतिक, आर्थिक एवं संघवी, जैन कुलावतंस खेमसिंह, अग्रवाल कुलकुमुदसामाजिक परिस्थितियों, समकालीन राजामों, ग्या- चन्द्र हरसी (हरिसिंह) साहू प्रभृति परिचित एवं लियरनगर एवं दुर्ग का नमूत्ति कला वैभव एवं अपरिचित कई प्रतिष्ठित नागरिक एवं नगरसेठ उनके
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१. रइधू के व्यक्तित्व एवं कृतिस्व की विस्तृत जानकारी के लिये "अपनश भाषा के सन्धिकालीन
महाकवि रइधू" नामक हमारा निबन्ध, जो कि 'भिक्षु स्मृति अन्ध' कलकत्ता (१९६१) में प्रकाशित
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बाबू छोटेलालबाबू जैन स्मृति प्रन्य पार पहुंचने लगे और अपने यहाँ हर प्रकार की पवित्रात्मा की उपमा कैलाश पर्वत स्थित सरोवर सुविधाएं प्रहणकर साहित्य प्रणयन के लिये उनसे के बिमल जल से दी है:भाग्रह करने लगे। संघवी कमलसिंह, जो कि ग्वा- पइकिउ बरतिच्छु गोवायलि । जिह भरहे कइलियर के, तोमरयंशी राजा हूंगरसिंह (वि. सं. लासें विमल अलि ।। १४५१-:५१०) के विस एवं गृहमंत्री थे, सर्वप्रथम
(सम्मत्त०१॥१५॥४) रइधू की सेवा में पहुंचते हैं और कहते हैं २ "हे
तीर्थ निर्माता के रूप में कमलसिंह का स्मरण महाकवि, मेरे पास शयनासन, छत्र, चमर, ध्वजा,
यथार्थ ही है । ग्वालियर में जो सहस्रों जन मूर्तियाँ ४ हाथी, घोड़े, रथ, प्राम, नगर, देश, मणि, मोती,
निर्मित हुई हैं, उनमें से अधिकांश का निर्माण उक्त बन्धु-बान्धव मादि सभी भरपूर उपलब्ध है, भौतिक
कमलसिंह की कृपा से ही हमा है। गोम्मदेश्वर की सामग्री की कोई भी कभी नहीं है, किन्तु मुझे यह
बाहुबलि-प्रतिमा का स्मरण करने वाली ५७ फीट सारा का सारा वैभव फीका-फीका लगता है क्योंकि
ऊंची प्रादिनाथ की मूर्ति के निर्माता एवं प्रतिष्ठापक मेरे पास काव्यरूपी मुन्दर मरिण नहीं है (लल्भइण
भी सम्भवतः यही कमलसिंह हैं और रइधू उसके कन्व माणिक्कु भव्वु)।" फिर आगे वे पुनः कहते
प्रतिष्ठाचार्य । चतुर्विध संघ का भार ग्रहण करने से हैं ३ "मनुष्य की प्रायु मौ वर्ष की होती है, जिसमें
उन्हें सिंघई, संववी प्रथवा संघपति पद से भी से प्राधी प्रायु सोने में और बाकी की मायु खान
विभूषित किया गया था। ग्वालियर के सांस्कृतिक पीने में धनार्जन करने में, विविध मनोरंजन करने
उत्थान में निस्सन्देह ही कमलसिंह संघवी का बड़ा में, रोग, शोक, चिन्ता प्रादि में समाप्त हो जाती है
भारी योगदान है उसने स्वर्गों के सभी सुखों को वहाँ और धर्म साधन की बात मन में प्रा ही नहीं पाती।
लाकर उपस्थित कर दिया था, इसीलिये कवि ने उसे प्रतः मुझ पर प्राप महान कृपा कीजिये तथा ऐसी
भरत क्षेत्र की इन्द्रपुरी एवं स्वर्ग-गुरु की संज्ञा रचना का प्रणयन कर दीजिये जिसमें 'सम्यक्त्व' की
दी है। चचों रोचक शैली में हो। इस पुण्य कार्य को करके प्राप मेरी सम्पत्ति का सदुपयोग करा दीजिये।" एच्छु जि भारहि खेत्ति अरिग पसिद्धरणं इंदउरु ।
गोवायलु गामेण तं जइवरणइ तियस्स गुरु ॥ उक्त कमलसिंह संघवी ग्वालियर-राज्य की
सम्मत्त. शरा-१० राजनीति के विधायक तो थे ही किन्तु अग्रवाल कमलसिंह के प्राग्रह से कवि ने सम्मत्त गुणजाति के गौरव एवं जैन समाज साहित्य एवं कला गिहाणकव्य (सम्यक्त्व गुणनिधान काव्य) की के महान संरक्षक भी थे। रइधू ने उन्हें गोपाचल रचना की उसमें कुल चार सन्धियां एवं १०४ करको श्रेष्ठ तीर्थ बना देने वाला कहा है और उनकी वक हैं। रइधु ने प्रबन्धात्मक पद्धति को लेकर जिस
२-सम्मत्त गुण गिहाण कव्व १/७ ३-सम्मत्त गुण मिहाग कन्द १/८ ४-ग्वालियर दुर्ग की जैन मूर्तियों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी के लिये श्री महावीर जैन विद्यालय
(बम्बई) स्मृति ग्रन्थ में प्रकाशित 'ग्वालियर-दुर्ग के कुछ जैन मूर्ति निर्माता एवं महाकवि रइधू"
नामक मेरा शोध-निबन्ध पढ़िये । ५-सम्मन १।१३ । ७. ६-यह प्रथ ऐ०१० सरस्वती भवा व्यावर में हस्तलिखित रूप में सुरक्षित है!
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महाकवि रइधू युगीन अग्रवालों की साहित्य सेवा प्रध्यात्म और प्राचारमूलक साहित्य का निर्माण एवहिं महु विरणत्ति पमाणहिं । किया है उसमें उक्त रचना सबसे अधिक महत्वपूर्ण सच्छ दि गामक्खा ठाणहि ॥ है। इस ग्रन्थ की शैली नयसेनाचार्य के कड ग्रन्थ
(सम्मत्त० १।१४।८-१२.) 'धर्मामय के समान है नयसेन ने सम्यग्दर्शन और पंचारवतों का कथन प्रबन्धात्मक पति पर किया संघवी कमलसिंह मुद्गल गोत्र के थे। इनके बाबा है। रइधू की शैली यह है कि प्रारम्भ में वह विषय का नाम भोपा साह था, जो ग्वालियर के निवासी का स्वरूप बिश्लेषण, महत्व प्रादि के कथन के थे। इनके चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र खेमसिंह ही मनन्तर किसी पाख्यान के माध्यम से विशेषतामों कमलसिंह के पिता थे। कमलसिंह का एक छोटा का प्रदर्शन करता है तथा बाद में अपना निष्कर्ष भाई भी था जिसका नाम भोजराज था। यह परिउपस्थित करता है । रचना बड़ी ही सरस एवं वार विद्याव्यसनी एवं साहित्यरसिक था। कमलमामिक है।
सिंह ने तो उक्त "सम्मत्तगुणरिणहारणकच" के लिये “सम्मत्त गुरपग्गिहारगकव्व" की माद्यन्त प्रश
कवि को प्रेरित पिया ही, छोटे भाई भोजराज ने स्ति में कवि ने कमलसिंह के लिये अग्रवाल कुल
भी अपने पिता की अनुमोदना से कवि से अनुनयकुमुदचन्द्र' एवं विज्ञानकलागुणश्रेणीयुक्त' कहा
विनय करके अपने लिये प्राकृत-गाथा निबद्ध "सिद्धहै। इन विशेषग्गों में तथा कमलसिंह के उपयुक्त
तत्पसार" ४ नामक एक विशाल सिद्धान्त प्राचार कार्यों में पर्याप्त समानता है। रइधु की हर कृपा अध्यारम एवं दर्शन विषयक ग्रन्थ का प्रणयन के प्रति कमसिह प्राभारी थे। वे अत्यन्त गदगद कराया था। प्रस्तुत ग्रन्थ में १३ अंक एवं १६३३ होकर तथा 'बालमित्र' कहकर उनसे निवेदन ।
गाथाएं हैं। इसमें कवि ने प्रसंगवश संस्कृत-प्राकृत करते हैं:
के कुछ ऐसे नेतर उद्धरण भी दिये हैं जिनके
सन्दर्भ का कुछ भी पता नहीं चलता। इस ग्रन्थ में तुहु पुणु कबरयरण रयरणायरु ।
कवि ने सम्यग्दर्शन, जीव-स्वरूप, गुग्णस्थान, क्रियाबालमित्त प्रम्हहं रणेहाउरु ॥
भेद, कर्म, श्रुतांग, लब्धि, अनुप्रेक्षा, धर्म एवं ध्यान तहु महु सच्चउ पुग्ण महायउ ।
इन दश विषयों पर मुन्दर एवं मार्मिक विवेचन महु मरिणच्छ पूरण भरगुरायउ॥
किया हैजिण पयट्ठ महु णिरुपय होति । चडिय पवारण गुणेरण महंति ॥ दसण जीवसरूवं गुण ठाणाणं पि भेय किरियाय । पइ पुरा विरयइ सच्छ भरणेयई। कम्मं सुयंग लदी परशुवेहा धम्म झारणं व ॥ परिय पुराणागम बहुमेयई ॥
सिद्धान्त. ११५.
४-डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सम्पादित एवं सरस्वती मन्दिर प्रोरा द्वारा प्रकाशित. १-सम्मत्त गुरपरिणहारण कव्व.४।३५। ३. २-वहीं ४ । ३५ । ११. ३-शिलालेख संग्रह (माणिक• सीरीज) तृतीय भाग के लेखाकू ६३३ (पृ. ४८३) में प्राप्त
वंशावली में भोपा साहू के पांच पुत्रों का उल्लेख है। उसके पांचवें पुत्र 'पाल्का' को रइधू ने
चतुर्थ पुत्र कहा है तथा शिलालेख के चतुर्थ पुत्र धनपाल का रइधू ने उल्लेख नहीं किया। ४-यह प्रति हस्तलिखित रूप में राजस्थान जैन शास्त्र भण्डार जयपुर में सुरक्षित है।
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बाबू बोटेलाल जैन स्मृति अन्य ___सिद्धान्तार्थसार' का प्रशस्तिभाग त्रुटित है है। इसको लोकप्रियता का अनुमान इसीसे लगाया प्रतः यह कहना कठिन है कि उसके प्रणयन के बाद जा सकता है कि भारत के कोने-कोने में कवि का क्या सम्मान किया गया, किन्तु यह स्पष्ट जैन समाज इसका पाठ करती हुई मानन्द विभोर है कि 'सम्मत्तगुणरिणहाण कव्व' को परिसमाप्ति के हो उठती है । इसका महत्व गीता एवं बाइबिल से बाद कमलसिंह ने कवि को बहुत प्रकार से सम्मा- किसी भी प्रकार कम नहीं। "मेहेसर परिस" में नित किया था।'
कुल १३ सन्धियां एवं ३०४ कडवक हैं। इसमें महाकवि रइधू के दूसरे प्रेरक एवं मात्रयदाता कवि ने भरत चक्रवत्ति के सेनापति मेघेश्वर के थे श्री खेऊ साहू (खेमसिंह साहू), जिन्हें रइधू ने चरित का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है। दान देने वालों में राजा श्रेयांस की उपाधि दी है। काव्यकला की दृष्टि से यह रचना उच्चकोटि की साथ ही उसे पागमरस का रसिक', अग्रवाल कुल- है। कवि ने इसमें दुबई, गाहा, चामर, पत्ता, पररूपी कमलों के लिये चन्द्रमा,कलावतार, कवि- डिया, समामिका, मत्तगयंद प्रादि विविध छन्दों में संगी, एवं संगपति' जैसे विशेषणों से संयुक्त शृगार, वीर, वीभत्स, रौद्र एवं शान्त प्रादि रसों किया है। ये ऐंडिस गोत्र के थे तथा योगिनीपुर इनका की प्रसंगवश सुन्दर उद्भावनाएं की हैं। इसका निवास स्थान था। कवि ने खेऊ साहू की पाठ कथा-भाग परम्परा से प्राप्त होने पर भी कवि ने पीड़ियों का विस्तृत वितरण लिखा है। प्रथम अपनी नवीन होली तथा उत्प्रेक्षा, उपमा, रूपक पीढ़ी देदा साहू से प्रारम्भ होती है। उसमें खेऊ साहू प्रादि अलंकारों की योजना करके उसे काफी सरस छठवींपीढ़ी के थे । इन्होंने कवि को प्रेरित कर 'मेहेसर एवं माकर्षक बना दिया है । चरिउ' (मेघेश्वर चरित) एवं 'पासणाह परिउ'' (पार्श्वनाथ चरित) जैसे महाकाव्यों का प्रणयन खेऊ साहू की अनुनय-विनय पर जब रइधू ने कराया था। खेऊ के चतुर्थ पुत्र होनु साह ने कवि पासणाह परिउ के प्रणयन की स्वीकृति दे दी तब को "दसलक्खरणजयमाल"" के लिखने की प्रेरणा घेऊ साहू का मानन्द देखते ही बनता है । वे मानन्द की थी। यह जयमाल अध्यात्मरस की अनुपम कृति विभोर हो नाचने लगते हैं और कवि की उक्त १-सम्मत्तगुणणिहाण कव्य ४ । ३४ । ११. २-पासणाह चरिउ ७1८।४. ३-पासणाह०१।५ । ११ ४-मेहेसरचरिउ १।१०।१. ५-मेहेसर०५।१ संस्कृत श्लोक. ६-मेहेसर०६।१ संस्कृत श्लोक. ७-पासरणाह. १।५।११ ८-मेहेसर० ७1८-१० १-इसका प्रपरनाम मादिपुराण है । यह ग्रंथ हस्तलिखित रूप में जैन सिद्धान्त भवन पारा में
सुरक्षित है। १०-यह प्रय हस्तलिखित रूप में राजस्थान जैन शास्त्र भण्डार जयपुर में सुरक्षित है। ११-जैन प्रथ रत्नाकर कार्यालय बम्बई (१९२३) से प्राशित. १२--कडवकछन्द के उद्भव एवं विकाश पर भारतीय साहित्य संसद् पाराणसी (१९६५) से प्रकाशित
संसद् स्मारिका में मेरा विस्तृत निबन्ध पढिये ।
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महाकवि रई युगीन अग्रवालों की साहित्य सेवा
स्वीकृति को कल्पवृक्ष एवं कामधेनु की संज्ञा देते हुए कहते हैं
शियगेहि उवम् कष्पस्वषु । तह फल को उधर ससुक्खु ॥ पुष्पेण पत्र जर कामधे । ht freates पुरy वि गयरेणु ॥ तह पर पुर महू कि सई पसाउ मह जम्मु सफलु मठ धन्न जाउ ॥ सह धष्णु जासु एरिस चित्तु । कश्यण गुरणु दुल्हू जेरण पत्त ॥ ( पासरणाह १।८।१-४.) कवि ने जब ७सन्धियों एवं १३८ कवकों बाले 'पासरगाह परि' को लिखकर समाप्त किया तथा उसे खेऊ साहू को सौंपा, तब वह हर्षातिरेक से गदगद हो उठे तथा द्वीप द्वीपान्तर से मंगवाए हुए विविष हीरा, मोती, वस्त्राभूषरण प्रादि को ससम्मान समर्पित किया। कवि ने लिखा है:
संपुष्ण करेण्पिर पत् । वे साहू ग्रप्पिय सत्यु || दीनंतर भागय विविह वत्थु । पहिराविवि मसोहा परात्पु ॥ ग्राहरण सह मंडित पु पवित्त । इच्छादारों रंजियड पिल्लु || संतुटुड पंडित यि मम्मि प्रासीबाउ बिदिष्णउ खराम्मि || ( पासरणाह० ७|१०|३-८)
महाकवि रहन के एक प्रनन्य भक्त हरसी साहू थे। उनकी तीव्र इच्छा थी कि उनका नाम चन्द्र विमान' में लिखा जाय 'रामचरित' (पपचरित) को बिना लिखवाये तथा उसका स्वाध्याय किये
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बिना उक्त लक्ष्य की पूर्ति सम्भव नहीं, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास था । अतः वे कवि से साग्रह अनुरोध करते हैं कि उसके निमित्त वह 'रामचरित' की रचना अवश्य करदे, किन्तु उसे सुनकर कवि अपनी प्रसमता प्रकट करते हुए कहता है कि “भाई, 'रामचरित' का लिखना क्या ग्रासान बात है ? उसके लिखने के लिये महान साधना, क्षमता एवं शक्ति की भावश्यकता है । आप ही बताइये भला, कि घड़े में समुद्र को कोई भर सकता है ? साँप के सिर पर स्थित मरिण को कोई स्पर्श कर सकता है ? प्रज्ज्यलित पञ्चाग्नि में कोई अपना हाथ डाल सकता है ? बिना धागे के रत्नों की माला कोई ग्रंथ सकता है ? नहीं। ठीक इसी प्रकार बिना बुद्धि के इस विशाल रामकाव्य की रचना करने में मैं कैसे पार पा सकूंगा ?" इस प्रकार का उत्तर देकर कवि ने साहू की बात को सम्भवतः टाल देना चाहा, किन्तु साहू साहब बड़े चतुर थे। उन्होंने ऐसे मौके पर वणिक् बुद्धि से काम लिया। उन्होंने कवि को अपनी पूर्व मंत्री का स्मरण दिलाते हुए कहा-
तु कम्यु पुरंधर दोसहारि । सत्यत्य ससु बहू विरणय धारि । करि कथ्यु चित परहरहि मित्त || तुह मुहि बिसइ सरसइ पवित्त ॥
॥
( बलहद्द० ११५१५- ६, ) अर्थात् कविवर धाप तो निर्दोष काव्य रचना में घुरन्धर हैं। शास्त्रार्थ प्रादि में कुशल हैं, विनयबान एवं उदारहृदय है। आपकी जिह्वा पर सरस्वती का वास है प्रत: इस काव्य की रचना अवश्य ही करने की कृपा कीजिये ।" अन्ततः कवि तैयार हो जाता है और 'रामचरित" की रचना प्रारम्भ कर देता है ।
१बल परि१।४ । १२.
बह० १।४।१-४.
३- इस रचना के अपरनाम बलहृद चरित ( बलम
चरित) एवं पउमचरिउ (पद्मचरित भी है । रकृत यह रचना प्रकाशित है और दिल्ली के चैन शास्त्र भण्डार में त्रुटित रूप में सुरक्षित है।
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बाबू बोटेलाल जैन स्मृति अन्य ग्रन्थ की रचना समाप्ति पर जब “कवि ने हुमा था' । महापुरुषों के चरित इन्हें बहुत ही अपना रामचरित समपित किया तब हरसी साह रुचिकर लगते थे प्रतः कवि को प्रेरित करके इन्होंने के हर्ष का पारावार न रहा। वे कवि को सम्मुख १२ सन्धियों एवं २४६ कड़वकों वाला राम चरित माया देख अपना मासन छोड़कर तुरन्त दौड़े तथा अथवा बल भद्र चरित तो लिखाया ही था, साथ विशिष्ट प्रासन लाकर सर्वप्रथम कवि को उस पर ही "सिरिवाल चरिउ"२ (श्रीपाल चरित) का बैठाया और सभी प्रकार के गौरवों से उसे सम्मा- प्रणयन भी उन्होंने अपने प्राश्रय में कराया था। इसमें नित किया। फिर सुन्दर-सुन्दर बेशकीमत वस्त्र, दस सन्धियाँ एवं २०२ कडवक हैं। राच-चरित कुण्डल, कंकरण, अलंकृत अंगूटी प्रादि पाभूषरणों से की प्रशस्ति के अनुसार उक्त हरसी: साहू की उसे प्रलकृत किया। पुनः उसने एक अत्यन्त सुन्दर दिवही एवं वोल्हा ही नाम की दो पलियां थीं । सजे हुए घोड़े पर बैठाकर बड़े ही उत्सव के उनका करमसिंह' नाम का एक पुत्र था जिसे साथ कवि को वापिस भेजा।"
राजरंगरसिंह से राज्यासम्मान प्राप्त था । वह ................ ....... मम्मि (२)। अपने पिता के समान ही साहित्यरसिक था। पंडिउ प्रासणि धावियउ तेरण।
महाकवि रइधू के एक अनन्य भक्त थे खेल्हा पुणु सम्माणिउ चहुगउरवेण ॥ साहू' जिनकी प्रेरणा से कवि ने 'हरिवंशपुराण' वरवच्छहि कुडल कंकणेहि ।
‘एवं' सम्मइजिरण चरिउ', (सन्मति जिन चरित) अंगुलियहि मुदिदय गिम्मलेहिं ।। की रचनाएं की थीं। 'हरिवंश पुराण' में १४ पुजिवि पाहरण हिं पृणु तुरंगि । सन्धियां एवं ३०२ कडवक हैं, तथा 'सम्मइ जिण पारोपिवि सज्जिउ चंचलंगि ।।
चरिउ' में दस सन्धियां एवं २४६ कडयक हैं। गउरिणय गिहि पंडिउ सच्छतेरए ।
उक्त खेल्हा योगिनीपुर (दिल्ली) की पश्चिमजिणगेहि गयउ मुमहुछवेण || दिशा में स्थित हिसारपिरोज ( सम्भवतः फीरोज
शाह द्वारा बसाए गये हिसार नामक नगर ) के रघु ने उक्त हरसी साहू की छह पोलियों का निवासी अग्रवाल वंश के गोयल गोत्र में उत्पन्न उल्लेख किया है। इसमें प्रादि पुरुष का नाम छगे श्री तोसउ साहू के ज्येष्ठ पुत्र थे।' स्वाध्याय साह था। इनकी चतुर्थ पीढ़ी में हरसी साह का जन्म प्रेमी होने के कारण वे सिद्धान्त एव प्रागम ग्रथो
१-सिरिवाल चरिउ १०। २४-२५. २--इस रचना का अपरनाम सिद्धचक्क माहय्य (सिद्धचक्र माहात्म्य) भी है । यह रचना अप्रकाशित
है और राजस्थान जैन शास्त्र भण्डार जयपुर में सुरक्षित है। ३-सिरिवाल. १०।२५ । ५. ४-विस्तृत जानकारी के लिये अनेकान्त वर्ष १५, किरण १ पृ. १६-२० (अप्रैल १९६२) में
प्रकाशित "महाकवि रइधू द्वारा उल्लिखित खेल्हा ब्रह्मचारी" नामक मेरा शोष-निबन्ध देखें। ५- इस रचना का अपरनाम मिपुराण भी है। प्रमुद्रित रूप में जैन सिद्धान्त भवन पारा में
सुरक्षित है। ६-इस रचना के भी अपरनाम वर्धमान चरित, वीरचरित एवं महावीर चरित हैं । रचना प्रकाशित
है और दिल्ली के जैन शास्त्र भण्डार में सुरक्षित हैं । ७-सम्मइ.१. ३१-३४.
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महाकषि रईधू युगीन अप्रवालों की साहित्य सेवा के अच्छे जानकार । ' खेल्हा का विवाह कुरुक्षेत्र साथ ही सुदूरवर्ती दक्षिण में भी भट्टारकीय गद्दियों के जैन धर्मानुरागी सेठियावंश के श्री सहजा साहू के माध्यम से उन्होंने म त प्रचार एवं स्थायी के पुत्र श्री तेजा साहू को जालपा नामक पत्नी से कार्य किये हैं । साहित्य के क्षेत्र में अग्रवालों ने उत्पन्न खीमी नामक पुत्री से हुआ था। २ सन्तान विद्वानों एवं साबुनों को उचित श्रद्धा, सम्मान हीन होने के कारण खेल्हा ने अपने भाई के पुत्र एवं साधन देकर उन्हें समाज के शीर्ष पर पासीन हेमा को गोद ले लिया तथा गृहस्थी का भार उसे किया । मध्य कालीन जैन-मूर्तियां, मन्दिर, सौंपकर मुनि यश.कीर्ति के पास अणुव्रत धारण साहित्य एवं शास्त्र भण्डार निस्सन्देह ही इसके कर लिये थे और तभी से फिर वे ब्रह्मचारी कहलाने जीते-जागते उदाहरण हैं। लगे थे। ३ खेल्हा ब्रह्मचारी मे ग्वालियर-दुर्ग में राधू-साहित्य में साहित्य लिखवाने वाले चन्द्रप्रभु भगवान की एक सुन्दर विशाल मूर्ति का प्रथया शास्त्रों को प्रतिलिपि करने अथवा कराने निर्माण कराया था ।४ ग्वालियर के सुप्रसिद्ध बालों का महत्व भी साहित्य लेखक से कम नहीं संघपति कमलसिंह इनके घनिष्ठ मित्र थे और उन्ही माना गया । साहित्य-सेवा के क्षेत्र में इस प्रकार के सहयोग एवं सहायता से खेल्हा ने उक्त मूर्ति की उक्ति निश्चय ही अग्रवाल जाति को साहित्य एवं एक विशाल शिखरबन्द मन्दिर की प्रतिष्ठा सेवा सम्बन्धी एक स्फूति, साहित्य प्रचार मौर भी कराई थी। मूति-निरिण के प्रासपास ही प्रसार के प्रति लगन एवं प्रास्था का द्योतन वे एकादश-प्रतिमा के धारी बन गये।।
करती है।
विस्तार-भय एवं पृष्ठ-सीमा को विवशता के इसी प्रकार कवि ने रणमल साहू, प्राडू साहू, कारण यह निबन्ध यहां समाप्त करता हूं, किन्तु लोणा साह, तोसउ साहू, कुन्थुदास, हेमराज प्रभृत्ति कालीन अग्रवालों की विविध सेवानों की सीमा अग्रवालों के भी उल्लेख किये हैं । जिन्होने उस हर रेखा यही नहीं है इससे कहीं अधिक दूर है । वस्तुतः प्रकार की सहायता, सम्मान एवं प्राश्रयदान देकर
समाज, साहित्य एवं राष्ट्र का ऐसा कोई भी प्रगतिउससे एक विशाल साहित्य का निर्माण कराया था।
शील एवं रचनात्मक कार्य नहीं है जिससे अग्रवालों इनके अतिरिक्त महाकवि रद्धू ने अपनी का सक्रिय सम्बन्ध न हो । यदि मध्यकालीन समग्र विस्तृत प्रशस्तियों में बहुत से संघपतियों, मूर्ति- साहित्य को न भी लें और अकेले रइधू-साहित्य के निर्मातानों, मूतिप्रतिष्ठापकों, गिरनार मादि तीयों प्रशस्ति खण्डों में उल्लिखित अग्रवालों के कार्यों का की यात्रा करने वालों, राजनयिकों, भद्रारकों प्रादि लेखा-जोखा किया जाय तो भी उससे इस जाति के के भी विस्तृत उल्लेख किये हैं जिनकी चर्चा इस गौरवपूर्ण कार्यों का एक सुन्दर प्रामाणिक इतिहास निबन्ध में नहीं की गई है इन उल्लेखों से यह स्पष्ट अन्य तैयार हो सकता है। राधू-साहित्य निश्चयतः विदित होता है कि मध्यकाल में जैनधर्म, साहित्य, ही अग्रवाल-जाति के स्वर्णमय प्रतीत के गौरव मूति एवं मन्दिरनिर्माणकला आदि के क्षेत्र में जो का एक अद्वितीय उदाहरण है। यदि यह साहित्य प्रचार-प्रसार हुआ उसमें प्रसवालों का ही प्रमुख प्रकाशित हो जाय तो उसका यश चतुर्दिक विकीर्ण हाथ रहा है। समग्र उत्तर भारत में तो उन्होंने होकर समाज एवं राष्ट्र को सुरभित करेगा, इसमें तन-मन एवं धन से अनवरत कार्य किया ही, कोई सन्देह नहीं ।
१. सम्मइ०१।३ । २. २. सम्मइ०१०।३४ | १८-२७. ३. सम्मइ०१०।३४ । २८-३४.
४. सम्मइ.११४ । ११-१२ ५. सम्मइ.१।४।१६-१८, ६. सम्मइ०१।४।६.
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कोयले को धोने से उसका रंग नहीं बदला जा सकता, उसे। आग में जलाना पड़ता है। दुष्ट इसी प्रकार सुधारे जा सकते हैं, बातों से नहीं।
आज जो बात कठिन जान पड़ती है, वही किसी दिन सीधी और सहज हो जायगी। ___x xxx भाग और पाप बहुत दिनों तक नहीं छिपते ।
आज का अमनल कल नहीं रहता।
मनुष्य का स्वभाव कुछ ऐसा ही है कि तनिक सा दोष देखते ही, कुछ क्षण पूर्व की सभी बातें भूलते उसे देर नहीं लगती।
-बाबूजी की डायरी से
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हिन्दी आदिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य
श्याम वर्मा
एम०एससी०, एम० ए० (संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी ) साहित्यरत्न, मायुर्वेदरत्न
अपभ्रंश भाषा के गर्भ से हिन्दी का उदय कब हो गया यह जानने के लिए कोई निर्विवाद प्रणाली आज उपलब्ध नहीं है। अपभ्रंश के यहा कवि स्वयंभुदेव को हिन्दी का महाकवि घोषित किया जा चुका है क्योंकि उनकी भाषा वास्तव में प्राचीन हिन्दी का रूप ही है । विक्रम की प्राठवीं शताब्दी के इस महाकवि से चौदहवीं शताब्दी तक के काल में जैन कवियों द्वारा रचित प्रबन्ध काव्यों का संक्षिप्त पर्यालोचन प्रस्तुत निबन्ध में किया
जायगा ।
श्री
नाथूराम
प्रेमी की एक टिप्पणी
स्वर्गीय श्री नाथूराम प्रेमी ने 'हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' में उस समय उपलब्ध हिन्दी जैन साहित्य के विषय में विचार करते हुए लिखा था - " यह हमें मानना पड़ेगा कि जैन कवियों में उच्च श्रेणी के कवि बहुत ही थोड़े हुए हैं ।....जो उच्च श्रेणी के कवि हुए हैं उन्होंने प्रायः ऐसे विषयों पर रचना की है जिनको साधारण बुद्धि के लोग बहुत कठिनाई से समझ सकते हैं।.... साधारणोपयोगी प्रभावशाली चरितकाव्यों का जैनसाहित्य में प्राय प्रभाव है मोर जैन समाज तुलसीकृत रामायण जैसे उत्कृष्ट ग्रन्थों के मानन्द से वंचित है । शीलका और खुशालचंदजी के पद्मपुराण शादि की निःसत्व कविता को पढ़ते-पढ़ते जनसमाज शायद यह भूल ही गया है कि अच्छी कविता कैसी होती है ।"
यह साहित्य महत्वपूर्ण है
परन्तु यह मार्मिक बात विक्रम संवत् १९७४ में लिखी गई थी। और तदनंतर अनेकानेक सुन्दर
जैनकाव्यों के प्रकाश में भाने से हिन्दी काव्य के क्षेत्र में जैनप्रतिभा के प्रति लोकश्रद्धा में वृद्धि हुई है । डा० हरमन याकोबी, श्री चिमनलाल डाह्याभाई दलाल मुनि जिन विजय, प्रोफेसर हीरालाल जैन, डा० परशुराम वंद्य, पं० लालचन्द गांधी, डा० जगदीशचन्द्र जैन, डा० प्रल्सफोर्ड, श्री राहुल सांकृत्यायन, श्री नाथूराम प्रेमी, श्री कस्तूरचंद कासलीवाल प्रभृति विद्वानों के परिश्रम से जैन साहित्य बहुत कुछ अन्वेषित, सुसम्पादित एवं प्रका शित हुआ है। अब तो जैन प्रबन्ध-काव्यों का प्रभाव जायसी, तुलसी प्रादि महाकवियों पर सिद्ध करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं। ऐसे दावेदारों में श्री राहुल सांकृत्यायन का नाम विशेष उल्लेख्य है । उन्होंने न केवल स्वयंसुदेव को हिन्दी का सर्वोत्तम कवि ही घोषित किया अपितु तुलसी को स्वयंभु का धनुकर्ता भी माना है। इस प्रतिशयोक्ति पर टिप्पणी निरर्थक है । दलविशेष या सम्प्रदाय विशेष reat विचारधारा विशेष से बंधकर यदि न सोचा जाय तो उपनिर्दिष्ट ६०० वर्षों के उपलब्ध हिन्दी जैन प्रबन्ध काव्यों का पर्यवेक्षरण कर निष्पक्ष सहृदय मालोचक यह कहने को बाध्य होगा कि यह साहित्य विशाल न होते हुए भी महत्वपूर्ण है । इन प्रबन्धकाव्यों में सौन्दर्य, स्नेह, साधना, संन्यस्त जीवन, संग्राम भादि विविध व्यापारों को छन्दों के कलात्मक परिधान, अलंकारों की कमनीय छटा एवं भाषा के परिष्कृत रूप के साथ सरसता पूर्वक चित्रित किया गया है।
प्रबन्धकाव्यों के दो भेद
प्रबन्धकाव्यों के दो भेद मान्य हैं—महाकाव्य
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य पोर खण्डकाव्य ! महदेश्य, महान चरित्र, सम्पूर्ण 'पउमचरिउ' तथा रिहनेमि चरित्र तथा 'पंचमिपुगजीवन का चित्रण, गरिमामयी एवं उदात्त शैली चरिउ' तीन प्रबन्धाकव्य हैं । अन्तिम ग्रन्थ एक इत्यादि गुणों से भण्डित होता है विशालकाय खण्डकाव्य है जो अभी अनुपलब्ध है; इसमें महाकाव्य । और खण्डकाव्य होता है अप्रासंगिक नागकुमार चरित्र वरिणत रहा होगा। कथानों से मुक्तप्राय, कथा में एकदेशीयता युक्त, पउमचरित कथाविकास में वर्णनविस्तार कम तथा भावप्रवणता
'पउमचरित' में रामचरित्र वरिणत है। इसमें अधिक लिए हुए।
पांच काण्ड हैं-विद्याधरकाण्ड. अयोध्याकाण्ड जैन प्रबन्धकाव्यों की लोकप्रियता का प्रश्न सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड मोर उत्तरकाण्ड । इनमें
संस्कृत के जैन कवियों ने ऐतिहासिक महा- क्रमशः २०,२२, १४, २१, मोर १३ सन्धियां हैं। काव्यों की रचना में रुचि एवं दक्षता दिखाई है. सान्धसग] । प्रथम ८३ सन्धियां स्वयंभुदेव द्वारा यद्यपि इनका साहित्यिक तथा ऐतिहासिक भल्य रचित हैं और उनमें ग्रन्थ पूर्ण है । अंतिम ७ संधियों मास्थिर है। इसके विपरीत हिन्दी जैनकवियों ने को स्वयंभुदेव के पुत्र त्रिभुवन ने पितृदेहावसान अपने प्रबन्धकाव्यों में महाकवियों की अपेक्षा खण्ड- के उपरान्त जोड़ दिया था। ग्रंथ का प्रारंभ नम्र काव्यों और शास्त्रीय शैली की अपेक्षा चरित शैली प्रात्मनिवेदन तथा प्रात्मविश्वासाभिव्यक्ति के साथ में ही रचना अधिक की है। एक विशिष्ट पात होता है कवि 'सामारण भास' को त्यागने में असमर्थ यह भी है कि संस्कृत के जैनकवियों में साम्प्रदायिक है और 'गामेल भास' को त्यागकर कुछ भावना से मुक्त होकर रचने का जो गरण पाया जाता 'भागम-जुत्ति' गढ़ने में उसे रूचि नहीं है । “पुरण है वह हिन्दी के जैन कवियों में कम ही दिखाई पड़ता अप्पणउं पायडीन रामायण कावे" के अनुसार कवि है । प्रायः सभी प्रबन्धकाव्य जैन वातावरण से की कृति स्वान्तः सुखाय रचित है। परिपूर्ण हैं । प्रायः जैनमन्दिरों में, और बहुत हुआ मानवीय शक्ति और दुर्बलता दोनों से युक्त तो जनसमाज के एक ग्रंश के मध्य तक, सीमित रहने राम को चित्रित करने में कविकोशल पाकर भी हम वाले इन ग्रन्थों को मजैन समाज ने तो संभवतः यह कहने को बाध्य हैं कि कवि की महानुभूति राम इस काल में ही देखा है, और अभी भी बहुत कम से न होकर सीता से है। जहां जहां सीता का वर्णन ही । इसका कारण यह है कि प्रायः कविगण सरस या सीता द्वारा किसी कथन का प्रसंग प्राता है, स्थलों में (मने की अपेक्षा नरक, स्वर्ग, लोक्य, कवि की लेखनी थिरक उठती है-अग्निपरीक्षा से कर्मप्रकृति, गणस्थानादि के विस्तृत वर्णनों में पूर्व सीता वरासन पर विराजमान कैसी लगती है? ही फंसे रहे हैं और दर्शन से बोझिल साहित्य लोक- 'सासण-देवए जंजिरण-सासण' (जैसे जिन-शासन प्रिय नहीं हो सकता। जैनप्रबंधकाव्यों की लोक- पर जिन देवता)। उस समय सीता को राम ने कैसे प्रियता के प्रश्न पर विचार करते समय यह देखा ? 'सिय-पक्ख हो दिवसे पहिल्लए चंद-लेह एणं महत्त्वपूर्ण बात भी ध्यान में रखनी होगी कि सायरेण' (अर्थात् जैसे सागर शुक्लपक्ष के प्रथम इन कवियों के सामने राष्ट्रीयता की प्रेरणा देने दिवस पर चन्द्ररेखा को देखे) । जब राम ने सीता का लक्ष्य नहीं रहा, प्रायः सम्प्रदाय-भक्ति ही को अशुद्धता व निर्लज्जता के लिए धिक्कारा तो प्रेरणा एवं उद्देश्य रहा।
निर्भीक एवं सतीत्व के गर्व से युक्त सीता की महाकवि स्वयंभुदेव
उक्तियां बहुत मार्मिक बन पड़ी हैं यथामहाकवि स्वयंभुदेव साम्प्रदायिक उन्माद से "पुरिस णिहीण होति गुणवत वि रहित थे। वे महाकवियों में अग्रगण्य हैं। उनके तियहे रण पन्ति जति मरंत वि"
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हिन्दी के मादिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य [ पुरुष गुणवान होकर भी हीन होते हैं जो मरती ___ "जहि दक्खा-मंडव परियलंति हुई स्त्री का भी विश्वास नहीं करते ।]
पुणु पंथिय रस-सलिलइ पियंति" "गर-णारिहिं एबहुउ अंतर
अर्थात वहां द्राक्षा के मण्डप लहराते रहते हैं मरण वि वेल्लिए भेल्लइ तस्वरु"
पौर पथिक जल न पीकर द्राक्षा रस ही पीते हैं। [मर और नारी में यही अंतर है कि मरने पर भी
भगध की समृद्धि की कैसी सुन्दर व्यंजना है। लता तरुवर का त्याग नहीं करती।
इसी प्रकार कामेरी प्रदेश में इन्द्रनीलमणियों
का बाहुल्य भी सुन्दर विधि से व्यंग्य है-वहां इन्द्र और तब सीता अग्नि को चुनौती देती है कि
नील की किरणों से भिद्यमान शशि जीर्ण दर्पण के वह जला सके तो जलाए । प्रग्नि-परीक्षित सीता
समान हो गया है। से राघव क्षमायाचना करते हैं तो सीता का चरित्र एक विचित्र मोड़ लेता है । मोर वह दार्शनिक भाषा
उपमानों के समायोजन में भी स्वयंभूदेव का बोलकर अन्तव्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति करती
अपना वैशिष्ट्य है। नवीन एवं रूढ़ उपमानों की हैं-हे राघव ! न तुम्हारा दोष है, न जनसमूह का, माला से वे प्रत्येक चित्र को सटीक उपस्थित करना दोष तो दुष्कर्म का है ! और इससे मुक्ति
जानते हैं। वन की मोर प्रस्थान करती सीता का उपाय यही है कि ऐसा उपाय किया जाए (रामगमन प्रसंग में ) राजभवन से निकल रही जिससे फिर स्त्रीयोनि में जन्म न लेना पड़े।
है तो कवि को ऐसी लगा मानो हिमवान् से गंगा,
वेद से गायत्री अथवा शब्द से विभक्ति निकल पड़ी सम्पूर्ण महाकाव्य ही करुण प्रसंगों से अोतप्रोत हो। यहां पर भावना को मुखरता दृष्टव्य है । है। रामवनगमन के अवसर पर माता का विलाप लोकगीतात्मक भाषा में प्रत्यन्त मामिक है। दश
प्रतापी रावण के मरण पर विभीषण विलाप रथ विलाप भी हृदयस्पर्शी है । युद्ध में माहत लक्ष्मण
में अलंकार मावोनयन में सहायक हैं-यह तुम्हारा के लिये विलाप करते मरत की उक्तियां-'मह हार नहीं टूटा पड़ा है, तारागण ही टूटे पड़े रिणवडिऊसि दाहिणउ पाणि' तथा 'प्रायइ सब्बइ हैं; तुम्हारा हृदय विद्ध नहीं हुआ है, विश्वव्यापी लम्भति जइ, गवरण लग्भइ भाइवरु" इत्यादि- गगन ही विद हुआ है। तुम्हारी प्रायु समाप्त नहीं अत्यन्त सुन्दर हैं। रावण मरण पर विभीषण एवं हुई है, रत्नाकर ही रीता हो गया है। तुम नहीं गए. मन्दोदरी द्वारा बिलाप भी स्वाभाविक एवं
__ मेरी माशामों की पोटली ही चली गई है। तुम नहीं करण हैं।
सो रहे हो, माज सम्पूर्ण भूमण्डल ही सो गया है। स्वयंभुदेव ने युद्धवर्णन में भी बड़ी कुशलता गोदावरी नदी के वर्णन में कवि की सूझ दिखाई है। युद्ध यात्रा वर्णन, शूरवीरों की उत्साह- देखिएपूर्ण भावनामों का चित्रण तथा युटों का वर्णन “फेरणालि बंकिम-बलयालंबिय महि बहु प्रत्यन्त प्रोजस्वो भाषा में किया गया है।
प्रहे तरिणया। 'पउमचरिउ' में मनोहर प्राकृतिक दृश्य भी जल-णिहि मत्तारहो मोत्तिय-हारहो वाह चित्रित है। मगध देश में पके धान की फलमों, शुक
पसारिय दाहिणिया ॥" पंक्ति, नन्दनवन प्रादि का वर्णन करने के उपरान्त अर्थात् गोदावरी बंकिम-फेनावलिरूपी वलय से कवि कहता है
प्रलंकृत जलनिधि की वधू पृथ्वी को दक्षिण भुजा है
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ
5දී
जो उसने मुक्ताहार से सुशोभित प्रपने पति की प्रोर प्रसारित कर दी है।
समुद्र की गहराई की उपमा महाकाव्य की गहराई से, श्राकाश में मेघ विस्तार की उपमा महाकाव्य के विस्तार से तथा समुद्र के कन्दन की उपमा किसी निर्धन व्यक्ति की प्रप्रमाण चीखपुकार देकर महाकवि ने नवीनता दिखाई है ।
पउमचरिउ के अध्ययन के उपरान्त इस महाकाव्य को अमरकाव्य तथा स्वयंभुदेव को यशस्काय कहे बिना रहा नहीं जा सकता ।
रिमिचरिउ
स्वयंभुदेव कृत 'रिट्ठमिचरिउ' या हरिवंश पुराण' १८००० श्लोक प्रमाण महाकाव्य है जबकि पउमचरिउ केवल १२००० श्लोक प्रमाण है। इसमें यादव, कुरु और युद्ध नामक तीन काण्ड हैं जिनमें १३, १६ और ८० सन्धियाँ हैं । प्रारंभिक ६९ सन्धियों के रचयिता स्वयंभुदेव हैं, ग्रन्तिम २ सन्धियां ६ शताब्दी बाद होने वाले जसकित्ति कवि की कृति हैं तथा शेष त्रिभुवन की । निस्सन्देह ग्रंथ ६६ सन्धियों में पूर्ण था ।
इस महाकाव्य में स्वयंभुदेव की सर्वाधिक सहानुभूति द्रौपदी के साथ है। कोचक द्वारा अपमानित द्रौपदी को देखकर स्त्रियों को टिप्पणी बहुत सुन्दर है । पर रात्रि को द्रौपदी जब भीम से अपना दुःख व्यक्त करती है तो क्रूरकर्मा भीम दार्शनिक भाषा में द्रौपदी को समझाता है-"तुम संसार धर्म नही निरखतीं । कहीं सुख है, कही दु.ख । पूर्वकर्मों का वृक्ष ये दो फल ही देता है ! देखो रावण द्वारा सीता को क्या थोड़ा दुःख हुआ था ?" पाठक इसे काव्यापकर्ष हो मानेगा । त्रिभुवन ने अपनी रचित सन्धियों में दार्शनिकता बढ़ाकर भाषा को बोझिल और ग्रंथ को नीरस ही श्रधिक बनाया है, भले ही उसके द्वारा धार्मिकता बढ़ गई हो ।
प्रति प्राचीन एवं उदार 'यापनीय संघ' के अनुयायी महाकवि स्वयंभुदेव परवर्ती जंन कवियों की अपेक्षा अधिक उदार थे यह बात रिट्ठरोमिचरि में प्रत्यन्त स्पष्ट हो जाती है । प्रभिमन्यु मरते समय जिस सवेचिव देव की वन्दना करता है वह जैन सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार वरिंगत न होकर एक सर्वप्रभावी रीति से वरिंगत है - " जो निष्कल, सतत्, परात्पर है, जो नारायण, दिनकर विष्णु शिव, वरुण, हुताशन, शशि और पवन है, वह चाहे जो हो उसे एकान्त भाव से स्मरण करता हुआ अभिमन्यु मृत्यु को प्राप्त हुआ ।" कितनी सुन्दर उक्ति है ! अन्तिम पंक्ति को कवि के शब्दों में हम दोहरायें - " जो होउ सु होउ पुरणन्तु थिउ, एक्कन्ते करेप्पिर कालु किन्तु । " अपने निजी विचारों को अपने पात्रों पर थोपने का रोग स्वयंभुदेव को नहीं लगा था।
महाकवि पुष्पदंत
विक्रम की ग्यारहवीं शती के महाकवि पुष्पदन्त की भोज प्रवाह, सौन्दर्य और रस से परिपूर्ण रचनाओं के कारण उनका नाम स्मरण स्वयंभुदेव के पश्चात अत्यन्त भादरपूर्वक किया जाता है । महाकवि ने स्वयं को 'अभिमानमेरु' 'कविकुलतिलक' 'काव्य पिसल्ल' 'सरस्वतीनिलय' श्रादि नाम यथार्थ ही दिए थे । उनके तीनों प्रबन्धकाव्य मूल्यवान हैं । 'तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारु' महाकाव्य है । 'गायकुमार चरिउ' व 'जसहरचरिज' खण्डकाव्य हैं ।
तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारु
'तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार' की प्रसिद्ध 'महापुराण' के नाम से है। इसके दो खण्ड हैंश्रादिपुराण और उत्तर पुराण । जैन महापुरुषों -- २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती, बलदेव, ६ वासुदेव और ६ प्रति वासुदेव - प्रर्थात् ६३ शलाकापुरुषों के चरित्र इस ग्रंथ में वरिंगत हैं। मादिपुराण में भगवान ऋषभदेव का और उत्तरपुराण में शेष
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हिन्दी के आदिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य
तीर्थङ्करों व उनके समकालीनों का चरित्र निबद्ध है। मार्ग-पुराण में ८० संधियां हैं और उत्तरपुराण में ४२ । २०००० श्लोक प्रमाण का यह ग्रंप वास्तव में मनोहर है।
प्रादिपुराण का प्रारंभ रूढ़ि के अनुसार ही विनम्र प्रात्मनिवेदन, आश्रयदाता ( महामात्य भरत ) की प्रशंसा, खल-निन्दा, सज्जन- प्रशंसा, रनोद्देश्यवन तथा श्री ऋषभदेव के अवतार ग्रहण की भूमिका प्रस्तुति से होता है । ऋषभदेव के जन्म के वर्णन उपरान्त उनकी बाललीला का वर्णन कवि ने अत्यन्त मनोयोग से किया है । यथा
"सेसवलीलिया कोलमसीलिया । पहणादाविया केरण णा भाविया || धूली धूसरु arresडिल्लु । सहायक विलकinलु जडिल्लु ||" इत्यादि
तदनन्तर भगवान के विवाह, सन्तानोत्पत्ति वैराग्य एवं महानिर्वाण का वर्णन कर प्रादिपुराण समाप्त होता है । निस्सन्देह भादिपुराण की कथावस्तु महाकाव्योचित प्रबन्ध कौशल से निबद्ध है ।
उत्तरपुराण में २३ कथाएँ हैं और उनमें एकतानता का स्पष्ट प्रभाव है पर चरित्रों के प्रसंग में युद्धों एवं देशविदेश के वर्णन के साथ ही ज्ञानविज्ञान, दर्शन राजनीति प्रादि की गंभीर बातों को रखकर 'महाभारत' के अनुकरण पर ही ग्रंथ को faraste बनाने की चेष्टा महाकवि ने की है । व्यास ने अपने काव्य के लिए कहा था । "जो यहां है वही अन्यत्र है, जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है ।" पर अभिमानमेरु ने उससे भी बड़ी घोषणा की है" इस रचना में प्रकृत के लक्षण, समस्त नीति, छन्द, अलंकार, रस, तत्वार्थ- निर्णय सभी कुछ भा गया है और जो यहां है वह अन्यत्र कहीं नहीं है. धन्य हैं ये पुष्पदंत और भरत जिन्हें ऐसी सिद्धि प्राप्त हुई ।"
उत्तरपुराण में रामचरित्र और महाभारत भी है । पुष्पदन्त ने वाल्मीकि और व्यास की भर्त्सना की है और लगता है कि महाकवि जो स्वयं शैव रहे थे और शिवमहिम्नस्तोत्र के रचयिता थेब्राह्मण विरोधी भावना से युक्त थे ।
रामकथा की अपेक्षा कृष्णकथा में महाकवि ने अधिक रुचि ली है और नटखट कृष्ण व प्रगल्भ गोपियों की लीला उन्होंने प्रेमपूर्वक चित्रित की है। कभी मथानी तोड़ते और कभी प्राधा विलोया दधि लुढ़काते कृष्ण से टूटी मथानी का मोल प्रालिंगन मांगतो गोपियां बाजी मार ले गई हैं- 'एल महारी मंeft भग्गी, ए यहि मोल्लु देउ प्रालिंग, काले कृष्ण के प्रालिंगन से गोली चोली के काली होने पर 'मूट जलेन जांइ पक्खालs, कहकर नवीनता प्रदर्शित की गई है। पर कृष्ण की कालियदमन और गोवर्द्धन धारण सहा पौरुषप्रधान लीलाओं में उनकी लेखनी अधिक सशक्त हो उठी है । गोवर्द्धन धारण से पूर्व घनघोर वर्षा का नादानुरंजित चित्र देखिए
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'जलु गलइ भालभलद । दरिभरइ सरसरइ । asues afsues | गिरिफुडर, सिहिगडइ | notes reges | जलु थलु वि गोडल वि।” इत्यादि
गायकुमारचरि
'लायकुमार चरिउ' पुष्पदंत का ६ सन्धियों का मनोहर खण्डकाव्य है। 'श्रुत पञ्चमी व्रत' की महिमा बताने के उद्देश्श से रचित यह काव्य यद्यपि पातालपुरी भादि साम्प्रदायिक व प्रलौकिक स्थानों व घटनाओं के बाहुल्य से युक्त है पर कहीं कहीं यथार्थ चित्रण की झलक भी मिल जाती है । जैसे वेश्याहाट के वन में । यहाँ कवि की भाषा का प्रवाह देखिए---
"कवि वेस ग्रह रग्गु सयप्यई । झिज्जर खिज्जइ तप्पs कंपइ ।
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बाबू बोटेहाल जेन स्मृति प्रन्य काविबेस रस सलिलें सिंधिय
कुप दोहर भुय जुयल बयण ससि जिय कमल उप्पल । वेवइ वलइ धुलइ रोमंचिय ।
पडम. दलारुण करवलगु, तबिय कणय. गोरंगु । इस काव्य में कवि का वस्तृवर्णनकौशल एवं प्रव परिस बउ पह हुयउ समहिय विजिय मणगु । प्रबन्धपटुवा दर्शनीय है। जसहरचरिउ
प्रकृतिवणन परम्परानुसार होते हुए भी भाषा 'जसहर चरिउ' पुष्पदन्त रचित चार संधियों में सौन्दर्य प्रवक्ष्य है-'तारय-वसण कलयलंत का एक लघु खण्डकाव्य है जिसमें यशोवर राजा का वरु सिहर पस्थिय । चरित्र वणित है। इसमें कापालिक मत के ऊपर परिसंदिर कुसुम-महु-विदु मिसिणए पई बहुजैनधर्म की विजय जन्मजन्मान्तरों की अत्यन्त
क्खिय।" जटिल कथा के प्राश्रय से कही गई है। राजानों के पर्थात् प्रभातकाल में तारकरूपी वस्त्र खिसक गए, छल-कपट, परस्त्री और पुरष में अनुरक्ति, सत्या, वरूशिखरों पर पक्षो कलरव करने लगे और विशाल प्रवंचना, चोरी आदि के बोलते चित्र बड़े किए गए नेत्रों जैसे कमलों से मधुबिंदु टपकने लगे। हैं । उदाहरणार्थ कापालिक भैरवानंद.का.बखन रागरजित वर्णन में भाषा भी रंगीन हो देखिए-"वव वाली टोपी सिर पर दे रखी उठती हैहै जिससे दोनों करण लॅक गए हैं: हाय में ३२ बंगुल - "वज्जत गज्जत बहु-भेय तूरं . का दण्ड है गले में विचित्र पोनपटा है। गली गली लभिज्जतं दिज्जत कप्पूर पूर चंग खडकाते और सिंगा बजाते भैरवानव दम्भपूर्वक
पण च्चंत गच्चंत वेसा समूह घूमता है।"
दसिज्जत हिड्डत वाक्यरणतूहं ।" इत्यादि हरिभद्रसूरि
हरिभद्रसूरि का काल अभी निणीत नहीं है- 'प्रबन्धर्षितामणि' और 'कुमारपालप्रतिबोध' मनि जिनविजय के अनुसार इनका समय संवत विक्रम की ग्यारहवीं शती में मेरुतगत ७५७ प्रौर ८२७ के मध्य रहा होगा और राहल
'प्रबन्धचितामणि' और सोमप्रभकृत "कुमारपालसांकृत्यायन के अनुसार संवत् १२१६ के मासपास।
प्रतिबोष' दोनों ही शिथिल प्रबन्धकाध्य हैं। दोनों उनके दो खण्डकाव्य 'मिणाह परित' और में कथाघों का विस्तृत संचय है और साहित्यिक 'जसहर चरिउ' सुन्दर रचनाएं हैं।
सौन्दर्य कम है। नीति वाक्यों में दोनों ग्रंथ सम्पन्न 'जसहरचरिउ' और 'णेमिणाहचरित'
हैं । प्रबन्धचितामणि का अधिक मूल्य उसमें निहित
र ऐतिहासिक वृत्तों के कारण है। ___ 'जसहर चरिउ' सुन्दर होते हुए भी नावीन्य से पता रहित है और पुष्पदन्त की कृति उससे अधिक पढ़ता सुदंसण चरिउ से निबद्ध है पर 'रणमिरगाह चरिउ' में तीर्थकर
- विक्रम को बारहवी शती मे रणयरण दि मुनि नेमिनाथजी के चरित्र का वर्णन कर कवि ने धवल
न की कृति सूदंसरण चरिउ महत्त्वपूर्ण है । बारह यश अजित किया है। सात सन्धियों और ८०३ संधियों में रचित इस सुदर्शन चरित्र में पचनमएलोक प्रमाण के इस खण्डकाव्य की भाषा प्रति स्कार-प्रतिदिन प्रहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय अलंकृत और समासबहला है। सा
Panोटी और सर्वसाधु को-का महत्व प्रदर्शित है। प्रेम सम्पन्न इस कृति में पुरुषसौन्दर्य का एक चित्र कथा को लेकर लिखे गए इस मंच में शुगार रस देखिए
की प्रधानता होते हुए भी काम्य का पर्यवसान शांत नील कुतल कमल नपणिल्लु बिबाहरु सिपदसए। रस में ही हुआ है। इसमें नायिकाभेद, नखशिखकबुग्गीवुपुर अररि उरयलु ।
वर्णन, प्रादि के साथ ही प्रकृति के भो सुरम्य चित्र
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हिन्दी के आदिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य
मिलते हैं। धमया' की उन्मुक्त प्रणय याचना और संसार की समस्त सुन्दर वस्तुओं के सार से विनिमित सुदर्शन द्वारा शील की रक्षार्थ उसकी प्रस्वीकृति में भावों का अन्त मा चित्रित किया गया है। धर्म के क्रोड में पोषित प्रेमकाव्य के रूप में 'सुदंसण चरित' का जैनप्रबंधकाव्यों में अनुपम महत्व है।
जम्बूस्वामी रासा
तेरहवीं शताब्दी में धर्मसूरि द्वारा रचित 'जम्बूस्वामी रासा' कथावस्तु शैथिल्य एवं संवादों के प्रभाव के कारण साहित्यिक सौन्दर्य से बहुत कुछ हीन है पर फिर भी भगवान् महावीर के सम कालीन जम्बूस्वामी के चरितकाव्य के रूप में उसका अपना महत्व है । पर उसमे भी बढ़कर है उसका भाषावैज्ञानिक महत्व क्योंकि गुजराती और हिन्दी के मूल सम्बन्ध को व्यक्त करने वाला यह भी एक ग्रंथ है जो दोनों भाषाओं में समान महत्वपूर्ण है। बाहुबलिस
शालिभद्रसूरिकृत 'बाहुवनिरास' लण्डकाव्य भी तेरहवीं शताब्दी की महत्वपूर्ण रचना है। इस शौर्य से परिपूर्ण काव्य में ऋषभदेव के पुत्र बाहुबलि को विजयवाहिनी का इतना ब्रोजस्वी वर्णन है जो जनसाहित्य में धन्यत्र दुर्लभ है। बंचल घरों की चंचल गति का वर्णन देखिए---
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'होसई हसिमिसि हगहराई, तरवर तार तोयार । खंड बुरल सेडविय, मन मान असवार ।।" 'नेमिनाथ उपई' 'मल्लिनाथ काव्य' और 'पार्श्वनाथ चरित'
तेरहवीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण जनकवियों में विनयचन्द्र सूरि की गणना होती है। उनके ३ प्रबन्धकाव्य हैं - 'नेमिनाथ चउपइ,' 'मल्लिनाथकाव्य' और 'पार्श्वनाथ चरित' भन्तिम दो । ausatori की अपेक्षा 'नेमिनाथ चउपद' को साहित्यिक जगत में अधिक महत्वपूर्ण स्थान मिला है। इसके दो कारण हैं- प्रथम तो यह कि यह
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सम्पूर्ण काव्य चौपाइयों में लिखा गया है जो सौभाग्य सर्वप्रथम इसी ग्रंथ को प्राप्त हुआ है और द्वितीय यह कि 'बारहमासा' सर्वप्रथम यही मिलता है। नेमिनाथ के वैराग्य प्रहण करने पर उनकी पत्नी राजल देवी का विलाप श्रावण से प्रासाद तक 'बारहमासा' के रूप में प्रस्तुत किया गया है । धावण में 'बिड भक्कद', भाद्र में 'भरिया सर पिल्लेवि सकवण रोज राजन देवि', 'कार्तिक में खित्तिग उम्मई संझ, फाल्गुण में 'वालि पनपंडति राजल दुक्ख कि तक रोयति', क्षेत्र में 'बलि वखि कोयल टहका करइ' प्रादि में कवि ने नारी हृदय की व्यथा का मार्मिक वर्णन कर इस खण्डकाव्य के सौष्ठव को बहुगुणित कर दिया है। 'संघपतिसमरा रासा'
धम्बदेव कृत 'संघपतिसमरारासा' खण्डकाव्य संवत् १३०० की रचना मानी जाती है। शाह समरा संघपति द्वारा शत्रुञ्जय तीर्थ का उद्धार होने पर कवि ने यह ग्रंथ लिखा था। इनकी भाषा सरलता से भाज के हिन्दी पाठक की समझ में आने योग्य है। एक उदाहरण देखिए---
वाजिय संख असंख नादि कान दुइदुडिया घोड़े चड़र सल्लारसार राउत सींगड़िया । तर देवालउ जोत्रि वेगि वेगि घाघरि खु झमकइ । समसिम नवि गराइ कोई नव वारिउ पक्कद ॥
'रेवन्तगिरिरासा' और सप्तक्षेत्रि रास
तेरहवीं शती में रचित विजयमूरि कृत 'रेवन्त गिरिरासा' धौर चौदहवीं शती में रचित 'सप्तक्षेत्रिरास, ( कवि प्रज्ञात) का साहित्यिक मूल्य कम और धार्मिक अधिक है।
विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता
इस प्रकार हिन्दी के प्रादिकाल के कतिपय जैन प्रबन्धकाव्यों का एक संक्षिप्त अवलोकन यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इनकी विधाओं, शैलियों, काव्य रूढ़ियों आदि की पूर्वपरम्परा एवं परवर्ती काव्य पर प्रभाव विस्तृत अध्ययन के विषय है। ..
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जीवन की बहुत सी बड़ी बातों को हम तब पहिचान पाते हैं । जब उन्हें खो देते हैं।
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बुरा तो अच्छे का दुश्मन नहीं हुवा करता। अच्छे का दुश्मन तो वह है जो उससे और भी अच्छा है। वह "और भी अच्छा" जिस । दिन अच्छे के समक्ष उपस्थित होकर प्रश्न का उत्तर चाहता है उस ● दिन उसी के हाथ में राजदण्ड सोंपकर इस 'अच्छे' को अलग हो जाना पड़ता है।
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संसार में जितने पाप हैं उन सबसे बड़ा पाप देश द्रोह है।
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इस संसार में भलाई करने का भार जिसने भी अपने ऊपर ॥ लिया है उसके शत्रुओं की संख्या सदा ही बढ़ती रही है। किन्तु इस भय से जो लोग पीछे हट जाते हैं, अगर उन्हीं में तुम भी जाकर मिल जाओगे तो कैसे काम चलेगा ?"
-बाबूजी की डायरी से
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जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप
प्रेममुमन जैन
जन संस्कृति यम-नियम प्रौर संयम की संस्कृति कन्या की स्थिति
"है। उसके स्वभावतः दो पक्ष हमारे सामने पुत्रियां समाज के लिए बोझ नहीं होती थीं उपस्थित होते हैं। प्रथम दार्शनिकपक्ष जिसके सहारे भौर न मां-बाप के लिये अभिशाप ही। पिता जैन संस्कृति अपनी मात्मा नैवर्तक प्रवृत्ति को सुर- साक्षात् कला रूप पुत्री को देख कर आनन्दित क्षित रख सकी है और दूसरा पक्ष व्यावहारिक है, होता था।' कन्यागों के जन्म पर भी उत्सव जिसके द्वारा वह अन्य भारतीय संस्कृतियों के साथ मनाये जाते थे। माता के गभिरणी होने पर जैसे कदम मिलाकर चल सकने में समर्थ हुई है। हिन्दू संस्कारों में पुसवन संस्कार करने का निर्देश
है, जिसमें मात्र पुत्र उत्पन्न होने की कामना की जैन संस्कृति ने अपने इन दोनों पक्षों की रष्टि से
जाती है। ऐसा कोई संस्कार जैन साहित्य में दिखाई भारतीय नारी की व्याख्या की है। दर्शनपक्ष ने जहां
नहीं पड़ता । प्रतः जैन संस्कृति पुत्र मोर पुत्री को नारी को मोक्षमार्ग में बाधक तथा एक परिग्रह के रूप
समान दृष्टि से देखती है। में देखा है, वहां मंस्कृति के व्यावहारिक पक्ष ने नारी को इतने ऊपर जा बैठाया है, जहां अन्य भारतीय कन्याओं का लालन-पालन ढंग से करने के बाद संस्कृतियों में स्वीकृत नारी नहीं पहुंच पाती। जैन उन्हें उचित शिक्षा देना, चौसठ कलामों में पारंगत संस्कृति में हमें नारी के दोनों रूपों का सम्मिश्रण कराना गृहस्थ का कर्तव्य था । यही कारण है कि प्राप्त होता है। जैन संस्कृति में नारी को हेय देखने कन्यायें इतनी होशियार मौर विदुषी हो जाती थीं की भावना अन्य संस्कृतियों का तात्कालिक प्रभाव कि वे ऐसी अनेक समस्यायें जो उनके पिता नहीं है तो नारी को तपस्या के उच्च शिखर पर पारूढ़ सलझा पाते थे.चटकी मारते सलझा देती थीं। 3 कर पूजना जैन संस्कृति के हृदय को पुकार। भगवान ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी
नारी के विविध रूपों का जैन संस्कृति में और सुन्दरी को ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध किया था चित्रण हमा है। उसके जन्म से लेकर मत्यु तक कि वे दोनों अंक विद्या और अक्षरशास्त्र की मधिकी कहानी वहां विभिन्न रंगों में चित्रित है। उचित ष्ठात्री थी।" यही होगा, नारी के समस्त पहलुनों पर विकास-क्रम कन्यायें उस समय माता-पिता को कृपा पर की दृष्टि से विचार किया जाय ।
निर्भर नहीं रहती थीं । उनका पैत्रिक सम्पत्ति में
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१. भादिपुराण पर्व ६ श्लोक ८३. २. पुमान् प्रमूयते येन कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम् ।
-हिन्दू संस्कार पृष्ठ ७३ ३. प्रावश्यक चूणि ६. पृष्ठ ५२२ ४. प्राविपुराण पर्व १६, श्लोक १०३-१०४
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य भी पूर्ण हिस्सा रहता था। किन्तु फिर भी वह कन्यायें है जिन्होंने प्राजन्म ब्रह्मचर्य पालन कर अपनी नाना कलामों द्वारा धनोपार्जन कर परिवार धर्म साधा था। को आर्थिक लाभ कराती थीं। भाजपंसा उन्हें
जैनागमों में बरिणत स्वयम्बरों के दृश्य इस परिवार के प्राश्रित होकर नहीं रहना पड़ता था। माता पा र सनने में जैन कथानों की कन्यायें तो राज दरबार तक में स्वतन्त्र थी। वैवाहिक क्रियाये किस प्रकार सम्पन्न अपना स्थान बना चुकी थीं।
होती थी यह प्रौर बात है। नाभिराय इसके प्रथम परिवार में कन्या के उत्पन्न होने का अर्थ था सम्पन्नकर्ता थे। उस समय के विवाह कम उम्र में उस गृहस्थ के त्रिवर्गों की सिद्धि । अपनी सुयोग्य कन्या नहीं होते थे। जैन शास्त्रों के अनुसार जिसका का उचित समय पर सत्पात्र के साथ विवाह कर बाल भाव समाप्त हो गया हो जिसके शारीरिक देने से गृहस्थ को धर्म, अर्थ और काम इन तीनों नौ अंग जागृत हो गये हों तथा जो भोग करने में को साधने का फल मिलता है। क्योंकि जिस घर समर्थ हो ऐसे व्यक्ति विवाह के योग्य समझे जाते में कन्या जाती है, वहां की गृहस्थी पूर्ण हो जाती हैं। इस मान्यता के अनुसार बाल-विवाह को है । धर्म, सन्तान और कुल की उन्नति के लिए जैन संस्कृति स्वीकार नहीं करती। अतः उस कन्या को विवाह कर लाना प्रत्येक गृहस्थ का समय की नारियां चिर वैधव्य जैसे दारुण दुख से कर्तव्य है। अतः कन्या समाज व परिवार के लिये दूर थीं। जैन संस्कृति में उस धुरी के रूप में स्वीकृत की वैवाहिक क्रियानों से सम्बन्धित कुछ प्रसंग ऐसे गई है, जिस पर सम्पूर्ण गृहस्थाश्रम चूमता है। भी मिलते हैं जिनमें बहिन को अपने सगे
भाई से विवाह करना पड़ता था। यह उस वैवाहिक परम्परा यद्यपि जन संस्कृति निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त
समय की स्थिति है जब लोग अपनी कन्याए करती है, किन्तु फिर भी उसमें सांसारिक व्यवस्था अज्ञात कुलों में भेजना पसन्द नहीं करते थे। सम्बन्धी सामग्री भी कम नहीं मिलती। गृहस्थ
ऋषभ देव ने अपनी बहिन से शादी का प्रस्ताव जीवन का प्रारम्भ विवाह के बाद होता है। विवाह रखा था। पुष्पफेतु ने अपने पुत्र और पत्री का दो विषम लिगियों के पारस्परिक उस महत्वपूर्ण
परस्पर में स्वयं विवाह किया था। यह प्रथा समझौते का नाम है जिसमें दोनों एक दूसरे के बाद में बौद्धिक विकास के साथ-साथ लप्त होकर बंध जाते हैं। कन्या विवाह के लिये पूर्ण हो गई। स्वतन्त्र थी। उसे पिता तथा अन्य व्यक्तियों की कभी कभी कन्यानों को विवाह के बाद भी रुचि के अनुसार बाध्य नहीं होना पड़ता था। यदि घर पर रहना पड़ता था। माता-पिता को स्थिति वे चाहती थीं तो उन्हें सम्पूर्ण जीवन क्वारा बिना यदि अच्छी नहीं होती थी अथवा वर की आर्थिक देने के लिये समाज की पोर से स्वीकृति थी। स्थिति कमजोर होती थी तो लड़की माँ-बाप को ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना, जयन्ती प्रादि वे प्रमुख छोड़कर नहीं जाती थी। अपने पति को पर
१. प्रादिपुराण पर्व ७ २. पावश्यक चूणि २, पृष्ठ ५७-६० ३. सागर धर्मामृत २ अ. श्लोक ५६-६० ४. उमुक्क बालभावे, गवंगसुत्त-पडिवोहिए, प्रलं भोग समस्थे । ज्ञाताधर्मकथा मादि ५. पावश्यक चूणि २, पृष्ठ १७८
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जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप
जमाई बनाकर रखती थी ।" कुछ ऐसे विवाहों का भी उल्लेख मिलता है जिनमें परस्पर बहिन बदल कर लोग विवाह कर लेते थे। देवदत्त ने अपनी बहिन की शादी घनदस से की थी और उसकी बहिन को अपनी पत्नि बनाया था। इससे यही प्रतीत होता है, कन्यायें परिवार की भलाई के लिए विवाह जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में भी विरोध नहीं करती थीं ।
एक प्रोर कन्यायें जहाँ विवाह के लिए स्वतंत्र थी वहाँ दूसरी प्रोर उनका मपहरण भी कम नहीं होता था। विवाह का एक यह भी प्रकार था । वासवदत्ता उदयन के द्वारा, सुवर्ण गुलिका दासी राजा प्रद्योत के द्वारा, रुक्मरिण कृष्ण के द्वारा और चलना राजा श्रेणिक के द्वारा अपहृत की गई थीं । किन्तु इन कन्याओंों ने, प्रपहरण द्वारा लादी जाने पर भी अपने पतियों का जितना सुधार किया था शायद ही कोई व्याहकर लायी हुई पत्नी करती ।
वैवाहिक परम्परा के अवलोकन से यही प्रतीत होता है कि नारी को अनेक कठिनाईयों से गुजरना श्रवश्य पड़ा किन्तु उसको प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आई । यहाँ हमें नारी की दुर्बलता कहीं देखने को नहीं मिलती, भले उसे परवशता सहन करनी पड़ी हो । बौद्धिक नारियां
जैन संस्कृति के निर्माण में जितना योगदान पुरुषों का है उतना नहीं, तो भी नारियों का सहयोग कम नहीं है। भ्राज नारियां पुरुषों के साथ कंधा मिलाकर चलने की बात करती हैं, उस समय वे चलती थीं। उन्होंने अपने जीवन की प्राहुति मात्र पति की सेवा करने में ही नहीं देदी बल्कि समय
१. नायाधम्मका १६, पृष्ठ १६६ २. पिधानयुक्ति पृष्ठ ३२४.
३. नायाथम्म कहा १६ पृष्ठ १८६.
४. नायाम्म कहा २, पृष्ठ २२०-२३०
६३
समय पर विदुषी, धर्मपरायण, वीराङ्गना श्रीर कर्तव्यनिष्ठ होकर यह भी साबित कर दिया है कि नारी चरण दाबने के प्रतिरिक्त और भी बहुत कुछ जानती है; कर सकती है ।
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विदुषी - विद्वता के क्षेत्र में हम ब्राह्मी, सुन्दरी चन्दनबाला, जयन्ती श्रादि का नाम गवं पूर्वक ले सकते हैं जिन्होंने अपनी विद्वत्ता के द्वारा भारतीय नारी का मस्तक ऊँचा उठाया है । चन्दनबाला वह प्रथम बाला है जो प्राजीवन ब्रह्मचर्य का पालन कर कई वर्षों तक भगवान महावीर के नारीसंघ की अधिष्ठात्री रही, जिसमें करीब छत्तीस हजार
धार्यिकाएं थीं। जैन कथा ग्रन्थों में भी अनेक कुशल उपदेशिकाओं और अध्यापिकाओं का उल्लेख मिलता है । सोम शर्मा की पुत्री तुलसा और भद्रा विद्वत्ता में जगत प्रसिद्ध थीं।
अनेक नारियां विदुषी होने के साथ साथ लेखिका और कवियित्री भी हुई हैं। लेखिकाओं में गुणसमृद्धि, पद्मश्री, हेमश्री, सिद्धश्री, विनयचूल, हेर्मासद्धि, जयमाला आदि प्रमुख नारियां हैं जिनकी रचनाएँ श्वेताम्बर साहित्य में सुरक्षित हैं। रामति भार्यिका का 'जसह चरिउ' और राममती का 'समकितसार' मे दोनों ग्रन्थ इन लेखिकामों की विद्वता प्रगट करते हैं । " कुछ ऐसी महिलामों का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने स्वयं तो ग्रन्थ नहीं लिखे किन्तु प्रनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियां लिख-लिखा कर साधुओं मोर विद्वानों को भेंट की थीं। यह कार्य १४-१५ वीं शताब्दी में अधिक हुआ है। अनुलक्ष्मी, प्रसुलधी, प्रवन्ती, सुन्दरी, माधवी श्रादि जन साहित्य की प्रमुख कवियित्रियां हैं, जिन्होंने प्राकृत संस्कृत भादि भाषाओं में अपनी लेखनी चलायी है।"
५. हरिवंश पुराण पृष्ठ ३२६
६. पं. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ४८१ ७. वही पृष्ठ ४८३
८. प्रेमी प्रभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ६७०
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B
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
धर्मपरायणा: - धर्म-कर्म धौर व्रतानुष्ठान में नारी कभी पीछे नही रही है। अनेक शिला लेखों में जैन नारियों द्वारा बनवाये जाने वाले धनेक विशाल गगन चुम्बी मन्दिरों के निर्माण धीर उनकी पूजादि के लिए दिये गये दान का उल्लेख मिलता है । ई. पू. छठवीं शताब्दी में बेटक की रानी भद्रा, शतानी की पत्नी मृगावती, उदयन की भार्या वासवदत्ता, दशरथ की जाया सुप्रभा, प्रसेनजित को वल्लभा, मल्लिका तथा दार्धवाहन की श्रीमती प्रभया ने जैन मंदिरों का निर्माण कराया था ।" यह परम्परा १४-१५ वीं शताब्दी तक देखने को मिलती है। इस तरह हमें अनेक जैनधर्म की सेवा करने वाली धार्मिक महिलाभों का उल्लेख मिलता है।
कला विशारद :- प्राचीन नारी की बौद्धिक क्षमता हमें हर क्षेत्र में देखने को मिलती है। जैन नारियों का मूर्तिकला से भी बहुत सम्बन्ध रहा है । मथुरा की जैनमूर्तिकला, जो भारतीय मूर्तिकला की जननी है, में नारी का प्रपूर्व योगदान हैं । वर्तमान में प्राप्त अवशेषों में कम से कम पचास ऐसी नारियों के उल्लेख मिलते हैं जिन्होंने अपनी रुचि के अनुसार मंदिर, मूर्ति, गुफा, चरणवेदिका श्रादि बनवायी थीं । भाबू की मंदिर की जगत प्रसिद्ध वास्तुकला सेठानी अनुपमा की कलाप्रियता की निशानी है । ये समस्त कलाकृतियां हमारी बहुमूल्य थाती हैं। जब तक ये रहेंगी उन उदारचेता एवं कला-प्रेमी नारियों की मधुर स्मृति जागृत किये रहेंगी । २
वीरांगना : - प्राचीन जैन नारी एक चोर जहाँ सेवा की मूर्ति और धर्मपरायणा थीं वहां निर्भय और वीराङ्गना भी । पुराणों में ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं जिनमें स्त्री ने पति की सेवा करते हुए उसके कार्यों में, राज्य के संरक्षण में
१. श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ४९१, प्रादि २. पं. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ४६२
तथा युद्ध
के क्षेत्र में भी लड़कर पति को सहयोग दिया है। गंग नरेश के वीरयोद्धा 'वद्देग' ( विद्याधर) की पत्नि 'सावियवे' ने पति के साथ युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की थी। वह सीता, रेवती प्रादि जैसी जिनेन्द्रभक्तिन तथा धर्मपरायण भी थी । ३ 'जाक्कियव्वे' दूसरी साहसी धौर वीर नारी है जिसने पति के बाद राज काज सम्हाल कर राज्यशासन श्रीर जैन शासन दोनों की रक्षा की थी।
इस अवलोकन से ज्ञात होता है कि जैन नारी ने हमेशा अपना प्रादर्श जीवन faarने की कोfree की है। पुरुषों की भांति वह भी चहार दीवारी से बाहर निकल कर धारमसाधन और धर्मसाधन में रत हुई है । उसकी प्रपनी स्वतन्त्र सत्ता कायम थी। वह राधा आदि नारियों की तरह पुरुषों की अनुगामिनी मात्र बनकर नहीं रह गई । इसीलिए जैन नारियों का जीवन पुरुषों को भी प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। भाज की नारी यदि उससे कुछ न सीखे तो यह उसका दुर्भाग्य है ।
सामाजिक कुरीतियां और नारी
भारतीय संस्कृति का इतिहास बतलाता कि कोई भी समाज कितना ही अच्छा क्यों न रहा हो, कुछ न कुछ कुरीतियां उसमें अवश्य प्रविष्ट हो जाती हैं। जैन संस्कृति की नारी को भी इस प्रवरथा से गुजरना पड़ा है। किन्तु उसके ये कुछ दोष गुरणों की बाहुल्यता के कारण छिप जाते हैं ।
सती प्रथा - जैनागमों में सती प्रथा का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जैन नारी प्रबुद्ध और निर्भर थी । उसे यह डर नहीं था कि पति के बाद उसके शील पर कोई ग्रांच ग्रा सकती है। धौर न वह इस अन्ध विश्वास की शिकार थी कि पति के साथ जल जाने से ही उसके प्रति सच्ची भक्ति प्रदर्शित
३. चन्द्रगिरि पर्वत का शिलालेख नं. ६१ (१३९) ४. श्रवणबेलगोला शिलालेख नं. ४८६
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जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप की जा सकती है । दूसरी बात यह है कि जैन नारी संस्कृति में पतिभक्ति के कुछ उदाहरण ऐसे मौजूद के समक्ष प्रायिका बन धर्म ध्यान में शेष जीवन हैं, जो बेजोड़ है। बिता देने का मार्ग प्रशस्त था। अतः उसे पति के विधवाविवाह की प्रथा न होने पर भी यदि साथ अपना जीवन होम कर देने की कोई प्रावश्य- कोई विधवा नारी निःसन्तान होती थी, उसके घर
प्रतीत नहीं हुई। केवल महानिशीथ अन्य में का कार्यभार सम्हालने वाला कोई नहीं होता था एक राजकमारी का उल्लेख मिलता है जो सती होने तो वह अपने निकट-सम्बन्धियों में से किसी के लिये संकल्पबद्ध थी. किन्त परिवार के लोगों के साथ सहवास कर पत्र की प्राप्ति कर सकती द्वारा उसे बचा लिया गया था।'
थी। किन्तु यह नियम सर्वमान्य नहीं था। जैनकथा
अन्यों में एक उल्लेख ऐसा मिलता है जिसमें विधवा-विवाह-सती प्रथा को रोकने में एक सास ने अपनी चार विधवा बहुप्रों का किसी विधवा विवाह काफी सहायक होते हैं। जिन मज्ञात व्यक्ति को उनका देवर बतलाकर उससे जातियों में विधवानों के विवाह होते हैं उनमें सहवास कराया था। और वह व्यक्ति बारह वर्ष नारियां पति के साथ कम ही भस्म होती हैं । या तक उस घर में रहा। तदनन्तर चारों स्त्रियों से यों कहना चाहिये, जिस समाज में वैधम्य के एक एक पुत्र उत्पन्न होने के बाद चला गया। दारुण दुख को सुख में बदलने वाली संस्थाएं हैं इस कथानक को सार्वभौम नियम के रूप में नहीं वहां भी सती प्रथा नहीं पनप पाती। जैन नारी के माना जा सकता। लिए पुनः विवाह नहीं खुला था। उसे अपना सारा
बहुपत्नित्व प्रथा : भारतीय संस्कृति के वैधव्य पति की स्मृति में ही बिताना पड़ता था । प्रत्येक युग की नारी ने पुरुषों की इस ज्यादती को उनके लिए फिर संसार में कोई सुख नहीं रह जाता सहा है। जन नारी कैसे छूट जाती ? उस समय था सिवा इसके कि वे अपना जीवन अध्यात्म की
बहु पलित्व प्रतिष्ठा का सूचक था । महाराजा मोर लगायें। अतः विधवा विवाह जैन संस्कृति में।
भरत राजा श्रेणिक भादि इसके उदाहरण हैं।" न के बराबर है। अनेक जगह इस प्रथा का विरोध
बड़े पादमी की पहिचान उसके अवरोधन में दिन प्रति किया गया है।
दिन वृद्धि के द्वारा होती थी। कुछ नारियां पुरुष जन विधवा नारियां अपना समस्त जीवन अपने विलासी जीवन के लिए एकत्र करते थे। कुछ तपश्चरण और धर्मध्यान में व्यतीत करती थीं। उन्हें उपहार स्वरूप प्राप्त होती थी। ध्यान रहे, ये धनश्री और लक्षणवती ऐसी विधवाएँ थी जिन्होंने सब नारियां निम्न कोटि को ही होती थीं । दासजिनदीक्षा लेकर सच्चे हृदय से समाज सेवा की दासियों की खुले माम विकी ने भी बहुपलित्व को थी। इस प्रसंग में राजुल की पति भक्ति को नहीं बढ़ावा दिया था। क्योंकि विसस्त्री चेटका के रूप मुलाया जा सकता। उसके सामने तो पहाड़ सी में उपभोग में ली जाती थी। जिन्दगी थी और उसका विधि से विवाह भी नहीं पुरुषों के अधिकार उस समय बड़े चढ़े थे। हो पाया था फिर भी उसने अपने मन-मंदिर के बोटी से छोटी बात पर भी वे पत्नी को घर से देवता के पथ का ही अनुसरण किया। प्रतः जैन निकाल देते थे। सुभद्रा नाम की एक स्त्री किसी १. महानिसीय पृष्ठ ४२
५. उत्तराध्ययन १८, पृष्ठ २३९ २. महानिसीय पृष्ठ २४
६. वसुमति चरित्र ३. धर्म परीक्षा श्लोक ११-१२-१३,
७. बधूपित्तस्त्रिपो०-प्राचार्य सोमदेव ४. पावश्यकरिण
८. मादिपुराण पर्व ४७
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ
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eta व्यक्ति को ब्याही थी । एक दिन पति को अनुपस्थिति में एक जैन साधू सुभद्रा के घर धाया । उसने विधपूर्वक उन्हें धाहार दिया। तभी साधु की यां में किरकिरी पड़ गई। उन्हें दुख में देख सुभद्रा ने वह किरकिरी अपनी जीभ के अग्रभाग से निकाल दी, जिससे साधू की प्रांख में पोड़ा न हो । ऐसा करते समय सुभद्रा का मस्तक साधू के मस्तक से छू गया और उसके माथे की बिंदिया का रंग साधू के माथे पर लग गया। तभी सुभद्रा का का पति भा गया । उसने कुछ और ही समझा । तथा सुभद्रा को लांछन लगा कर घर से बाहर निकाल दिया ।" प्रथा :--
पर्दा - जैन मारी पर्दे की दीवार में घिर कर कभी नही रही । यह उसकी अपनी मौलिक विशेषता है । जैन-सम्प्रदाय में हमेशा से समय-समय पर धार्मिक उत्सव होते श्राये हैं । जैन गृहस्थ पूरे परिवार के साथ इन उत्सवों में सम्मि लित होते हैं। नर-नारियों की सामुदायिक
उपस्थिति प्रत्येक धार्मिक सभाओं में एक सी होती है। जैन कथाओंों के प्राधार पर कहा जा सकता
कि जन-नारियां बेरोक-टोक जनसमुदाय में जाती थीं। अपने रिश्तेदारों और सखी-सहेलियों के यहाँ जाने की भी उन्हें छूट थी। राजा अपने पूरे अवरोधन के साथ जैन मुनियों के दर्शनार्थ जाया करते थे। रानियाँ, सेटानियाँ व कन्याएँ सबके सामने साधुयों से प्रश्न पूछती और व्रतादि ग्रहण करती थीं । २ गृहस्थ औरतें पतियों के साथ अथवा अकेले ही वन-बिहार को जाया करती थीं। अतः जैन नारियां पर्दे की प्रथा से प्रायः मुक्त थीं। गणिकाएँ:
गणिका अथवा वेश्या शब्द से भाज जो अर्थ साधारणतया लगाया जाता है तथा उन्हें जिस हीन
१. नायाधम्म कहा २, पृष्ठ २२०-२३० २. व्यवहार भाष्य आदि
३. आदिपुराण पर्व ४ श्लोक ८६ ४. प्रादिपुराण पर्व १७ श्लोक ८६
प्रोर उपेक्षा की भावना से देखा जाता है. वह जैन संस्कृति के स्वरूप में कहीं देखने को नहीं मिलता। गरिएकाओं की स्थिति उस समय में अच्छी थी। वे समाज का एक प्रावश्यक अंग थीं। गणिकामों को मालिक माना गया है। भगवान ऋषभ देव की दीक्षा के समय द्वार पर वार योषितानों को मंगल द्रव्य लिए हुए खड़ा किया गया था।
गणिका का तात्पर्य एक उस गण (समूह) से या जो जनसमुदाय का नृत्यगानादि द्वारा मनोरंजन करता था। गणिकामों को रतिशास्त्र की प्राचार्याभों के रूप में स्वीकृत किया गया है । वे विदुषी, कला-सम्पन्न तथा मधुर गायिका होती थीं। जैन साहित्य में चम्पा नाम की एक गरिएका का बहुत उल्लेख मिलता है । वह चौसठ कलाचों में प्रवीण और अनन्य सुन्दरी थी। एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ वह एक रात के लेती थी। एक गणिका चित्रकला में इतनी प्रवीण थी कि उसके यहां सहज नागरिक का पहुँचना कठिन था । कला पारखी ही उसके यहाँ जा पाते थे। क्योंकि वह उनकी रुचि के अनुसार ही उनका स्वागत करती थी। चोला नाम की गणिका चार वेदों धौर अनेक लिपियों में उस समय नारी कितने धागे बढ़ी हुई थी। की जानकार थी। इससे स्पष्ट है, विविध कलापों
५
इन गणिकाओं का जैन धर्म से भी बहुत सम्बन्ध रहा है। क्योंकि उनके यहाँ माने जाने वाले लोग प्रायः सेठ साहूकार ही होते थे, जो प्रक्सर जैन होते थे। वसन्त सेना धौर चारुदत्त की कथा जगत् प्रसिद्ध है। कुछ गणिकाएँ ऐसी भी थी जो मात्र किसी एक पुरुष को अपना शरीरार्पण करती थीं। पाटलिपुत्र की एक कोशा नाम की गणिका मारह वर्ष तक स्थूलभद्र के साथ रही। और जब वह
४. नायाथम्म कहा यादि
६. बृहत्कल्प भाष्य
७. नायाधम्म कहा ८ पृष्ठ १०८
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जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप
संसार से विरक्त हो मुनि हो गया तो कोशा ने भी जब वे अकेली भिक्षा के लिए जातीं तो उन्हें जिन दीक्षा ग्रहण कर ली।" उज्जनी की प्राम के मनचलों के व्यंगबाणों को सहना पड़ता देवदत्ता ने भी मूलदेव के साथ श्रावक धर्म स्वीकार था। कभी कभी अनेक कामी गृहस्थ अपने घर की किया था।२ अन्य जैन धर्मावलम्बी गरिएकामों का स्त्रियों को उपदेश देने के लिए तरुण सुन्दर भी उल्लेख मिलता है, जिनमें देवदत्ता प्रमुख थी। साध्वियों को प्रामन्त्रित कर उनसे मनमानी करते इसके घर देवसंघ के मुनियों ने चातुर्मास किया थे। किंतु उन तेजस्विनी तापसियों का तेज और था। गणिकानों द्वारा अनेक जैन मंदिर बनवाने शील हमेशा उनकी रक्षा करता था। किन्तु इतने का भी उल्लेख मिलता है।४
बड़े संघ में कुछ साध्वियों के शीलभंग भी हो जाते साध्वी नारियाँ
थे। उनके लिए कोई रियायत नहीं थी। संघ की
प्राचार्या पता पड़ने पर उन्हें संघ से निष्कासित कर ___ जैन संस्कृति को नारी हमेशा चाहे वह गृहस्थ देती थीं। इसके अतिरिक्त कभी-कभी नारी संघ जीवन में हो अथवा सन्यास जीवन में
म को जंगल में रहने के कारण चोर डाकूमों से भी प्राध्यात्मिकता की ओर उन्मुख रही है। हानि उठानी पड़ती थी। उसका जीवन त्याग और तपस्या का जीवन था। जैन संस्कृति के उन्नायकों ने नारी को
इन कठिनाइयों के बावजूद भी जैन नारी संघ निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में प्राने से कभी नहीं
प्रात्म-कल्याण के मार्ग से विचलित नहीं हुए।
आत्म-कल्याण क माग रोका। भगवान महावीर ने नारी को अपने संघ में उन्होंने अपने धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते दीक्षित कर उनके प्रात्म-साधन का मार्ग खोल हुए जैनाचार्यों के प्रादर्श को कायम रखा तथा दिया था। इनके पूर्व के २३ तीथंकरों ने भी इसे अपने नैतिक जीवन के स्तर को हमेशा ऊँचे उठाये किसी न किसी रूप में स्वीकारा ही था। प्रतः रखा। जैन संस्कृति की नारी के प्रति उदार पुरुषों की भांति नारियों को भी प्रात्मकल्याण प्रवृत्ति का हा यह फल था । के लिए मार्ग प्रशस्त था। विशल्या, चन्दना, स्त्रियों की निन्दा और प्रशंसा राजमति प्रादि वे साध्वियां हैं जो त्याग
जैनसंस्कृति व साहित्य में स्त्रीनिन्दा के और तपस्या की मूर्ति थी । उनका चरित्र
प्रकरणों का पाना स्वाभाविक है। क्योंकि प्रायः अतुलनीय है।
सभी जैन साहित्य त्याग और बैराग्य को उद्देश्य में अनेक नारी संघों का उल्लेख जैन साहित्य में रख कर लिखा गया है । वैदिक संस्कृति में नारी मिलता है। एक संघ में करीब छनीस हजार का स्थान बहुत ही निम्न माना गगा है । उसे नारियों के होने तक का प्रमाण है।' नारी संघों दासी से ऊपर उठने ही नहीं दिया गया। इस तरह को साध्वियों को एक पोर जहां ध्यान एकाग्र फर के वातावरण में ही जैन संस्कृति का जन्म हुआ। मात्मा का चिंतन करना होता था, वहीं दूसरी ओर प्रतः अन्य संस्कृति के प्रभाव से भी हो सकता है बाह्म कठिनाईयां भी उन्हें कम नहीं थी। स्त्री विषयक निन्दा जैन साहित्य में प्रविष्ट हुई
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५. पदमपुराण पृष्ठ ४२५-२६. ६. वसुमति चरित्र
१. उत्तराध्ययन सूत्र २ पृष्ठ २६ २. नायाधम्म कहा पृष्ठ ६० ३. इन्डियन एन्टेकरी भाग २० पृष्ठ ३४६ ४. वीर, वर्ष ४, पृष्ठ ३०२
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
हो । किन्तु जैन साहित्य में स्त्रियों की निन्दा और अन्य साहित्य की स्त्री की निन्दा में बहुत फरक है । जैन संस्कृति में स्त्री की निन्दा हमेशा मोक्षमार्ग के साधकों के प्रसंग के साथ हुई है । साधारण गृहस्थ ने नारी को कभी हेय नहीं समझा ।
इस
जैन कवियों ने जहां नारी के विषय में प्रशंसा के पुल बांधे हैं। वहां उसकी निन्दा भी कम नहीं की। उन्होंने स्त्री का मुख कफ का भण्डार, नेत्र दो मल के गढ्डे स्तन दो मांस के लोथड़े तथा नितम्बादि खून और हड्डियों का समूह है, ' रूप में स्त्री के स्वरूप को बीभत्स किया है। ऐसे वर्णनों से कौन नहीं स्त्रियों से मुक्ति चाहेगा । थोड़ी बहुत प्रासक्ति हुई भी तो वह इससे खण्डित हो जायेगी कि स्त्रियो राक्षसनियां हैं, जिनकी छाती पर दो मांस के पिष्ट उगे रहते वे हमेशा विचारों को बदलती रहती हैं और मनुष्य को ललचाकर गुलाम बनाती है । भग्नि भले शीतल हो जाये, विष चाहे प्रमृत हो जाय, किन्तु स्त्रियाँ कभी अपनी वक्रता नहीं छोड़ सकतीं। 3 छतः स्त्रियों के सम्पर्क में नहीं भाना चाहिए। उनके संसर्ग से मनुष्य धर्म का पात्र नहीं रह जाता चौर न ही मोक्ष का साधक बन पाता है । क्योंकि -- जिस उर प्रन्सर बसत निरन्तर
नारी प्रौगुन खान | तहां कहां साहिब को वासा
दो खांडे, इकम्यान ॥ *
श्रतः विपवेल रूपी नारी को जब बड़े बड़े जोगीश्वरा तक त्याग कर चले गये हैं तो हम क्यों
१. जीवन्धर चम्पू लम्ब ७, पृष्ठ ३८
२. उत्तराध्ययन सूत्र
३. प्राचार्य सोमदेव
४. यशस्तिलकचम्पू प्रथम भ. श्लोक ७७-८१ ५. कविवर भूधर
६. जिनवाणी संग्रह - चानत
उनके चक्कर में फंसें ? क्योंकि नारी शब्द का अर्थ ही है- 'न+मरि' पुरुष के लिए नहीं है शत्रु, जिसके समान ऐसी नारी । शत्र को कौन नहीं त्यागना चाहेगा । नारी वैसे ही विषैली होती है यदि उसे अधिक शिक्षित करा दिया जाय तो सांप को दूध पिलाता जैसा है" प्रादि-आदि ।
निश्चय ही ये निन्दा विषयक सारे कथन नारी के किसी एक पहलू को लेकर कहे गये हैं। यह उसका सर्वाङ्ग चित्रण नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा होता तो गृहस्थ जीवन के लिए नारी की इतनी उपयोगिता न मानी जाती कि उसके बिना पुरुष का जीवन निष्फल है। वह जीते हुए मृतक के समान रहता है। नारी के बिना घर एक भयंकर प्रटवी-सा प्रतीत होता है।" कुशल नारी हो गृहस्थ के प्राध्यात्मिक अनुष्ठान में पूर्ण सहयोग प्रदान करती है । उसके त्रिवर्गों को साधने वाली होती है । गृहिणी ही वास्तव में घर है, ईंट-पत्थर के बने मकान मादि नहीं १० इत्यादि ।
इतना ही नहीं नारी की प्रशंसा में प्राचार्य जिनसेन ने यहां तक कहा है कि- 'नारी गुरपवती धत्ते स्त्री सृष्टिरग्रिमं पदम्' गुणवती स्त्रियां अपने गुणों के द्वारा संसार में श्रेष्ठ पद को प्राप्त होती हैं । जैन साहित्य में स्त्री को चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक माना गया 1 धर्मपरायण पत्नी के न होने पर कोई भी राजा अभिषेक के योग्य नहीं समझा जाता । ११ इतना उच्च स्थान शायद ही नारी को कहीं मिला हो ।
७. तन्दुल वैकालिक पृष्ठ ५०
८. यशस्तिलकचम्पू उत्त० पृष्ठ १५२
६. वही प्र. प्र. क्लोक १२१
१०. सागारधर्मामृत वि. म. श्लोक ५९-६० ११. जम्बूदीपपत्ती
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जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप
नारी माता के रूप में हमेशा पूजी गई है। संक्षेप में यदि कहें तो जैन संस्कृति में नारी के जिम नारी ने तीर्थकुर, चक्रवर्ती, बलभद्र प्रादि वे सभी रूप स्वीकृत हैं जिनके बिना मानव समाज महापुरुषों को जन्म दिया हो वह क्या कभी हेम हो का कोई भी चित्र पूरा नहीं हो सकता । कन्या के सकती है ? भारतीय संस्कृति की जो यह सार्वभौम रूप में यदि नारी दुलारी गई है तो गृहस्वामिनी के मान्यता है कि नारियों की जहां पूजा होती है वहाँ रूप में उसे मान कम नहीं दिया गया। जन नारी देवता निवास करते हैं । विन्तु यह मान्यता कहीं ने समस्त कलाप्रों में पारंगत हो अपनी विद्वत्ता मान्यता ही न रह जाय यह पाशका है । क्योंकि और सामर्थ्य का जहाँ परिचय दिया है, वहाँ धर्मवर्तमान समय में नारी जिन रूपों में प्रस्तुत हो परायण पौर कर्तव्यनिष्ठ होकर समाज और धर्म रही है या की पा रही है वह रूप पूजा के योग्य की सेवा भी कम नहीं की । पात्म साधना, स्याग तो कभी नहीं हो सकता।
एवं तपस्या की तो वह अधिष्ठात्रो रही है, जिसने
लिंग छेद कर निर्वाण को भी प्राप्त किया है। इस प्रकार जैन संस्कृति के पालोक में नारी इस प्रकार यदि प्रत्य संस्कृतियों में नारी को हेय के समस्त पहलुओं को देखने से यह ज्ञात हाता है और भोग्य की वस्तु समझ उसका अपमान कर कि नारीका उससे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यद्यपि घोर अपराध किया है तो नारी के उज्जवल और प्रस्तुत निबन्ध के साथ यह दावा नहीं किया जा
समुन्नत रूप को सराहना, उसे पुरुषों के समकक्ष सकता कि नारी के समस्त पहल और सम्पूर्ण
मानना, यह जन संस्कृति की नारी से प इसमें निहित है, किन्तु फिर भी यह कहने क्षमायाचना है। में संकोच नहीं होता कि नारी के विषय में कुछ भी सोचने और समझने के लिए इसकी उपयोगिता नहीं हटायी जा सकती।
विष का विष ही तो अमृत है।
कोई बात बहुत दिनों से चली आ रही है, केवल इसीसे वह मच्छी नहीं हो जाती । सम्मान के साथ चले माने पर भी नहीं। बीच बीच में उसे जांच करके देख लेना चाहिये कि उसकी उपयोगिता कहां बक भदुरण है।
-पाबूजी की डायरी से
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कर्म हीन, उद्देश्य हीन जीवन का दिवारम्भ होता है प्रान्ति में ! और शाम होती है अबसन ग्लानि में।
मनुष्य के मन का कोई भरोसा नहीं।
प्रायश्चित तो पाप के लिये होता है। जिसने पाप ही नहीं किया उसे प्रायश्चित की क्या आवश्यकता?
जंगल में रहने वाले पक्षी की अपेक्षा, पिंजड़े का पक्षी ही अधिक फड़फड़ाता है।
कुछ न कुछ दोष, कुछ न कुछ लज्जा की बात हर एक घर में है।
-बाबूजी की डायरी से
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जैन समाज के आन्दोलन
स्वामी सत्यभक्त
हो तक जनसंख्या का सवाल है, इस देश की प्रान्दोलन और इनसे पैदा होने वाले भेद प्रब 'विशाल जन संख्या को देखते हुए जन जन चमक नहीं रहे हैं । गौण अवस्था में पहुँच गये हैं। संख्या बहुत छोटी है। माधा प्रतिशत भी नहीं।
हो । सोलहवीं शताब्दी में मुसलमानों के परन्तु साम्पतिक अवस्था, शिक्षा प्रादि में काफी
मूर्तिपूजा विरोध से प्रभावित होकर जो अान्दोलन महत्त्वपूर्ण है। हिन्दू समाज को सरह यह समाज भी विविध जातियों और सम्प्रदायों में बंटी हुई
हुए वे काफी प्रभावक और स्थायी बने । इससे
श्वेताम्बर जैन समाज दो विशाल संघों में बैट है। सौ से अधिक तो जातियां है । और प्रत्येक जाति के छोटे छोटे बहुत से प्रान्दोलन हैं जो कि
गया । मूर्ति पूजक और स्थानकवासी । मूर्ति
" पूजक लोग मूर्ति पूजा करते हैं और वीतराग की प्रायः विवाह के रीति रिवाजों को लेकर हैं। बड़े
मृति को भी अलंकारों से विभूषित करते हैं । स्पष्ट बड़े मान्दोलन धार्मिक विभाग की दृष्टि से बने हुए
ही उन पर वैष्णव सम्प्रदाय का पूरा प्रभाव है । कुछ विशाल जनसंख्या के क्षेत्र में हैं।
स्थानकवासी समाज ने मुसलिम प्रभाव में जैन समाज के धार्मिक दृष्टि से दो भेद हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर। ये दो भेद करीब दो प्राकर मूतिपूजा ही छोड़ दी। अब वे अपने हजार वर्ष पुराने है । इसका मतलब यह कि जैन
साधुनों की वन्दना करके और उनके दर्शनार्थ यात्रा समाज में दो हजार वर्ष पहले ही आन्दोलन शुरू।
करके अपनी मूर्तिपूजा की प्यास बुझा लेते हैं। हो गये थे। इसके बाद भी समय समय पर
स्थानकवासी समाज भी काफी संख्या में है और प्रान्दोलन होते रहे और समाज की शाखा प्रशाखाएं उसको जन संख्या ४-५ लाख तक पहुंच गई है। फूटती रहीं । दिगम्बर समाज में कुछ बातों को . दिगम्बरों में भी सोलहवीं शताब्दी में एक लेकर तेरापंथ बीसपंथ बने। मूर्ति को फूल मति पूजा विरोधी सम्प्रदाय तारण पंथ के नाम से चताना या न चढ़ाना, भट्टारक (जन महन्त) को खडा हवा। इसने मति हटादी परन्तु वेदी पर मानना या न मानना यही इस प्रान्दोलन का
शास्त्र विराजमान कर दिये और उसी से मुख्य विषय था। लकड़ी की मूर्ति बनाने तथा
दर्शन पूजा को प्यास बुझाई। पर यह संप्रदाय वह मूर्ति सूख कर फट न जाय इसलिये घी, दूध फैल न सका। दो हजार प्रादमी इस संप्रदाय में दही प्रादि चिकनी चीजों से अभिषेक करने प्रादि ।
होंगे। नाना तरह के प्रान्दोलन और उनसे पैदा को लेकर काष्ठा संघ बन गया । इस प्रकार होने वाले पंथ भेदों से जैन समाज का इतिहास दिगम्बर समाज कई भागों में बंटा । श्वेताम्बर भरा पड़ा है । परन्तु प्रब ये सब इतिहास की बातें समाज में भी अनेक मान्दोलनों से संघ भेद ।
हो गई हैं। हुए। परहन्त देव, शास्त्र और साघु के साथ शासन देवों की स्तुति नहीं करना इस बात को परन्तु इस युग में पिछले साठ-सत्तर वर्षों में लेकर त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय चमका । परन्तु ये सब भी काफी प्रान्दोलन हुए हैं। उनसे संघ भेद तो नहीं
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ हुमा परन्तु उनका प्रभाव अवश्य पड़ा और उनमें लनों में क्योंकि मेरा जन्म दि० जैन समाज में से कुछ पान्दोलन काफी मात्रा में सफल हुए।
हुका पौर काफी समय तक में दिगम्बर बन समाज
का पंडित और कार्यकर्ता रहा है। मुझ से पहले पर स्थानकवासी समाज के भी दो टुकड़े हुए। दि. जैन समाज के चार पान्दोलनों का तो मुझे इनमें से एक तेरापंथ संप्रदाय भलग निकला जिसने ठीक तरह से पता है । दस्सों को पूजा का अधिकार निवृत्तिवाद की परिसीमा पर पहुंचने की कोशिश देने के बारे में एक प्रान्दोलन खड़ा हुवा थी जिसका की। सब जीव अपने अपने कर्मफल का भोग कर नेतत्व स्व. पं. गोपालदास जी बरैया ने किया रहे हैं इसलिये उसमें हस्तक्षेप क्यों करना चाहिये। था। प्रब काफी अंशों में यह सफल है। " इसलिये यदि कोई भाग में फंस कर मर रहा है।
एक मान्दोलन शास्त्र छपाने के बारे में भी था। तो उसे क्यों बचाना चाहिये, मादि विधान बने । । हालां कि ऐसी बातों के समर्थन से अब बचा जाता
शास्त्र छपाने के पक्ष में अनेक लोग थे। विरोध में है और ग्राम जनता के सामने ऐसी बातें नहीं कही स्वर्गीय सेठ जम्बूप्रसाद जी सहारनपुर वाले थे। जाती फिर भी पथकता का प्राधारभत सिद्धांत यह पान्दालन मा सफल हुआ। वही है । जैन समाज में यह संप्रदाय भी काफी : शास्त्र सुधार मादि के कुछ मान्दोलन स्वर्गीय प्रभावक है। जन संख्या में भी एक लाख की संख्या श्री सूरजभानजी वकील ने किये थे जो दब गये। तक फैला हुआ है । दिगम्बर समाज में जो तेरापंथ
विधवा विवाह के प्रचार के लिये स्वर्गीय है उससे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। तथा उनकी
श्रीदयाचन्दजी गोयलीय ने किया था जो उन्हीं के नीति में भी कोई मेल नहीं है।
साथ समाप्त हो गया था। इन भान्दोलनों के स्थानकवासी संप्रदाय में अनेक प्राचार्यों को
समय में बालक या विद्यार्थी ही था। इसलिये मिटा कर एक प्राचार्य बनाने का प्रान्दोलन चला इनमें मेरा कोई हाथ नहीं था। और वह बाहरी दृष्टि में सफल भी हमा। भीतर
फरवरी सन १९१६ में मैं बनारस के स्यावाद ही भीतर द्वन्द्व है फिर भी एक प्राचार्य बन गया
महा विद्यालय में अध्यापक के रूप में नियुक्त हवा है। मूर्ति पूजक सम्प्रदाय में बालदीक्षा को रोकने
और उसी वर्ष एक बंन पत्र का संपादक भी बना। के लिये प्रान्दोलन खड़ा हमा और इस निमित्त से
सन् १९२० में मेरे विचारों में जन शास्त्रों के सूधारकों का एक संगठन 'जैन यूवक संघ' के नाम
चिन्तन मनन के फलस्वरूप क्रान्ति हई और उसके से बना । जहां तक विचारों का सवाल है बम्बई में वह संघ काफी प्रभावक है। बाल दीक्षाएं रुकतो बाद ही पान्दोलनों का प्रारंभ हुवा। नहीं सकी हैं फिर भी कम हो गई हैं और उनके पहिले सो मेरे पान्दोलन विवाह शादी के रीति विरोध में आवाज भी उठती है। बडौदा जब अलग रिवाजों को लेकर हए और वे परवार जाति में
राज्य था तब बालदीक्षा के विरोध में कानून भी थे जो कि पूरी तरह सफल हो गये। बनवा दिया गया था।
परन्तु सबसे तीव्र पान्दोलन दि.जैन समाज मूर्ति पूजक समाज और स्थानकवासी समाज में जाति पाति तोड़ने का था जो भाग से करीब से भी मेरा सम्बन्ध काफी रहा है । और एक कार्य- ४२ वर्ष पहले शुरू हुमा था जिसका पूरा मौर वार्ता के रूप में रहा है। इसलिये इन आन्दोलनों मुख्य नेतृत्व मुझे करना पड़ा था। 'विजातीय में थोड़ा बहुत हिस्सा मेरा भी रहा है। परन्तु विवाह मीमांसा' नाम से मेरा एक ट्रेक्ट दिल्ली में प्रभावक हिस्सा रहा है दि० जैन समाज के प्रान्दो- जोहरीमलनी सर्राफ ने छपवाया था और वह पूरा
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जैन समाज के आन्दोलन
उससे यह धान्यो
का पूरा जैनमित्र में भी छपा। मन भड़क उठा। रूढ़िपूजक समाज का साधारणतः मेरे विरुद्ध हो यह स्वाभाविक था इस लिये कुछ पंडित समाज के वकील बनकर मेरे विरुद्ध खड़े हो गये । मुझे इसके लिये सौ से अधिक लेख लिखने पड़े। पंचायतों और पंडितों से पत्र व्यव हार करना पड़ा। गांव-गांव घूमना पड़ा और भ्रन्त में इन्दौर की नौकरी भी छोड़नी पड़ी । श्रम तो बहुत हुआ ही पैसा भी खर्च हुवा। कुछ समय जीविका की बिता से भी परेशान हुबा परन्तु जहाँ तक विचार परिवर्तन का सवाल है यह आन्दोलन पूरी तरह सफल रहा। बहुत से विरोधी पंडितों के विचार भी बदल गये धौर व्यवहार में भी काफी सफल हुवा । दक्षिणी मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में दर्जनों की संख्या में जांति पांति तोड़कर विवाह हुए और कुछ अल्पसंख्यक जातियाँ तो एक तरह से आपस में मिल ही गई ।
।
इसके बाद का प्रान्दोलन दि. जैन मुनियों के विरुद्ध था । स्थितिपालक जैन पंडितों ने तर्क से हार कर अपने बचाव के लिये दि. जैन मुनियों को आगे किया था। इस प्रकार एक तो मुनि लोग दलबंदी के शिकार थे। दूसरे उनकी कुछ हरकतों से समाज की बड़ी हानि हो रही थी शूद्र जल त्याग कराने से जैन समाज को काफी क्षति उठानी पड़ी थी। जांत पांत के आधार से मनुष्य को छोटा सममने का सिद्धान्त न्याय के विरुद्ध तो था ही जैनधर्म के विरुद्ध भी था तथा इसके कारण कई जगह जैनों का सामाजिक विरोध बहिष्कार भी हुआ था इसलिये प्रात्मघातक भी था । इसलिये दि. जैन मुनियों की प्रतीचना का एक जबर्दस्त प्रान्दोलन बन गया था। अजमेर से निकलने वाले जैन जगत द्वारा यह प्रान्दोलन किया जाता था । बी फतहचंदजी सेठी इसके प्रकाशक थे और में सम्पादक था । उस समय वि. जैन साधुयों के गुप्तसे गुप्त समाचार जैन जगत में प्रगट होते थे । जैन समाज में इस समय जैन जगतका बड़ा प्रातंक
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था। उस समय एक कवि ने लिखा था:
इस जैन जगत की जरा हिम्मत तो देखिये छोटे से मुंह से बम के गोले छोड़ रहा है।
उन दिनों दि. जैन मुनियों के विरोध में जो जैन जगत ने लिखा उसके कारण मुनिवेषियों की संघ अढा काफी कम हो गई और समाज काफी जग गया। मुनीन्द्रसागर दल के रहस्यों का तो इतना उद्घाटन हुधा कि दमोह की जैन पंचायत ने उस दल की गंगा भोली लेकर उसका बहुत सा धन छीन लिया। तब वह दल जबलपुर चला गया। जबलपुर की पंचायत ने भी उस दल के भ्रष्टाचार का डट कर मुकाबला किया। तब यह दल भंग हो गया । तीन मुनिवेषियों ने तो धात्म हत्या करती। बाकी मुनिवेष छोड़ कर भाग गये ।
उस समय स्थितिपालक पंडित जैन जगत को मुनि निन्दक कहते थे। कई मुनि तो धावकों को प्रतिज्ञा देते थे कि जैन जगत को कभी न छुयेंगे। यदि छू गया तो तीन बार मिट्टी से हाथ धोयेंगे । फिर भी वे मुनि लोग ही एकान्त में उसे स्वयं पढ़ते थे। उस समय के जैन जगत द्वारा जो मान्दोलन छेड़ा गया वह इतने अंश में तो सफल हुआ कि मुनिवेष लेने के कारण ही जो भक्ति मिला करती थी और वे लोग जो धालोचना से परे हो जाते थे वह न रही। यहाँ तक कि स्थिति पालक दल भी किसी न किसी मुनि का मालोचक बन गया ।
इसके बाद का जबर्दस्त आन्दोलन विधवा विवाह का था। सन् १९२० में चिन्तन करते करते भी विचारों में जो परिवर्तन हुवा उसने मुझे विधवा विवाह का समर्थक बना दिया पर इसका प्रान्दोलन में छेड़ न सका । एक बार ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी से मेरी चर्चा हुई। मेने विधवा विवाह के पक्ष में अपनी दलीलें उन्हें सुनाई । बोलेविधवा विवाह के समर्थन में मेरे भी विचार हैं परन्तु मैं उन्हें प्रकट नहीं कर सकता । परन्तु मरने के पहले मैं लिख जरूर जाऊँगा कि में विधवा विवाह का समर्थक था और शायद ऐसा ही होता ।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति पन्थ
परन्तु जैन समाज के कुछ नेता ब्रह्मचारी जी के पीछे पड़े हुए थे। वे ब्रह्मचारी की पर जोर डालते थे कि या तो धाप विधवा विवाह के विचार छोड़ दें अथवा खुल्लम खुल्ला विधवा विवाह के समर्थक बन जांय । इस बात को लेकर ब्रह्मचारी जी को इतना दबाया गया कि इच्छा न रहने पर भी उन्हें विधवा विवाह का खुल्लम खुल्ला समर्थन करना पड़ा। राचारी जी के विरोधियों को उन्हें जैन । ब्रह्मचारी समाज में निन्दित करने का अवसर मिल गया । ब्रह्मचारी जी ने सनातन जैन समाज नाम से एक अलग समाज खड़ा कर लिया। पर ब्रह्मचारी जो भीतर से नट्टर दि० जैन थे। उन्हें इसका पूरा मोह था। सिर्फ विधवा विवाह के समर्थक थे और उस विषय में उनके विचार पुराने प्रान्दोलकों- स्व. सूरजभान जी वकील, दयाचन्दजी गोयलीय प्रादि के समान थे अर्थात् विधवा विवाह के विषय में वे कहा करते थे कि भले ही वह जैनधर्म के विरुद्ध हो पर समय की मांग है। उसके बिना जैनों की संख्या घट रही है भादि । ऐसे ही तर्कों से विधवा विवाह का समर्थन करते थे उन्हें मालूम था कि में विधवा विवाह का समर्थक है। इसलिये प्रति सप्ताह उनका एक पत्र मुझे मिलने लगा कि आप इस प्रान्दोलन का समर्थन कीजिये, मैं असहाय हूँ, इस आन्दोलन को भाप ही जोरदार बना सकते हैं । पर मेरी भी कुछ परेशानियाँ थीं। जिन संस्थानों से मेरा सम्बन्ध या विधवा विवाह के प्रान्दोलन से उनको क्षति पहुँचती या मुझे उनसे सम्बन्ध छोड़ना पड़ता । में इन दोनों बातों के लिये तैयार न था । उस समय में जन जगत का सम्पादक था हो । इसलिये मैंने यह घोषित किया कि जैन जगत में विघया विवाह को लेकर दोनों पक्षों के लेख निकलेंगे। समर्थन में भी पौर विरोध में भी। जन जगत से स्थिति पालक पंडित तो भड़कते ही थे इसलिये उनके लेख तो प्राए ही नहीं । इसलिये विधवा विवाह के विरोध में कोई लेख जन जगत में छपने नहीं श्राया और समर्थन में भी लेख लिखने
की हिम्मत किसी में न थी तथा यह सारा नाटक मुझे ही करना पड़ा। कल्पित नामों से मैंने विधवा विवाह के विशेष और समर्थन में लेख लिखने शुरू किये | कभी बयाणी देवी आदि के नाम से विषया विवाह का विरोध करता कभी सव्यसाची के नाम से विधवा विवाह का समर्थन करता । कई वर्षो तक मे सव्य साधी के नाम से विधवा विवाह के समर्थन में लेख लिखता रहा। विरोधियों को उत्तर देता रहा। उन लेखों को ट्रेक्ट के रूप में दिल्ली के जौहरीलाल जी सर्राफ ने छपवाया। एक ट्रेक्ट तो करीब २५० पेजों का था।
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विधवा विवाह के पुराने समर्थकों से मेरे समर्थन में एक अन्तर था। पहले के लोग विधवा विवाह को जैनधर्म के विरुद्ध मानकर समय की जरूरत के नाम से प्रापद्धर्म के रूप में चलाना चाहते
थे
जब कि मेरा कहना था कि विधवा विवाह जनधर्म का अंग है। विधवा विवाह के रिवाज के बिना जैनधर्म का ब्रह्मचर्याशुवत प्रधूरा है । ब्रह्मचर्याशुव्रत का मतलब है कि मनुष्य की उद्दाम काम वासना एक पुरुष या एक नारी में सीमित हो जाय। यह कार्य विधवा विवाह से भी होता है । विधवा को भी कामवासना को सीमित करने की जरूरत है को कि विवाह से ही संभव है इसलिये विधवा विवाह ब्रह्मचर्याम्पुव्रत का पूरक है । इसी प्रकार कोई पुरुष यदि किसी विधवा के साथ विवाह करके अपनी काम वासना वो सीमित कर लेता है तो उसका यह विवाह भी ब्रह्मचर्यव्रत का सहायक बन जाता है। इस प्रकार दोनों के लिये विधवा विवाह ब्रह्मचर्याव्रत का मंत्र है और ब्रह्मचर्यारव्रत तो जैन धर्म का मूल है इसलिये विधवा विवाह भी मूलत में सहायक बन्ना इस प्रकार धार्मिक दृष्टिकोण से मैंने विधवा विवाह का जोरदार समर्थन किया हालां कि यह सब सव्यसाची के नाम से किया ब्रह्मचारी जी को जब भी कोई चलेञ्ज देता या ये कह देते थे कि सव्यसाची से
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जैन समाज के आन्दोलन
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शास्त्रार्थ करे और वह सब लिखित होगा। क्योंकि ही मुझे उसके लिये जैन समाज में एक नया सम्प्रमें अपने नाम से सामने प्राना नहीं चाहता था। दाय ही खड़ा क्यों न करना पड़ता। परन्तु एक सव्यसाची के नाम से ही सबको उत्तर देता था। दिन चिन्तन करते करते जो नया प्रकाश मिला इस प्रकार ब्रह्मचारी जी की ढाल भी में ही था उसने यह मोह छड़ा दिया। पौर तलवार भी।
___ मैंने सोचा "मैं जैनधर्म को बिल्कुल शुद्ध करने सव्यसाची के लेखों का इतना असर जरूर हुमा
के लिये उसको सब कमजोरियां हटा रहा हूँ और कि विधवा विवाह को लोग जैनधर्म की बात
जो त्र.टियां देखता हूँ वह सब भर रहा हूँ अगर इसी समझने लगे और उसके बारे में जो घृणा का भाव
नीति से मैं संशोधन अन्य घों का करू तो
धर्मों में अन्तर क्या रह जायगा तब मैं सिर्फ जैन था वह दूर हो गया। कुछ विधवा विवाह हुए भी ।
धर्म का ही संशोधन क्यों कर रहा है। इसलिये तो इस बात का मुझे दर्द होता था कि जैनधर्म को बहत सी बातें प्राधुनिक विज्ञान से मेल
कि मेरे पिता जैन थे । इसलिये कि बाल्यावस्था से मुझे नही खाती । इसके कारण प्राज का विद्यार्थी जन
वही धर्म मिला। परन्तु जैनधर्म को अच्छा धर्म धर्म के बारे में अरुचि और प्रश्रद्धा व्यक्त करता
समझ कर जनपिता के यहाँ पैदा होने के लिये क्या है। इसलिये मेरे मन में विचार प्राया कि जैनधर्म
मैने पिता चुना था । अकस्मात ही मुझे जैन पिता का इतना संशोधन कर दिया जाय कि यह प्राधुनिक
मिल गया । बुद्धि पूर्वक मैंने पिता चुना नहीं । ऐसी विज्ञान से टक्कर ले सके । इसी समय बाब छोटे- हालत में अन्य धर्म का भी पिता मिल सकता था लालजी ने अपने सब विचारों को प्रकट करने की।
. और मैं उसही धर्म के गीत गाने लगता । वास्तव प्रेरणा दी। इसलिये 'जैनधर्म का मर्म' शीर्षक
में यह प्राकस्मिकता सत्य की निर्णायक नहीं है। देकर मैने एक लेख माला 'जैन जगत' में प्रकट
इसके लिये तो बिल्कुल निर्मोह बनकर निष्पक्ष दृष्टि की। यह साढ़े तीन वर्ष तक लिखी गई और बाद
से विचार करना चाहिये ।" बस ! इस विचार मतीन खण्डों में करीब बारह सौ पृष्ठों में 'जैन
ने मुझे धार्मिक पक्षपात से या मोह से मुक्त बना धर्म मीमांसा' के नाम से प्रकट हई। इसके विरोध
दिया। मैं साधारणतः सभी धर्मों में समभावी
निष्पक्ष मान्दोलक बन गया । और इनही विचारों में भी लेख लिखे गये और उनके उत्तर में भी एक लेख माला और लिखी गई।
का मूर्तिमन्त रूप बना 'सत्य समाज'। यह सन्
१६३४ की बात है । इसके बाद जैन जगत का नाम खैर इस लेखमाला में में दो कार्य करता था। बदलकर सत्यसन्देश कर दिया गया। जब मैंने जैनधर्म की जो बात माधुनिक विज्ञान से मेल नहीं वर्धा में सत्याश्रम बनाया तब 'सत्यसंदेश' का स्वाती थी उसे में निकाल देता था। और जो कमी प्रकाशन भी वहीं से होने लगा। और जैन समाज मालम होती थी उसे जोड़ देता था। इस प्रकार का सम्बन्ध करीब करीब उसी ढंग से छूट गया जैसा जैनधर्म को मैं परिपूर्ण और शुद्ध बनाता जाता था। किसी लड़की का सम्बन्ध विवाह के बाद पीहर से यह सब चिकित्सा में जैनधर्म के मोह के कारण जाता करता था पर जैन समाज मेरे इस प्राचरण को बाबू छोटेलालजी निर्मोह तो नहीं हो पाये। नहीं समझ पा रहा था इसलिये मेरा विरोधी था। मेरे विचारों से पूरी तरह मेल भी बैठा नहीं पाये यदि मेरा यह मोह बना रहता, तो में किसी के भी फिर भी मेरे विचारों की कद्र करते रहे और सत्याविरोध की परवाह न करके जीवन के अन्त तक श्रम को बीस हजार से अधिक को भेंट बिना मांगे जैनधर्म संशोधन का कार्य करता रहता । भले ही मुझे दी ऐसे कद्रदां वास्तव में दुर्लभ हैं। .
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! जो समाज दुखी का दुख नहीं समझता, पापति विपत्ति में। हिम्मत नहीं बंधाता, वह समाज मेरा नहीं, मुझ जैसे गरीबों का | नहीं है।
! मनुष्य मनुष्य में अनगिनत भेद होते है, परन्तु मनुष्यता एक ।
चीज है जो कभी-कभी भेद की इन सारी दीवारों को लांघ जाती है। । 1 x x x x I अपने सम्मान की आप रक्षा न करने से अन्यत्र सम्मान प्राप्त ! नहीं किया जा सकता।
आदमी जिस जमीन पर गिरता है, उठने के लिए उसे उसीका । सहारा लेना होता है।
-बाबूजी की सायरी से
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मथुरा की प्राचीन कला में समन्वय भावना
कृष्णदत्त वाजपेयी
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में मथुरा - प्रागरा के जिले तथा उनके समीपवर्ती क्षेत्र ब्रज के नाम से प्रसिद्ध हैं । ब्रज का प्राचीन नाम " सूरसेन जनपद" था, जिसकी राजधानी मथुरा थी। इसी मथुरा में भगवान् कृष्ण ने जन्म लेकर ब्रज में अनेक लीलाएं कीं। शैव तथा शाक्त मतों का विकास भी ब्रजभूमि में बहुत प्राचीन काल से प्रारम्भ हुआ । धीरे-धीरे नगरी भागवत या वैष्णव धर्म का मथुरा प्रमुख केन्द्र बन गई ।
ईसा से कई शताब्दी पूर्व मथुरा में एक बड़े जैन स्तूप का निर्माण हुआ, जिसका नाम “वोदू” स्तूप था। जिस भूमि पर यह स्तूप बनाया गया वह अब कंकाली टीला कहलाता है। इस टीले के एक बड़े भाग की खुदाई पिछली शताब्दी के मंतिम भाग में हुई थी, जिसके फलस्वरूप एक हजार से ऊपर विविध मूर्तियां मिली थी। हिन्दू पौर बौद्ध धर्म सम्बन्धी कुछ safrat मूर्तियों को छोड़ कर इस खुदाई में प्राप्त शेष सभी मूर्तियाँ जैन धर्म से सम्बन्धित थीं । उनके निर्माण का समय ई० पू० २०० से लेकर ११०० ई० तक ठहराया गया है। कंकाली टीला तथा व्रज के अन्य स्थानों से प्राप्त बहुसंख्यक जैन मंदिरों एवं मूर्तियों के अवशेष इस बात के सूचक हैं कि यहाँ एक लंबे समय तक जैन धर्म का विकास होता रहा ।
बौद्धों ने भी मथुरा में अपने कई केन्द्र बनाये, जिनमें तीन मुख्य थे। सबसे बड़ा केन्द्र उस स्थान के पास-पास था जहाँ प्राजकल कलक्टरी कचहरी है। दूसरा शहर के उत्तर में यमुना किनारे गोकर्णेश्वर धीर उसके उत्तर की भूमि पर था तथा तीसरा यमुना तट पर ध्रुवबाट के प्रासपास था । प्रनेक
हिन्दू देवताओं की प्रतिमानों की तरह भगवान बुद्ध की मूर्ति का निर्माण भी सबसे पहले मथुरा में ही माना जाता है । भारत के प्रमुख धर्म भागवत, शैव, जैन तथा बौद्ध ब्रज की पावन भूमि पर शताब्दियों तक साथ-साथ पल्लवित पुष्पित होते रहे। उनके बीच ऐक्य के अनेक सूत्रों का प्रादुर्भाव ललित कलाओं के माध्यम से हुआ, जिससे समन्वय तथा सहिष्णुता की भावनाओं में वृद्धि हुई ।
देशी और विदेशी कला का सम्मिश्रण
भारत का एक प्रमुख धार्मिक तथा कला केन्द्र होने के नाते मथुरा को बड़ी ख्याति प्राप्त हुई । ईरान, यूनान और मध्य एशिया के साथ मथुरा का सांस्कृतिक सम्पर्क बहुत समय तक रहा। उत्तरपश्चिम में गंधार प्रदेश की राजधानी तक्षशिला की तरह मथुरा नगर विभिन्न संस्कृतियों के पारस्परिक मिलन का एक बड़ा केन्द्र हो गया। इसके फलस्वरूप विदेशी कला की अनेक विशेषताओं को यहाँ के कलाकारों ने ग्रहण किया भीर उन्हें देशी तत्वों के साथ समन्वित करने कुशलता का परिचय दिया । तत्कालीन एशिया तथा यूरोप की संस्कृति के अनेक उपादानों को प्रात्मसात् कर उन्हें भारतीय तत्वों के साथ एकरस कर दिया गया। शत्रों तथा कुषाणों के शासनकाल में मथुरा में जिस मूर्तिकला का बहुमुखी विकास हुआ उसमें समन्वय की यह भावना स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है ।
प्राचीन मथुरा में मंदिरों तथा मूर्तियों के निर्माण में प्रायः साल बलुए पत्थर का प्रयोग होता था । यह पत्थर मथुरा के समीप तांतपुर, फतेहपुर सीकरी, रूपवास आदि स्थानों में मिलता है और मूर्ति गढ़ने के लिए मुलायम होता है ।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ हिन्दू मूर्तिकला के विकास को जानने तथा बुद्ध-मूर्तियों का श्रीगणेश विशेष रूप से पौराणिक देवी-देवताओं के मूर्ति- भारत में भगवान बुद्ध का पूजन कुषाण काल विज्ञान को समझने के लिए अज की कला में बड़ी से कई शताब्दी पहले पारम्भ हो चुका था, पर वह सामग्री उपलब्ध है । ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु को उनके चिन्हों की पूजा तक ही सीमित था । बुद्ध भनेक मूर्तियां ब्रज में मिलती हैं, जिनका समय ई० को मानव-मूर्ति का निर्माण नहीं हुआ था। शुग प्रथम शती से लेकर बारहवीं शती तक है । विष्णु काल के अंत तक हम यही स्थिति पाते हैं । सांची, की कई गुप्तकालीन प्रतिमाएं अत्यन्त कलापूर्ण हैं। भरहुत, बोधगया, सारनाथ भादि स्थानों से उस कण-बलराम की भी कई प्राचीन मूर्तियां मिली समय तक की जितनी बोट कला-कृतियां प्राप्त नई हैं । बलराम की सबसे पुरानी मूर्ति ई० पूर्व दूसरी है उन पर बोधि-वृक्ष, धर्मचक्र, स्तूप, भिक्षापात्र शती की हैं, जिसमें वे हल और मूसल धारण किये मादि का ही पूजन दिखाया गया है। मूर्त रूप में दिखाये गये हैं । अन्य हिन्दू देवता, जिनकी मूर्तियाँ भगवान बुद्ध का पूजन कहीं नहीं हुआ । मथुरा से मथुरा कला में मिली हैं, कार्तिकेय, गणेश, इन्द्र, भी अनेक प्राचीन मूर्तियां मिली हैं, जिन पर इन अग्नि, सूर्य, कामदेव, हनुमान प्रादि हैं । देवियों में चिन्हों का पूजन मिलता है। मथुरा में हिन्दुओं के लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, महिषमदिनी, सिंहवाहिनी, बलराम प्रादि देवों तथा जैन तीर्थकर की प्रतिमानों दुर्गा, सप्तमार्तृका, वसुधारा, गंगा-यमुना प्रादि के का निर्माण प्रारंभ हो चुका था। बौद्ध धर्मानुमर्त रूप मिले हैं। शिव तथा पार्वती के समन्वित यायियों में भी अपने देव को मानव रूप में देखने रूप अर्धनारीश्वर को भी कई प्रतिमाएं प्राप्त की उमंग उठनी स्वाभाविक ही थी। मथुरा के हुई हैं।
कुषाण-शासक मूति-निरिण के प्रेमी थे और उस समय
यहाँ भक्ति-प्रधान महायान धर्म प्रबल हो उठा जैन मूर्तियाँ
था। फलस्वरूप कुषाण काल में मथुरा के शिल्पियों ब्रज में प्राप्त जैन अवशेषों को तीन मुख्य भागों द्वारा भगवान् बुद्ध की मूर्ति का निर्माण हमा। में बाँटा जा सकता है: तीर्थकर प्रतिमाएं, देवियों इधर गंधार प्रदेश में भी बौदध मूर्तियां बड़ी संख्या
सीनीकरों में से में बनायी जाने लगी। मथुरा से प्राप्त बदध और सोनियों की कला में पल बोधिसत्व की प्रारंभिक प्रतिमायें प्रायः विशालनेमिनाथ की यक्षिणी प्रबिका तथा ऋषभनाथ की काय मिली हैं, जैसी फि यक्ष-मूर्तियाँ मिलती है। यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। कला के विकास के साथ ही मूर्तियाँ अधिक सुन्दर प्रायागपट्ट प्राय. वर्गाकार शिलापट्ट होते थे, जो बनने लगीं। मथुरा में गुप्तकाल में निर्मित पूजों में प्रयुक्त होते थे । उनपर तीर्थकर, स्तूप, बुद्ध को कुछ प्रतिमाओं में बाह्य सौन्दर्य के साथ स्वस्तिक, नंद्यावतं प्रादि पूजनीय चिन्ह उत्कीर्ण माध्यात्मिक गांभीर्य का अद्भुत समन्वय देखने को किये जाने थे। मथुरा संग्रहालय में एक सुन्दर मिलता है। प्रायागपट्ट है, जिसे उस पर लिखे हुए लेख के अनु- बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियों के अतिरिक्त सार लवणशोमिका नामक एक गरिणका की पुत्री मथुरा -कला में बुद्ध के पूर्व जन्मों की घटनायें भी वसु ने बनवाया था। इस प्रायागपट्ट पर एक अनेक शिलापट्टों पर चित्रित मिलती हैं, जिन्हें विशाल स्तूप का प्रकन है तथा वेदिकानों सहित जातक कहते हैं । बौद्ध धर्म के अनुसार बुद्ध तोरण द्वार बना है । मथुरा के कई उत्कृष्ट प्रायाग- होने के पहले भगवान् कई योनियों में विचरे थे। पट्ट लखनऊ संग्रहालय में हैं।
उन्हीं पूर्व जन्मों की कहानियाँ जातक-कथाएं हैं ।
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मथुरा की प्राचीन कला में समन्वय भावना
१०६ मथुरा में इस प्रकार के दृश्यों वाले कई पट्ट हैं। सुख-समृद्धि तथा विलास के प्रतिनिधि हैं। संगीत, गौतम बुद्ध के वर्तमान जीवन की मुख्य घटनाएं- नृत्य पौर सुरापान इनके प्रिय विषय हैं। यक्षों की यथा, जन्म, शाम-प्राप्ति, धर्म-चक्र-प्रवर्तन तथा प्रतिमाएं मथुरा कला में सबसे अधिक मिलती हैं। परिनिर्वाण---भी मथुरा कला में अंकित मिलती हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण परखम नामक गांव से प्राप्त
लगभग ई०पू०२०० में निर्मित विशालकाय यक्षकला में नारी चित्रण
मूर्ति है। एक दूसरी बड़ी मूर्ति मथुरा के बड़ौदा मधुरा के वेदिका स्तंभों पर विविध मनोरंजक गांव से प्राप्त हई है। ये मूर्तियां चारों ओर से कोर चित्रण मिलते हैं : मुक्ताप्रथित केश-पाश, कर्ण
कर बनाई गई हैं, जिससे उनका दर्शन सभी दिशानों कुडल, एकावली, गुच्छकहार, केयूर, कटक, मेखला, से हो सके । कुषाण काल में ऐसी ही मूर्तियों के नूपुर मादि धारण किए हुए स्त्रियों को विविध समान विशालकाय बोधिसत्व प्रतिमाएं निमित पाकर्षक मुद्रामों में दिखाया गया है । कहीं कोई की गई। युवती उद्यान में फूल चुन रही है, कोई कंदुक
यक्षों में कुबेर तपा उनकी स्त्री हारीती का क्रीड़ा में लग्न है, कोई प्रशोक वृक्ष को पैर से
स्मान बड़े महत्त्व का है। इनकी अनेक मूर्तियां ताड़ित कर उसे पुष्पित कर रही है, या निझर में
मथुरा में प्राप्त हुई हैं । कुबेर यक्षों के अधिपति स्नान कर रही है अथवा स्नानोपरांत तन ढक रही
तथा धन के देवता माने गये हैं। बौद्ध, जैन तथा है। किसी के हाथ में वीणा या वंशी है तो कोई
हिन्दू-इन तीनों धर्मों में इनकी पूजा मिलती है। प्रमदा नृत्य में तल्लीन है । कोई सुन्दरी स्नानागार
कुबेर जीवन के प्रानन्दमय रूप के द्योतक हैं और से निकलती हई अपने बाल निचोड़ रही है और
इसी रूप में उनकी अधिकांश मूर्तियां मिलती हैं। नीचे हंस गिरती हुई पानी की बूदों को मोती समझ कर अपनी चोंच खोले खड़ा है। किसी स्तम्भ पर पक्षों की तरह प्राचीन बृज में नागों की पूजा वेणी-प्रसाधन का दृश्य है, किसी पर संगीतोत्सब बहुत प्रचलित थी। नाग और नागिनियों की बहका पौर किसी पर मधुपान का । इस प्रकार लोक- संख्यक मूर्तियाँ ब्रज में मिली हैं। इनकी पजा जीवन के कितने ही दृश्य इन स्तम्भों पर चित्रित समृद्धि और संतान करने वाली मानी जाती थी। हैं । कुछ पर भगवान् बुद्ध के पूर्व जन्मों से सम्बन्धित ब्रज में शक भौर कुषाण शासकों की अनेक विभिन्न जातक कहानियाँ और कुछ पर महाभारत महत्वपूर्ण मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । इस प्रकार की प्रादि के रश्य भी हैं। इसके अतिरिक्त अनेक मूर्तियां भारत में अन्यत्र नहीं मिली। कुषाण राजा प्रकार के पश-पक्षी, लता-फूल प्रादि भी इन स्तम्भों विमर्कड फिसेस, कनिष्क प्रादि शासकों तथा शकपर उत्कीर्ण किए गए हैं। इन वेदिका स्तम्भों को रानी कंबोजिका की प्रतिमाएं अब तक प्राप्त हो शृगार और सौन्दर्य के जीते-जागते रूप कहना चुकी हैं। शासक लंबा कोट तथा सलवार के ढंग का चाहिए, जिन पर कलाकारों ने प्रकृति तथा मानव पायजामा पहने दिखाये गए हैं। कम्बोजिका को जगत् को सौंदर्य राशि बिखेर दी है । भारतीय कला भारतीय साड़ी पहने दिखाया गया है । ईरानी तथा में इन वेदिका-स्तम्भों का विशेष स्थान माना यूनानी पुरुष-प्रतिमानों के कई सिर भी मथुरा-कला जाता है।
में प्राप्त हुए हैं। यक्षादि मूर्तियाँ
लोकजीवन का चित्रण मपुरा-कला में यक्ष, किभर, गन्धर्व, सुपर्ण मथुरा-कला में विविध धर्मों के देवों की अनेक तथा अप्सरामों की अनेक मूर्तियां मिलती हैं। ये प्रकार की मूर्तियों के मिलने के अतिरिक्त ऐसी
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
कृतियां बहुत मिली हैं जिनका सम्बन्ध मुख्यतया मध्यकाल तक की पायी जाती हैं । ईसबो पूर्व २०० लोकजीवन से है। इनमें मिट्टी की मूर्तियों का से लेकर ६०.ई. तक की मृमूर्तियों की संख्या स्थान बड़े महत्व का है । यद्यपि मिट्टी की कुछ सबसे अधिक है। इनमें से कुछ तो लड़कों के खेलने मतियां देवी-देवतानों विशेषतः हिन्दू देवतामों के लिए बनती थों, जैसे हाथी, घोड़े, गाड़ी मादि की भी मिली हैं, पर उनकी संख्या थोड़ी है। खिलौने । शेष भूतियां वे हैं जिनमें जीवन के विविध पविकाश मिट्टी की मूर्तियां नागरिक तथा मंगों का वैसा ही प्रदर्शन है जैसा कि हम पाषाण ग्रामीण लोक जीवन पर प्रकाश डालती है। पर पाते हैं। मपुरा संग्रहालय से इनकी संख्या बहुत अधिक है। ये अधिकतर टीलों में से तथा यमुना नदी से मथुरा की प्रचुर कलाराशि में वस्तुतः भारतीय प्राप्त हुई हैं। इनके मुख्य दो प्रकार हैं : एक तो संस्कृति के अध्ययन की अत्यन्त मूल्यवान् सामग्री वे जो मौर्यकाल में या उसके पूर्व मातृदेवियों मादि उपलब्ध है। यहां के कुशल कलाकार अनेक देशी की मूतियों के रूप में हाथ से गढ़कर बनाई जाती एवं विदेशी तत्वों तथा भारतीय धर्म-दर्शन की पी भौर दूसरी सांचों के द्वारा बनी हुई। दूसरे विविध धारामों का समन्वित रूप प्रस्तुत करने में प्रकार की मूर्तियां शुमकाल से लेकर लगभग पूर्व सफल हुए।
मांखों देखी भी असंभव घटना किसी से मत कहो, इस पर साइज विश्वास नहीं किया जाता।
जो सचमुच ही क्षमा चाहता हो उसे तो क्षमा करना ही चाहिये।
दुख पाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसे सहने में हो तो मनुष्यत्व है।
-बाबूजी की डायरी से
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भट्टारकयुगीन जैन संस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियाँ
प्रो० डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री, धारा
वि या लेखक प्रपने चतुर्दिक फैले हुए विश्व कृषि को केवल बाह्य नेत्रों से ही नहीं देखता, बल्कि पन्तश्चक्षु द्वारा उसके सौन्दयं एवं वास्तविक रूप का प्रवलोकन करता है धीर जगत के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिलाकर जड़चेतनात्मक विश्व का निरीक्षण करता है। वह जीवन के सर्वोतम क्षणों का साक्षात्कार कर अपने सौन्दर्य बोध को बाह्य जगत की प्रनेक रूपता प्रौर अन्तर्जगत की रहस्यमयी विविधता अभिव्यक्त करता है। यही कारण है कि साहित्य किसी भी जाति या सम्प्रदाय का दर्पण होता है मीर उसमें लोकोत्तर भाल्हाद उत्पन्न करने की क्षमता विद्यमान रहती है ।
जैन साहित्य में संस्कृत काव्य का सूत्रपात प्राचार्य समन्त भद्र के स्तोत्र - साहित्य से होता है, पर विकास की चरम सीमा भट्टारक युग में पाई जाती है। विविध विषयक विपुल रचनाएं इस युग में लिखी गई हैं । उचना परिमाण की दृष्टि से यह युग पर्याप्त महत्वपूर्ण है। यह सत्य है कि इस युग में कुछ ही भट्टारक प्रतिभाशाली हुए हैं । पर ग्रन्थ रचना और ग्रन्थ संरक्षरण के क्षेत्र में प्रत्येक
भट्टारक ने मोगदान दिया है । संस्कृत, प्राकृत धौर urse भाषा का प्रौड़ अध्ययन भले ही भट्टारकों मे न किया हो पर पुरानी परम्परा के अनुकरण पर उक्तभाषाधों में पर्याप्त साहित्य का प्रणयन किया है। दर्शन, सिद्धांत, ज्योतिष, प्रायुर्वेद, काव्य, अलंकार प्रसूति विषयों की अभिशता भट्टारकों में वर्तमान थी। ये केवल मठाधीश के रूप में ही अपनी विधाga का चमत्कार जन साधारण के समक्ष उपस्थित नहीं करते थे बल्कि राजा महा
राजाओं और सेठ साहूकारों को प्रेरित कर स्वयं साहित्य-सृजन के प्रतिरिक्त अन्य विद्वानों धौर कवियों से भी ग्रन्थ रचना कराते थे । धर्मप्रचार करना, जन साधारण को धर्म के प्रति श्रद्धालु बनाना, स्वयं ग्रन्थ लिखना, अन्य विद्वानों से लिखवाना एवं सरस्वती का संरक्षरण करना भट्टारकों का जीवन लक्ष्य था । कई भट्टारकों के कार्यकाल में प्रार्य ग्रन्थों की सहस्रों पाण्डुलिपियां तैयार कराई गयी हैं । व्रत विधान, पूजा-पाठ एवं जीवनोपयोगी प्रौषधि तन्त्रादि विषयक साहित्य का प्ररणयन इस युग में निश्चयतः सर्वाधिक हुआ है।
भट्टारक सम्प्रदाय के उल्लेख नयीं दाती से ही उपलब्ध होने लगते हैं पर इस युग का प्रारम्भ १३ वीं शती से होता है। प्रतः १३वीं शती से १८ वी शती तक का समय भट्टारक युग के अन्तर्गत परिगणित है । इन छह सौ वर्षों के काल में साहित्य और संस्कृति के प्रचार का ध्वज भट्टारक वर्ग के ही हाथ में था । प्रारम्भ में यह वर्ग निश्चयतः निस्पृही, त्यागी, ज्ञानी धौर जितेन्द्रिय था । हाँ, उत्तरकाल में भट्टारकों में ऐसे दोष अवश्य दृष्टिगत होते हैं जिन दोषों के कारण यह वर्ग अपने कर्तव्य से च्युत तो हुधा ही, साथ ही साहित्य के स्तर और धर्म के स्वरूप विवेचन में भी अनेक कमियाँ उत्पन्न हो गई।
दूसरी भोर इस काल खण्ड में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मुनि धौर यतियों का वर्ग भी साहित्य सृजन में प्रवृत्त था। इस वर्ग के लेखक धौर कवियों ने भी भट्टारक युगीन प्रवृत्तियों का अनुसरण किया । साथ ही कुछ ऐसी साहित्यिक विधाएं भी प्रादुर्भूत हुईं जिनका साहित्यिक मूल्य पूर्वयुगीन साहित्य
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
की अपेक्षा कुछ भिन्न था। यों तो भट्टारकों के समान ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कवि और लेखक भी नवीन भावों और सन्दर्भों के स्थान पर समस्या पूरर्यात्मक या हेमचन्द्राचार्य जैसे प्रतिभाशाली प्राचार्यों के पदचिन्हों का अनुसरण करते रहे । संक्षेप में उक्त छह सौ वर्षों के कालखण्ड को जैन संस्कृत साहित्य का पुनरावृत्तकाल भी कहा जा सकता है। हम इस कालखण्ड को भट्टारक युग के नाम से इस लिए अभिहित करेंगे कि इस युग में भट्टारकों ने ही प्रमुख रूप से बहुसंख्यक रचनाएं निबद्ध की हैं। इस युग की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियां निम्नांकित हैं
-:
१. पौराणिक चरितकाव्य
२. लघु प्रबन्ध काव्य
३. सन्देश या दूतकाव्य
४. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ऐतिहासिक साहित्य ५. सन्धानकाव्य
६. सूक्ति साहित्य
७. स्तोत्र एवं पूजा भक्ति साहित्य
८. नाटक
६. चरित्र या प्राचारमूलक धार्मिक साहित्य १०. समस्यात्मक साहित्य
११. न्याय, दर्शन, और आध्यात्मिक साहित्य १२. संहिता विषयक विविध साहित्य १३. टीका-टिप्पणी विषयक विविध साहित्य १४. कथा और पुराण विषयक साहित्य १५. कोप, छन्द एवं अलंकार विषयक साहित्य
१- पौराणिक चरित काव्य विषयक प्रवृत्ति:
जैन साहित्य में परित नामान्त काव्यों का प्रारम्भ जटासिंह नन्दि के बराङ्ग चरित से होता है। इस साहित्यिक प्रवृत्ति में एक साथ चरित, दर्शन, प्राचार, रोमान्य, प्रेम, कामतस्व और भक्तितत्व का समवाय पाया जाता है, भट्टारक युगीन चरित काव्यों में वरिष विकास की अपेक्षा पौराणिकता ही प्रमुख
1 इस कोटि के काव्यों में पौराणिक कथाओंों को
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ग्रहण कर वर्णन विस्तार और चमत्कार के बिना ही कथा के विकासक्रम में चरितों को निबद्ध करने का प्रयास किया है। परिणाम यह निकला है कि इस युग के पौरणिक चरित काव्य सम्प्रदाय विशेष की सीमा में प्रावद्ध होकर धर्मकम -काव्य बन गये हैं। काव्य चमत्कार एवं रसोशेधन के लिये जिस सौन्दर्यानुभूति को आवश्यकता कवि को रहती है और जिस सौन्दर्यानुभूति की अभिव्यञ्जना से कवि पौराणिक इतिवृत को काव्य बनाता है उसका प्रायः प्रभाव ही इस युग के काव्य में रह गया। संक्षेप में इस प्रवृत्ति की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
(१) कथावस्तु में गहनता की धपेक्षा व्यास का समावेश और काव्य के स्थान पर पौराणिक प्रायाम का विस्तार
(२) सूक्ष्म भावों की अभिव्यंजना के स्थान पर उपदेश स्थापना का प्रयास काव्य के प्रणेताओं ने कवि-धर्म का निर्वाह न कर कथावाचक के धर्म का निर्वाह किया है। फलतः काव्य-तत्व के स्थान पर उपदेश तत्व ही प्रमुख है ।
(३) घटनाओं, पात्रों या परिवेश की सन्दर्भ पुरस्सर व्याख्या के स्थान पर केवल वातावरण के सौरभ का ही नियोजन महाकाव्यों के वस्तु वर्णनों में इस प्रकार का व्यापक चमत्कार निहित रहता है, जिससे पाठक घटनाओं और पात्रों के साथ साधारणीकरण को प्राप्त हो जाता है। भाव किसी पात्रविशेष के न होकर जनसाधारण के बन जाते है, पर भट्टारक-युग के चरित-काव्यों में साधारणीकरण की प्रक्रिया यथोचित रूप में घटित नहीं हो सकी है। इसका प्रधान कारण यही है कि उस युग के कवियों ने काव्य का वातावरण न उपस्थित कर सीधे कथा का ही धारम्भ कर दिया है। फलतः काव्य रस के स्थान पर पाठक को पौराणिक कथा का रस ही उपलब्ध हो पाता है ।
(४) कथावस्तु के प्रवाह एवं उसकी मार्मिकता के निर्वाह के हेतु कथानक गठन में सघनता के स्थान
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भट्टारक युगीन जैन संस्कृत-साहित्य की प्रवृत्तियाँ
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पर शिथिलता ही समाविष्ट है । कथानक में जिस रक्षा की है। पाठक एक साथ उदात्तचरित, भक्ति प्रकार की श्रृंखला मोरक्रम बद्धता चरित-काव्य के पोर बारित्र प्राप्त कर लेता है। लिये अपेक्षित है, उसका समावेश इस युग में न (6) दार्शनिक सिधान्तों की व्याख्या भोर हो सका।
विश्लेषरण भी सामान्यरूप में निहित हैं,प्रतः कथानक १) मास्मोत्थान या चरितोत्थान के मूल की रोचकता अक्षण्ण है। सिद्धान्तों को काव्य शैली में रखने का प्रयास । वर्णनों और कार्य व्यापारों के वैविष्य के प्रभावों में पौराणिक चरित काव्यों की प्रवृत्ति का मारम्भ उक्त सिद्धान्त काव्यरूप में उपस्थित न होकर भट्टारक युग में कवि वर्धमान के बरांगचरित से धर्मशास्त्र के रूप में ही प्रतुस्त हुए हैं। प्रेम, होता है । प्रारम्भिक पौर भट्टारक युगीन इस प्रवृत्ति विवाह, मिसन, राज्याभिषेक, सैनिक-प्रस्थान, का अन्तर इस काव्य में सुस्पष्ट रूप में मिलता है। नगरावरोध, युद्ध, दीक्षा, तपश्चरण प्रादि का भावु- चरित विश्लेपण की शैली का रूपान्तर यहीं से कतापूर्ण वर्णन न होकर केवल कथात्मक वर्णन भट्टारक के वराङ्गचरित से होता है। इनका समय हमा है। कर्मफल की अनिवार्यता दिखलाने के लिये ई० सन् १३६३ है । ' पोर ये दशभक्त्यादि महाजन्म-जन्मान्तरों की कथाए भी चलते रूप में ही शास्त्र के रचयिता वर्धमान मुनि से भिन्न हैं । इस प्रायोजित हैं।
महाकाव्य में १२३ सर्ग और ११४५ पद्य हैं। २ (६) चरित्र काव्यों का उद्देश्य रत्नत्रय को कवि ने अनुष्टुप् श्लोकों में १३८३ श्लोक संख्या साधना दिखलाना है। प्रारम्भ से ही इस विधा के बतायी है । इस युग के चरित काव्यों में यह उत्तम लेखकों ने उक्त उद्देश्य को चरितार्थ किया है।
रचना है । इस प्रवृत्ति के अनुसरणकर्ता कई भट्टारक युग के कवि भी चरित का उद्घाटन रल- भट्टारक हैं । त्रय के परिपार्श्व में करते रहे हैं । अन्तर इतना ही विक्रम को पन्द्रहवीं शती में भट्टारक सकलकीति रहा है कि चन्द्रप्रभचरित, प्रधुम्नचरित प्रादि ग्रन्थ ने शान्तिनाथ चरित, वर्द्धमानचरित, मल्लिनाथ में लक्षण और व्यञ्जना के प्राधार पर ही रत्नत्रय चरित, धन्यकुमार चरित, 3 सुदर्शन चरित, ४ की व्याख्या प्रस्तुत की थी; किन्तु भट्टारक युग जम्व स्वामी चरित और श्रीपाल चरित की रचना की रचनामों में अभिधा पाक्ति की ही मुख्यता है। की है। वे सभी पौराणिक चरित काव्य हैं। इनमें पुरातन कथानकों की पुनरावृत्ति होने भोर काव्यगुणों न तो वस्तुव्यापार वर्णनों का विस्तार है और न के क्षण होने के कारण उश्य की व्यञ्जमा मर्मस्पर्शी सन्दों की योजना ही । कथा जीवन काव्यरूप में न हो सकी।
व्यापी है अवश्य, पर उसका प्रवाह उस पहाड़ी नदी (७) सन्दर्भ और पाख्यानों में बहुत कम की तेजधारा के समान है, जो शीघ्र ही स्थल को नवीनता का समावेश होने से शैली में चमत्कार प्राप्तकर लेती है । इसी शताब्दी में ब्रह्मजिनदास पौर माकर्षण की कमी है। इतने पर भी कथारस ने रामचरित और हनुमच्चरित की रचना की है। की सरसता ने परितकाव्य में प्रवाह गुण की पूर्ण सोलहवीं शती में ब्रह्म नेमिदत्त ने सुदर्शन चरित, १-जैन शिला लेख संग्रह प्रथम भाग, भारिणकचन्द दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई सन् १९२८ ई.
द.२२३ २-रांग चरित्र, सोलापुर, सन् १९२७ १० ३-४मानवरित और सूदर्शनपरित-रावजी एखाराम दोशी, सोलापुर द्वारा क्रमशः वी० मि. स.
२४५ और पी. नि.स. २४५३ में प्रकाशित ।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ
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श्रीपाल चरित, धन्यकुमार चरित और प्रीतिकर महामुनि चरित का प्रणयन किया है। इसी सदी में शुभचन्द्र द्वितीय द्वारा चन्द्रप्रभ चरित, पद्मनाभ चरित, जोवन्धर चरित, श्रेणिक चरित भौर करकण्डुचरित की रचना सम्पन्न हुई है। अन्य चरित काव्यों में भावदेव सूरि का पार्श्व नाथ चरित, ( ई० सन् १३५५ ), जयसिंह का कुमारपाल भूपाल चरित (सन् १३६५ ई०), पद्मनन्दि का
मान चरित ( ई० सन् की चौदहवीं शती ), मुनि भद्र का शान्तिनाथ चरित ( ई० सन् की चोदहवीं शती), पूर्ण भद्र के धन्यशालिभद्र चरित और कृतपुण्य चरित ( ई० सन् तेरहवीं शत), धर्मधर का नागकुमार चरित ( सन् १४५४ ई० ), दोडय्य कवि का भुजबलि चरित ( सोलहवीं शती), जयतिलक के सुलसा चरित और हरि विक्रम चरित ( सन् १३४६ - १४१३ ई० ), वादिचन्द्र का सुभग सुलोचना चरित ( सन् १५५५ ई० के लगभग ), जगन्नाथ का सुषेण चरित (सन् १६४३ ई०), पदमसुन्दर के पार्श्वनाथ चरित और जम्बू चरित ( विक्रम १७वीं शती) एवं सोमकीति के प्रथम्न चरित और यशोधर चरित प्रसिद्ध पौराणिक चरित काव्य हैं। पौराणिक चरित काव्य की प्रवृत्ति का विस्तार भट्टारक युग में खूब हुआ है । यशोधर के प्राख्यान को लेकर सुन्दर चरित काव्य लिखे गये हैं। अहिंसा धर्म और कर्मसंस्कारों की प्रबलता का विश्लेषण करने के लिए हनुमान, सुदर्शन, श्रीपाल औौर यशोधर की कथा वस्तु में काट-छांट कर पौराणिक चरित काव्यों का प्रणयन इस युग की एक प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति है ।
२. लघुप्रबन्ध काव्य
जिन काव्यों में जीवन व्यापी कथा के होने पर भी कथा विभाजन आठ या खः सर्गों से कम में हो,
१
लघु प्रबन्ध काव्य कहलाते हैं । खण्ड या जीवन के किसी अंश विशेष की कथावस्तु के न होने से इन्हें खण्ड काव्य नहीं माना जा सकता है । लघु प्रबन्ध काव्यों में सर्व श्रेष्ठ उदाहरण वादिराज का यशोधर चरित है । हमारे प्रभीष्ट युग में चारित्र सुन्दर गणि का महीपाल चरित्र (१५ वीं शती), भट्टारक रत्नचन्द्र के सुभौम चक्रवर्ती चरित, और भद्रबाहु वरित २ (वि० सं० १६८३), माणिक्य देव के मनोहर चरित, मुनिचरित धौर यशोधर चरित (वि० सं० १३२७-१३७५) एवं मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कवि का गौतम चरित 3 (वि० सं० १७२६ ) अच्छे लघु प्रबन्ध काव्य हैं। इस प्रवृत्ति की प्रमुख विशेषता यह है कि सानुबन्ध कथावस्तु के रहने पर भी कल्पनाशक्ति का विराट् रूप एवं विभिन्न मानसिक दशाएं प्रस्फुटित नहीं हो पाती हैं । लघु प्रबन्ध काव्य और पौराणिक चरित काव्यों में अन्तर इतना ही है कि पौराणिक चरित काव्यों में यत्रतत्र अलंकार, प्रकृति चित्रण, कथा विस्तार एवं पौराणिक मान्यताओं का निर्देश उपलब्ध होता है, पर लघु प्रबन्ध काव्यों में केवल कथा का विस्तार ही उपलब्ध होता है प्रलंकार और वस्तुवर्णन प्रत्यन्त संक्षेप में प्रांकित रहते हैं। कवियों ने प्रायः अनुष्टुप् छन्द का ही व्यवहार किया है। कथा का विभाजन छः सगं या इससे कम ही सर्गों में पाया जाता है ।
३. दूत या सन्देश काव्य
विप्रलम्भ गार या विरह की पृष्ठ भूमि को लेकर इस कोटि के काव्य लिखे गये हैं । जैन कवियों ने दूतकाव्यों में श्रृंगार रस के वातावरण को नयी काव्य परम्परा द्वारा नयी दिशा और नया मोड़ दिया है। त्याग धौर संयम को जीवन का पाथेय समझने वाले कवियों ने अपनी संस्कृति के उतरवों तथा पार्श्वनाथ और नेमिनाथ तीर्थंकर
१ - हिन्दी अनुवाद सहित दि० जैन पुस्तकालय सूरत से १९५३ में प्रकाशित
२ - हिन्दी अनुवाद सहित दि० जैन पुस्तकालय सूरत से वी० नि० सं० २४७६ में प्रकाशित
३ – उपयुक्त संस्था द्वारा बी० नि० सं० २४५३ में प्रकाशित
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भट्टारक युगीन जैन संस्कृत-साहित्य की प्रवृत्तियां
के जीवनवृत्तों को इन काव्यों में मंकित किया है। शासन था। इस समय गुजरात में भयंकर दुर्भिक्ष विक्रम का नेमिदूत । (ई. सन् १३ वीं शती का पड़ा। राजा वीसलदेव के पास अन्न का प्रभ व मन्तिम चरण). मेरुतग का जैनमेषदत (सन था; अतः प्रजा भूख से तड़पने लगी। जगदशाह ने १३४६-१४१४ ई०), चारित्र सुन्दर गणि का शोल- अन्नदान देकर राजा और प्रजा की रक्षा की। दूत (१५ वीं शती), वादिचन्द्र सूरि का पवन नयचन्द्र के हम्मीरकाव्य में हम्मीर और अलाउद्दीन दूत' (१७ वीं शती), विनयविजय गरिण का खिलजी के बीच सम्पन्न हुए युद्ध की ऐतिहासिक इन्दुत (१८ वीं शती), मेघविषय का मेघद्रत घटना का वर्णन है। भट्टारकों द्वारा बिरचित ग्रन्थों समस्या लेख (१८वीं शती) एवं अज्ञात नाम की प्रशस्तियाँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से कम महत्त्ववाले कवि का घेतोदूत' प्राप्य है। विमलकीत्ति पूर्ण नहीं हैं। प्रायः प्रत्येक काव्य या पुराण के गरण का चन्द्रदूत भी. उक्त विधा सम्बन्धी रचना अन्त में मांकित प्रशस्ति में प्राचार्यों और पट्टों का है । इन समस्त सन्देश काव्यों में साहित्यिक सौन्दर्य इतिहास पाया जाता है । भट्टारकों द्वारा निवड के साथ जीवा व्यापी सत्यों की अभिव्यञ्जना हुई पट्टावलियां और गुर्वावलियां भी ऐतिहासिक तथ्यों है। शील, संयम, तप, त्याग, भावशुद्धि और साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । अर्ध ऐतिहासिक तथ्यों का समन्वय इन काव्यों में पाया जाता है । घोर से युक्त देवदत्त दीक्षित कृत स्वर्णाचल महात्म्य श्रृंगार की धारा को वैराग्य की ओर मोड़ देना (वि० सं० १८४५) का अन्तिम प्रध्याय भी साधारण प्रतिभा का कार्य नहीं है।
भद्रारक परम्परा का इतिहास प्रवगत करने के
लिए उपयोगी है। ४. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ऐतिहासिक साहित्य
५. सन्धान काव्य ऐतिहासिक तथ्यों का प्राधार ग्रहण कर संस्कृत भाषा में एक ही वस्तु के अनेक पर्यायकाव्य लिखने की परिपाटी संस्कृतकाव्यपरम्परामों वाची शब्द और एक ही शब्द के अनेक प्रर्थ पाये में कोई नबीन नहीं है । भट्रारक और कवियों ने जाते हैं । सन्धानात्मक काव्यों के साथ अनेका अपने पाश्रयदाता अथवा अनन्य भक्तों की कीत्ति को यकस्तोत्र भी इस युग में रचे गये। कहा जाता है कि अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उनके तथ्य पूर्ण एक बार सम्राट अकबर की विद्वत्सभा में जनों के जीवनवृत्तों को रोचक भाषा में निबद्ध किया है. कवि 'एगस्स सुत्तस्त मनन्तो प्रत्यो' वाक्य का किसी ने सर्वानन्द ने अपने जगह चरित में बताया है कि उपहास किया। यह बात महोपाध्याय समयसुन्दर वि० सं० १३१२-१३१५ में गुजरात में बीसलदेव, को बुरी लगी और उन्होंने उक्त सूत्रवाक्य की मालवा में मदनबर्मा भोर काशी में प्रतापसिंह का सार्थकता बतलाने के लिए 'राजानो ददते सौख्यम्'
४-जैन प्रेस, कोटा, वि० सं० २००५ में प्रकाशित ५-न मात्मानन्द सभा. भावनगर.वि० सं० १९८० में प्रकाशित ६-यशोविजय प्रययाला, वाराणसी ७-हिंदी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई, सन् १९१४
-जैन साहित्य वर्षक सभा, शिरपुर (पश्चिम खानदेश) वि० सं० १९४६
-न पात्मानंद सभा, भावगनर, वि० सं० १९७० १०-उपयुक्त संस्था द्वारा वि.सं. १९८० में प्रकाशित ११-मात्मानन्द जैन सभा, पम्बाला सिटी, १९२५ ई.
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति मंथ . के १.२२४०७ अर्थ किये । वि० सं० १६४६ कवि का प्रश्नोत्तर माला काव्य और दिबाकर मुनि श्रावण शुक्ला त्रयोदशी को जब सम्राट ने काश्मीर का भृगारवैराग्यतरंगिणी काव्य (१५ बी पाती) का प्रथम प्रयास किया तो उसने प्रथम शिविर रुचिकर रचनाएं हैं। भट्टारक सफलभूषण विरचित राजा श्री रामदास की वाटिका में स्थापित किया। उपदेशरत्नमाला में तप, दान, पूजा, स्वाध्याय प्रादि यहां सन्ध्या के समय विद्वत्सभा एकत्र हुई जिसमें का सुन्दर चित्रण किया गया है। उनका समय सम्राट अकबर, शाहजादा सलीम, अनेक सामन्त, वि. सं.की १५वीं शतो है । जयसेन सरिकत कवि, वैयाकरण एवं तार्किक विद्वान् सम्मिलित धर्मरलाकर भी सूक्तिकाम्य है । कुलभद्र का सारथे । कविवर समयसुन्दर ने अपना यह ग्रन्थ पढ़- समुच्चय, धर्मनीति प्रधान सूक्तिकाव्य है । कवि ने कर सुनाया जिसे सुनकर सभी सभासद माश्चर्य नीति और ज्ञान की बातें मर्मस्पर्शी शैली में व्यक्त चकित हुए। कवि ने उक्त प्रों में से असम्भव या की हैं:योजनाविरुद्ध पड़ने वाले प्रों को निकालकर इस
नास्तिकामसमो व्याधिर्नास्ति मोह समो रिपुः । प्रन्थ का नाम 'प्रष्टलक्षी' रखा । मेघविजयगणि
नास्ति क्रोधसमो बन्हिर्नास्ति ज्ञानसमं सुखम् ॥२७॥ का 'सप्तसन्धान, काव्य भी इस युग को अमूल्य
विषयोरगदष्टस्य कषाय विषमोहितः । रचना है । भट्टारकों ने सन्धानात्मक-काव्य प्रवृत्ति
संयमो हि महामन्त्रस्त्राता सर्वत्रदेहिनाम् ॥३०॥ का अनुसरण नहीं किया है।
धर्मामृतं सदा पेयं दुःखातविनाशनम् । -सूक्ति-साहित्य-प्रवृत्ति--उपदेश, नीति और यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥६३॥ प्रेम सम्बन्धी काव्यों को सूक्ति या सुभाषित काव्य कहा जाता है। लोकवृत्त अथवा नैतिक शिक्षा का ७. स्तोत्र और पूजा-भक्ति साहित्यनिरूपण काव्य की अनुरंजनकारिणी भाषा में भट्टारक-युग में इस श्रेणी के साहित्य का सम्पन्न होने से यह काव्यविद्या भी सहृदयों को सर्वाधिक सृजन हुआ है। इस प्रकार के साहित्य में अपनी मोर प्राकृष्ट करती है । शर्करामिश्रित परमात्मा, परमेष्ठी या अन्य देवी देवतामों का प्रौषधि के समान काव्य चमत्कार उत्पन्न करना स्तवन, पूजन या भक्ति पाख्यान वरिणत रहते हैं। सूक्ति काव्य का लक्ष्य होता है । यों तो मुक्ति काव्य जैन दर्शन में भक्ति का रूप दास्य, सत्य और माधुर्य के अनेक भेद-प्रभेद किये जा सकते हैं, पर प्रधान भाव से भिन्न है। क्योंकि कोई भी साधक अपनी रूप से धामिक मुक्तिकाव्य, नैतिक सूक्तिकाव्य चिकनी चुपड़ी प्रशंसात्मक बातों द्वारा वीतरागी और काम या प्रेम परक सूक्तिकाव्य ये तीन उसके प्रभू को प्रसन्न कर उनकी प्रसन्नता से अपने किसी उपभेद हैं । इन काव्यों में लोकवृत्तानुकूल उपदेश एवं लोकिक या अलौकिक कार्य को सिद्ध करने का ऐहिक जीवन को मुखी बनाने वाले सिद्धान्त काय्य उद्देश्य नहीं रखता है और न परम वीतरागी देव चमत्कारों के साथ निबद्ध रहते हैं। सूक्तियों में के साथ यह घटित ही हो सकता है। यतः वीतइस की समस्त विशेषताएं और चमत्कृति के समस्त रागी मात्मानों की उपासना या भक्ति का उपकरण समाहित पाये जाते हैं । शब्द-चमत्कार पालम्बन पाकर मानव का पंचल चित क्षरणभर के और अर्थचमत्कार का जो समवाय मूक्तियों में लिये स्थिर हो जाता है और धाराव्य के गुणों का उपलब्ध रहता है वह प्रबन्ध में नहीं । हमारे इस स्मरण कर भक्त अपने भीतर भी उन्हीं गुणों को अभीष्टयुग में अर्हदास का भव्यजनकण्ठाभरण विकसित करने की प्रेरणा प्राप्त करता है। इस (१३ वी शसी), सोमप्रभ का सूक्तिमुक्तावलि काव्य युग में महाकवि प्राशाधर का जिनयज्ञकल्प ( १३वीं (१३ वीं शती), पद्यानन्द का वैराग्यशतक, विमल शती), ब्रह्मजिनक्षस की जम्मूदीप पूजन, अनन्तव्रत
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भट्टारक युगीनं जैन संस्कृत-साहित्य की प्रवृत्तियाँ
११७ पूजन, मेघमालोद्यापन पूजन, ( १५वीं शती ); प्रह- इन नाटकों में नवीन शैली या नवीन भावों का श्रुतसागर का अतस्कन्ध पूजन (१६वीं शती) समावेश नहीं हो सका है। गुणचन्द्र का अनन्तजिनयत पूजन ( १७वीं शती) ।
१. चरित्र या प्राचारमूलक धार्मिक साहित्यशिवराज का षट्चतुर्विंशतिजिनार्चन (१७वीं शती)
प्रवृत्तिचन्द्रकीति के पंचमेरु पूजन, अनन्तवत पूजन और । नन्दीश्वर विधान (१७वीं शती) विद्याभूषण के
इस प्रवृत्ति के साहित्य-निर्माताओं में भट्टारक ऋषि मण्डल पूजन, बृहत् कलिंकुण्ड पूजन और
सकलकीति, शुभचन्द्र, सकलभूषण, ज्ञानभूषण,
धर्मकीति, मेधावी, सोमकीति, रायमल्ल नेमिदत्त, सिद्धचक्र मन्त्रोद्धार स्तवन पूजन (१७वीं शती) बुधवीरु के धर्मचक्र पूजन और बृहत् चक्र पूजन
जिनदास और ज्ञानकोक्ति प्रादि प्रमुख हैं। इस
प्रवृत्ति में श्रावकाचार या चारित्रोत्थानक तत्त्वज्ञान (१६वीं शती) विश्वसेन का षण्णवति क्षेत्रपाल पजन (१६वीं शती) सकल कीति के पंचपरमेष्ठि
सम्बन्धी रचनाएँ पाती हैं। 'रलकरण्ड श्रावका
चार' के अनुकरण पर अधिकांश रचनाएँ निमित पूजन, अष्टान्हिका पूजन, पोठशकारण पूजन, और
हुई हैं। पण्डित प्राशाधर जैसे स्वतन्त्र-चिन्तक गणधरवलय पूजन ( १६वीं शती ) एवं अक्षयराम
मनीषी भी इस प्रवृत्ति के अनुसरणकर्ता हैं । इनके का चतुर्दशीव्रतोद्यापन पूजन (१९वीं शती)
सागारधर्मामृत और प्रनगारधर्मामृत इस युग की उल्लेख्य हैं। स्तोत्रों में पद्मनन्दि के बीतराग स्तोत्र,
प्रतिनिधि रचनाएं हैं। अन्य रचनाओं में सकलशान्तिजिन स्तोत्र, रावण पार्श्वनाथ स्तोत्र और
कीति के धर्म-प्रश्नोत्तर श्रावकाचार और मूलाचार जीरावली पार्श्वनाथ स्तवन ( १५वीं शती ) ब्रह्म
प्रदीप ( १५वीं सदी ) ब्रह्मनेमिदत्त का धर्मोपदेश शु तसागर के पार्श्वनाथ स्तवन पौर शान्तिनाथ
पीयूषवर्षी श्रावकाचार (१६वीं सदी ) पद्मनन्दी स्तवन (१६वीं शती ) जिनप्रभमूरि के सिद्धान्तागम
का श्रावकाचार सारोद्वार (१४वों सदो) अम्रदेव स्तव, पार्श्व स्तव, गौतम स्तव, वीर स्तव, चतु
का व्रतोद्योतन श्रावकाचार (अनुमानतः १४-१५वी विशतिजिन स्तव, निर्वाणकल्याण स्तव, ऋषभजिन
शती) नरेन्द्रसेन का सिद्धान्तसार (अनुमानतः स्तवन, अजितजिन स्तवन, नेमि स्तवन, श्री मन्त्र
१३-१४वी शती) गोबिन्द का पुरुषार्थानुशासन स्तवन, श्री शारदा स्तवन और शान्तिजिन स्तवन
(१५वीं शती) शुभचन्द्र का प्रध्यात्म तरङ्गिणी (१४वीं शती ) एवं सकलकीत्ति का परमात्मराज
ग्रन्थ (१६वों रातो) ज्ञानभूषण के सिद्धान्तसार, स्तोत्र ( १५ वीं शती) प्रमुख हैं । व्रतोद्यापन एवं
परमार्थोपदेश और प्रात्मसम्बोधन ( १३वीं सदी) व्रत विधान सम्बन्धी रचनाएं भी इस युग में
एवं सोम मेन का त्रिवर्णाचार उल्लेख्य हैं। निर्मित हुई है।
१०. समत्यापूात्मक साहित्य८. नाटक
__भट्टारक-युग में श्वेताम्बर कवियों ने समस्याजैन संस्कृत-साहित्य में रूपकों का विकास पत्ति को लेकर कई सुन्दर काम्य ग्रन्थों का प्रणयन नवमीं शती से हमा है। माटकों के विकास का किया है। कवि मेघविजयगगि ने नैषध महादृष्टि से सन् ६००-१३०० ई. तक स्वर्णकाल काव्य के प्रथम सर्ग के सम्पूर्ण श्लोकों की समस्यामाना जा सकता हैं । भट्टारक-युग में लिखे गये पूति कर शान्तिनाथ चरित की रचना की है । नाटकों में बादिचन्द्र का ज्ञानसूर्योदय (विक्रम इस काम्य के प्रथम चरण में नैषध के प्रथम चरण संवत् १९४८, माघ शुक्ला अष्टमी ) और यशचन्द्र को, द्वितीय चरण को, तृतीय को तृतीय चरण में का मुद्रित कुमुदचन्द्र प्रसिद्ध हैं। यह सत्य है कि और चतुर्थ में चतुर्थ चरण को नियोजित कर
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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सम्पूर्ण प्रथम सर्ग को समाविष्ट कर दिया है । इस काव्य में यह सर्ग हैं। इसी कवि ने माघ काव्य के 'प्रत्येक श्लोक का अन्तिम चरण लेकर और तीन पाद स्वयं नये रचकर विजयदेवसूरि के afरत को निबद्ध कर देवानन्द काव्य का प्ररणमन किया है । कवि ने माघ के चरणों का नया ही अर्थ निकाला है। माष में जहाँ जहाँ श्लोक के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरण में यमक है वहाँ वहाँ समस्यापूर्तिकार ने यमक रखकर बड़ी चतुराई से पर्यानुसन्धान किया है। भट्टारक कवियों ने भक्तामर स्तोत्र और कल्याण मन्दिर स्तोत्र की समस्या पूत्तियां की हैं ।
११. न्याय दर्शन विषयक प्रवृत्ति
भट्टारक युग में प्रमेयरत्नमाला और तस्वार्थसूत्र पर वृत्तियां लिखने के साथ-साथ न्याय और दर्शन विषयक एकाध स्वतन्त्र रचना भी लिखी गई है | भट्टारक धर्मभूषरणयति का न्यायदीपिका ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी और सारगर्भित है । भट्टारक प्रमोचन्द्र का तत्वार्थरत्नप्रभाकर ( १५ वीं शती) तस्वार्थबोध के लिये प्रवेशद्वार है । भट्टारक शुभचन्द्र का संशयवदनविदारण और कारण रगच्छीय शुभचन्द्र का पड्दर्शन प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश जैन न्याय की सुन्दर रचनाएं हैं ।
१२. संहिता विपयक विविध साहित्य
जैन साहित्य में दो प्रकार के जीवन मूल्य दृष्टि गोचर होते हैं । प्रथम वे जीवन मूल्य हैं जो भौतिक, शारीरिक सम्पत्ति तथा सुखभोग के त्याग से सम्बन्ध रखते हैं और दूसरे ऐहिक सुखभोग के साधनों को प्राप्त करने के लिये तन्त्र-मन्त्र ज्योतिष एवं श्राराधना के उपयोग पर जोर देते हैं । प्रकान्तात्मक जैन दृष्टि उक्त दोनों प्रकार के जीवन-मूल्यों का समन्वय प्रस्तुत कर अन्तिम लक्ष्य त्याग या निवृत्ति को ही महत्व देती है । विजयप के भाई नेमिचन्द्र का प्रतिष्ठा तिलक ( प्रानन्द संवत्सर (वि० सं० १३ वीं सदी ) विजयप के पुत्र
समन्तभद्र का केवलज्ञान प्रश्नचूड़ामणि (१३ वी शती) प्रकलंक देव की प्रकलंक सहिता (प्रनुमानसः १५ वीं शती) माषनन्दि की माधनन्दि संहिता ( अनुमानतः १३-१४ वी शती) सिंहनन्दि का व्रततिथि निर्णय ( १७ वी शती) चन्द्रसेन सुनि का केवलज्ञान होरा (धनुमानतः १६ वीं शती) भद्रबाहु संहिता ( १५ वीं शती) मल्लिषेरण के काम चाण्डाली कल्प, ज्वालामालिनी कल्प मौर भैरव पद्मावती कल्प (१३ बीं शती) धर्मदेव का शान्तिक विधि ग्रन्थ ( १५ वीं शती) ऐम्पपार्य का जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय ( वि० सं० १३७६ सिद्धार्थ संवत्सर) इस प्रवृत्ति की प्रतिनिधि रचनाएं हैं । यन्त्र-मन्त्रों के कई संग्रह भी इस युग के भट्टारकों ने लिखे हैं । जैन सिद्धान्त भवन द्वारा ने यन्त्र-मन्त्र संग्रह मन्त्र अनुष्ठान एवं मन्त्र समुच्चय प्रभृति कई कई रचनाए उपलब्ध हैं। इन रचनाओंों के रचयिताओं के सम्बन्ध में इतिवृत्त उपलब्ध नहीं हैं ।
१३. पुराण और कथा साहित्य - इस प्रवृत्ति का पूर्ण विकास भट्टारक-युग में हुआ है । श्रुत सागर सूरि की षोडशकारण कथा, मुक्तावलि कथा, मेरुपंक्तिकथा, लक्षण पंक्ति कथा, मेघमाला, सप्तपरमस्थान, रविवार, चन्दनवष्ठि, प्राकाशपंचमी, पुष्पांजलि, नि.शत्य सप्तमी, श्रावण द्वादशी, रत्नत्रय प्रादि २३ व्रत-कथाएं इनके व्रतकथाकोष में निबद्ध हैं । श्रुतसागर उत्तमश्रेणी के कथाकार हैं। इनका समय वि० सं० १५००-१५७५ के मध्य है । कवि जिनदास का व्रत कथा कोष (१५-१६ वीं शती) ब्रह्मनेमिदत्त का प्राराधना कथाकोष (१६ वीं शती) और ललित कीति की नन्दीश्वरव्रत कथा, अनन्तव्रत कथा, सुगन्ध दशमी कथा, रत्नत्रय व्रत, प्राकाश पंचमी कथा, धनकलश कथा, निर्दोष सप्तमी कथा. लब्धि विधान कथा, पुरन्दर कथा, कर्मनिर्जरा कथा, मुकुट सप्तमी कथा, चतुर्दशी कथा, दश लक्षण व्रत कथा, पुष्पांजलिव्रत कथा, अक्षय निधि दशमी कथा निःशल्याष्टमी व्रत विधान कथा, सप्त परमस्थानकया तथा षटरस कथाएं उल्लेखनीय हैं। इनका
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भट्टारक युगीन जैन संस्कृत-साहित्य की प्रवृत्तियाँ
समय अनुमानतः विक्रम की १९ वीं शती है । arrer की मौनव्रत कथा ( १७वी शती) सोमकीर्ति की सप्तव्यसन कथा समुच्चय ( १६वीं शती) भी इस युग की प्रतिनिधि रचनाएं हैं। पुराणों में केशव सेन का कर्णामृत पुराण ( माघ वि० सं० १६८८), सकलकीर्ति का पार्श्वनाथ पुराण (१६वीं शती) ब्रह्म कामराज का जयपुराण (वि० सं०) १५६०, शुभचन्द्र का पाण्डव पुराण (वि० सं० १६०८) ब्रह्म कृष्णदास का मुनिसुव्रत पुराण (१७वीं सदी) शिवराम का भ्रष्टम जिनपुराण संग्रह (१७वीं सदी) चन्द्रकीति के पार्श्वपुराण और ऋषभपुराण, श्रीभूषण के पाण्डव पुराण शांतिनाथ पुराण वंश पुराण ( १७वीं सदी) धर्मकीत्ति का पद्मपुराण एवं प्ररुणमणि का अजितनाथपुराण (१८वीं शती), सुन्दर पौराणिक कृतियाँ हैं ।
१४. टीका टिप्परण विषयक साहित्य - भट्टारक युग में टीका टिप्पण विषयक साहित्य प्रवृत्ति का पर्याप्त पल्लवन हुमा है । सहस्रकीति की त्रिलोकसार टीका (१५वीं शती) प्राशाधर की भूपालचतुविशति टीका और मूलराधना दर्परण (१३वीं शती) सोमदेव की त्रिभंगोसार टीका (१७वीं शती) नेमिचन्द्र की द्विसन्धान काव्य की पदकौमुदी टीका (१७वीं सदी) शुभचन्द्र की स्वामि कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा संस्कृत टीका (वि० सं० १६१३ ) और पाश्र्वनाथ काव्य पंजिका, योगदेव की सुखबोध वृत्ति ( १७वीं सदी) ज्ञानभूषरण और सुमतिकीति की कर्मकाण्ड टीका (१५वीं शती) ज्ञान भूषरण की नेमि निर्वाण पंजिका (१६वीं शती) कमल कीर्ति की तस्वसार टीका (१६वीं सदी) श्रीदेव की यशोधर काव्य पंजिका (१५वीं सदी) काष्ठान्वयी प्रभाचन्द्र की तस्वार्थरन प्रभाकर टीका ( १५वी सदी ) पण्डित प्रभाचन्द्र की पंचास्तिकाय प्रदीप और द्रव्यसंग्रह- वृत्ति एवं तोड़ानगर के राजा मानसिंह के मंत्री वादिराज की वाग्भटालंकार प्रवरि
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कविचन्द्रिका (वि० सं० १४२९) प्रसिद्ध टोका रचनाएं हैं । श्रुतसागर सूरि ने इस युग में यशस्तिलक 'चन्द्रिका तत्वार्थवृत्ति' जिनसहस्रनाम टीका, महाभिषेक टीका, षटपाहुड टीका, सिद्धभक्ति टीका, सिद्धचकाष्ट टीका और तत्वत्रय प्रकाशिका ये भाठ प्रसिद्ध टीकाएं लिखी हैं । धर्मशर्माभ्युदय श्रीर चन्द्रप्रभचरित पर टिप्पण भी इस युग में लिखे गये हैं ।
१५. कोष, छन्द और अलङ्कार
अलंकार, छन्द और कोष आदि विषयों पर इस युग में अल्प रचनाएं हो प्रस्तुत हुई हैं । श्रीधर का विश्वलोचन कोष (१६ वीं शती) कोष विषयक उत्तम रचना है । यह अपने विषय में भ्रमर कोष और मेदिनी से भी उत्तम एवं बहुमूल्य कृतिमान जा सकती है । अलंकार ग्रन्थ में विजयकीति के शिष्य विजयवर्गी की श्रृंगाराव चन्द्रिका (धनुमानतः १३-१४ वीं शती) अमृतनन्दि का प्रलंकार संग्रह ( १३ वीं शती), अजितसेन का अलंकार चिन्तामरिण ग्रन्थ ( १४वीं शती), अभिनव वाग्भट का काव्यनुशासन ( १४ वीं शती) एवं भावदेव का काव्यालंकार सार (१५ वीं शती) श्र ेष्ठ अलंकार रचनाएं हैं। छन्द विषय पर वाग्भट की एक रचना छन्दोऽनुशासन नाम की उपलब्ध है । यह रचना काव्यानुशासन के पूर्व में ही लिखी गई है । इस छन्द ग्रन्थ में संज्ञाध्याय, समवृत्ताख्य, प्रर्धसमवृत्ताख्य मात्रामक और मात्रा छन्दक ये पांच अध्याय हैं। मंगलाचरण में लिखा है:
विभुं नामेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । श्री मन्नेमिकारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः ।
इस प्रकार भट्टारक युग में विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास होता रहा । ग्रन्थ बाहुल्य की दृष्टि से तो इस युग का महत्व है ही, पर विविध विषयक रचनाओं की दृष्टि से भी इस युग का कम महत्व नहीं ।
11:11
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अन्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।। अर्थ-महर्षि व्यास ने अपने अठारह पुराणों में केवल दो ही बात
कही हैं । परोपकार से पुण्य होता है और दूसरों को कष्ट देने से पाप होता है।
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पंचकल्याणक तिथियों और नक्षत्र
भी मिलापचद्रजी कटारिया, केकड़ी पीकरों की पंचकल्याणकतिथियां लंबे उसमें गर्भकल्याणक की तिथियें न होनेसे इसमें भी
॥ प्ररसे से गड़बड़ में चली पा रही हैं। नहीं हैं । इस संभावना की पुष्टि इससे भी होती है इन तिथियों की उपलब्धि के खास स्थान पूजापाठ कि इसही हरिवंशपुराण पर्व १६ में भगवान् के नथ हैं। किंतु संस्कृत में लिखी बीवीसतीर्थकरों मुनिसुव्रत का चरित्र लिखा है वहां उनके कल्याणकों की-पूजायें तो प्रचलित हैं नही, हिंदी पद्यों में रची की जो तिथियें दी हैं वे इसके ६.३ पर्व में दी हुई भाषापूजामों का ही इस समय अधिक प्रचार है। मुनिमुव्रत की कल्याणक तिथियों से नहीं मिलती इन भाषापूजामों में उल्लिखित कई पंचकल्याणक- है। यथातिथियें प्रापसमें एक दूसरे से मिलती नहीं हैं । यह पर्व ६० मेंतो निश्चित है कि भाषापूजामों में दी हुई सिथियों
दीक्षातिथि-वैशाखबुद ६ (श्लोक-२२६) के प्राधार कोई प्रचीन संस्कृतप्राकृत के प्रथ रहे
ज्ञानतिथि-फागुणबुद ६ (श्लोक-२५७) हैं। इसलिये हम भी प्रकृतविषय में भाषापूजानों को
मोक्षतिथि-फागुणबुद १२ (श्लोक-२६७) एक तरफ रखकर इस संबंध के अन्य प्राचीन
जन्मतिथि-पासोजसुद १२ (श्लोक-१७५) संस्कृतप्राकृत के ग्रंथोंपर विचार करना उचित समझते हैं।
पर्व १६ मेंहमारी जानकारी में इन तिथियों के प्राचीन
काती सुद ७ (लोक-१२)
मगसरसुद ५ (श्लोक ६४) उल्लेख त्रिलोकप्रशप्ति, हरिवंशपुराण और उत्तर
माघसुद १३ (श्लोक-७६) पुराण इन ३ ग्रंथोंमे मिलते हैं । किंतु तीनों ही
माघसुद १२ (श्लोक-१२) ग्रंथोंकी कई तिथियें भी आपस में मिलती नहीं हैं। इनमें से त्रिलोकप्राप्ति मौर हरिवंशपुराण में सिर्फ इस प्रकार एक ही प्रकार के एक ही पंचमें चार ही कल्याणकों की तिथियां दी हैं, गर्भकल्या- मुनिसुव्रत के कल्याणकों की भिन्न भिन्न तिथियों एक की तिथियों का कोई उल्लेख ही नहीं है। न का कथन होना विद्वानों के सोचने की चीज है। जाने इसका क्या कारण है । पर हरिवंशपुराण में ऐसा भी है कि उसके ६० वें पर्व में जहां कि तीर्थंकरों
हरिवंशपुराण के ६०वें पर्व में जिस प्रकार के अनेक ज्ञातम्य विषयों का विवरण दिया है वहां ।
सीकरों के अनेक ज्ञातव्य विषयों का विवरण तो गर्भकल्याणक की तिथियों का यतई कथन नहीं
दिया है । उसी प्रकार पदमपुराण पर्व २० में भी है। किंतु इसी प्रथमें जहां ऋषभदेव, मुनिसुव्रत, दिया है। किंतु पद्मपुराण में वहां किसी भी नमिनाथ और महावीर इन चार तीर्थकरों का तीयकरको कल्याणक तिथियों का कोई उल्लेख चरित्र लिखा है वहां इन की गर्भकी तिथिये भी '
नहीं है। सिर्फ नक्षत्र दिये हैं। लिसदी हैं। इससे ऐसा जान पड़ता है कि ६ • वे पब हमको यह देखना है कि-कल्याणकों की पर्वका यह कथन जिनसेन ने शायद किसी अन्य प्रथ जो तिथि उक्त तीनों ग्रंथों में भिन्न भिन्न रूप से से प्रर्य रूप से ज्योंका त्यों उदधत किया है। इसलिये पाई जाती हैं। उनमें से कौन तिथि प्रमाण यानी
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य
सही मानी जाबे और कौन नहीं। इसके लिये नक्षत्र दिये गये हैं। गर्भकल्याणक के तिथि नक्षत्र पौर नहीं तो भी यह तो अवश्य विचारणीय है कि नहीं लिखे हैं । इस प्रप में लिखी तिषियों के साथ उस तिथि के साप जो नक्षत्र लिखा है वह उस अब हम इसमें लिखे नक्षत्रों का मिलान करते हैं तो तिथि से मेल खाता है या नहीं। अगर मेल नहीं अनेक जगह तिथियों के साप नक्षत्र नहीं मिलते खाता है तो अवश्य ही या तो वह तिथि गलत है है। नमूने के तौर पर नीचे की तालिका देखियेया वह नक्षत्र गलत है । इसमें कोई संदेह नहीं। जन्म कल्याणकक्योंकि ज्योतिषशास्त्र का यह नियम है कि हर संभवनाथ-मगसर सुद १५ ज्येष्ठा । सुमतिमाथमास की पूर्णिमा या उसके अगले पिछले दिन में बावरण सुद ११ मघा । उस मास का नाम वाला नक्षत्र जरूर भाता है। दीक्षा कल्याणकजैसे चैत्र मासकी पूणिमा या उसके अगले पिछले
धर्मनाथ-भादवासुद १३ पुष्य । पुष्पदंत-पोस दिन में चित्रा नक्षत्र मावेगा। वैशाख की पूणिमा सूद ११ अनुराधा । को विशाखा नक्षत्र प्रावेगा। ज्येष्ठा की पूर्णिमा
झान कल्याणक-. को ज्येष्ठा नक्षत्र पावेगा। इत्यादि । वास्तव में
सुमतिनाथ-पोस सुद १५ हस्त । विमलनाथमासों के नाम ही मासांत में माने वाले नक्षत्रों के
पोस सुद १० उत्तराषाढ । कारण पड़े हैं । जिस पूर्णिमा को जो नक्षत्र है उसके प्रागे के नक्षत्र जिस क्रम से उनके नाम है। मोक्ष कल्याणकउसी क्रम से अगली प्रत्येक तिथि में प्रायः प्रत्येक
विमलनाथ-असाढ मुद ८ पूर्वभाद्रपद । मल्लि. नक्षत्र नंबर वार माता जावेगा। जैसे चैत्र सद१५ नाथ-फागण बुद ५ भरणी। को चित्रा नक्षत्र है तो वैशाख बुद १० को यात्रिलोक प्राप्ति में ria
त्रिलोक प्रज्ञप्ति में इनके अलावा और भी उसके अगले पिछले दिन में चित्रा के बाद का तिथि नक्षत्र अनमेल है। जिन्हें लेख विस्तार के १० वा नक्षत्र शतभिषा भावेगा । इस हिसाब से भय से यहां हम लिखना नहीं चाहते । उक्त सदा ही तिथियों के साथ किन्ही निश्चित नक्षत्रों तिथियों के साथ उक्त नक्षत्रों की संगति किसी भी का सम्बन्ध पाया जा सकेगा । हाँ कभी कभी एक तरह नहीं बैठ सकती है। अतः त्रिलोक प्राप्ति की या दो नक्षत्रों का प्रागा पीछा भी हो सकता है। ये तिथियां और नक्षत्र परस्पर अवश्य ही गलत हैं इसके लिए कोई सा भी नया पुराणा किसी भी इसमें कोई सन्देह नहीं है । त्रिलोक प्रज्ञप्ति की वर्ष का पंचांग उठाकर देख लीजिए । इस गणना तिथियों के गलत होने में एक दूसरा हेतु भी है । के अनुसार हम जान सकते है कि प्रमुक मास की वह यह है कि त्रिलोक प्रज्ञप्ति में थी मल्लिनाथ प्रमुक तिथि को प्रमुक अमुक नक्षत्र ही हो सकते स्वामी का दीक्षा लिये बाद छदमस्थ काल ६ दिन है। दसरे नहीं। जबकि हमारे यहां कल्याणकों का बताया है। अर्थात दीक्षा लिये बाद ६ दिन में की हरतिथि के साथ नक्षत्र भी दिया गया है तो उनको केवल ज्ञान हमा है। किन्तु इसी त्रिलोक इस कसोटीको लेकर हम क्यों न जांच करलें कि प्रज्ञप्ति में मल्लिनाथ की दीक्षातिथि मगसरसुद ११ किस ग्रंथ की तिथियां उनके साथ में लिखे नक्षत्रों की और केवल ज्ञान तिथि फागण बुद बारस की से मिलती है और किसकी नहीं ? उक्त प्रथों में लिखी है। दोनों में प्रन्तर ढाई मास का पड़ना सबसे प्राचीन त्रिलोक प्रज्ञप्ति ग्रंथ माना जाता है। है जबकि अन्तर पड़ना चाहिए ६ दिन का ही। प्रतः पहिले इसी को जांच करते हैं । इस ग्रंथ में इसी तरह उनमें लिखा अन्य भी कम तीर्थंकरों का चार कल्याणकों की तिथियां और उनके साथ यह घमस्थकाल उनकी तिथियों के साथ मेल नहीं
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पंचकल्याक तिथियों और नक्षत्र
खाता है। त्रिलोक प्रशप्ति जैसे प्राचीन ग्रंथ का इस प्रकार का पूर्वापर विरोध कथन अवश्य ही चिन्तनीय है।
इसी तरह हरिवंश पुराण में उल्लिखित तिथिनक्षत्र भी कहीं कहीं धनमेल रहते हैं। जिनका विवरण सेखवृद्धि के भय से यहां छोड़ा जाता है। हरिवंशपुराण में जन्म और मोक्ष इन दो कल्याणकों के ही नक्षत्र दिये हैं। शेष कल्याणकों के नक्षत्र शायद इसलिये नहीं दिये कि उनके नक्षत्र भी वे ही हैं जो जन्म के हैं। कल्याणकों के नक्षत्रों का अनायास ही कुछ ऐसा योग बनगया है कि प्रायः प्रत्येक तीर्थंकर के पांचों कल्याणक एक ही नक्षत्र में होगये हैं । जैसे ऋषभदेव के सभी कल्याणक उत्तरापाठ में हुये हैं। अजितनाथ के सभी रोहिणी में हुये हैं इत्यादि । कहीं कुछ मामूली फर्क भी जिसका विवरण लेखा के अन्त में दिये नक्शे से ज्ञात कर सकते हैं।
इतीमा वृषभादीनां पुष्यत्कल्याणमालिकाम् करोति कंठे भूषां यः सः स्यावासायरेडितः ॥ ३५ ॥
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तिथियों के अनुक्रम से किया है जिससे लिपिकारों के द्वारा भी कोई गल्ती होने की संभावना नहीं रहती है और न किसी शब्द के विभिन्न अर्थ करने की गुंजाया ही ।
इससे निश्चय ही यह पं० प्राशावर की कृति है। इसमें भाषाधर ने पंचकल्याणकों की जो मास पक्ष तिथियाँ दी हैं में सब उत्तरपुराण के अनुसार ही हैं और खूबी यह की है फि बन मास-पक्ष
हो कहीं २ कल्याणमाला और मुद्रित उत्तर पुराण की तिथियों में भी कुछ भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। उस पर भी यहां विचार कर लेना । समुचित है। दोनों को तिथिभिन्नता निम्न प्रकार है
चंद्रप्रभ का
गोक्ष
धर्मनाथ का
गर्भ
मल्लिनाथ
का ज्ञान
जब हम आचार्य गुणभद्रकृत उत्तर पुराण में लिखे तिथि नक्षत्रों में मेल की जांच करते हैं तो उन्हें हम एक दम सही पाते हैं। यहां तिथियों के साथ जो नक्षत्र दिये गये हैं वे व्योतिष सिद्धांत की गणना के अनुसार बरावर बैठते चले जाते हैं। पार्श्वनाथ कहीं कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है। ये मास पक्षतिथियाँ इतनी प्रामाणिक है कि पं० प्राशाघर जी ने इन्हीं को अपनाई है। प्रशाधरजी ने एक कल्याणमाला नामक पुस्तिका निर्माण की है जो सिर्फ २५ श्लोक प्रमाण है। वह माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला "सिद्धांतसारादिसंग्रह" के साथ छपी है । उसका धन्तिम पद्य यह है
का ज्ञान
अरनाथ का
गर्भ
मुद्रित उत्तर
पुराण में
फागुण सुद ७ ज्येष्टा
वैशाख सुद
१३ रेवती
फागुण बुद ३ रेवती
मगसर
सुद ११
तबुद १४ विशाला
कल्पारणमाला
में
फागुण बुद ७
वैशाख
बुद १३
फागुण सुद ३
पोस बुद २
तबुद ४
इसमें से जो तिथियें कल्याण माला की हैं वे सही हैं। क्योंकि जो नक्षत्र ऊपर उत्तरपुराण में दिये हैं उनकी संगति कल्याणमाला की तिथियों के साथ बैठती है, मुद्रित उसर पुराण की उक्त तिथियों के साथ नहीं । अतः उतरपुराण की उक्त तिथियों के प्रतिपादक श्लोक लिपिकारों के प्रमाद से शुद्ध लिखने में घागये हैं। ऐसा ज्ञात होता है। इसमें से शुक्लपक्ष का अंतर तो हो जाना घासान ही है और जो मल्लिनाथ के ज्ञानकल्याण की तिथि । में अंतर है वहां भी पोस बुद २ की मिति ही सही है क्योंकि उत्तरपुराण में मल्लिनाथ का संयम अवस्था का दीक्षा दिन मगसर सुद ११ का लिखा
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ । है । प्रत दीक्षा से ६ दिन बाद पोस बुद २ को इन्हे! तिथि नहीं लिखी है । अब रही मुनिसुव्रत की जन्मकेवल ज्ञान हमा यह सिद्ध होता है देखो उत्तरपुरारण तिथि की बात सो ३,५..१८, २४ इन चार तीर्थपर्व ६६ फ्लोक ५१-५२ । इनका हिन्दी अनुवादकों के करों को छोड़कर बाकी के तीर्थंकरों की अपनी संगति पूर्वक ठीक अर्थ नहीं देकर-जन्म की तरह ही अपनी तप की जो तिथि है वही. जन्म की तिथि है अर्थात् मगसर सुदी ११ पर्थ कर दिया है किन्तु इस तरह मुनिसुव्रत की जो तप की तिथि वैशाख दोनों श्लोक युग्म हैं उनका अर्थ यह होना चाहिए युदो १० दी है वही जन्म तिथि हो जाती है इसलिए कि जन्म की तरह के ही दिनादि (मगसर सुदी ११), उसे प्रलग से नहीं दिया, हो।। में छापस्थ्य काल के ६ दिन बीतने पर अर्थात् पोप इस प्रकार प्राद्ध पाठों की वजह से जो उतर. वुदी २ को केवल ज्ञान हुमा।
पुराण की कुछ तिथियों में गड़बड़ पड़ी.हई थी वे रहा पार्श्वनाथ के ज्ञान कल्याणक की तिथि शुद्ध तो करली गई किन्तु फिर भी एक चीज का में अंतर सो यहां भी मुद्रित उत्तरपुराण के पर्व हल होना बाकी रह गया कि उत्तर पूराण की ७३ श्लोक १४४ में उल्लिखित चैत बुदी १४ की कुछ एक तिथियों की संगति उनके साथ में लिखे
नक्षत्रों से नहीं बैठती है। नीचे हम उसी पर मिति वाला "चतुर्दश्यां" पाठ अशुद्ध है इस तिथि
विवेचन करते है :के साथ विशाखा नक्षत्र का मेल बैठता नहीं है इस वास्ते पाठ भी "चतुर्य्या च" चाहिए ! चैतबुदी (१) प्ररनाथ के सब कल्याणक रेवती नक्षत्र ४ को विशाखा नक्षत्र की संगति भी भली प्रकार में हुए हैं किन्तु ज्ञानपीठ से प्रकाशित उत्तर पुराण बैठ जाती है। पार्श्वनाथ के सभी कल्याणक पर्व ६५ श्लोक २१-"मार्गशीर्षे सिते पक्षे पुष्यविशाखा नक्षत्र में हुए हैं अतः इनके ज्ञान कल्याणक योगे चतुर्दशी. अर्थात् प्ररनाथ का जन्म मगसर में भी जो विशाखा बताया है । वह ठीक है उसका सुदी १४ पुष्य नक्षत्र में लिखा है यहां तिथि के मेल चौथ के साथ ही बैठता है १४ के साथ नहीं साथ नक्षत्र का मेल बैठना नहीं है प्रतः यह पाठ प्रतः चतबुदी १४ ही ज्ञानकल्याणक की तिथि है। प्रशुद्ध है शुद्ध पाठ 'पुष्ययोगे' के स्थान में 'पूष
योगे' होना चाहिए तब उसका अर्थ रेवती नक्षत्र इस प्रकार कल्याण माला की तिथियों और
होता है क्योंकि रेवती' का स्वामी देव 'पूषा' माना उत्तर पुराण की तिथियों में जो मामूली फक था गया है। पुष्पदंत कृत अपभ्रस महापुराण भाग २ वह भी रफा होकर दोनों प्रथों को सब ही तिथियां पृ. ३२८ पर भी "पूस जोइ चउ दह मइ बासरि" बराबर बराबर मिल जाती हैं । मुद्रित उत्तर पाठ दिया है और टिप्पण में भी "पूस जोइ का पुराण में संभवनाथ की दीक्षा तिथि और मुनि- अर्थ "रेवती" नक्षत्र ही किया है। सूत्रत की जन्म तिथि का उल्लेख नहीं है ऐसा हस्तलिखित प्रतियों में उक्त तिथि सूचक पाठ छूट जाने
यहां यह बात ध्यान में रखने की है कि उत्तर से हुआ है। वर्ना गुण भद्र स्वामी ने जब सबकीही पुराण में सभी तीर्थंकरों के जन्म कल्याण के कल्याणक तिथियें दी हैं तो वे इन दो तिथियों को न नक्षत्र बताते हुए नक्षत्र का नाम न लिखकर उसके दें ऐसा कैसे हो सकता है। प्रथवा इसका कारण स्वामी देव का नाम ही लिखा गया है। यह हो कि संभवनाथ का मृगशिर नक्षत्र तो निश्चित (१) नमिनाथ के सब कल्याणक अश्विनी है ही और नियमतः यह नक्षत्र मगसर सुदी १५ नक्षत्र में हुए हैं किन्तु मुद्रित उत्तर पुराण में इनका को प्राता ही है प्रत यह तिथि बिना बताये स्वत: जन्म पर्व ६९ श्लोक ३० में 'पापाढे स्वाति योगे' ही सिद्ध हो जाती है इस खयाल से ग्रंथकारने यह प्रर्थात् प्राषाढ वद १० स्वाति नक्षत्र में लिखा हैं
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पंचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र
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यहां भी तिथि के साथ नक्षत्र का मेल इस तरह की गल्तियां अन्य कई हस्त लिखित बनता नहीं है प्रतः यह पाठ प्रशुद्ध है। शुद्ध पाठ प्रथों में भी देखने को मिलती हैं। और शुद्ध पाठ 'पाषाऽश्विनी योगे होना चाहिए अर्थात् 'स्वाति, को अशुद्ध बना दिला जाता है । इसका एक उदा. की जगह अश्विनी होना चाहिए। भाषाढ बद १० हरण इस लेख में ऊपर भी बताया गया है कि के साथ अश्विनी को संगति वैठ जाती है। यहां
"प्राषाऽश्विनी योगे" यह शव पाठ था जिसका यह शंका नहीं करनी चाहिए कि प्रथकार ने "भाषाढे स्वातियोगे" ऐसा प्रशुद्ध बना दिया गया जन्म नक्षत्रों में तो नक्षत्र के स्वामी देव के नाम है। यह हम इस लेख में ऊपर लिख चुके हैं कि
पविती नाम दिया प्रायः प्रत्येक तीर्थकर के अपने अपने पांचों कल्याणक इसका उत्सर यह है कि पश्विनी नक्षत्र के स्वामी अधिकतर एक ही नक्षत्र में हये हैं। इस प्रपेक्षा से देव का नाम भी अश्विनी ही है।।
भी वासुपूज्य के गर्भजन्म की तरह शेष तीन
कल्याणक भी शतभिषा में ही होने चाहिये। (३) विमलनाथ का मोक्ष पर्व ५६ श्लो० ५५ में 'प्राषाढस्योत्तराषाढे" अर्थात् प्राषाढ बुदी ८
एक ही नक्षत्र में प्रत्येक तीर्थकर के प्रायः उत्तरापात में लिखा है किन्तु शुद्ध पाठ "प्राषाढ- पाचकल्याणक होने के संबंध में इतना और समझ स्योत्तरा भाद्र होना चाहिए क्योंकि माषाढ बुदी
लेना चाहिये कि उत्तरपुराण में कहीं २ उस ८ को उत्तर भाद्रपद ही पड़ता है और यही नक्षत्र
नक्षत्र के स्थान में उसके पास वाले नक्षत्र का नाम विमलनाथ के अन्य सब कल्यारणकों में है।
दिया है। जैसे श्रेयांशनाथ के चार कल्याणक श्रवण
नक्षत्र में और मोक्ष उनका धनिष्ठा में लिखा है। (४) बासुपूज्य के सब कल्याणक शतभिषा पार्श्वनाथ के चार कल्याणक विशाखा में और जन्म नक्षत्र में हए है किन्तु मुद्रित उत्तर पुराण में इनकी उनका प्रनिलयोग में लिखा है। अनिल कहिये दीक्षा तिथि फागुण बुदी १४ ज्ञानतिथि माघसुदी पवनदेव यह स्वाति नक्षत्र का स्वामी माना जाता २और मोक्ष तिथि भादवा सूदी १५ की लिखी है है। प्रतः यहां प्रनिल का अर्थ स्वाति नक्षत्र होता
और तीनों का नक्षत्र विशाखा लिखा है लेकिन इन है। चंद्रप्रभ के तीन कल्याणक अनुराधा में और तीनों तिथियों के साथ विशाखा की संगति किसी जन्म उनका शक्रयोग में लिखा है। शक का अर्थ इंद्र तरह बैठती नहीं है, 'शतभिषा' के साथ बैठती है यह ज्येष्ठा नक्षत्र का स्वामी देव माना जाता है। यहाँ भी पाठ की अशुद्धि ही जान पड़ती है। तीनों अतः यहां शक्र का अर्थ ज्येष्ठा नक्षत्र होता है। पाठों में विशाखा वाक्य अशुद्ध ही जान पड़ती है मोक्ष भी इनका ज्येष्ठा में ही लिखा है । पुष्पदंत तीनों पाठों में विशाखा, वाक्य प्रशुद्ध है उसके स्थान के चार कल्याणक मूलनक्षत्र में मोर जन्म इनका में शुद्ध वाक्य 'भिषका' अथवा 'भिषाका' होना जंत्र योग में लिखा है । जंत्र का अर्थ इंद्र यह ज्येष्ठा चाहिए । शतभिषा के मागे का प्रत्यय लगाने से का स्वामी माना जाता है। अतः यहां जंत्र का अर्थ पात भिषका' या शत 'भिषाका' रूप बनता है- ज्येष्ठा नक्षत्र होता है इत्यादि इस प्रकार कल्याणकों जिसका संक्षिप्त नाम भिषका या भिषाका होता है के एक समान नक्षत्रों के साथ उनके समीप का जैसे सत्यभामा का भामा, यह संक्षिप्त नाम होता नक्षत्र का नाम कहीं किसी कल्याणकों में दिये जाने है। प्रयकार गुणभद्र ने भी यहां "शतभिषाका" का तात्पर्य यही समझना चाहिये कि उस तिथि को इस वाक्य का संक्षिप्त नाम "भिषाका" का प्रयोग वे दोनों ही नक्षत्र क्रम से भुगत रहे थे। पाप पंचांग किया है। प्रतिलिपि करने वालों ने भिषाका प्रयोग उठाकर देखिये तो पापको बहुत बार एक ही तिथि को अशुद्ध समझकर उसे विशाखा बना डाला है। में क्रमवार दो नक्षत्रों के अंश भुगतते नजर पायेंगे।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्ध बल्कि कभी २ तो एक ही तिथि में दो नक्षत्रों के पुष्पदंतकृत अपभ्रंश महापुराण में जो तिथि मक्षत्र ग्रंश और पूरा एक नक्षत्र इस तरह तीन नक्षत्र लिखे हैं वे भी सब उसरपुराण के अनुसार लिखे भुगतते मिलेंगे। इसलिये समीप के नक्षत्र का नाम हैं। यहां लिखी तिथियां भी कल्याणमाला से मिलती होने से उसे भी एक तरह से अन्य समान नक्षत्र के हैं। ये पुष्पदंत गुणभद्राचार्यसे करीब १७५ वर्ष अन्तर्गत ही गिनना चाचिये और एक ही नक्षत्र में बाद ही हुये हैं। इस तरह उत्तरपुराण, अपभ्रंश पांचों कल्याणक होने में इसे अपवाद कथन नहीं महापुराण और कल्याणमाला इन तीनों की तिपियें समझना चाहिये।
एक समान मिल जाने से तथा नक्षत्रों की संगति
उनके साथ लिखी तिथियों के साथ बैठ जाने से इस प्रकार उत्तरपुराण की सब तिथियों और उनके साथ लिखे हुये नक्षत्रों की संगति भी प्रच्छो तिथिविषयक गड़बड़ जो लंबे अरसे से हमारे यहां तरह से बैठ जाती है। यहां में यह भी सूचित किये
चली मा रही थी वह अब समाप्त हो गई है । प्रतः देता है कि कवि पुष्पदंतकृत अपभ्रंश महापुराण में पब हमको हमारी पूजापाठ की पुस्तकों की तिथियों
को इसी माफिक शुद्ध करके काम में लेनी चाहिये। भी कल्याणकों के तिथि नक्षत्र उत्तरपुराण के का अनुसार ही लिखे हैं। पं० प्राशापरजी के सामने
इसके अलावा मूल ग्रंथ में शुद्ध पाठ होने पर त्रिलोक प्रज्ञप्ति मौर हरिवंशपुराण के मौजूद होते
भी अनुवादकों ने कहीं कहीं गलत मास-तिथी नक्षत्र हुये भी उन्होंने स्वरचित कल्याणमाला में इन दोनों
लिख दिये हैं प्रतः सहुलियत के लिए पंचकल्याणक पन्यों की तिथियों की उपेक्षा करके एक उत्तरपुराण तिथियों का शव नकशा भी हम साथ में दिये देते की कल्याणकतिथियों को स्थान दिया है। इससे
हैं। इस विषय में एक विशेष ज्ञातव्य बात यह उत्तरपुराण की तिथियों की प्रामाणिकता पर गहरा है कि-महापुराण कार दक्षिणी होते हुए भी प्रकाश पड़ता है।
उन्होंने पंचकल्याणक तिथियां दक्षिणी पद्धति से इस सारे ऊहापोह का फलितार्थ यही है कि- नहीं देकर सभी उत्तरी पद्धति से ही दी हैं क्योंकि उत्तरपुराण की शुद्धतिथियाँ वेही हैं जो पं. सभी तीर्थकारों के पाचों कल्याणक उत्तर प्रान्त में भाशाधरजी ने कल्याणमाला में लिखी हैं । और कवि ही हुए हैं।
कोई भी दुखी मनुष्य पृणा के योग्य नहीं हो सकता चाहे वह कितना भी हीन क्यों न हो ?
समय का जादूगर कभी कभी पाश्चर्यजनक करिश्मे दिखाता है।
किसी निश्चित लक्ष्य को जीवन समर्पित कर देने वाले कर्मवीर को अपने जीवन में अनेकों बलिदान देने पड़ते हैं।
-बाबूजी की डायरी से
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श्री पंच कल्याणक शुद्ध तिथि और नक्षत्र
तीर्थकर
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गर्भ
झान
मोक्ष
१ ऋषभनाथ २ प्रजितनाथ ३ संभवनाथ
५ सुमतिनाथ ६ पद्मप्रभ ७ मुपार्श्वनाथ ८चन्द्रप्रभ ६ पुष्पदंत १० शीतलनाथ ११ श्रेयांसनाथ १२ वासुपूज्य १३ विमलनाथ १४ अनंतनाथ १५ धर्मनाथ १६ शांतिनाथ १७ कुन्थुनाथ १८ परनाथ १६ मल्लिनाथ २० मुनिसुव्रत २१ नमिनाथ २२ नेमिनाथ
आषाढ कृ.२ च . .चत्र कृ. ९ फाल्गुन कृ.११ माघ कृ. १४ उत्तराषाढ ज्येष्ठ कृ.३० माघ शु. १० माघ शु. ६ पौष शु. ११ चैत्र शु. ४ रोहिणी फाल्गुन शु.८ कार्तिक शु.१शमा.शो.शु.१५ कार्तिक कृ.४ चैत्र शु. ६ मृगशिरा विशाख शु.६ माघ शु. १२ माघ. शु. १२ पौष शु. १४ वैशाख शु. ६ पुनर्वसु श्रावण शु.२ चैत्र शु. ११ वैशाख शु. ६ पत्र शु. ११चत्र शु. ११ मघा माघ कृ. ६ कार्तिक कृ.१३ कार्तिक कृ.१३ चैत्र शु. १५ फाल्गुन कृ.४ चित्रा भाद्रपद शु.६ ज्येष्ठ शु. १२ ज्येष्ठ शु. १२ फाल्गुन कृ.६ फाल्गुन कृ. विशाखा चत्र कृ. ५ पोष कृ. ११ पोष कृ. ११ फाल्गुन कृ.७ फाल्गुन कृ.७ अनुराधा फाल्गुन कृ.६ मा.शी. शु.१ मा. शी. शु. १ कार्तिक शु. भाद्रपद शु. मूल चित्र कृ.८ माघ कृ. १२ माघ कृ. १२ पौष कृ. १४ पाश्विन शुभ पूर्वाषाढ ज्येष्ठ कृ. ६ का. कृ. ११ फाल्गुनकृ. ११ माघ कृ. ३० श्रावणशु. १५ श्रवण पाषाढ़ कृ.६ का. कृ. १४ फाल्गुनक. १४ माघ शु. २ माद. शु. १४ शतभिषा ज्येष्ठ कृ.१० माघ शु.४ माघ शु. ४ माघ शु. ६ पाषाढ कृ. उत्तराभाद्रपद कार्तिक कृ.१ ज्येष्ठ कृ. १२ ज्येष्ठ कृ. १२ चैत्र कृ. ३० चैत्र कृ. ३० रिवती वि.कृ.१३रेवती माघ शु. १३ माघ शु. १३ पौष शु. १५ ज्येष्ठ शु. ४ पुष्य भाद्रपद कृ. ज्येष्ठ कृ. १४ ज्येष्ठ कृ. १४ पौष शु. १० ज्येष्ट कृ. १४ भरणी आवरण कृ.१० वैशाख शु. १ वैशाख शु. १वत्र शु. ३ वैशाख शु. १ कृत्तिका फाल्गुन शु.३ मा.शी. शु १४(मा.शी.शु. १० कार्तिक शु. १२ चैत्र कृ. ३० रिवती | चैत्र शु. १ मा.शी. शु.११ मा.शी.शु. ११ पी. कृ. पुष्य २ फाल्गुन शु. ५ प्राश्विनी श्रावण कृ.२ शाख कृ. १० वैशाख कृ. १० वैशाख कृ. ६ का. कृ. १२ श्रवण पाश्विन कृ.२ भाषाकृ. १० माषादकृ. १. म. शी. शु. १ बैशाख कृ. १४/प्राश्विवी कार्तिक शु ६ श्रावण शु.६ श्रावण शु. ६ पाश्विन शु. १ आषाढ शु. ७ चित्रा
उतराषाढ़ विशाख कृ. २ पौष कृ. ११ पोषक. ११चत्र कृ. ४ श्रावण शु. ७ विशाखा भाषाढ़ शु. ६ चैत्र शु. १३ मा.शी.कृ.१०/वैशाख शु. १० कार्तिक कृ.उत्तराफाल्गुनी
स्वाति ३०
२३ पावनाप २४ महावीर
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जगत में वास्तविक घटनाएं कल्पना को भी बहुत पीछे, बहुत । (दूर, छोड़ जाती हैं।
किसी भी विषय में, सिर्फ इसके बाहरी रूप को देखकर. कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
मनुष्य की शुभ इच्छा यदि हृदय से सत्य होकर बाहर निकलती ।है तो व्यर्थ नहीं जाती।
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जैन ग्रन्थों में राष्ट्र कूटों का इतिहास
• रामबल्लम सोमाणी
दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट राजाओं के गौरव और इसी आधार पर श्री के० बी० पाठक ने इनको
पूर्ण शासन काल में जैन धर्म की प्रभूतपूर्व कृष्णराज प्रथम का समसामयिक माना है। इसके उन्नति हुई। बई प्राचार्यों ने उस समय कई विपरीत श्रवणबेलगोला की मल्लिषेण प्रशस्ति महत्वपूर्ण प्रबों की सरंचना की जिनमें समसामयिक में इन्होंने राजा साहसतुंग की सभा में बड़े गौरव के भारत के इतिहास के लिये उल्लेखनीय सामग्री साथ यह कहा था कि हे राजा! पृथ्वी पर तेरे समान मिलती है।
तो प्रतापी राजा नहीं है और मेरे समान बुद्धिमान राष्ट्रकूट राज्य की नींव गोविन्दराम प्रथम ने भी नहीं है। "प्रकलंक स्तोत्र" नामक एक अन्य चालुक्य राजाओं को जीत कर डाली थी। इसका ग्रंथ में कुछ पद ऐसे भी है जिन्हें किसी राजा की पुत्र दंतिदुर्ग बड़ा उल्लेखनीय हुधा है । इसका।
सभा में कहा जाना वरिंगत है लेकिन इसमें कई स्थलों उपनाम साहसतुग भी था । जैन दर्शन के महान पर "देवोऽकलकलो" पद पाया है । प्रतएव प्रतीत विद्वान भद्र प्रकलंक इसके समय में हये थे। इनके होता है कि किसी अन्य के द्वारा लिखा हमारे द्वारा विरचित ग्रंथों में लषीयस्त्रय, तस्वार्थ राज हैं । मल्लिषेण प्रशस्ति के उक्त श्लोक संभवतः वातिक, प्रष्ट शती, सिद्धिविनिश्चय और प्रमागा-संग्रह
जनश्च ति के प्राधार पर लिखे गये हैं जो सही प्रतीत प्रादि बड़े प्रसित हैं। इनके ग्रंथों में यद्यपि सम- होते हैं। सामयिक राजापों का उल्लेख नहीं है किन्तु कथा- श्री वीरसेनाचार्य भी प्रसिद्ध दर्शन शास्त्री थे। कोश नामक ग्रंथ में इनकी संक्षेप में जीवनी है। ये प्रमोषवर्ष के शासन काल तक जीवित थे। इसमें इनके पिता का नाम पुरुषोत्तम बतलाया है इनके द्वारा विरचित ग्रंथों में घवला और जयघवलाजिन्हें राजा शुभतुग का मंत्री वणित किया है। टीकाएं बड़ी प्रसिद्ध हैं। धवला टीका के हिन्दी यह राजा शुभतुग निसंदेह कृष्ण राज प्रथम है सम्पादक डा0 हीरालाल जी ने इसे कातिक शक्ल
१. जरनल बम्बई ब्रांच रायल एशियाटिक सोसाइटी भाग १८ पृ० २२६ कथा कोष में इस प्रकार
उल्लेख हैपत्र व भवति मान्यखेटाक्ष्य नगरे वरे । राजा भूचुभतु'गारव्यस्त न मंत्री पुरुषोतमः ।
इंडियन एंटिक्वरी भाग १२ पृ० २१५ २. राजन् साहसतुंग ऐसंति बहव श्वेतातपत्रानृपाः ।
किन्तु स्वस्सहशा रणे विजयिनस्स्यागोन्नता दुर्लभाः । तत्सन्ति बुधा म सन्ति कवयो वादिश्वराः वाग्मिनो । नानाशास्त्रविचारचातुरषियाः काले कलीमद्विधाः ।
जैन लेख संग्रह भाग २ लेख २९० ३. न्याय कुमुद चन्द्र की भूमिका पृ० ५५
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बायू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्ध १३ शक संवत् ७३८ में पूर्ण होना वरिणत किया ध्रव निरुपम भी शासक नहीं हुमा था। इसके है और लिखा है कि जिस समय राष्ट्रकूट राजा अतिरिक्त हरिवंशपुराण में वीरसेनाचार्य का जगतुंग राज्य त्याग चुके थे और राजाधिराज उल्लेख है लेकिन उनको इस घबला टीका का बोदणराय शासक थे इसे पूर्ण किया। श्री ज्योति उल्लेख नहीं है। स्मरण रहे कि इस ग्रंथ में प्रसाद जी जैन ने इसे अस्वीकृत करके लिखा है कि समन्तभद्र देवनन्दि महासेन प्रादि भाचार्यों के प्रमों प्रशस्ति में स्पष्टतः "विक्कम रायाई" पाठ है प्रत- का स्पष्टतः उल्लेख है । अतएव यह घटना वि० सं०. एव यह विक्रम संवत होना चाहिए। प्रतएव उन्होंने ७०५ के पश्चात् ही हुई है। यह तिथि ८३८ विक्रमी दी है। भाग्य से ज्योतिष के
जयघवला के अन्त में लम्बी प्रशस्ति दी हो अनुसार दोनों ही तिथियों की गणना लमभग एक
है। इससे ज्ञात होता है कि वीरसेनाचार्य की इस सी है । लेकिन राजनैतिक स्थिति पर विचार करें
अपूर्ण कृति को जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया था। तो प्रकट होगा कि यह तिथि विक्रमी के स्थान पर
यह टीका शक संवत् ७५९ में महाराजा अमोघवर्ष शक संवत ही होना चाहिए। इसका मुख्य प्राधार
के शासन काल में पूर्ण की गई थी। यह है कि विक्रमी संवत का प्रचलन इतना प्राचीन नही है । इसके पूर्व इस संवत का नाम कृत और बहुचर्चित हरिवंश पुराण की प्रशस्ति के मालब संबत मिलता है । विक्रमी संवत का सबसे अनुसार शक सं० ७०५ में जब दक्षिण में राजा प्राचीनतम लेख ८१८ का धोलपुर से चण्ड महासेन बल्लभ, उत्तरदिशा में इन्द्रायुद्ध, पूर्व में वत्सराज का मिला है । लेकिन इसका प्रचलन उत्तरी भारत पोर सौरमंडल में जयवराह राज्य करते थे तब में अधिक रहा है । गुजरात और दक्षिणभारत में बढवाल नामक ग्राम मे उक्त ग्रंथ पूर्ण हुआ था। उस समय लिखे गये ताम्रपत्रों में शक संवत या शक संवत् ७०५ की राजनैतिक स्थिति बडी उल्लेखवल्लभी संवत् मिलता है। इसमें उल्लिखित जगतुग नीय है। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा का जो उल्लेख निःसंदेह राष्ट्रकूट राजा गोविन्द राज तृतीय है है वह संभवतः ध्रव निरुपम है। गोविन्द II की और बोहराय प्रमोधवर्ष। अगर विक्रमी संवत् उपाधि भी “वल्लभराज" थी। इसी प्रकार श्रवण८३८ मानते हैं तो यह तिथि १६ १०७८० ई. बेलगोला के लेख नं० २४ में ६ स्तम्भ के पिता हो पाती है। उस समय मोविन्दराज का पिता ध्रव निरुपम की भी उपाधि वल्लभराज है।
४. अट्टतीसम्हि सासिय विक्कमरायम्हि एमु संगरमो.। साणामो वा पासे मुतेरसोए भाव-विलग्गे धवल पकड़े ॥ ६ ॥
जग तुग देव-रज्जे रियम्हि कुम्हि राहणा कोणे । सुरनुलाए संते गुरुम्हि कुल विल्लए होते ॥ ७ ॥ बोद्दण राय रिदे परिंद चूडामरिणम्हि भुंजते ॥ ६ ॥
धवला १, १, १, प्रस्ता०४-४५ ५. अनेकांत वर्ष पृ. २०७-२१२ ६. भारतीय प्राचीन लिपी माला पृ० १६६ ७. शाकेष्वब्द शतेषु सत्यम दिशं पञ्चोसपतरां
पातीन्द्रायुध नाम्नि कृष्ण नृपजे श्री वल्लभे दक्षिणाम् पूर्वा धी मदवन्ति भूभृति नृपे वत्सादि राजे परां कार्याणामधि मण्डलं जयगुते वीरे वराहऽवति ।। ५२ ॥ ८. अल्तेकर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ५२-५३
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"जैन ग्रंथों में राष्ट्रकूटों का इतिहास
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गोबिन्दराजका शासनकाल प्रल्पकालीन है और वह जिनसेनाचार्य के चरण कमलों में मस्तक रख पाक सं० ७०.१ के धूलिया के दानपत्र के पश्चात् कर अपने को पवित्र मानता था। १४ इसकी बनाई उसका कोई लेख नहीं मिला है अतएव यह ध्रव हुई प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक एक छोटी सी पुस्तक निरुपम के लिये ही ठीक है। उत्तर में इन्द्रायध का मिली है। इसके प्रारंभ में "प्रणिपत्य वदमानं" उल्लेख है। यह भण्डी वंशी राजा इन्द्रायुध है। शब्द है। यद्यपि यह विवादास्पद है कि प्रमोघवर्ष फ्लीट, भण्डारकर प्रभृति विद्वानों ने भी इसे ठीक जैन धर्म का पूर्ण अनुयायो पा अथवा नहीं किन्तु माना है। कुछ इसे गोविन्दराज III के भाई यह सत्य है कि वह जैन धर्म की ओर बहत इन्द्र सेम मानते हैं जो उस समय राष्ट्रकूटों की भोर प्राकृप्ट था। इसी के शासन काल में लिखी महावीरासे गुजरात में प्रशासक था। स्वतन्त्र राजा चार्य को गणितसार संग्रह नामक पुस्तक में प्रमोघनहीं। प्रशस्ति में तो स्पष्टतः इन्द्रायुध पाठ है वर्ष के सम्बन्ध में लिखा है कि उसने समस्त प्रतएव इस प्रकार के तोड़ मोड़ करने के स्थान प्राणियों को प्रसन्न करने के लिये बहत १५ काम पर इसे इन्द्रायुध ही माना जाना ठीक है । पूर्व में किया था जिसकी चित वृति रूप अग्नि में पापकर्म वत्सराज का उल्लेख है। शक सं० ७०० में लिखी भस्म हो गया था। प्रतएव ज्ञात होता है कि वह गई कुवलयमाला में इस राजा को जालोर का बहुत ही धार्मिक प्रवृति का था। इसमें स्पष्टतः शासक माना है। प्रवन्ति प्रतिहार राजापों के जैन धर्मावलम्बी बरिणत किया है । राष्ट्रकूट शासन में संभवतः दंतिदुर्ग के शासन काल से शिलालेखों से ज्ञात होता है कि प्रमोघवर्ष कई बार
राज्य छोड़कर एकांत का जीवन व्यतीत करता १३. प्राचार्य जिनसेन जो प्रादि पुराण के था और राज्य युवराज को सौंप देता था। संजान कर्ता प्रमोघवर्ष के गुरु के नाम से विख्यात हैं। के दानपत्र के श्लोक ४७ व अन्यदान पत्रों में इसका उत्तरपूराण की प्रशस्ति में स्पष्टतः वरिणत है कि स्पष्टतः उल्लेख है। प्रश्नोतर रत्न माला में
ही यो।
-
E. Epigraphica-Indica-Vol IV P, 195-196 १०. डा० गुलाबचन्द चौधरी-हिस्ट्री प्राफ नोर्दनं इंडिया फ्रोम जैन सोर्सेस पृ० ३३ ११. सगकाले बोलीणे वीरसारण सत्ताई गएहिं। सत्तर ____एक दिन पूणेहिं रइया प्रवरह वेलाए। र पर भइ भिरुहि भेगोपण ईयण रोहिणी कलाचंदो। सिरिबच्छराय लामो गरहस्थी पत्थिवो जइया ।।
(कुवलय माला ) १२. प्रत्तेकर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ४० १३. "इत्यमोघवर्ष परमेश्वर परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य विरचित मेघदून वेष्टिते पाम्पुिदये......"
(पार्वाभ्युदय के सों के अन्त की पुष्पिका) १४. यस्य प्रांशुनलोशुजालविसरदारान्तराविर्भव
त्पादाम्भोजरजः पिशङ्ग कुमुट प्रत्यग्ररत्नतिः । संस्मती स्वममोघवर्ष नृपतिः पूतोहमत्यलं स श्रीमान् जिनसेन पूज्य भगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।।८।।
उत्तर पुराण को प्रशस्ति १५. नापूराम प्रेमी-जन साहित्य का इतिहास पृ० १५२
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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प्रतिम दिनों में उसका राज्य से विश्वत होना " वर्णित है। मगर अमोघवर्ष जैन धर्म की धोर भाकृष्ट नहीं होता तो निसंदेह जिनसेनाचार्य उसकी प्रशंसा में सुन्दर पद नहीं लिखते । १७
।
उसमें लिखा है कि उसके मागे गुप्त राजाओंों की कीर्ति भी फीकी पड़ गई थी। संजान के दानपत्र में भी इसी प्रकार का उल्लेख है।" उत्तर पुराण की प्रशस्ति में प्रमोघवर्ष के उत्तराधिकारी राजा कृष्ण II की प्रशंसा की है किन्तु यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता है कि यह राजा जैन था अथवा नहीं। किन्तु इसका सामन्त लोकादित्य जो वनवास देश का राजा था अवदयमेव जैन था। इसकी राजधानी १० बँकापुर थी। यह जैन धर्म का बड़ा भक्त था।
शिलालेखों और ताम्रपत्रों में भी गोविन्दराज और अमोघवर्ष का वर्णन मिलता है। गंगवंशी सामन्त चाकिराज को प्रार्थना पर शक सं० ७३५
में गोविन्दराज III ने जालमंगल नामक ग्राम यापतीय संघ को दिया था । यह लेख गोविन्दराज III के शासन काल का अन्तिम लेख है । उत्तरपुराण में वरित लोकादित्य के पिता शंकेय के कहने पर अमोघवर्ष मे जैन मंदिर के लिए भूमिदान में में दी थी ऐसा एक दानपत्र से प्रकट होता है। "
महाकवि पुष्पदंत और सोमदेव उस युग के महान विद्वान थे। पुष्पदंत का एक नाम सह भी था। ये महामात्य भरत धौर उनके पुत्र नन के माथित रहे थे। ये दोनों राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज 111 के सम सामयिक थे। इसने कृष्णराज के लिये "तुडिगु" "बल्लभ नरेन्द्र" घोर "कणहराय" शब्द भी प्रयुक्त किये हैं । २२ तिरुक्कसुदन रम् के शिलालेख में कन्हरदेय शब्द इस राजा के लिये प्रयुक्त २३ किया गया हैं। यह राजा जब मेलपाटी के सैनिक शिविर में था तब सोमदेव ने यशस्तिलक चम्बू ग्रंथ को पूर्ण किया था। २४ इस पंथ की
१६. लेकर राष्ट्रकूटाज एण्ड देवर टाइम्स १० ८९-९० १७. गुर्जर नरेन्द्र कीर्तेरन्तपतिता शशोकशुभ्रा या ।
म
गुप्तंव गुप्त नृपतेः शकस्य मुशकायते कीर्तिः ॥१२ ॥ १८. हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरत् देवीं च दीनस्तथा । कोटिमलेखयत् किलकिलो दाता सगुप्तान्वयः येनात्माजि तनु स्वराज्यमसकृत वाहार्थ कः काकथा हस्तिस्योन्नति रास्ट्रकूट free दातेति कर्त्यामपि । ४८ ।
[E. I Vol 18 P.2351
१६. उत्तर पुराण की प्रशस्ति श्लोक २६-२७ २०. उत्तर पुराण की प्रशस्ति श्लोक २६ औौर ३०
२१. जैन लेख संग्रह भाग ३ की भूमिका पृ० १५ से ६७
२२. सिरि कम्हरा करम लगि हिय धसि जलवाहिणि दुर्गा परि ।
आदि पुराण भाग ३ की भूमिका पृ० १६
२३. E. I. Vol 3 Page 282 एवं साउथ इंडियन इंसम्पिसन भाग १०७६
२४. "पांड्य सिंहन चोल पेरम प्रभृतीन्महीपतिन्त्रसाध्य मेलपाटी प्रवर्द्धमान राज्यप्रभावे श्री कृष्णराज देवे"...एवं ८८ शक के दानपत्र में "तं दरिण दिएण धरण करणयप यद मदिपरिम मंतु मेला डियायरु" उल्लेखित है ।
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जैन ग्रंथों में राष्ट्र कूटों का इतिहास प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि परिकेशरी के पुत्र उल्लेखनीय महाकवि पम्प हैं । इसके द्वारा विरचित बद्दिग की राजधानी गंगधारा में यह ग्रंथ पूर्ण मादि-पुराण चम्पू पौर विक्रमार्जुन विजय हमा पा । इसमें स्पष्टतः वरिणत है कि कृष्णराज ग्रंप प्रसिद्ध हैं पिछले मंथ में परि केसरी की जो ने पाया सिंहल, चोल, चेर मादिराजामों को चालुक्य वंशीय था, और जो सोमदेव के जीता था। इस बात की पुष्टि समसामयिक यशस्तिलक चम्पू में मो परिणत है, वंशावली दी ताम्रपत्रों से भी होती है । पुष्पदंत के आदिपुराण गई है। विक्रमार्जुन विजय ऐतिहासिक ग्रंथ है। में मान्यखेटपूर को मालवे के राजा द्वारा विनष्ट इसमें राष्ट्रकूट राजा गोविन्द III के विरुद्ध करने का उल्लेख है।२४ यशोधर चरित की प्रशस्ति से जात होता है कि जिस समय सारा जनपद नीरस को वद्दिग राज को सौंपने का उल्लेख है। वदिदग हो गया था, चारों पोर दुःसह दुःख व्याप्त हो प्रमोघ वर्ष II का ही उपनाम प्रतीत होता है ।२८
जगह जगह मनुष्या का खापड़िया पार शासन व्यवस्था कंकाल बिखर रहे थे, सर्वत्र करक ही करक दिखाई राष्ट्रकूट राजामों के राजनैतिक इतिहास के दे रहा था उस समय महात्मा नन्न ने मुझे सरस
साथ साथ समसामयिक राज्यव्यवस्था का भी भोजन और सुन्दर वस्त्र दिये प्रतएव वह चिरायु जैन ग्रंथों में सविस्तार वर्णन मिलता है। प्रादिहो । २६ महाकवि धनपाल की पाइप लच्छी
पुराण, प्रौर नीतिवाक्यामृत में इसका स्पष्ट चित्र नाममाला के अनुसार यह घटना १०२६ वि० में खींचा गया है। राजा और मंत्रियों को उस समय घटित हुई थी । राष्ट्रकूट राजा बोट्टिग के बाद
वंश परम्परागत अधिकार प्राप्त थे । २६ मंत्रियों कर्कराज हुमा । परमार प्राक्रमण के बाद राष्ट्रकूट
की संख्या सीमित रखने का उल्लेख सोमदेव ने राज्य का अधःपतन प्रारम्भ हो गया और शीघ्र ही किया है। मंत्रिमंडल में मत्रियों के अतिरिक्त चालुक्यों ने वापिस हस्तगत कर लिया।
प्रमात्य ( रेवेन्यू मिनिस्टर ) सेनापति, पुरोहित संस्कत और प्राकृत के साथ साथ कन्नड भाषा दण्डनायक भादि भी होते थे। गावों के मुखियों का में भाजधानपत्र और प्रथ लिखे गये। इनमें सबसे उल्लेख प्रादिपराण में है। सलारा जो नगर
६५. दीनानाथधनं सदा बहुजन प्रोत्फुल्ल वल्लीवनं, मान्याखेटपुरं पुरन्दरपुरी लीलाहरं सुन्दरम् ।
धारानाथनरेन्द्र कोपशिखिना दग्धं विदग्धप्रियं । क्लेदानी वसति करिस्पति पुनः श्री पुष्पदन्तःकविः । कर यह पद संदिग्ध है पोर क्षेपक है।
प्र० श्लो० ३६ महापुराण की ५० वीं संधि २६, जी वय नोरसि दुरियमलीमसि । कइणि वायरि दुसहे दुइयारि ।
पड़ियक बाल इण रकंकालइ । बहुकालइ.अहे हुक्का लइ। पवरागारि सरसाहारि । सहि नि त बोलि महु उपयारिउ पुरणं पेरिउ । गुणभत्तिलउणउँण महल्लउ ॥ होउ चिराउसु''
यशोधर चरित ४१३१-२.." २७. विक्कम कालस्स गए प्रउणतीसुत्तरे साहस्सम्मि। मालव नरिंद घाडीए लूडिए मन्न खेडम्मि ॥
पाइन लच्छी नाममाला (भावनगर) पृ० ४५ २८. मस्तेकर राष्ट्रकूटाज पृ० १०७-१०८ २६. सन्तान क्रमतो गताऽपि हि रम्या कृष्टा प्रभोः सेक्या महामंत्री भरत ने वंशपरम्परागत पद को जो कुछ दिनों के लिये चला गया था पूनः प्राप्त किया
[महापुराण (प्रप) भाग ३ पृ० १३ ३०. "बहबो मषिणः परस्परं स्वमतीरक्तर्षयन्ति १०७३ ॥
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बाबू छोटेखाल जैन स्मृति ग्रन्थ अधिकारी था का उल्लेख प्रादिपुराण नीति- थे । राजानों द्वारा जलक्रीडाएं और कई प्रकार की वाक्यामृत और यशस्तिलक-बम्पू में भी है। गोष्टियां किये जाने का भी वर्णन मिलता है। अष्टादश श्रेरिणगरण प्रधानों का भी उल्लेख यत्रतत्र सांस्कृतिक सामग्री मिलता है। नीतिवाक्यामृत में कई प्रकार के उस समय सांस्कृतिक गतिविधियों के अध्ययन गुप्तचरों का उल्लेख है । राज्य कर जो प्रायः धान के लिये जैन सामग्नी बहुत ही महत्वपूर्ण है। के रूप में लिया जाता था यह उपज का १ भाग वर्णव्यवस्था ३२ वर्णाश्रम धर्म, 33 सामाजिक था। इनके अतिरिक्त शुल्क मंडपिकानों द्वारा भी संस्कार, ४ वेश्यावृत्ति ३५. भोजन व्यवस्था, संगृहीत किया जाता था। राजामों के ऐश्वर्य का शिक्षा, ३७ चित्रकला, ८ संगीत, ६ माभूषण,. सविस्तार वर्णन है । इनके राज्याभिषेक के समय सौन्दर्य प्रसाधन, " चिकित्सा साधन, ४२ खेतों को किये जाने वाले उत्सवों का भी प्रादि पुराण में व्यवस्था मादि का इनमें सांगोपांग वण'न वर्णन है। राजामों का अभिषेक भी एक विशिष्ट मिलता है। समसामायिक भारत के वास्तुशिल्प पद्धति द्वारा कराया जाता था। राज्याभिषेक के का भी सविस्तार वणन मिलता है। मंदिर महल समय "पद्र बन्धन" होता था। यह पट्ट बन्धन प्रादि के वनों में इस प्रकार की सामग्री युवराज पद पर नियुक्त करते समय भी बांधा जाता उल्लेखनीय है। श्री मल्तेकरजी ने अपने चंय था। पालन का उल्लेख शिलालेखों में भी मिलता
राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स में इस सामग्री का है। अन्तःपुर की व्यवस्था का भी उल्लेख मिलता अधिक उपयोग नहीं किया है। इस सामग्री का है । इसकी गार के लिये वृद्ध कंचुकीगण नियुक्त अध्ययन वांछनीय है।
३३,
३१. "पट्टबन्धापदेशेन तस्मिन् प्राध्वङ, कृते वसा [मा० पु. ११६४२
राज्य पट्टबन्धश्व ज्यायान् समवधीरयन् । पा० पु० ५।२०७ " मरणरण के शक सं० ७१६ के लेख में" राष्ट्रकूट पल्लवान्वयतिलकाम्यां मूर्दाभिषिक्त गोविन्दराज नन्दिवर्माभिधेयाम्यां समुनिष्ठित-राज्याभिषेकाम्यां निजकर घटित पट्टविभूषित ललाट-पट्टो विख्यात" इसीप्रकार पट्टबन्धो जगबन्धोः ललाटे विनिवेशितः । १६२३३ प्रा० पु०, उल्लेख है । पुष्पदंत मे राजाप्रो के अभिषेक और धमरों का उल्लेख व्यंग के साथ किया है "चमराणिल उड्डाविय गुणाइ।
मट्टि सेय धोय सुयणतणाइ" ३. प्रादि पुराण १६१८१-१८८,२४२-२४६, २४७, २६।१४२
३८।४५-४८ और ४२ वा पर्व ४० प्रौर ३६वां पर्व ४।७३ ३११८६-१८८-२०३, १६७३ १४ | १९०-१९१], १६८ १०५-१२८] ६ [ १७०-१६१] १४ [ १०४-१५० १२ [२०३-२०१] १६ [४४-७१ ] १५८१-८४ ] १२ [ १७४ | ११ [१३१६३०-३२ 1 १११५.६, ११३५८, ११११६६ ११११७४-७६, २८ [३८, ४.] २६ [ ११२-११५ ] २६ [ ४८] २६ / १२३-१२७ ] २८ (३२-३६ ११५७]
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भारतीय साहित्य में सीताहरण प्रसंग
डा० छोटेलाल शर्मा एम० ए० पी-एच. डी. भारत में राम कथा की प्रद्वितीय व्यापकता दिख- किया। खर को भी ऋषियों का निर्भय विचरण
"लायी पड़ती है। संस्कृत साहित्य में ही नहीं, फूटी प्रांख नहीं सुहाता था। उसने विशिरा और . भारत की अन्य जनपदीय भाषाओं तथा निकटवर्ती दूषण को बुलाकर युद्ध का डंका बजवा दिया। देशों के साहित्य में भी राम कथा का एक महत्व अनेक अपशकुनों को देखकर खर का मन बैठने लगा पूर्ण स्थान है। साहित्य की प्रत्येक विधा में इसका लेकिन अन्य कोई चारा म देख कर युद्ध छेड़ दिया रोचक अनुसंधान हुआ है । वैष्णव धर्म में राम को गया । उधर राम ने. सीता को लक्ष्मण के साथ विष्णु का अवतार माना गया है, बौद्धधर्म में बोधि- गिरि-गहा में भेज दिया। दोनों प्रोर से तुमुल युद्ध सत्त्व का और जैन धर्म में प्राठवें बलदेव का। वस्तुतः हमा। ऋषि, देव. गंधर्व चारण प्रादि सब राम के राम कथा कालानुक्रम से जन सामान्य के सांस्कृतिक स्वस्तिवाचन के लिए. एकत्र हए। रण में चौदह व्यक्तित्व का अनुसंधान है। चारों ही पुरुषार्थ सहस्र राक्षस खेत रहे। प्रपन ने रावण को राम गृहस्थाश्रम में समन्वित होते हैं । सीता हरण प्रसंग के पराक्रम और सीता के सौदयं से परिचत कराया का संबंध गृहस्थाश्रम के विशिष्ट मूल्यों से है । इस और यह सुझाव भी दिया कि राम का बध सीतादृष्टि से भी प्रस्तुत प्रकरण का महत्त्व है।
हरण से संभव है। रावण तुरंत मारीच के पास गया
और समझाने-बुझाने पर लोट पाया। इतने में रोती. प्रस्तुत प्रकरण का रोचक एवं विस्तृत विवरण
बिलखती शूर्पणखा पाई। उसने कहा कि सीता बाल्मीकि रामायण में प्राप्त होता है जो नीचे
उसके योग्य भार्या है। यह देख वह उससे वार्तालाप दिया जा रहा है।
के लिये जैसे ही उद्यत हुई वैसे ही करकर्मा लक्ष्मण हेमंत के दिन थे। राम, लक्ष्मण और सीता ने उसको विरूप कर दिया। रावण के मन में फिर गोदावरी से लौट रहे थे। भरत और कैकेयी उनके खलबली पैदा हयी। और वह पूनः मारीच के पास वार्तालाप का विषय थे। सहसा उन्हें रावण की पहचा। मारीच उसको देखकर. घबड़ा गया। उसने विधवा बहिन शूर्पणखा दिखाई पड़ी। वह सुन्दरी राम के राज-लक्षणों, सीता के पातिव्रत्य मोर पर• के वेश में थी। उसने पाते ही मुग्ध होकर राम से स्त्री-रमण के पाप का सकेत कर उसे इस कार्य से विवाह का प्रस्ताव किया। उन्होंने उसको लक्ष्मण विमुख करने का प्रयत्न किया लेकिन उसने एक न के पास भेज दिया। वे उससे ठठोली करने लगे। सूनी। पं० विश्वामित्र के यज्ञ प्रोर पंचवटी की प्राप वह पलट कर सीता पर झपटी, राम ने हुँकार की, बीती उसने भी सुनाई । उसने यह भी बताया कि वह ठिठकी और लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट उसको सर्वत्रराम ही दिखाई पड़ते हैं और रकार ही लिए। वह रोती-बिलखती खर के पास पहुँची और सुनाई पड़ता है। रावण ने पहले तो उसको भत्सना उन तीनों का रक्त पीने की इच्छा प्रकट करने की और फिर मुक्ति तथा माघे राज्य का प्रलोभन लगी। खर ने अपने चौदह प्रख्यात राक्षसों को उसके दिया। रावण ने उसे माझा न मानने की अवस्था साथ कर दिया। पंचवटी में वे सब मौत के घाट में प्राण दण्ड देने का भी भय दिखाया। मारीच उतार दिये गये। यूपणखा ने पूनः खर को प्रेरित को प्राण दंड की अपेक्षा वीरता पूर्वक प्राण त्याग
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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रुचिकर प्रतीत हुआ। अतः वह रावण के साथ हो गया और वह सोने का मृग बनकर सोता दो सुभाने लगा। सोता को इससे कुतूहल हुआ और उसने उसे प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की । राम को उसके बघ की इच्छा हुई लक्ष्मण ने उसको सा लिया लेकिन राम रुक न सके और सीता की रक्षा का भार लक्ष्मण और जटायु के कन्धों पर डालकर उसके पीछे हो लिए दूर जा कर उसका ब्रह्म-बार से बध किया । उसने भी प्राण त्याग के समय अपना रूप प्रकट किया और राम की भावाज में सोता और लक्ष्मण को पुकारा । यह देखकर राम की भी खुली और लक्ष्मण की बात याद प्राणी । वे सीता की चिंता से श्राश्रम I की ओर चल पड़े।
इधर सीता भाई की सहायतार्थ आने के लिए लक्ष्मण को उकसाने लगी। उसने उसको बनायें, निर्दयी, कुलांगार, भरत का गुप्तचर आदि सभी न कहने योग्य कहा । लक्ष्मण भी रोष का घूंट पीकर सशंक मन से उस ओर चले गये। इसी बीच प्राश्रम को सूना देखकर रावण ने वन में प्रवेश किया। उसने मुक्त कंठ से सीता के सौंदर्य की प्रशंसा की और बाद में भय, प्ररणाय और राजनय की बातें। फिर उसने अपना प्रवेश त्याग कर उसको बालात् गधों से जुते रथ में बैठा लिया । सीता का रोना-चिल्लाना सुनकर जटायु को नींद टूटी उसने पहले शास्त्र चर्चा छेड़ी और बाद में वस्त्र तथा उसका रथ कवच और धनुष तोड़ डाला सारी और गर्यो को भी मार डाला। रावण, मौका पाकर सीता को गोद में उठा श्राकाश की ओर भागा। जटायु ने फिर पीछे से धक्रमण किया लेकिन असि प्रहार से भूलु टित हो गया। सीता मरणासन्न कटायु को पकड़कर रोने लगी । रावण उसे गोद में उठाकर श्राकाश मार्ग से लंका ले गया।
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ब्रह्मा और ऋषियों ने अब अपना काम सिद्ध समझा।'
अध्यात्म रामायण की कथा में कुछ संकोच माया है और उसका स्वर भी बदला है। उसमें चौदह राक्षसों का संग्राम छूट गया है और प्रकंपन का इति वृत्त भी मारीच के पास भी रावण एक ही बार जाता है। वे दोनों ही राम के ब्रह्म स्वरूप से अवगत हैं और परमपद पाने की अभिलाषा करते हैं- एक भक्ति से और दूसरा विरोध से । मारीच रावरण को भक्ति का उपदेश देता भी है। रावल भी सीता हरण के समय उस का स्पर्श नहीं करता । वह धरती कुरेदकर भूमि सहित सीता को उठा लेता है और रथ में बैठा लेता है । जटायु के रथ तोड़ देने पर वह दूसरे रथ के द्वारा सीता को लंका ले जाता है। शुर्पणखा भी राम के चरण चिन्हों में राजकीय निशान देखकर उनका अनुगमन करती है। इधर राम को भी रावण के प्रयत्नों का प्राभास है । वे सीता से कहते हैं कि वह यहां परिव्राजक के वेश में भावेगा। अतः उसे अपना प्रतिबिंब छोड़कर धम्नि
के
प्रवेश कर जाना चाहिए। धानंद रामायण में राम चौदह सहस्र राक्षसों का रूप धारण कर
3
उनका वध करते हैं। नृसिह पुराण में पहले पहल राम के पत्र की चर्चा है उस रचना में दूखमा राम को प्रलोभन देती है और ठुकरायी जाने पर लक्ष्मण के नाम एक पत्र मांगती है। भट्टिकाव्य में राम लक्ष्मण दोनों ही राक्षसों के बध में भाग लेते है । आश्वयं चूड़ामणि में शूर्पणखा छद्मवेश में सीताहरण में सहायक होती है। निष्कर्ष:- बास्मीकि रामायण की दृष्टि वस्तुपरक एवं व्यावहारिक है। उसमें जाति को विशिष्टता प्रदान की गयी है। माध्यात्मिक स्वर
१. वाल्मीकि रामायण श्ररण्यकाण्ड सर्ग १६-५२ २. अध्यात्म रामायण अरण्यकाण्ड सगं ५-७ ३. श्रानन्द रामायण १ । ७ । ६२
४. नृसिंह पुराण अध्याय ४६१ ५. भट्टिकाव्य ४९४९
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भारतीय साहित्य में सीताहरण प्रसंग
का प्रभाव है लेकिन यज्ञ का मान है। परस्त्रीरमण सामाजिक अनुशासनविहीनता का कारण समझा गया है। साहित्यिक दृष्टि से प्रादि रामायण की कथा विखरी बिखरी है । उसमें वर्णन प्रियता का प्राग्रह है | चरित्र की दृष्टि से लक्ष्मण अधिक दूरदर्शी हैं और राम अधिक पराक्रमी । प्रागे कथा में संगठन माया है और कुतूहल की उत्पत्ति हुई है। राम का चरित्र प्राध्यात्मिक दृष्टिकोण से चित्रित किया गया है। प्राध्यात्मिक चेतना उभरी है और व्यक्ति को प्रधानता मिली है। जन सामान्य की कर्मचेतना भाव मय हो गई है। कर्म का स्थान भक्ति ने ले लिया है।
रामचरित मानस में कथा कुछ पर सिमटी है । उसमें वह प्रसंग भी नहीं है। जहां मारीच मृग रूप में राम पर आक्रमण करता है। पूर्व गाला अपने प्रविगलित कौमार्य की दुहाई देकर विवाह का धाग्रह करती है और दोनों भाईयों के बीच भंबर की नाव बन जाती है। मानसकार ने उसको राजनय में ही नहीं, धर्मनय में भी निष्णात बताया है (यद्यपि यह पात्र दोष है ) । इधर खरादि भी राम की रूप माधुरी से अभिभूत होते हैं और रावण भी 'प्रभृ सर-तीरथ' ऊपर में प्रारण छोड़ना चाहता है । वह सीता पर क्रुद्ध होकर भी चरण वंदन में सुख मानता है । मारीच ने राम के कोच को मुक्ति प्रदायक और भक्ति को वशकरी बताया है। राम भी मृग का पीछा देव कार्य की प्रेरणा से करते हैं । वे नरलीला के लिए सीता को प्रग्नि प्रवेश का प्रदेश भी देते हैं । लक्ष्मण सीता को 'वन विसि देव' सभी को सौंप जाते हैं और एक रेखा भी बना जाते हैं। राम प्रसुर को भी परमपद देते हैं। उन्होंने खर की सेना में भी एक कौतुक किया है कि सब की दृष्टि फेर दी है। वे एक दूसरे को राम समझते हैं, बड़ते हैं पौर मरते हैं ।'
१. मानस प्ररण्य काण्ड दो० १७-२६
१३०
पंचवटी और सात में बचा भी बदली है पौर स्वर भी बदला है। पंचवटी की गथा सामान्य हिन्दू गृहस्थ के संदर्भ में प्रारंभ होती है । उसका ढंग प्रत्यन्त नाटकीय है और विषय संक्रातिकालीन जीवन मूल्यों का संघर्ष लक्ष्मण नैसगिक धोर नागरिक जीवन के विश्लेषण की उधेड़बुन में लगे दिखलायी पड़ते हैं । शूर्पणखा नगर की कृत्रिम सभ्यता के सभी गुण दोषों के साथ उनके सामने प्रकट होती है। अतः भारतीय संस्कृति के मूल्यों को लेकर खींचातानी प्रारम्भ हो जाती है धीरे-धीरे महार्य सभ्यता का भेद खुलने लगता है। उसमें समायोजन का सबसे अधिक प्रभाव है। साकेत में पार्थिव रंग कुछ हलका है। सर से युद्ध करते समय राम अपने युद्ध कौशल के कारण असंख्य रूपों में दिखलायी पड़ते हैं। मायावी मृग का रहस्य भी चलते ढंग से संकेतित कर दिया गया है। रामादि के विरुद्ध शूर्पणखा की एक आपत्ति यह भी है कि वे उसको पतित कहते हैं। सीता भी मृग की आवाज सुनकर लक्ष्मण के क्षात्र धर्म को जागृत करने के लिए स्वयं सहायतार्थ साथ जाने को तैयार हो जाती है । सारलदास के महाभारत के अनुसार भी सीता को एक सखी की इच्छा है और वे चाहती हैं कि लक्ष्मरण शूर्पणखा से विवाह करलें, लेकिन लक्ष्मण इसको स्वीकार नहीं करते ।
3
निष्कर्ष: तुलसी ने रामकथा को भावस्तर से उठाकर एक ऊंचे प्राध्यात्मिक साधार पर टिका दिया है । कर्मसौंदर्य भावोद्वेलन का उपकारक मात्र है । मानस का स्वर भी पौराणिक है और सर्वत्र विदेहमुक्ति का प्राग्रह है। समूचे ग्रंथ में इस बात का धनुसंधान दृष्टिगोचर होता है कि श्रद्धा, बैर. ईर्ष्या और बालस्य से भगवद् स्मरण करने पर शिवत्व की उपलब्धि होती है। मानसकार ने व्यक्ति को प्रधानता प्रदान की है और जाति को उसके सीमंत में रख दिया है । सर्वत्र
२. साकेत - सर्ग ११
३. महाभारत वन पर्व
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
राम-स्यग्रोध की शीतल छ.4 फैली हुई है। सकें, तो बड़ा सौभाग्य हो । राम-लक्ष्मण तैयार मैथिलीशरण गुप्त में पारिवारिक मिठास है। उन्होंने नहीं हुए। वह बड़बड़ाती घर चली गयी । लक्ष्मण पुनः जाति को उभारा है और एकता का प्रयत्न उस दिव्य स्त्री के रूप एवं गुण पर अनुरक्त हो किया है। उनके ग्रंथों में भी भावना प्रतिष्ठा की चुके थे। वे अन्य किसी व्याज से उसको ढूढने भी ही है और मामह भी व्यक्ति-सुधार पर है लेकिन गये लेकिन खाली हाथ लौट पाये। चन्द्रनखा ने भी कर्म-सौंदर्य के परिवेश का प्रभाव नहीं है । मार्ग में नखों से प्रपा पार्श्व और उरु प्रदेश बाल्मीकि के राम में मृगया की भावना जाति गत विदीर्ण कर लिया। उसके केश विखरे थे और नेत्र है. तलसी के राम में देवकार्य का प्राग्रह व्यक्तिगत वाण्पा कुल उसने अपने पति स्वर को सब वृत्तांत है लेकिन गप्त जी के राम दोनों को समेट कर सुनाया और कहा कि जब मैं अपने पुत्र के उच्छिन्न चले हैं।
सिर को गोद में लेकर रो रही थी, तब शत्र ने जैन रामायनों का रूप भी भिन्न है और स्वर बलात् मेरा आलिंगन किया और मेरी यह दुरवस्था भी। विमल सूरि की एक अलग परंपरा है। उनके
कर दी है। खरने उसके भाई रावण के पास पर महाभारत-वन पर्व ।
भेजा और स्वयं चौदह सहस्र भटों को लेकर राम - पउमचरियों के अनुसार कथा-सूत्र इस को कुटी पर माक्रमण कर दिया। दिशाए सेना के प्रकार है:- ....
कलरव से भर गयीं। राम ने पहले उन्हें हंस समझा शरत ऋतु थी । बन-विचरण को निकलते ही और नीचे उतरने पर देव । लक्ष्मण ने युद्ध का लक्ष्मण को गंध युक्त पवन ने स्पर्श किया। वे उत्कंठा धुरा पकड़ा और राम से सिंहनाद की बात कहकर पूर्वक उस ओर मुड़ चले और क्रौंच रवा के तटस्थ वे तुमुल संग्राम में कूद पड़े। उसी समय पुष्पक वंशस्थ वन में पहुंचे । वहां चन्द्रनखा का पुत्र शंबूक विमान में स्थित रावण भी वहां पाया और सीता सर्यहास खड़ग के लिए तपस्या निरत था लक्ष्मण को देखकर संयम छोर बैठा । उसने प्रवलोकिनी ने सूर्यहास खड्ग को उठाकर जिज्ञासापूर्वक बांस के विद्या की सहायता से सिंहनाद किया। राम ने बीडे पर चला दिया और फूडलालंकृत मस्तक को सीता को जटायु के संरक्षण में छोड़ा और द्रतगति गिरते देखा। वे खडग ग्रहण कर राम के पास लोट से लक्ष्मण की सहायता को चल पड़े। रावण ने माये और उन्हें समस्त घटना से अवगत कराया। नीचे उतर कर सीता को उठाया और जटायु को उधर चन्द्रनखा ने अपने पुत्र का भू लुठित सिर चूर्ण-विपूर्ण कर लंका चला गया। मार्ग में सीता देखा तो वह मछित हो गयी और संज्ञा लौटने पर रोने-विलखने लगीं। रावण भी अपने अभिग्रह से करुण-दन करने लगी तथा वात्सल्य रति का विचुत नहीं हुमा और यह सोचकर संतुष्ट रहा कि परिचय देती हुई शत्र, को ढूढने लगी । उसकी समय पाकर सब ठीक हो जावेगा । सिंहनाद का दृष्टि राम-लक्ष्मण पर पड़ी। उसका क्रोध हवा रहस्य जानकर राम शीघ्र ही लौटे और कटीको होगया और कामने उसे प्रा दबाया। वरणेच्छा से सूना देखकर मूछित हो गये। पप चरित्र परमउसने कन्या का रूप धारण किया और पुन्नाग परियं का छायानुवाद है। 'स्वयंभ के पउमचरित वृक्ष के नीचे बैठकर मांसू बहाने लगी। सीता से में अपेक्षाकृत काव्य सौंदर्य है । लक्ष्मण 'मत्त गजों उसने कहा कि मेरे मां-बाप मर चुके हैं और परि- के पकड़ने में दत्तचित्त हैं कि एकाएक सुरभित जनों ने मुझको निकाल दिया है, प्राण-त्याग के पूर्व पवन उन्हें वंशस्थल की ओर ले जाता है। शक मेरी वरसेच्छा शेष है, अगर अाप अनुगृहीत कर वध की प्रकांड घटना से लक्ष्मण संतप्त होते है
१. पउमचरियं-४३-४४ वां सर्ग
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भारतीय साहित्य में सीताहरण प्रसंग और सीता भय-विह्वल । उनकी विग्रह मूलक यहां चन्द्रनखा है। दोनों ही रावण की बहिने हैं प्रकृति के लिए वे उन्हें बिउंवित भी करती हैं। एक सधवा भौर दूसरी विधवा लेकिन दोनों ही चन्द्रनखा भी प्रतिशोध के लिए सव्यसाची के स्वरिणी। विकलांग करने का प्रसंगन रामायणों सहश प्रतिज्ञा करती है। लक्ष्मण सामुद्रिक शास्त्र में नहीं है। हिन्दू रामायणों में रणभार राम के के शाता है और चन्द्रनला को कुलक्षिणी मानते हैं, कंधों पर है और जैन रामायणों में लक्ष्मरस के कंषों इस कारण उसका वरण नहीं करते । लेकिन पर । सूर्यहास की उपलब्धि समरानुक्रम को पूरा उसके प्रचारण पर वे अपने पौरुष को संयत भी नहीं करती है--एक पोर चन्द्रहास खड्ग है और दूसरी रख पाते । राज परिवार की अन्य स्त्रियां चन्द्रनखा भोर सूर्य हास । यही वासुदेव प्रतिवासुदेव का अंतर के रहस्य को ताड़ जाती हैं और दूषण युद्ध का प्रति है। सभी वर्णन जातिगत वैशिष्ट्य से पूर्ण है षेध करता है। रावण के लेख में सीता के सौंदर्य और समूचा कार्यकलाप वैयक्तिक मुक्ति तथा का भी वर्णन है। रावण लक्ष्मण के पराक्रम की धार्मिक प्राग्रह से संचालित । हिन्दू गृहस्थ काम मुक्त कंठ से संस्तुति करता है और राम की सीता मोर अर्थ को धर्ममय बना कर मोक्ष का मार्ग
री के कारण प्रसा। प्रवलोकिनी विद्या भी प्रशस्त करता है। वहां उन्नयन है और विदेह मुक्ति। रावण को समझाती है लेकिन रावण सीता पर जैन गृहस्थ धर्म की छत्र छाया में काम का प्रशमन
पवत शिव रूप को न्यौछावर कर देता है। मार्ग कर जीवनमुक्ति का प्रयत्न कर रहा है। अतः जैन में रावण को नामण्डस के अनुचर से भी युद्ध करना कथाकार कर्म और भाव दोनों का समन्वय कर पडता है। वह सीता को नंदनवन में भावासित कर चलते हैं। नगर को चला जाता है।'
उत्तर पुराण की एक प्रतिरिक्त दिगंबर परंपरा . ब्रह्म वैवर्त पुराण में भी लक्ष्मण द्वारा खर
है। इसके अनुसार कंथा सूत्र निम्न प्रकार है:दूषण के वध और शूर्पणखा के पूर्व जन्म का नारद से सीता के सौंदर्य का वर्णन सुनकर उल्लेख है। उदात्तराथव में सीताहरण का रूप रावण उसे हर लाने का संकल्प करता है। सीता इस प्रकार है कि लक्ष्मण कनक मृग की खोज में के मन की परीक्षा के लिए शूर्पणखा (चन्द्रनखा) को चले जाते हैं और रावण प्राश्रम के कुलपति का बनारस भेजा जाता है। वह सीता का सतीत्व रूप धारण कर राम और सीता के पास पहुंचता देखकर रावण
देखकर रावण से कहती है कि सीता का मन है तथा राम की निदा करता है कि उन्होंने लक्ष्मण
चलायमान करना असंभव है । जब राम और सीता
चलायमान करत को मग के पीछे भेज दिया है। उसी समय एक वाराणसी के निकट मित्रकट वारिका में बदमवेशी राक्षस पाकर यह समाचार देता है कि करते हैं, तब मंत्री मारीच स्वण मुग का रूप कनक मृग राक्षस रूप में बदल कर लक्ष्मण को धारण कर राम को दूर ले जाता है और रावण ले जा रहा है । इस पर राम सीता को रावण के राम का रूप धारण कर सीता के पास पहुंचता संरक्षण में छोड़कर लक्ष्मण की सहायता के लिए है और कहता है कि मैंने मृग को महल भेज दिया चले जाते हैं।
है और उनको पालकी पर चढ़ने की माशा देता निष्कर्षः- यहां भी समग्र प्ररंग रसाभास से है। यह पालकी वास्तव में पुष्पक है जो सीता को उपकृत है। हिन्दू रामायणों में शूर्पणखा थी और लंका ले जाती है। रावण सीता का स्पर्श नहीं १. पउमपरिउ-३६-३८ सर्ग २. ब्रह्मवर्त पुराण कृष्ण जन्म खण्ड प्रध्याय ६२
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करता क्योंकि उसे पतिव्रता के स्पर्श से उसकी प्रकाश गामिनी विद्या के नष्ट हो जाने का मय था ।"
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पुष्पदंत के महापुराण का प्रणयन भी इसी भाधार पर हुआ है लेकिन उसमें सरसता धौर रोचकता है। इसमें मारीच मंत्री कनक-मृग का रूप धारण करता है । उस समय उसका मानसिक मंचन हिन्दू रामायणों के अनुरूप है। उत्तरपुराण में राम कनक-मृग को माया-मृग समझकर उसका अनुसरण करते हैं और महापुराण में उसका कारण सीता का मनःप्रसादन बताया गया है। उत्तरपुराण में रावण मृग को लेकर नहीं जाता। यहां उसके हाथ में मृत मृग है । प्राश्चर्य-चूड़ामरिण में राम और लक्ष्मण दोनों ही मृग के पीछे चले जाते हैं। रावण प्रोर उसका सारथी उन दोनों का रूप धारण कर सीता के पास पहुंचते हैं। रथ को दिखलाकर लक्ष्मण ( सारथी) राम (रावण) से
1
कहते हैं कि भरत का राज्य संकट में है। उनकी सहायतार्थ भापको लाने हेतु तपस्वियों ने यह रच भेजा है। अनंतर तीनों रथ पर चढ़कर चले जाते हैं। उधर पूर्पणखा सीता के देश में राम के साथ बातचीत कर रही है तथा मारीच राम के वेश में लक्ष्मण के साथ |
निष्कर्ष - उत्तरपुराण का सीताहरण प्रकरण वात्सायन कामसूत्र के व्यावहारिक रूप पर खड़ा किया गया है। इससे जीवन का व्यावहारिक रूप भी प्रत्यक्ष हुआ है और अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा भी रही है। समग्र प्रकरण राजकीय संदर्भ से प्राच्छादित है । इसके संचार में शौर्य और सौंदर्य की मूल वृत्तियां सजग दिखलायी पड़ती हैं। सर्वत्र विद्यानों का अद्भुत रंग है लेकिन रसाभास नहीं है । अतः उत्तरपुराण की प्रबंधयोजना प्रषिक नाटकीय और व्यावहारिक है। इसका वातावरण भी सर्वत्र उदात्त है और काभ्यमय है ।
१. उत्तर पुराण (ज्ञानपीठ संस्करण) पृ० २८५ - २१३ २. महापुराण- ७१-७२ परिच्छेद
मनुष्य जब मरने पर उतारू हो जाता है तब क्या वह इस बात
का विचार करने बैठता है कि विष कड़वा है या मीठा ?
X
X
X
आदमी का मन आश्चर्यपूर्ण है। किस बात
से
कर लेगा सो कुछ कहा नहीं जा सकता।
X
वह क्या तय
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आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज
डा. जयशंकर मिश्र एम. ए. पी. एच. डी.
कलिकाल सर्वज्ञ जैन प्राचार्य हेमचन्द्र (जन्म वि० संग्रह प्रादि उनके प्रमुख अन्य हैं। इन ग्रन्थों में " सं० ११५, मृत्यु वि० सं० १२२६) अपने युग इन्होंने साहित्य के विभिन्न शाखाओं-प्रशाखानों पर के प्रकांड पंडित और अप्रतिम विद्वान् थे । १२ वी नए सिरे से विचार तो किया ही है, साथ ही तत्का. सदी के भारतीय साहित्य और संस्कृति के वे लीन भारतीय समाज पर भी अपनी दृष्टि से यत्र-तत्र एकमात्र प्रतिनिधि थे । साहित्य और भाषाशारत्र प्रकाश डाला है, जो तत्कालीन समाज-चित्रण की के विभिन्न विषयों के अतिरिक्त तर्फशास्त्र मीमांसा नवीन उपलब्धि है । माज तक हेमचन्द्र के भारतीय मौर इतिहास-संस्कृति के भी समान विचारक थे। समाज-संबंधी विवरण उपेक्षित से रहे हैं। यहां तक चौलुक्य नरेश जयसिंह, सिद्धराज पोर कुमारपाल कि, डा० ए० के० मजुमदार ने अपने 'चौलुक्याज की राज्यसभा के ये अग्रणी और सर्वश्रेष्ठ साहित्यक प्राव गुजरात' ग्रंथ में, इस संबंध में, कुछ भी प्रकाश पे। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भादि भाषानों नहीं डाला है। प्रस्तुत निबन्ध में तत्संबंधी उल्लेखों पर इनका समान अधिकार था अतः इन्होंने विभिन्न का विश्लेषण और मूल्यांकन किया जा रहा है। विषयों पर विभिन्न भाषामों में रचना की । प्राकृत वर्ण-व्यवस्था द्वधाश्रय भोर कुमारपालचरित, सिद्धहेमशब्दानुशान, छन्दोनुशासन, लिंगानुशासन, उरणादिगणसूत्र, देशी. भारतीय समाज में वर्णव्यवस्था का अस्तित्व नाममाला, अभिधानचिन्तामणि, त्रिषष्टिशलाका- प्राचीनतम है। ये वर्ण चार पे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, पुरुषचरित, योगशास्त्र, प्रमाणमीमांसा, अनेकार्थ वैश्य और शूद्र ।' प्राचार्य हेमचन्द्र के समय में भी
नोट-पूर्वमध्ययुगीन भारतीय समाज की सांस्कृतिक अवस्था का अनेक भारतीय प्रौर विदेशी भाषामों
में लिखे गए तत्कालीन साहित्यिक ग्रंथों और विदेशी यात्रियों के विवरणों के मूल का अध्ययन कर-प्रोफेसर डा० बुद्ध प्रकाश (अध्यक्ष, इतिहास विभाग, प्राचीन भारतीय इतिहास. संस्कृति मोर पुरातत्व विभाग, डायरेक्टर इंस्टीट्यूट प्राव इंडिक स्टडीज तथा डीन फैकल्टी अब पार्टस कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, पंजाब) ने सर्व प्रथम सम्यकरूपेण विश्लेषण प्रस्तुत किया है. जो पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से रिसर्च बुलेटिन के स्वतन्त्र पुस्तक रूप में Some Aspect of Indian Cul in the Eve of muslim Invasions "शीर्षक से प्रकाशित है। उन्होंने अनेक ऐसे ग्रंथों का उपयोग किया है जिन्हें इतिहासकारों ने अबतक उपेक्षित रखा था। उन ग्रंथों के उपयोग से विद्वान इतिहासकार ने तत्कालीन समाज पर नवीन प्रकाश डाला है जिससे तयुगीन समाज पर विचार करने की प्रेरणा मिलती है तथा तत्त इतिहास के, एक बहुत बड़े प्रभाव की पूर्ति होती है। प्रस्तुत निबन्ध में उक्त पुस्तक से अनेक स्थलों पर सहायता
ली गई है। १. शतपथ ब्राह्मण, ५, ५, ४६, निरुक्त ३८, "अपण्डक जातक" भदंत पानन्द कौशल्यायन, प्रथम
खंड, पृ० १३६, १६४१ पाणिनिः ब्राह्मण, क्षत्रियविटशूद्राः वनामानुपूर्वेण पूर्वनिपातः २।२।३४ वा० )
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ
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चार वर्ण थे। इनका कथन है कि चार वर्ण में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं । २ हेमचन्द्र के समय से कुछ पूर्व भारत की यात्रा करने वाले अरब here meatvit (मृत्यु १०४८ ई०) ने भारत के इन्हीं चार वर्गों का उल्लेख किया है। वस्तुतः ये चार वर्ण प्राचीनकाल से चले भा रहे हैं। इस aforeter का प्रेरक तत्व निश्चय ही व्यक्ति का व्यवसाय और कर्म ही था, जिस पर समाजfrश्लेषकों की दृष्टि थी । प्राचीन काल से चार वर्गों में विभाजित भारतीय जाति मध्ययुग में भी तदनुरूप ही थी । यद्यपि वर्ण-विभाजन में जन्मगत आधार का बीज "कुल" और "वंश' नाम से था गया था, ' तथापि वर्ण-व्यवस्था में व्यक्ति के व्यवसाय प्रौर कर्म का महत्व अपेक्षाकृत अधिक था । "
ब्राह्मण
हिन्दूसमाज में ब्राह्मणों की स्थिति सर्वप्रमुख थी । सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक प्रादि सभी पक्षों में उनकी प्रधानता मान्य थी । प्राचीन धर्मशास्त्रों ने इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से मानी है ।
कदाचित् इसी कारण इनकी मर्यादापूर्ण सर्वोच्चता हिन्दू समाज में थी। प्राचार्य हेमचन्द्र का कथन है कि ब्राह्मण ब्रह्मा की संतान हैं। यहां "ब्रह्मा" से उनका तात्पर्य हिन्दुनों के पौराणिक 'ब्रह्मा' से नहीं है, बल्कि प्राध्यात्मिक गुण-संपत्ति युक्त और सद्चरित्रता से विभूषित व्यक्ति "ब्रह्मा" के नाम से संबोधित किया गया है। भ्रतः "ब्राह्मण” शब्द उनके लिए प्रयुक्त होता था । 5 हेमचन्द्र का दृढ़ मत है कि जो ब्राह्मण सचरित्रता, मननशोलता प्रादि गुणों से रहित है तथा अपने मौलिक कर्तव्यों को त्याग कर "प्रायुधजीवी" (प्रर्थात् अस्त्र-शस्त्र से जीविकोपार्जन करता है) हो जाता है, वह मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है । # ब्राह्मणों के अन्य पर्यायवाची नामों में उन्होंने " षट्कर्मा नाम भी दिया है । १० शुक्र के अनुसार जो ज्ञान, कर्म, देवता यादि की उपासना देवता के प्राराधन में तत्पर, शांत, दांत और दयालु था, वही ब्राह्मण था ।" "षट्कर्मों में ये कर्त्तव्य थे । १- वेद पढ़ना, २ वेद पढ़ाना, ३-यज्ञ करना ४-यज्ञ कराना, ५- दान लेना, प्रोर ६-दान
१. चत्वार एव वर्णाश्चातुर्वण्यंम् सिद्ध है मशब्दानुशासन, ७।२।१६४ ।
२. " चातुवर्ण्य द्विजक्षत्रवैश्यशूद्र नृणा भिदः " प्रभिधान विन्तामणि, ३।८०७ ।
३. "अलबरूनी का भारत प्रवास धौर भ्रमण " -- काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ६६, अंक १, सं० २०१८, पृ० ६८-७८
४, तहकीक- मालिल - हिंद, पृ० ५० ( अनुवादक, संखाउ अलबरूनीज इंडिया )
५. " पूर्वमध्ययुगीन भारतीय वर्णव्यवस्था ", बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जर्नल वर्ष ८, अंक १,
पृ० २२३-३४, ६२
६. महा०, शांति०, ७२. १७-१८ ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तमाः ।
पादोरुपक्षः स्थलता मुखतश्च समुद्गताः । विष्णुपुराण, १.६.६ ।
७. "ब्राह्मणोऽपत्यं ब्राह्मणः, सिद्धहेमशब्दानुशासन, ७४|५६ ।
८. प्रभिधान चिन्तामणि, ६, १४१६, लिंगानुशासन, पृ० १४२, पंक्ति २० ।
E, ब्राह्मणानाम्नि - " यत्रायुधजीविनः काण्डस्पष्टा नाम ब्राह्मणाः भवन्ति । प्रायुधजीवी ब्राह्मण एव
ब्राह्मणक इत्यन्य | सिद्धहेमशब्दानुशासन, ७।१।१८४
१०. “ अवदानं कर्म शुद्ध ब्राह्मणस्तु त्रयीमुखः । वर ज्येष्ठः सूत्रकण्ठः षटकर्मा 'मुखसम्भवः
भूदेवो वाडवो विप्रो द्वयाम्यां जाति-जन्मजाः अभियान चिन्तामणि, ३, १८११-११ ।
११. ज्ञान कर्मोपासनाभिदेवताराधनेरतः । शांतोदांतोदयानुश्च ब्राह्मणश्चगुणों कृतः ॥ शुक्र० ४ ॥
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देना ।" अलबरूनी ने भी ब्राह्मणों के कुछ इसी प्रकार के कार्यों का निर्देश किया है। वह लिखता हैं कि ब्राह्मण के संपूर्ण जीवन में पुण्य के कार्य दान देना है। वह निरन्तर पढ़े, यज्ञ करे २ तथा वेद को पढ़ाए 13 शुक्र का यह विकल्प है कि ब्राह्मण दांत ( जितेन्द्रिय ), कुलीन, मध्यस्थ ( समबुद्धि), मनुद्वेगकारी (कोमल वचन) घटल, परलोक से भीरु ( डरनेवाला), धार्मिक, उद्योगो मौर क्रोधरहित हो । हेमचन्द्र ने ब्रह्मतेज उन्हीं ब्राह्मणों में वर्तमान बताया है, जिनमें आध्यात्मिक बल है । ५ प्रतः यह निर्विधादरूप से कहा जा सकता है कि समाज में ब्राह्मरणों से सद्माचार सद्व्यवहार, सवृत्ति और सद्भाव से निवास करने की अपेक्षा की जाती थी । “सभाशृंगार" नामक ग्रंथ में ब्राह्मणों के लिए यह निर्देश किया गया है कि जो धोती और उत्तरीय धारण करे, सिर भद्र रखे तथा शिखा फहराए, भाल पर तिलक लगाए, गायत्री मंत्र का जप करे, दिन में तीन बार संध्या करे, प्रातः स्नान करे, वेद पढ़े, वेदान्त का ज्ञाता हो, सिद्धांत पर चर्चा करें, देव, गुरु, ऋषि और मित्र का तर्पण करे, वही नैष्ठिक ब्राह्मण १. प्रध्यापनमध्ययनं यजन याजनं तथा ।
२.
३.
४.
५.
६.
आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज
७.
८.
है । ६ इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि उपरिलिखित निर्देशों के विपरीत चलने वाला प्रकृततः ब्राह्मणों की श्रेणी में नहीं श्राता था । ऐसा लगता है कि हेमचन्द्र के काल में ब्राह्मण अपने स्वाभाविक कत्तव्यों से विमुख होने लगे थे तथा विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में रुचि लेने लगे इसी लिए हेंमचन्द्र ने उन्हें केवल नाम का ब्राह्मण कहा है और उनके ब्राह्मणेतर कत्तव्यों की भर्त्सना की है। हेमचन्द्र स्वयं कहते हैं कि कलिंग में ब्राह्मणों को प्रतिष्ठा नहीं है । ७ इस प्रतिष्ठा का कारण अपने कर्तव्यों से च्युत होना तो है ही, साथ ही उनकी वैमनस्यता भी है । वे एक दूसरे धर्मावलंबियों के प्रति द्वेष-भाव रखते थे, क्योंकि हेमचन्द्र ने 'ब्राह्मणश्रमणम्' का उदाहरण देकर उनके मनोमालिन्य का संकेत किया है ।
८
ब्राह्मणों को प्राचीनकाल से कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त थे, जो राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और बौद्धिक सभी प्रकार के थे। इस युग में भी ब्राह्मणों को ऐसी सुविधाएं प्राप्त थीं, जिससे वे समाज में अन्य वर्गों की अपेक्षा श्रेष्ठ समझे जाते
दानं प्रतिग्रहचैव ब्राह्मणानामकल्पयत || मनु० १.८८ । तहकीकमा लिहिद, पृ० २६१ ।
वही, पृ० २७० ।
दांतं कुलीनं मध्यस्थम न गकारस्थिरम् ।
परत्र भीरु धर्मिष्ठामुक्तक्रोधवजितम् ।। शुक्र० ४.४३६ ॥
सूत्र - 'ब्रम्हावचंसम' - सिद्धहेमशब्दानुशासन, ७ । ३ । ८३ । उत्तरासंग धोती, सऊतरिक जनोइ, हाथि प्रबीती,
१४३
fee भद्रियजं, सिखा फरहरती, तिलकु बधारियउ,
गात्री साय, त्रिकाल संध्याराधनु, प्रभात स्नानु नित्यदातु ।
वेद पढ़ाई, वेदान्त जागर, सिद्धांत बखाइ,
देव तर्पणु, गुरु तर्परंतु ऋषि तर्पण, पितृ तर्पणु,
इस उन ष्टिकु ब्राह्म । 'सभावङ्गार' शब्दानुशासन का० ना० प्र० सभा, पृ० १४८ ॥
"न कलिगेषु ब्राह्मण महतमम् सिद्धहेमशब्दानुशासन, ५०२१११ । "निरयवैरस्य", वही, ३। १। १४१ ।
A
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१४४
थे । प्रोफेसर डाक्टर बुद्ध प्रकाश ने प्राचार्य हेमचंद्र का उद्धरण देते हुए ब्राह्मणों की विशेष सुविधाओंों प्रारण दंड, शारीरिक दंड आदि की समीक्षा की है । "
बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
ब्राह्मणों को प्रापत्तिकाल में जब कर्तव्य से च्युत होना पड़ता था, तब उन्हें पोषण के लिए ब्राह्मणेतर व्यवसाय अपनाना पड़ता था । इस तरह के प्रापत्तिकालिक कर्मों का निर्देश भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने किया है। ऐसी अवस्था में इतर कर्म को ग्रहण करने वाला ब्राह्मरण केवल नाम का ब्राह्मण होता था, कर्म से वह ब्राह्मण नहीं होता था । प्रापत्तिकाल में ब्राह्मण 'आयुधजीवी', 'व्यापारोपर्ज वी' 3 तथा 'ब्याजोपजीवी' हो सकता था । किन्तु प्राचार्य हेमचन्द्र ने ब्राह्मणों का इतर कर्म निद्य माना है और सामाजिक दृष्टि से अनुचित निद्दिष्ट किया है। उनका मत है कि जो ब्राह्मण सोम का विक्रय करता है, धो का विक्रय करता है तथा तेल का विक्रय करता है वह निंदनीय है । ५ निश्चय ही प्राचार्य हेमचंद्र का विचार ब्राह्मणों के प्रति तटस्थ सा है । उनके विचार से
४
३. मनु० १०.८६ ।
४. कृत्यकल्पतरु, गृहस्थकांड, २१४ - २१ ।
थे
थे,
७
थे,
प्रत्येक वर्ण को अपना कर्म करना चाहिए। किन्तु इसी युग के कुछ ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण विभिन्न कर्मों को करते । ब्राह्मण मंत्री होते थे, नगर प्रमुख होते दंडनायक होते थे, मूर्तिकार होते अभिलेखों के रचयिता होते थे । १० वे राष्ट्र और राजा की रक्षा अपनी सलाह देकर करते थे । ५१ विक्रम संवत् १२१३ के कुमारपाल के नाडील अभिलेख में उसके मंत्री का नाम वहड़देव लिखा है, जो संभवतः उसके प्रारंभिक राज्यकाल में उदयन का पुत्र था। वह दंडाधिपति के साथसाथ महामात्य भी था ।
१२
1. Buddha Prakash: Some Aspects of Indian Culture of Muslim Invasions, P. 39. २. EI, II, 301.
हेमचंद्र ने विभिन्न प्रदेशों के ब्राह्मणों के लिए उस प्रदेश के नाम के साथ उनको संबोधित किया है, जैसे सौराष्ट्र में निवास करने वाले ब्राह्मण 'सौराष्ट्रिक' अथवा 'सुराष्ट्र ब्राह्मण' कहे जाते थे, अवंति में निवास करने वाले 'अवंति ब्राह्मण' से जाने जाते थे तथा काशी देश में बसने वाले 'काशी ब्राह्मण' से अभिहित थे । १३ 'पांचाल ब्राह्मणों
on the Eve
११.EI., I, P. 293.
५. शब्दानुशासन, ५। । १५६ ।
६. राजतरंगिणी, ८, १०८, BI, 332; IHQ., XV, p. 581.
७, राजतर गिरणी, ७. १०८ ।
5. EI., II, 301,
६. बकुलस्वामी ( गिरनार अभिलेख, RLARBP. 322)
१०. कमोली प्लेट में मनोरथ, EI, II, 394; सोमेश्वर गुजरात में EI I, 31; चालुक्य शीम
द्वितीय के अन्तर्गत माधव EI, XV, 57.
१२. रासमाला, प्रत्याय १३, पृ० २३१ ।
१३, सुराष्ट्रे ब्रह्मा सुराष्ट्रः यः सुराष्ट्रे वसति स सौराष्ट्रको ब्राह्मण इत्यर्थः एवमवन्ति ब्राह्मणः काशि ब्राह्मण:- सिद्धहेमशब्दानुशासन, ७३|१०७ ।
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भाचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज
१४५ का भी उल्लेख हेमचंद्र ने किया। है' प्रतः' शब्द को 'क्षत्रात्त्राणम' से निःसृत माना है। ४ हेमचंद्र द्वारा दिए गए, विभिन्न प्रदेशों के ब्राह्मणों 'क्षतात्त्राणम', अर्थात् उनका कर्म था अन्य तीन के इन उल्लेखों से उनकी व्यापकता और उनका वर्णों के लोगों को हानि अथवा भय से रक्षा विस्तार प्रकट होता है । साथ ही यह भी स्पष्ट करना। हेमचंद्र ने 'क्षत्रिय' और 'राजन' शब्द पर होता है कि उन प्रदेशों के ब्राह्मणों का समाज में विचार करते हुए लिखा है कि क्षत्रिय जाति के उत्कृष्ट स्थान था।
मभिषिक्त व्यक्ति 'राजन्य' के नाम से अभिहित मौर क्षत्रियेतर जाति के प्रशासक व्यक्ति “राजन्य'
के नाम से संबोधित किए जाते थे। यही नहीं. राजनीतिक दृष्टि से क्षत्रियों का महत्व हिंदू हेमचंद्र ने सघीय शासम में भाग लेने के अधिकारी समाज में प्रमुख था। समाज के परिपोषण और क्षत्रिय' कुल के व्यक्तियों को भी 'राजन्य' नाम रक्षण में उनका अभूतपूर्व योग था । देश पोर दिया है। माः इस विवेचन से स्पष्ट है कि जनता की व्यवस्था का रक्षात्मक और निर्देशात्मक क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत 'राजन' और 'राजन्य' भार क्षत्रिय समुदाय पर था। मध्यकाल में ही दोनों पाते थे। नहीं, प्राचीनकाल में भी जब-जब देश पर शत्र मों
कर्म की दृष्टि से क्षत्रियों का कर्म अत्यंत का भाक्रमण हुमा, क्षत्रियों ने एकनिष्ठता और
महत्वपूर्ण था। शक के अनुसार जो लोक की रक्षा साहस के साथ देश और प्रजा की रक्षा की। प्रतः
करने में दक्ष, बीर, दांत, पराक्रमी पौर दुष्टों को शूरता मोर वीरता की दृष्टि से क्षत्रियों का मान
दंड देने वाला हो, वही क्षत्रिय है । . प्राचार्य समाज में ब्राह्मणों की अपेक्षा कम नहीं था। नवी
हेमचन्द्र ने क्षत्रियों को "शरता"को ही "परुषार्थ" शती के अरबी लेखक इनखुर्दाज्या ने लिखा है कि
माना है । ऐसा लगता है हेमचन्द्र ने क्षत्रियों क्षत्रियों के समुख सभी सिर झुकाते हैं, लेकिन वे
के "पुरुषार्थ" के अंतर्गत सभी कर्मों को निहित कर किसी को सिर नहीं मुकाते । २ इस कथन से
लिया । हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती सम्राट् भोज की यह इतना स्पष्ट है कि उनका समाज में भादरात्मक
व्यवस्था है कि "जो बीर, उत्साही शरण देने और स्थान था।
रक्षा करने में समर्थ, हद और विशाल शरीर वाले हेमचंद्र ने 'क्षत्रिय' शब्द को' क्षत्र 'शब्द से थे, वे संसार में क्षत्रिय हुए। उनका काम ब्राह्मणों व्युत्पन्न 'इय' प्रत्यय के साथ जाति पर्थ में प्रयुक्त के लिए निर्दिष्ट कार्यों के प्रतिरिक्त विक्रम. प्रजा होना बताया। किंतु लक्ष्मीपर ने 'क्षत्रिय' की रक्षा, उनके भाग प्रादि का प्रबन्ध और व्यवस्था
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१. पंचालस्य ब्राह्मणस्य राजा पांचाल. पंचालस्य ब्राह्मणस्यापत्यं वा पांचालः वही, ६।१ ११४ २. किताबुल-मसालिक-बल् ममालिक, पृ०७१, लीडन, १८८६ ३. 'क्षत्रादित्यः 'क्षत्रस्थापत्यं क्षत्रियः बातिश्चेत 'सिउहेमशब्दानुशासन, ६॥ १। ६३ । ४. कृत्यकल्पतरु, गृहस्थ०, पृ० २५२ । ५. 'जातौ रामः-''राजन् शब्दादपत्यै जातो गम्यमानायां य: प्रत्ययो भवति, यथा-रामोऽपत्यं ___ राजन्यः क्षत्रियजातिश्चेत् । राजनोऽन्यः ।-सिबहेमशब्दानुशासन, ६।१६९२ । ६. 'राजन्याविम्योऽकम्'-वही, ६।२।६६॥ ७. शुक०, १.४१॥ ८. क्षत्रियः पुरुषाणां पुरुषेणु वा धूरतम् '-सिद्धहेमशब्दानुशासन, २२२॥ १०॥
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ करना था। प्रतः हेमचन्द्र द्वारा निर्दिष्ट है। किन्तु, 'सभाश्रश्रृंगार' नामक ग्रंप से "क्षत्रिय" वर्ग के पुरुषार्थ का भाष्य भोज के उपरि- राजपूत क्षत्रियों के छतीस वर्ग मिलते हैं । जो इस लिखित कथन से भले प्रकार हो जाता है । एक प्रकार हैं : “परमार, राठौर, चौहाण, (चौहान स्थल पर प्राचार्य हेमचन्द्र ने क्षत्रियों के पांच नाम या चाहमान), गहिलोत (गिहलोत) दहिया, सेवा, दिए हैं, जो इस प्रकार हैं- "क्षत्रम्, क्षत्रिय, राजा, बोरी, बगछा, सोलंकी, सीसोदिया, खेरमारी, राजन्य और बाहु संभव । २ लेकिन इतना नाकुभ, गोहिल, चावड़ा, झाला. छूर, कागवा, अवश्य है कि क्षत्रिय वर्ग का मुख्य कार्य प्रजा और जेठवा, रोहर, वस, बोरड़. खोची, खरवड़, शासन की देखभाल करना था। इस सम्बन्ध में डोडिया, हरिपड़, डाभी, तंभर, कोरड़, गोड, भरवयात्री अलबीरूनी का कथम युक्तियुक्त है:- मकवाड़ा, यादब, कछवाहा, माटी, सोनिगरा. "क्षत्रीय वेद को पढ़ता है पढ़ाता नहीं । वह यज्ञ देवड़ा, चंद्रावत । " ये छत्तीस, राजकुल थे जो करता है, पुराणों के नियमानुसार पाचरण करता भारत के विभिन्न प्रदेशों में निवास करते थे। है। वह प्रजा पर शासन करता है और उनकी रक्षा
ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है कि हेमचन्द्र के करता है। क्योंकि वह इसी निमित्त पैदा किया
समय क्षत्रियों का प्रधान कर्म पूर्व-निर्दिष्ट था तथा गया है। ३
देश के विभिन्न भागों में वास करने से उनके विभिन्न प्राचार्य हेमचन्द्र ने विभिन्न प्रदेशों में रहने नाम हो गए थे, जो कालांतर में जाकर अनेक वाले क्षत्रियों को प्रदेश नाम के साथ जोड़ कर श्रेणियों में हो गए तथा उसी प्रकार उनके नाम नवीन माम दिया है। उनके अनुसार मगध में भी परिवर्तित हो गए। "मागघ जाति" के क्षत्रिय वास करते थे। ४ इसी प्रकार यौधेय, मालव, पांचाल आदि जाति के वेश्य क्षत्रिय उस प्रदेश में बसते थे । हेमचन्द्र ने भारतीय समाज में राष्ट्र की अर्थनीति "इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रियों को "मादि क्षत्रिय" माना व्यापार-प्रणाली का सर्वथा भार वैश्यों के हाथ है। भोज परमार के नाम पर मालवा के था। देश और समाज की प्रार्थिक स्थिति को सात परमार क्षत्रियों को इन्होंने 'भोजवंशजा' माना और सुसंगठित बनाने के लिए वैश्य वर्ग को नियोजित
१. येतु शुरा महोत्साहाः शरण्या रक्षण क्षमाः ॥ हव्यायत देहाश्च क्षत्रियास्तु इहाभवन् ।
विक्रमोलोकसरक्षा विभागो व्यवसायिता ।। समरांगणमूत्रधार, ७. ११-१२। २. 'क्षत्र तु क्षत्रियों राजा, राजन्यो वाहुसंभवः' । अभिधानचिन्तामणि, ३.८६३। ३. तहकीक-मालि-हिंद, पृ० २७४ । ४. 'मगधानां राजा, मगधस्यापत्यं वा मागधः-' सिद्धहेमशब्दानुशासन, ६।१।११६॥ ५. 'इक्ष्वाकुः आदि क्षत्रियः'-उरणादिसूत्रवृत्ति, ७५६ । ६. 'भोज्या-भोजवंशजा क्षत्रियाः'-सिद्धहेमशब्दानुशासन, २।४।१। ७. सभाशृंगार, पृ० १४६॥ नोट:-कल्हण ने अपनी “राजतरंगिणी" (७.१६१७) में भी राजपूतों के ३६ कुलों का निर्देश
किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि ये 'कुल' १२ वीं सदी के बहुत पहले सर्वविदित थे।
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आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज किया गया था। प्रतः राष्ट्र के पार्थिक व्यवहार वैश्य का धर्म है कि खेती करे, भूमि को जोते, पशु का संचालन वश्य करते थे।
पाले पोर ब्राह्मणों की प्रावश्यकता को पूरी प्राचार्य हेमचन्द्र ने "वैश्य" के लिए "प्रयं" करे । ७ वैश्यों के व्यापार करने का निर्देश शब्द का प्रयोग किया हैं। उनका यह शब्द अलबीरूनी ने नहीं किया है । अलबीरूनो के पूर्ववर्ती प्रयोग. पाणिनि के प्राधार पर है। पाणिनि ने भी भरवलेखक इनखुर्दाग्बा ने वैश्यों को कारीगर और "वश्य" के लिए "भयं" व्यवहत किया है। २ घर-गृहस्थी के कार्यों में निपुण बताया है । ८ ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने पाणिनि के हेमचन्द्र से कुछ ही पहले होने वाले परबलेखक तत्संबंधी सत्र को थोड़े परिवर्तन के साथ ग्रहीत कर मल-इदरीसी ने वैश्यों को कला-कौशल में निपुण लिया। हेमचन्द्र ने वैश्यों के छः नाम दिए हैं। "मर्या. तथा मिस्री निर्दिष्ट किया है। प्रतः स्पष्ट भमिस्पर्शः, वैश्या, ऊरव्या ऊरुजाः पौर विशः।। है कि प्राचार्य हेमचन्द्र के काल तक पाते-पाते इस प्रकार स्पष्ट है कि हेमचन्द्र के काल तक वैश्यों वैश्यों के कर्मों में काफी परिवर्तन होता गया। के लिए उपरिलिखित छहों नाम प्रचलित थे। केवल व्यावसायिक कार्य से ही वे सम्बद्ध थे।
वैश्यों का प्रमुख कार्य था, पशुञों की रक्षा हेमचन्द्र ने व्यापार करने वाले वैश्यों को पाठ करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्याज प्रकार का बतलाया है : “वारिगजः, वणिक, लेना और खेती करना । इस सम्बन्ध में क्रयविक्रयिक, पण्याजीबी, भापणिक, नैगमः, हेमचन्द्र का कथन है कि वाणिज्य, पशुपालन और ऋयिक, पौर क्रयी। १० वस्तुए खरीदने वालों कृषि वैश्यों को प्रधान वृत्तियां हैं। उन्होंने को उन्होंने तीन नाम दिए हैं, क्रायक, ऋयिक और इनके छह आजीविका का भी निर्देश किया है, क्रयी।" इसी तरह तीन नाम वस्तुएं बेचने जो इस प्रकार है 'प्राजीव, जीवनम, वार्ता, जीविका, वाले को भी दिए हैं : विक्रायक, विक्रयिक पौर वृत्ति और वेतन । ६ प्रलबीख्नी का कथन है कि विक्रयी १२ ।
१. 'स्वामिवश्येऽर्य:'-सिरहेंमशब्दानुशासन, ५११। ३३ । २. अर्यः स्वामि वैश्ययो - पाणिनि०, ३. १०. १०३। ३. "प्रर्या भूमिस्पशों वैश्या, ऊरव्या ऊरुजा विश:'-प्रभिधान चिन्तामणि, ३.८६४ । ४. मनु० १६०. को० म०, १.३७, शुक्र० १.४२ । ५. "वाणिज्यं पाशुपाल्यं च, कर्षण चेति वृत्तयः । “मभिधान चिन्तामणि, ३.८६४ । ६. 'प्राजीवो जीवनं वार्ता, जीविका वृत्ति वेतन-वही, ३.८६५ । ७. तहकीक-मालिल्-हिंद, पृ० २७१ ।। ८. E., Vol. II, p. 16. ६. Ibid., p. 76. १०. 'सत्यानृतं तु वारिणज्यं वाणिज्या परिणजो वणिक ।
क्रयविक्रयिकः पण्याजीवाऽऽपरिणकनंगमाः ॥ अभिधानचिन्तामणि, ३.८६७ । ११. वही ३.८६८ । १२. वही ।
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: बाबू छोटेखाल जैन स्मृति प्रन्य ___डा० प्रत्तेकर ' और धुर्ये २ का मत सूर्यवंशीय. हरिवंशीय उपकुली, भोगकुली, सोलंकीय है कि वैश्य कालान्तर में पाद की स्थिति तक मा गुहिल्ल, उच्च, परमार, प्रतिहार, चौलुक्य, सकल गए । किन्तु हेमचन्द्र के उपरिलिखित विवरण के प्रमुख क्षत्रिय; शिल्पकार, स्वर्णकार, प्रमुख वैश्य विवेचन से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि मध्य- वर्ण; प्रमुख, सौद्र ।" काल में पेश्यों की स्थिति शूद्रों के समानान्तर नहीं इस वर्णन से वैश्यों की निम्नता नहीं झलकती थी, बल्कि प्राचीन काल से उनका जो स्थान समाज में
है। ग्राम प्रपवा नगर में ये एक साथ रहते थे और में था, वह अब भी था। मंतर केवल एक बात
अपने व्यवसाय का पालन करते थे। वस्तुतः वंश्यों का था, वह यह कि उनको प्राचीन काल में जो
के स्तर के सम्बन्ध में डा. अल्तेकर और डा. अधिकार वेद पढ़ने का था, वह इस काल में
धुर्ये का कथन युक्तियुक्त नहीं। माचार्य हेमचन्द्र सम्भवतः ग्राबद्ध सा हो गया था। किन्तु इसका का कथन ही वैश्यों के व्यवसाय और उनकी स्थिति यह पर्थ नहीं कि उनकी अवस्था शूद्रों के समकक्ष
का सर्व प्रकारेण प्रतिनिधित्व करता है, जिसकी थी । भारतीय ग्राम विभिन्न जाति के लोगों के
संपुष्टि "सभाथ गार" के उपयुक्त वन से पावास से सर्वथा परिपूर्ण होते थे । ग्राम अथवा
होती है। शहर की प्रावश्यकतामों की प्रति करने वाले सभी व्यवसाय के लोग उसमें रहते थे जिसमें केवल वैश्य शूद्र और शूद्र ही नहीं ब्राह्मण और क्षत्रिय भी शामिल भारतीय सामाजिक प्राचार-विचार और थे। प्रतः वैश्य कालान्तर में शूद्रों के स्तर तक पा व्यवहार-क्रम में शूद्रों का स्थान अन्य बों की गए। युक्तिसंगत नहीं। "सभाथ गार" के एक तुलना में चौथा स्थान था। समाज के अन्य वणों वर्णन से विदित होता है कि नगर में अनेक व्यव- के कर्मों और अधिकारों की अपेक्षा इनके अधिकार सायों को करने वाले तथा सभी वर्ण के लोग और कर्म सीमित थे । न उन्हें बेद पडने का निवास करते थे
अधिकार था, न व्यापार करने का। समाज की
सर्वविधिपूर्वक सेवा करना ही उनका मुख्य कर्म तथा महासार्थवाह, इम्य श्रेष्टि, व्यवहारिक,
था। ईश्वर की भोर से शूद्र का एकमात्र कर्म दीपिक, नैस्तिक; प्रमुख प्रस्तोक, कवि अरणलोक;
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, तीनों वरण की सुध षा तथा सुवर्णकार, कांस्यकार, दंतकार, लोहकार,
करना ही प्राचीन धर्म शास्त्रों में बताया गया है। ४ शिल्पकार; रथकार, सूत्रधार, सूपकार, चित्रकार, कुभकार, मालाकार रूप प्रमुख बसई; नगर हेमचन्द्र ने दो प्रकार के शूद्र ५ वतलाए शातीय, श्रीमालज्ञातीय, डीडवाल, सडेरवाल, हैं, एक आर्यावर्त में रहने वाले और दूसरे मार्यावर्त जालंधरीय, सत्यपुरीय, प्रमुख ब्राह्मण ; सोमवंशीय, के बाहर रहने वाले । आर्यावर्त में रहने वाले शूद्रों
१. The Rashtrakutas and their Times, pp. 332-33. P. Caste and class in India, pp. 57,64, 88, 96. ३. सभागार, पृ० ११ । ४. एकमेवतु, शूद्रस्या प्रभुः कर्मसमादिशत् ।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रषामनसूयया ॥ मनु० २.६१, याज्ञ० ५१.२०, महा० शांति०, ७२.८ । ५. “पात्र यशूद्रस्य'-सिबहेमशब्दानुशासन, ३।१।४३ ।
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प्राचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज
- १४६ के दो वर्ग थे, पात्र या पौर अपात्र या । जो शूद्र रखकर 'प्रार्य' हो सकते थे। अगर ऐतिहासिक अभिजात्य वर्ग के बर्तनों में भोजन-पान कर सकते तथ्यों को देखा जाय तो प्राचार्य हेमचन्द्र का कथन थे तथा मांजने से वर्तन शुद्ध हो जाते थे,' वे सर्वाशतः खरा उतरता है । गिरि-पश्चिम शासन पान या नाम से संबोधित किए गए। पौर जो के दुर्जय परिवार और वेलनांहु के प्रधान, महाशूद्र इस योग्य नहीं थे वे अपात्र या कहे गए। मंडलेश्वर पद तक पहुंच गए थे, जो शूद्र थे । । शूद्रों के विषय में सम्राट् भोज का विकल्प है कि यद्यपि डा० घोषाल का यह मत है कि इस काल
ने मान का ख्याल न करने वाले, पूर्ण रूप से (१०००ई० से १३०० ई.) की कृतियां और पवित्र न रहने वाले, चुगलखोर और धर्म से विरत टीकाएं शूद्रों के व्यवसाय और स्तर के सम्बन्ध में रहने वाले शूद्र जाति के अंतर्गत हए। कौशल पुराकालीन स्मृतियों का अनुसरण करती है। दिखाकर, मुख से विशेष प्रकार की आवाज निकाल परन्तु यह कथन पूर्णतः एकांगी है। इस सर कर. कारीगरी और पश-पालन से जीविका चलाना में प्रोफेसर डा. बुद्ध प्रकाश ने लक्ष्मीवर का तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-तीनों वर्ण की सेवा उद्धरण देते हुए इस मत की स्थापना की है कि करना उनका प्रधान धर्म है । २ भोज के इस शुद्ध मस्तिष्क वाला ( अथवा सचरित्र) शा. कथन से स्पष्ट होता हैं कि जो शूद्र मानी और भ्रष्ट ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य से अच्छा पवित्र थे तथा धर्म-पालन करते थे, वे शूद्र वर्ग से था । ७ निश्चय ही इस युग के लेखकों ने ऊंचे रहते थे। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी इस पर पुरानी लीक का अनुसरण न कर युग की मांग का विचार किया है। उनका यह दृढ़ मत है कि समर्थन किया है। जैसा कि ऊपर निर्दिष्ट किया शीलवान व्यक्ति ही 'प्रार्य है। जो व्यक्ति गया है प्राचार्य हेमचन्द्र और सम्राट् भोज का ज्ञान, दर्शन और चरित्र रखता है, वही भार्य यह मत है कि शूद्र पवित्रता, धर्मानुसरण, ज्ञान, है । इस प्रकार शूद्र भी इन्हीं गुणों को और दर्शन से 'मार्य' पद को प्राप्त कर सकता है। १. "यभुक्त पात्र संस्कारेण शुद्धयति ते पात्रमहन्तीति पात्र याः", वही, ३।१।१४३ । २. नातिमानभृतो नाति शुचयः पिशुनाश्च ये।
ते शूद्रजातयो जाता नाति धर्मरताश्चये । कलारम्भोपजीवित्यं शिल्पिता पशुपोषणम् ।
वर्णात्रितयशुश्रुषा धर्मस्तेषामुदाहृतः ॥ समरांगणसूत्रधार, ७. १५ १६ । ३. 'शीलमस्माकं स्वम्'-सिद्धहेमशब्दानुशासन, २।१।२१ । ४. 'प्रर्यति गुणान् प्राप्नोतीति मार्यः' । वही । %. Ganguly, D. C.: The Eastern Calukyas, p. 170 ६. "The description of Sudra's occupation and Status in the come
ntaries and digests of this period followed the old Smriti lines.”
The Struggle for Empire p. 475. ७ "Inspite of these caste-complexes, the position of the lower
classes improved during this period. Laksmidhara held that a pure-minded Sudra was better than a notorious Brahmana, Ksatriya or Vaisya. Some Aspects of Indian Culture on the eve of Muslim Invasions. p. 39.
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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'यही नहीं, मेघातिथि के काल में शूद्रों की सामाजिक स्थिति और उनका व्यवसाय सद्भावना की दृष्टि से देखा गया है । मेधातिथि और विश्वरूप दोनों ने यह आधार लिया है कि शूद्र न सेवक बनाए जा सकते हैं, न ब्राह्मण पर निर्भर किए जा सकते हैं । वे व्याकरण तथा अन्य विद्याओं के शिक्षक हो सकते हैं, स्मृतियों द्वारा निर्दिष्ट उन सभी कृत्यों को सम्पन्न कर सकते हैं, जो ग्रन्य वरणों के लिए हैं । १ अतः यह समीक्षा डा० घोषाल के मत का स्वयं खंडन कर देती है तथा मध्यकालीन शूद्रों की स्थिति और समाज में उनके स्थान की उच्चता दिग्दर्शित करती है ।
ર
प्राचार्य हेमचन्द्र ने कुम्हार, नापित, बढ़ई, लोहार, तन्तुबाय- बुनकर, रजक धोबी, तक्ष, प्रयस्कार, प्रादि वर्ग के लोगों को शुद्र के अंतर्गत माना है । उनके अनुसार शूद्रों के छह नाम थे, शूद्र, अन्य वर्ण, वृषल, पद्यः, पज्जः श्रौर जघन्यज । 'प्राभीर' जाति को हेमचन्द्र ने 'महाशूद्र' कहा है। कात्यायन ने भी 'महाशूद्र' स्वीकार किया है । इस प्रकार शूद्रों में भी महाशूद्र थे, जो सम्भवतः शक, हूरण और यवन जैसी विदेशी जातियों के लोगों की तरह थे ।
3
*
५
अन्य निम्न जातियां
६
७
इन चार कणों के अतिरिक्त समाज में धीर भी अनेक जातियां थीं, जो इन वर्गों की अपेक्षा निम्न थीं, जिनका कार्य भी निम्न था प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रधानतः तेरह जातियां बताई हैं, जो अनुलोम-प्रतिलोम के कारण बनी थीं, जिन्हें वे मिश्र जाति कहते हैं । मिश्र जातियां ये थीं। "मूर्धावसिक्त, अम्बष्ठ, पराशय, निषाद, माहिष्य, उग्र, करण, प्रायोगव, क्षता, चण्डाल, मागघ, वैदेहक, सूत भौर रथकारक । ऐसी जातियों के विषय में अपरार्क का कथन है कि चांडाल, पुक्कस, भिल्ल, पारसी, महापातकियों से छू जाने पर सवस्त्र ( सचैल ) स्नान करे । 5 अतः इस कथन से स्पष्ट होता है कि ये जातियां अस्पृश्य थीं । आचार्य हेमचन्द्र ने "धोबी" को "शूद्र" के अंतर्गत रखा है जबकि संवर्त का कथन है कि कैवर्त (वे. बट या मल्लाह), मृगयु (मृग मारने वाला), व्याध ( बहेलिया), शौनि (कसाई), शाकुनिक (चिड़ीमार ) तथा रजक (धोबी) प्रस्पृश्य हैं। अलबरूनी ने इन प्रस्पृश्य जातियों के प्राट वर्ग बताए हैं। धोवी, मोची, मदारी, टोकरी, मौर ढार बनाने वाले, माझी (नाविक ) मछुम्रा ( मछली मारने वाले), पशु-पक्षी हिंसक और बुनकर। वह
१. मेधातिथि - मनु० ३.६७, १२१, १५६, १०. १२७ ।
२. सिद्धहेमशब्दानुशासन, ६।१।१०२ ।
३. शूद्रोऽन्त्यवर्णो वृषलः पद्यः पज्जो जघन्यजः । अभिधानचिन्तामणि, ३८६४ ।
४.
' कथं महाशूद्रो - श्राभीजाति: नात्र शूद्र शब्दो जातिवांची कि तहि महाशूद्रशब्दः । यत्र तु शूद्र एव जातिवाची तत्र भवत्येव डीनिषेध: । महती चासौ शूद्रा च महाशूद्रेति सिद्ध हेमशब्दानु
शासन, २|४|५४ ।
५. ४११७४ |
. Some Aspects of Indian Culture on the Eve of Muslim Invasions, pp. 40, 111-17.
७. श्रभिधानचिंतामणि, ३. ८६४-६६ ।
८. प्रपरार्क, पृ० २६३ ।
९. सवत- वही, पृ० ११६६ ।
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भाचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज मागे कहता है कि हाड़ी, डोम, चांडाल और बधती ८. क्षता : जिनकी उत्पत्ति शुद्र पुरुष और निम्नतम कार्य करते हैं।'
क्षत्रिय स्त्री से हुई थी वे “क्षत्ता" कहे गए। हेमचन्द्र २ ने इन जातियों की उत्पत्ति के . चण्डाल : शूद्र पुरुष पोर ब्राह्मण स्त्री से विषय में प्रकाश डाला है, जिनसे यह विदित होता जिनका जन्म हुमा वे "चण्डाल" की श्रेणी में है कि ये जातियां कैसे उत्पन्न हुई।
प्राए ।
१०. मागध : इनका जन्म वैश्य पुरुष पौर १. मूर्धावसिक्त : जो व्यक्ति ब्राह्मण पुरुष क्षत्रिय स्त्री से हुमा था, इस कारण इनका नाम पौर क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न हुआ, वह, “मागध" हुमा । "मूर्धावसिक्त"कहा गया।
११. वैदेहक: जो व्यक्ति वैश्य पुरुष और २. अम्बष्ठ: वे थे जो ब्राह्मण पुरुष और बादाय स्त्री से पैदा हए वे "वैदेहक" की श्रेणी वश्य स्त्री से पैदा हुए थे।
में पाए। ३. पराशव निषाद : जो भादमी ब्राह्मण १२. सूत : इस नाम से वे लोग अभिहित पुरुष शूद्र स्त्री के मिलन से उत्पन्न हुमा था, वह हुए जो क्षत्रिय पुरुष पौर ब्राह्मण स्त्री के संयोग से "पराशव निषाद" कहा गया।
उत्पन्न हुए। ४. माहिध्य : वर्ग के लोग वे थे जो क्षत्रिय
१३. रथकारक : जो व्यक्ति माहिष्य पुरुष पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न हुए थे।
(क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से जो उत्पन्न थे)
और करणी स्त्री (जो स्त्री वैश्य पुरुष और शूद्र ५. उग्र : क्षत्रिय पुरुष और शुद्र स्त्री से जो स्त्री के संयोग से पैदा हुई थी ) से उत्पन्न हुमा हो, उत्पन्न हुए वे "उग्र" कहलाए।
वह रथकारक कहा गया। ६. करण : वे थे जो वैश्य पुरुष और शूद्र इस तरह प्राचार्य हेमचन्द्रका उपयुक्त विवरण स्त्री से पैदा हुए थे।
तत्कालीन समाज को नवीन उपलब्धि है तथा ७. आयोग : जो शूद्र पुरुष पौर वैश्य स्त्री तयुगीन समाज
तदयुगीन समाज के स्वरूप को व्यक्त करने में नई के संयोग से उत्पन्न हुए, वे प्रायोगव कहलाए। दिशा प्रदान करता है ।।
१. तहकीक-मालिल्-हिंद, पृ० ५० । २. क्षत्रियायां द्विजाद् मूर्धावसिक्तो विस्त्रियां पुनः॥
अम्बष्ठोऽथ पारशवनिषादी शूद्रयोषिति । क्षत्राद् माहिष्यो वैश्यायामुग्रस्तु वृषलस्त्रियम् ॥ वैश्यात् तु करणः शूद्रात् त्वायोगवो विशः स्त्रियाम् । क्षत्रियायां पुनः क्षत्रा, चण्डालो ब्राह्मणस्त्रियाम् ।। वैश्यात् तु मागधः क्षत्र यां, वैदेह को द्विस्त्रियाम् । सूतस्तु क्षत्रियाज्जत, इति द्वादश तद्भिदः ।।
माहिष्येण तु जातः स्यात्, करण्यां रथकारकः । प्रभिधानचिन्तामणि, ३.८६५-६६ । ३. मनु के अनुसार भी चांडाल की उत्पत्ति शूद्र पिता और ब्राह्मणी माता से हुई थी
मनु० १०.१२ ।
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अशनं मे वसनं मे जाया मे बंधुवर्गो मे । इति मे मे कुर्वाणं, कालवृको इन्ति पुरुषाजम् ||
अर्थ -- यह मेरा भोजन है, यह मेरा कपड़ा है, यह मेरी स्त्री है, ये मेरी कुटुम्बी गए हैं; इस तरह मे मे करने वाले बकरे को काल । (मौत) रूपी भेड़िया मार डालता है।
अनुगन्तु सतां वर्त्म, कृत्स्नं यदि शक्यते । स्वल्पमप्यनुगन्तव्यं मार्गस्थो नावसीदति ।।
यदि सज्जन पुरुषों के कार्यकलापों का पूर्ण रूप से अनुगमन नहीं कर सकते हो तो थोड़ा-थोड़ा ही करो क्यों कि रास्ते पर लगा हुवा। मनुष्य एक न एक दिन अवश्य ही ठिकाने पहुंच जाता है, इधर-उधर । भटकता नहीं ।
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५वीं शती के प्राकृत ग्रन्थ वसुदेव हिन्डो की राम कथा . (सीता रावण की पुत्री थी, इसका सबसे प्राचीन प्रमाण )
• अगर चन्द नाहटा भारतीय जन-मानस में वैसे तो भनेक देवी-देव- मतभेद है। श्री बुल्के ने उन मत भेदों को ४
तामों के प्रति मादर की भावना दिखाई देती विभागों में विभक्त किया है। है, पर उनमें से सबसे अधिक प्रादर लोक जीवन में
१-"जनकात्माजा-महाभारत, हरिवंश, पउमजिन महापुरुषों के प्रति दिखाई देता है वे हैं, राम चरिय, मादिरामायण । पौर कृष्ण । भारतीय जनता का सबसे पहला, मुकाव २-भूमिजा-वाल्मीकि रामायण तथा भधितो प्रकृति देवता सूर्य, अग्नि प्रादि के प्रति दिखाई . कांश राम कथाएं। देता है-फिर इन्द्र प्रादि देवों के प्रति । अन्त में (२) दशरथ तथा मनका की मानसी पुत्री%B मनुष्यों को ही उनके विशिष्ठ गुणों के कारण बाल्मीकि रामायण के उत्तरीय पाठ अवतार मानते हुये उनकी पूजा करने लगे । राम (३) देववती तथा लक्ष्मी का अवतार । पौर कृष्ण तथा महावीर और बुद्ध ऐसे ही महापुरुष ३-सीता मोर लंका-रावणात्मजा-(१) गुणपे जिनकी लोक मानस पर गहरी छाप है । राम का भद्र कृत उत्तर पुराण, महाभागवत पुराण परित्र वास्तव में ही एक प्रादर्श रहा है भतः उनके (२) काश्मीरी रामायण पाश्चात्य वृतान्त चरित का जितना भी प्रचार हो, अच्छा ही है। नं. १६ (३) तिब्बती तथा खोतानी रामायण
राम कथा को लेकर देश और विदेशों में इतने (४) सेरत काण्ड, सेरी राम का पातानी पाठ मधिक साहित्य का निर्माण हुवा है कि उन सवकी (५) रामकियेन (रे प्राम केर ?) । पूरी जानकारी प्राप्त कर लेना बहुत कठिन है। (प्रा) पदमा-दशावतार चरित्र (११ वीं ग. रेबरेंड फादर कामिल बुल्के ने इस सम्बन्ध में जो श. ई.) (२) गोविन्द राज का वाल्मीकि रामायण महत्वपूर्ण खोज की है। उससे-'राम कथा संबंध साहित्य की यद्यपि कुछ झांको मिल जाती है तथापि (इ) रक्तजा-अद्भुत रामायण (१५ वीं अभी बहुत से ऐसे ग्रंप हैं, जिनकी मोर उनका श. ई.) (२) सिंहल द्वीप की राम कथा एवं अन्य ध्यान ही नहीं गया। ऐसे ही एक महत्वपूर्ण प्राकृत विविध भारतीय वृत्तान्त । भाषा के जैन कथा ग्रंथ 'वसुदेव हिन्डी' में वर्णित (ई) अग्निजा-(१) प्रानन्द रामायण (१५ राम कथा को यहां प्रकाशित किया जा रहा है। वीं श. ई.) (२) पाश्चात्य वृत्तान्त नं. १६ (३) पहप्रय संघदास गणि वाचक ने ५ वीं शताब्दी में पाश्चात्य वृत्तान्त नं.१। बनाया था। वैसे इसमें श्री कृष्ण के पिता वसुदेव की (४) दशरथात्मजा-(१) दशरथ जातक (२) भ्रमण वृत्तान्तों का वर्णन प्रधान है पर अन्य जावा के राम कलिंग, मलय के सेरी राम तथा भनेक कथाएं व प्रसंग भी इसमें वरिणत हैं। हिकायत महाराज रावण ।"
राम कथा में सीताजी का प्रमुख स्थान है। पाठकों को यद्यपि यह विचित्र सा लगेगा पर उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में काफी विवाद या किन्तु यह एक तभ्य सा लगता है कि सीता वस्तुतः
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ बनक की पुत्री नहीं थी। उसे तो चाहे वह किसी पाया है कि-वेताढ़ य पर्वत की दक्षिण श्रेरिण में ही रूप में प्राप्त हुई हो, संयोग से मिल गई थी। परिजयपुर नाम के नगर में मेघनाद नामक राजा बात चाहे और भी विचित्र लगे पर बौद्ध जातकों में था। उसकी रानी श्री कान्ता के गर्भ से पद्मश्री तो सीता को दशरथ की पुत्री और राम की बहन नाम की एक रूपवती कन्या जनमी । यौवन अवस्था तक बताया गया है।
प्राप्त होने पर उसके रूप को चर्चा विद्यावरों में स्व. श्री नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने जन सर्वत्र फैल गई। मेघनाद ने पदम श्री के विवाह के साहित्य और इतिहास में राम कथा की विविध सम्बन्ध में नैमित्तिक से पूछा तो उसने कहा कि यह घारामों का उल्लेख करते हये प्रभृत रामायण, कन्या तो किसी चक्रवर्ती की मानीता रानी होगी। बौद्ध जातक और जैन उत्तर पुराणों की कथा अन्त में कन्या का विवाह उस 'सुभम' नामक संक्षेप में दी है। उत्तरपुराण के अनुसार भी सीता चक्रवर्ती के साथ होता है, जिसने परशराम से मन्दोदरी की कुक्षि से उत्पन्न हुई थी। प्रेमीजी ने अपने पिता की मृत्यु का बैर लेते हुये २१ बार इस लिखा है कि "जहाँ तक मैं जानता हूँ यह उत्तर- भूमि को ब्राह्मणों से रहित कर दी थी। जिस पुराण की रामकथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित प्रकार परशुराम ने क्षत्रिय वंशका संहार करना अपना नहीं है।" पर बात वास्तव में ऐसी नहीं है। उद्देश्य बना लिया था उसी तरह सुभूम चक्रवर्ती दिगम्बर साहित्य की तरह श्वेताम्बर साहित्य में ने भी। उसे जितने भी ब्राह्मण मिले, सब को मार भी राम कथा के दो रूपान्तर संग्रहीत मिलते हैं डाला ये ही ब्राह्मण बच पाये जिन्होंने अपना ब्राह्मण जिनमें से पउम चरिउ और त्रिष्टीशलाका पुरुष चरित (होना) नहीं बतलाया । सुभूम के ससुर राजा में वरिणत राम कथा ने तो काफी प्रसिद्धि प्राप्त मेघनाद के बंश में बलि नाम का राजा हमा और करली पर "वसुदेव हिन्डी" की राम कथा की पोर उसी के वंश में प्रागे चलकर 'रावण' हुमा । इसी विद्वानों का ध्यान ही नहीं गया। क्योंकि एक तो प्रसंग में "वसुदेव हिन्डी" में रामायण की कथा 'वसुदेव हिन्डी' श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भ्रमण दी है। वृत्तान्त संबंधी ग्रंथ है । दूसरा रामायण की कथा वसुदेव हिन्डी की राम कथा बहुत ही संक्षिप्त उसमें प्रसंगवश बहुत ही संक्षेप में प्राई है । और हैं अत: बहुत से प्रसंगों का तो उसमें उल्लेख ही उस कथा का प्रचार कम रहने से परवर्ती प्रथकारों नहीं हुआ है और जो मुख्य मुख्य बातें इस कथा में 'पउम चरिउ' की कथा को ही अधिक प्रप- में पाई हैं उनमें से कुछ अन्य ग्रन्थों में दूसरे प्रकार नाया । वैसे प्राकृत भाषा में एक प्रसिद्ध विस्तृत से भी मिलती हैं। जैन मान्यता के अनुसार लक्ष्मण सीता चरित्र प्राप्त हुआ है। उसके सम्बन्ध में भाठ बासुदेव के हुये और उन्हीं के हाथ से रावण हमारा एक लेख छप भी चुका है पर विस्तृत मारा गया । मूल कथा नीचे दी जा रही है। मालोचना तो ग्रंथ के प्रकाशित होने बाद ही रावण का वंश की जा सकती है।
बलि राजा के वंश में सहस्रग्रीव राजा हुमा ____ 'वसुदेव हिन्डी' के प्रथम खण्ड के १४ वें मदन था उसके पचशतग्रीव नामक पुत्र हुमा उसके बाद वेश्या लम्भक में राम कथा का प्रसंग इस रूप में शतग्रीव, बाद में विंशतिग्रीव और तत्पश्चात् दश* जन मान्यता के अनुसार ६३ राजा-महापुरुषों में २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती वासुदेव , बलदेव
पौर ६ प्रति वासुदेव होते हैं । प्रति वासुदेव का वध वासुदेव करके ३ खंड साम्राज्य के भोक्ता बनते हैं वासुदेव के बड़े भाई बलदेव कहलाते हैं राम बलदेव थे, लक्ष्मण बसुदेव और रावण प्रति वासुदेव थे।
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बसुदेव हिन्दी की राम कथा
ग्रीव जो रावण के नाम से प्रसिद्ध है, विशति ग्रीव राजा के ४ पलियां थी देववरांनी, बका, कैकेयी और पुष्पकूटा। देववने के चार पुत्र थे सोम, वरुण, यम और वैधमण, कैकेयी के रावण, कुम्भकरण और विभीषण ( ये तीन पुत्र) तथा चिटा और सूर्पणखा ये २ पुत्रियां थीं, वक्रा के महोदर, महार्थ, महापाश और खर (ये ४ पुत्र) तथा भाशालिका पुत्री थी, पुष्पकूटा के त्रिसार, द्विसार और विद्युद्धि मे पुत्र धौर कंभुनास्ता कन्या थी ।
रावण सोम-यम आदि के साथ वैर करके सपरिवार निकल गया और लंका द्वीप में जा बसा । वहां उसने प्रशीत विद्या की साधना की और परिणामस्वरूप विद्याद्यर सामंत उसे नमन करने लगे। इस प्रकार लंका पुरी ही उसका वासस्थान हो गया वहां रहते हुए विद्याधर लोग उसकी सेवा करने लगे ।
मंदोदरी का रावण से विशह
एक बार मन नामक विद्याधर अपनी मंदोदरी नामक पुत्री के साथ सेवार्थ रावण के पास पहुँच गया। वह कन्या लक्षण जानने वालों को बतलाई गई। उन्होंने कहा इसका प्रथम गर्भ कुल के क्षय का कारण बनेगा । परन्तु अत्यन्त रूपवान होने से रावण ने उसका त्याग नहीं किया। 'पहले पैदा हुवे बालक का त्याग कर दूंगा' यह विचार करके उसके साथ विवाह कर लिया । धीरे धीरे वह मंदोदरी ( रावण की रानियों) में प्रधान (पट रानी) हो गई।
राम परिवार
इधर, अयोध्या नगरी में दशरथ राजा था। उसके ३ पत्नियां थी कौशल्या, कैकेयी भोर सुमित्रा | कौशल्या के राम, सुमित्रा के लक्ष्मण श्रीर कैकेयी के भरत और शत्रुघ्न नाम के पुत्र उत्पन्न हुए देव जैसे सुन्दर मे धीरे धीरे बढ़े हुए।
१५५
मंदोदरी की कुक्षि से सीना की उत्पत्ति व जनक द्वारा प्रण
रावण की पटरानी मंदोदरी के पुत्री हुई। उस पुत्री को रत्नों से भरी पेटी में रखा गया । मंदोदरी ने मंत्री से कहा, 'जाओ, इसे छोड़ भाभो ।" उसने मिथिला में जनक राजा की उद्यान भूमि जब ठीक की जा रही थी तब तिरस्कारिणी विद्या से संत्रस्त्र करके कन्या को हल के अग्र भाग पर डाल दिया। बाद में 'यह कन्या हल द्वारा जमीन से निकाली गई है' इस प्रकार का राजा से निवेदन किया गया । वह कन्या धारिणी देवी को प्रपित की गई और चंद्रलेखा की तरह बढ़ने वाली वह लोगों के नयनों और मन का हरण करने वाली बनी |
सीता का राम से विवाह
बाद में 'वह रूपवती है' यह विचार कर पिता जनक ने स्वयंवर का आदेश दिया। बहुत से राजपुत्र एकत्र हुए। उस समय ( उस कन्या ) सीता ने राम को वरा। दूसरे कुमारों को भी धन सम्पत्ति सहित कन्याएं दी गई उन्हें लेकर दशरथ अपने घर को माये ।
कैकेयी को प्राप्त दशरथ से २ बरदान प्रसंग
पहले स्वजनोपचार में कुशल कैकेयी से संतुष्ट राजा ने उससे कहा था कि, 'तू वर मांग' उसने कहा - " अभी मेरा वर रहने दो काम पड़ने पर मांयूंगी." एक बार दशरथ का सीमा के राजा के साथ विरोध हो गया। उसके बीच युद्ध में दशरथ पकड़े गये | देवी कैकेयी को कहलवाया गया कि, 'राजा पकड़ लिए गए हैं, इसलिए तुम चली arut ।” वह बोली, 'शत्र यदि प्रयत्न करेगा तो भाग जाने पर भी मुझे पकड़ लिया जायेगा इसलिए में खुद भी युद्ध करूंगी। मै हारू नहीं तब तक कौन भागा गिना जा सकता है ?" इस प्रकार कह कर कवच पहन, रथ में बैठ, छत्र से युक्त हो वह युद्ध करने चली । 'जो वापिस मुड़े उसे मार
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ ; डालो' इस प्रकार कहती हुई वह शव सेना का नाश सत्यवादी हो तो ये ही वरदो दूसरा कुछ भी मुझे
करने लगी। फिर अनुराग सहित अपना पराक्रम नहीं चाहिये जो पापकी इच्छा हो वह करो ।' तब . दिखलाते हुए योद्धा युद्ध करने लगे । योद्धानों को उसे बहुत ही भला बुरा कहकर राजा ने राम को
वह प्रेमोपहार सरोपाव देने लगी । इस प्रकार बुलाया और प्रश्र बिरलित कंठ से बोले 'कैकेयी देवी द्वारा शत्र सैन्य को पराजित करने पर मुक्त पूर्व में मुझ से प्राप्त दो वर मांग रही है ।' राज्य हए दशरथ कहने लगे, 'देवी ! तुम्हारा काम महान भरत को मिले और तू वन में जाय । इस लिए पुरुष के जैसा है; इसलिये वर मांगो।' वह बोली, तू ऐसा कर जिससे में झूठा न बनू।" राम ने मेरा दूसरा वर भी अभी रहने दीजिये, काम पड़ने नतमस्तक हो वह स्वीकार कर लिया। फिर सीता पर ले लूगी।
मौर लक्ष्मण सहित राम बोर वेशधारी होकर रामराज्याभिषेक की तैयारी का वर्णन
लोगों के मन, नयन प्रौर मुख कमल को म्लान करते
हुए, कमलवन को संकुचित करता हुआ जिस और बनवास :
तरह सूर्य प्रस्ताचल को जाता है, उस प्रकार प्रजा : बहुत वर्ष बीत जाने के बाद तथा पुत्रों के युवा
को विलखते हुए छोड़ राम बन को रवाना हो गये। : हो जाने पर वृद्ध दशरथ ने राम के राज्याभिषेक की प्राज्ञा दी । कुबजा मंथरा ने यह खबर कैकेयी को
हा पुत्र ! हा श्रुत निधि ! हा सुकुमार ! हा
प्रदु.खोचित! मुझ मंदभागी के लिए भकारण ही दी । प्रसन्न हो उसने मंथरा को प्रीतिसूचक प्राभरण
देश निष्काषित ! तू बन में किस प्रकार समय प्राभरण दिया । मंथरा ने देवी कैकेयी से कहा, दुखदायिनी वेला से तुम प्रसन्न हो रही हो, मै तो
बितायेगा ? इस प्रकार विलाप करते हुए दशरथ अपमान सागर में डूब रही है, यह त जानती मृत्यु का प्राप्त हुए। नहीं । कौशल्या मोर राम की तुम्हें चिरकाल तक भरत को राम पादुकाओं की प्राप्तिसेवा करनी पड़ेगी; उनका दिया हुआ खाना पड़ेगा। पीछे से भरत अपने मामा के देश से पाया। इसलिये मोह त्याग राजा द्वारा तुम्हें पहले से जो सच्ची घटना सुनकर उसने माता को फटकारा और दो वर प्राप्त हैं; उनसे भरल का अभिषेक और अपने सगे संबन्धियों सहित वह राम के पास पहुंचा । .राम का वनवास मांग लें।" मंथरा के वचन मान उसने राम से पितृमरण का समाचार सुनाया। कैकेयी कूपितानना-कुपित मुह वाली बनकर कोप राम द्वारा उत्तर क्रिया कर लेने के बाद उन्हें भवन में चली गई। दशरथ ने यह सुना तो वह प्राशामों से भरे मुह वाली भरत की मां कैकेयी ने वह उसे मनाने गया। परन्तु उसने कोप नहीं कहा-"पूत्र, तुमने पिता की प्राज्ञा का पालन सोडा । दशरथ ने उसे कहा, 'बोल. क्या करूं, किया । अब तुम्हें अपयश के कर्दम से मेरा उदार कैकेयी ने कहा, 'तुमने २ वर दिये थे, यदि सत्यवादी तथा कुल क्रमागत राज्य लक्ष्मी और भाइयों का हो तो मुझे दो।' राजा ने कहा,-'बोल. क्या पालन करना ही शोभा देगा।" राम ने कहा १?,' तब संतोष से विकसित वदन हो वह कहने "माता ! तुम्हारा वचन टाला नहीं जा सकता: लगो-एक वर से भरत राजा बने और दूसरे वर परन्तु उसके उल्लंघन करने का कारण सुनोसे राम १२ वर्ष तक बन में रहे।" तब दुःखी हो राजा सत्यप्रतिश होकर ही प्रजापालन में समर्थ हो राजा ने कहा, देवी ! ऐसा बुरा हट मत कर ।' सकता है; सत्य से भ्रष्ट हो पाय तो अपनी पत्ति बड़ा पुत्र (राम) गुणों का भागार है; यह राम ही के पालन में भी प्रयोग्य होता है। पिता के वचन पृथ्वी का पालन कर सकता है प्रतः इसके अतिरिक्त पालनार्थ ही मैं ने वनवास स्वीकार किया दूसरा जो कहे वह देहूँ । 'कैकेई बोली,'-यदि मुझे वापिस लौटने का प्राग्रह मत करो।" राम ने
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बसुदेव की हिन्दी राम कथा
१५० भरत को प्राज्ञा दी, 'यदि मेरा तुझ पर अधिकार गये । उन्होंने युद्ध में शस्त्रबल और बाहुबल से है और मैं तुम्हारे से बड़ा हूँ तो तुम्हें मेरी माज्ञा खर-दूषण का नाश कर दिया। का पालन करना है और माता को फटकारना नहीं है।"पाखों में मांसू लिये भरत हाथ जोड़कर प्रार्थना
____ उसके बाद पुत्र वघ से रुष्ट सूर्पणखा रावण
के पास गई। उसे अपने नाक-कान कटने और पूत्रों करने लगा-'मार्य ! प्रजापालन के कार्य के लिये यदि शिष्य की तरह मुझे नियुक्त किया गया है तो
के मरण का हाल सुनाया और कहने लगी-देव ! मुझे पादुकाएं देने की कृपा करें।" राम ने 'ठीक
वह मानव को स्त्री है। मुझे तो ऐसा लग रहा है
कि संपूर्ण पुवतियों के रूप का मंथन करके लोगों है' कह कर वह बात मान ली-पादुकाएं दे दी।
के लोचनों को प्रानंददायी उस नारी का निर्माण भरत पुनः प्रयोध्या चला गया।
किया गया है । वह तुम्हारे अंतःपुर के योग्य है। सीता हरण की पूर्व भूमिका___इस तरह सीता लक्ष्मण सहित राम तपस्वियों सीता हरणके माश्रम देखते तथा दक्षिण दिशा को अवलोकन इस प्रकार सीता के रूप श्रवण से उन्मत हए करते-करते एक निर्जन स्थान पर पहुंचे, वहां एकांत रावण ने अपने प्रमात्य मारीच को सूचना दी, 'तू वन प्रदेश में वे सीता के साथ रहे । कमल के प्राश्रम में जा वहाँ रत्नजड़ित मृग का रूप बना कर समान नयन वाले और देवकुमार सदृश राम को तापसवेशधारी योद्धाओं को लुभा जिससे मेरा काम देखकर कामवश हुई रावण की बहन सूर्पणखा हो जाय ।" तदनंतर मारीच रत्नजड़ित मृग का रूप प्राकर कहने लगी, "देव ! मुझे स्वीकार करें।" धारण कर घूमने लगा। उसे देख कर सीता ने राम तब राम ने कहा, 'ऐसा न कह, तपोवन में रहता से कहा-'मार्य पुत्र ! अपूर्व रूप वाले इस मृग हुप्रा मै पराई स्त्री का सेवन नहीं करता।" फिर शावक को पकड़िये, वह मेरे लिये खिलौना होगा। जनकदुलारी सीता ने कहा,-"परपुरुष की जबर- फिर राम 'ठीक है, ऐसा ही होगा" यह कह कर दस्ती प्रार्थना कर रही है, “इसलिये तू मर्यादा का धनुष हाथ में लेकर उसके पीछे २ जाने लगे। वह उल्लंघन करने वाली निर्लज्ज है ।" तब कुपित हो मृग भी धीरे २ प्रारम्भ करके फिर जोर से चलने भीषण रूप धारण कर वह सोता को डराने लगी लगा । 'तू कहाँ जायगा ?' यों कहते २ राम भी 'तुम्हारे सतीत्व का मै नाश कर दूंगी; तू मुझे नहीं उसके पीछे दौड़ने लगे । इस प्रकार दूर तक जाने के पहचानती ? फिर राम ने 'यह स्त्री होने के कारण बाद राम ने जान लिया कि 'जो वेग में मुझे भी प्रवध्य है' यह विचार कर उसके नाक कान काट जोत रहा है वह मृग नहीं हो सकता, यह तो कोई लिये । सूर्पणखा खरदूषण के पास गई । निर- मानवी है" यह विचार कर उन्होंने बाण फेंका तब पराधिनी को दशरथ के पुत्र राम ने इस प्रकार मारीच ने मरते २ विचारा कि 'स्वामी का काम कर दुखी किया है यह जान वे कहने लगे, "माता! दूं।" उसने 'हे लक्ष्मण ! मुझे बचानो।' इस तरह दखी मत हो हमारे बाण से विद्ध हुए राम और से जोर की चीख मारी । यह सुनकर सीता ने लक्ष्मण का रूधिर मात्र गिों को पिलायेंगे। इतना लक्ष्मण से कहा 'जल्दी जामो, भयभीत स्वामी ने कहकर वे राम के पास पहुंचे । सूर्पणखा के नाक- ही यह चीख मारी है। निश्चय ही शत्र. सेना कान काटे जाने की बात की। इन्होंने राम से होगी।" तब लक्ष्मण ने कहा, “प्राण भय नहीं कहा-'भट, युद्ध के लिये तैयार हो । 'तब यम है तुम कह रही हो इसलिये ही जारहा हूं।" फिर वैषमण के समान पराक्रमी राम और लक्ष्मण वह भी हाथ में धनुष लेकर जिस मार्ग से राम गये दोनों भाई धनुष पर प्रत्यंचा चढा कर खड़े हो ये उसी मार्ग पर तेजी से भागे।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य
यह अबसर पाकर विश्वसनीय तापस का रूप लक्ष्मण ने कहा "हम इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न दशरथ धारण कर रावण सीता के पास प्राया। सीता के पुत्र राम-लक्ष्मण हैं, और पिता की प्राज्ञा से को देखकर उसके रूपातिशय से मुग्ध रावण ने वन में आये हैं । मृग के द्वारा हमें भ्रमित कराके बिना किसी बिघ्न की परवाह किये विलाप करती सीता का हरण कर लिया गया है। उसकी खोज हुई सीता का हरण कर लिया। उधर राम और में हम घूम रहे हैं। परन्तु भाप कौन हैं ? और लक्ष्मण ने वापिस लौटकर सीता को नहीं पाकर किस कारण वन में रहते हैं ?" हनुमान ने बतलाया दुखित हो उसकी खोज करनी प्रारंभ की। रावण 'हम विद्याधर हैं । हमारे स्वामी सुग्रीव हैं। अपने को मार्ग में जटायु विद्याधर ने रोक लिया था। बलवान भाई बालि से पराजित हुए वे हमारे साथ उसे हरा कर किष्किंधागिरि पर से होता हुआ वह जिनायतन का प्राश्रय लेकर रह रहे हैं। पापको लंका पहुंचा। सीता के लिए विलाप करते हुए उनके साथ मित्रता करनी चाहिए।" राम ने यह राम को लक्ष्मण ने कहा, 'प्रार्य ! स्त्री के लिये बात मान ली। भग्नि की साक्षी से वे मैत्री बंधन में शोक करना आपको शोभित नहीं होता। यदि बंध गये । बल की परीक्षा कर लेने के बाद सुग्रीव मरना चाहते हैं तो शत्र, की पराजय के लिये ने राम को बालि के वध के लिए नियुक्त किया। प्रयत्न क्यों नहीं करते।' मार्ग में जटायु ने खबर वे दोनों भाई समान रूप रंग वाले थे। उनमें विशेष दी कि 'रावण ने सीता का हरण किया है।" अंतर नहीं जानते हुए राम ने बाण छोड़ा । बालि फिर युद्ध करने वाले के लिये तो जय अथवा मरण ने सुग्रीव को पराजित किया। फिर दोनों में भेद है; विषाद पक्ष का अनुसरण करने वाले निरुत्साही जानने के लिए सुग्रीव को माला पहनाई गई। के लिये तो केवल मरण ही है, इस प्रकार राम और तब एक ही वारण से बालि को मारकर राम और लक्ष्मण दोनों ने विचार किया।
ने सुग्रीव को राजा बना दिया। सुग्रीव मैत्री, वालि बधः
तत्पश्चात सीता का वृत्तान्त जानने के लिये
हनुमान गये। वापिस प्राकर उन्होंने सीता की तत्पश्चात् राम और लक्ष्मण किष्किधागिरि
स्थिति बतलाई। तदनंतर राम की सूचना से पर पहुँचे, वहां बालि और सुग्रीव नामक दो विद्या
सुग्रीव ने भरत के पास विधाघर भेजे । भरत ने घर भाई परिवार सहित रहते थे। उनके बीच
चतुरंग सेना भेजी। सुग्रीव के सहित और विधाघरों स्त्री के कारण विरोध हो गया था। बालि द्वारा
द्वारा संचालित वह सेना समुद्र के किनारे पहुंची। पराजित सुग्रीव हनुमान और जांबवान इन दो मंत्रियों के साथ जिनालय का पाश्रय लेकर रह
वहां समुद्र के मध्य भाग की संधि में सेतु बांधा
गया। सेना लंका के समीप उतरी और शुभ रहा था । देव कुमार सदृश सुन्दर और हाथ में
मुहर्त में पड़ाव डाला गया। अपने परिवार और धनुष धारण किये हुए राम और लक्ष्मण को देख
सेना सहित रावण भी सेना सहित राम को नगण्य हनुमान ने भागते हुए सुग्रीव को कहा, 'बिना
समझ रहा था। कारण जाने मत भागो, पहले यह जानना चाहिये कि वे कौन हैं फिर जो उचित होगा करेगें।"
विभीषण द्वारा रावण को हित-शिक्षा
उसके बाद विभीषण ने विनयपूर्वक प्रणाम उसके बाद सौम्य रूप धारण करके हनुमान करके रावण से प्रार्थना की "राजन् ! हित की उनके पास गया । उसने युक्ति पूर्वक राम-लक्ष्मण बात यदि अप्रिय भी हो तो वह छोटे-बड़े सभी को से पूछा-"पाप कौन हैं ? और किस कारण वन में कह देनी चाहिये । राम की पनि सीता का हरण माये हैं वन के योग्य तो पाप हैं ही नहीं।" तब करके प्रापने अच्छा काम नहीं किया है । संभवतः
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बसुदेव हिन्दी की राम कथा
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यह भूल से ही हुमा होगा, परन्तु अब तो सीता को नुभावता के प्रभाव से वह चक्र उसके वक्षस्थल पर वापिस लौटा दें। कुल का नाश मत कराइये । खर- धार की भोर से नहीं पड़ा, टेढा पड़ गया। लक्ष्मण दूषण और बालि के विद्या युक्त होते हुए भी राम ने वही चक्र रावण के वध के लिये फेंका । देवता ने उनका अनायास ही नापा कर दिया है। स्वामी द्वारा अधिष्ठित वह चक्र कुंडल और मुकुट सहित को तो सेवक की पत्नि की भी इच्छा नहीं करनी उसके मस्तक काटकर पुनः लक्ष्मण के पास पाया। चाहिये, फिर बलवान और अन्य पुरुष की परिन की माकाश में रहने वाले ऋषिवादित मौर भतवादित तो बात ही कैसी? राजाभों की तो इन्द्रिय निग्रह देवतामों ने पुष्प वृष्टि की और गगन मंडल में में ही जय होती है। मेधावी पुरुषों ने ४ प्रकार नाद किया कि भारत वर्ष में यह पाठवां वसुदेव की बुद्धि बतलाई है-मेधा, श्रुति, वितर्क, पौर उत्पन्न हुआ है। पशुभ कार्यों में हड़ संकल्प । भाप मेधावी पौर मति- सीता प्राप्ति व राम का राज्याभिषेक:मान हैं। अतः हर प्रकार से कार्य सिद्ध कर सकते
__पत्पश्चात् युद्ध समाप्ति पर विभीषण सीता को हैं। परन्तु प्रापका अभिनिवेश (दृढ़ संकल्प) तो
लाया और राम को सौंपी। राम की प्राज्ञा मिलते प्रकृत्य में है । इससे प्रापसे प्रार्थना करता हूँ। जो
ही विभीषण ने रावण का संस्कार किया। फिर कौर खाया जा सके, खाने के बाद पच जाय. और
राम-लक्ष्मण ने अरिजय नगर में विभीषण का पचने के बाद पथ्य बन जाय, वही खाना चाहिये।
और विद्याधर श्रेणी के नगर में सुग्रीव का अभिषेक इस पर विचार कर माप रामभार्या को वापिस ।
किया। फिर अपने परिवार सहित सुग्रीव, सीता लौटा दें। इससे परिजनों का भी कल्याण है।"
और राम को पुष्पक विमान में प्रयोध्या नगरी ले राम-रावण युद्धः
गया । प्रजाजन और मंत्रियों सहित राम का राजा इस प्रकार निवेदन करने पर भी जब रावण के रूप में अभिषेक किया। फिर अत्यन्त प्रभावशाली ने सुना नहीं तब विभीषण ४ मंत्रियों के साथ तथा सुग्रीव सहित राम ने प्रघं भारत को विजय राम के पास चला गया। सुग्रीव के परामर्श को किया । विभीषण राजा परिजय नगर में रहने मानकर राम ने विभीषण का सम्मान किया। विभीषण के परिवार में जो विधाघर थे वे सेना में विभीषण के वंश में विद्य तवेग नाम का राजा मिल गये । फिर राम और रावण के पक्ष वाले हुमा । उसकी रानी विद्युत्प्रभा थी । उससे दधि विधाधर और राक्षसों का युद्ध प्रारम्भ हुवा। मुख, दण्डवेग, और चण्डवेग नामक पुत्र मौर दिनों दिन राम का सैन्यवल बडने लगा। मुख्य मदनवेगा नाम की पुत्री हुई। उस मदनवेगा का योवानों के नष्ट होने पर विजयाकांक्षी रावण विवाह श्री कृष्ण के पिता वासुदेव के साथ हुमा । सब विद्यानों को नष्ट करने वाली ज्वालवती विद्या उसी का प्रसंग वर्णन करते हुए संघदास गणि ने की साधना करने लगा। रावण को विद्या साधना बीच में उपरोक्त राम कथा भी दे दी है इस कथा में लगा जानकर राम के योद्धा नगर में प्रविष्ट में राम के राज्याभिषेक एवं सीता के शेष जीवन होकर नगर का मावा करने लगे। इससे कब हुमा का कोई उस्लेख नहीं किया गया है। ग्रंथकार ने रावण कवच धारण करके सज्जित हो रथ में संक्षेप में जितनी कथा देनी प्रावश्यक समझी, बैठ कर निकला। भयंकर युद्ध करके वह लक्ष्मण उतनी ही वसुदेव हिन्डी में लिख दी। क्यों कि के साथ भिड़ गया। जब सब शस्त्र निष्फल हो यह कोई स्वतन्त्र राम चरित सम्बन्धी पंथ नहीं गये तब कुछ हो रावण ने लक्ष्मण का वध करने है इसलिये इसकी अधिक अपेक्षा भी नहीं की जा के लिये चक्र चलाया । परन्तु लक्ष्मण की महा- सकती।
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बाबू बोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ राम का नाम प्राचीन जैनागमों ने 'पउम' वाला बसुदेव हिन्दी के पहले का कोई अन्य अन्य यानी 'पद्म' मिलता है। उनके संबंध में समवा- प्राप्त नहीं है। यांगसूत्रादि में संक्षिप्त उल्लेख है । विमल सूरि के सीता रावण और मंदोदरी की पुत्री थी, पउमरियं में ही सर्व प्रथम जैन-मान्य राम इससे सम्बन्धित जितने भी ग्रंथ प्रब तक प्राप्त कथा पूरे रूप में दी गई है । वसुदेव हिन्डी से ज्ञात हुए हैं वसुदेव दिन्डी उन सबसे प्राचीन है। मालम होता है कि विमल सूरि के 'पउम चरिय इससे सीता संबंधी उपरोक्त प्रवाद की प्रा में की परम्पराको संघदास गणि ने नहीं अपनाई। ५ वीं शताब्दी के पहिले की सिद्ध होती है। इसी उनके सामने राम संबंधी लोक-कथा की कोई अन्य बात को प्रकाश में लाने के लिए यह लेख पाठकों ही परम्परा रही होगी। पर माज उस परम्परा के सामने उपस्थित किया गया है।
श्रद्धा के बिना प्रेम नहीं रहता।
धन उपार्जन और उन्नति दोनों एक नहीं हैं।
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अग्रवालों का जैन धर्म में योगदान
• परमानन्द जैन शास्त्री
'अवाल' शब्द का विकास प्रग्रोहा या प्रग्रोदक से हुआ है । वर्तमान हिसार जिले में अग्रोहा नामक एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर था । यहां एक टीला ६० फुट ऊंचा था, जिसकी खुदाई सन् १९३९ या ४० में हुई थी। उससे प्राचीन नगर के अवशेष और प्राचीन सिक्कों प्रादि का ढेर प्राप्त हुआ था । २६ फूट से नीचे ग्राहत मुद्रा का नमूना, चार यूनानी तिक्के और ५१ चौलूटे तांबे के सिक्के भी मिले थे। तांबे के सिक्कों में सामने की ओर 'वृषभ' और पीछे की ओर सिंह या चैत्यवृक्ष की मूर्ति अंकित है। सिक्कों के पीछे ब्राह्मी प्रक्षरों में- 'प्रगोद के प्रगच जनपदस' शिलालेख भी अंकित है, जिसका अर्थ 'प्रग्रोदक में मगच जनपद का सिक्का' होता है । अग्रोहे का नाम मोदक भी रहा है। उक्त सिक्कों पर अंकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति जैन मान्यता की ओर संकेत करती हैं ।
कहा जाता है कि अग्रोहा में अग्रसेन नाम के एक क्षत्रिय राजा थे। उन्हीं की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहे जाते हैं । अग्रवाल शब्द के मनेक पर्थ हैं किन्तु यहां उन ग्रथों की विवक्षा नहीं हैं, यहां प्रदेश के रहने वाले प्रर्थ ही विवक्षित है । अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते है, जिनमें गर्ग, गोयल, मित्तल, जिन्दल, सिंहल या संगल प्रादि नाम हैं। इनमें दो धर्मों के मानने वाले पाये जाते हैं। एक जैन अग्रवाल दूसरे भजैन म्रवाल । श्रीलोहा चार्य के उपदेश से उस समय जो जैन धर्म में दीक्षित हो गए थे, वे जैन भग्रवाल कहलाये श्रौर शेष प्रजैन । परन्तु दोनों में रोटी-बेटी व्यवहार होता है, रीति१. एपिग्राफिका इंडिका जि० २ ० २४४ । व मोतक वैश्यों का वर्णन दिया हुआ है ।
रिवाजों में बहुत कुछ समानता होते हुए भी उनमें अपने अपने धर्म परक प्रवृत्ति पाई जाती है। हां सभी अहिंसा धर्म के मानने वाले हैं। यद्यपि उपजातियों का इतिवृत १० वीं शताब्दी से पूर्वका नहीं मिलता पर लगता है कि कुछ उपजातियाँ पूर्ववर्ती भी रही हैं । जैन अग्रवालों में अपने धर्म के प्रति विशेष श्रद्धा एवं प्रास्था पाई जाती है, उससे उनकी धार्मिक दृढ श्रद्धा का सम धंन होता । प्रग्रवालों के जैन परम्परा सम्बन्धी १२ वीं शताब्दी तक के प्रमाण मेरे अवलोकन में भाए । यह जाति पूर्व काल में खूब सम्पन्न, राज्य मान्य और धार्मिक रही है। और वर्तमान में ये लोग धर्मश प्राचार निष्ठ, दयालु और जनधन से सम्पन्न पाये जाते हैं ।
अग्रवालों का निवास स्थान अग्रोहा या हिसार के पास-पास का ही क्षेत्र नहीं रहा है, अपितु उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली श्रीर उसके पास-पास के क्षेत्र भी रहे हैं क्योंकि अग्रवालों द्वारा निर्मित मन्दिर, उदयपुर, जयपुर प्रादि स्थानों में भी पाये जाते हैं। फरिणपद या परिणपद (पानीपत), refrपद प्रथवा सुवरण पथ, सोनिपत कर्नाल, अम्बाला, सहारनपुर, मुजफ्फर नगर, मेरठ, आगरा दिल्ली, धारा, कलकत्ता, नजीबाबाद और बनारस प्रादि बड़े नगरों एवं छोटे छोटे उपनगरों में इस जाति के लोग बसे हुए हैं । इससे इस जाति की महता का भान स्वतः हो जाता है । अग्रवाल जैन समाज द्वारा अनेक मन्दिरों, मूर्तियों, विद्या संस्थानों, प्रौषधालयों, लायब्रेरियों और साहित्यिक संस्थानों इंडियन एण्टीक्वेरी भाग १५ के पृष्ठ ३४३ पर
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ
मादि का निर्माण किया गया है । इनका वैमव चतुर्विध संघ को दान में सदा तत्पर रहता था। राजापों के सदृश रहा है। शाही खजांची, मन्त्री, उस समय दिल्ली के जैमियों में वह प्रमुख था, सलाहकार प्रादि अनेक उच्च पदों पर ये नियुक्त व्यसनादि से रहित हो श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान रहे हैं । शास्त्रदान में इनकी रुचि रही है । उसीका करता था। साहु नट्टल केवल धर्मा मा ही नहीं परिणाम है कि दिल्ली के ग्रन्थ भंडारों में ग्रंथों था पपितु उच्चकोटि का व्यापारी भी था। उस का अच्छा संग्रह पाया जाता है। वीर सेवा मदिर, समय उसका व्यापार मंग, बंग, कलिङ्ग, कर्नाटक, पारा का जैन सिद्धांत भवन, मोर भारतीय शान नेपाल, भोट, पांचाल, चेदि, गौड़, ठक्क (पंजाब) पीठ काशी, तथा दिल्ली का पक्षियों का हस्पताल केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ पौर मादि संस्थाएं प्राज भी गौरव का विषय बनी हुई हरियाना प्रादि देशों और नगरों में चल रहा था। हैं । साहित्यिक संस्थानों से जो साहित्य प्रकाशित यह केवल व्यापारी ही नहीं था; अपितु राजनीति हुप्रा है, या जो अनुसन्धान काम किया गया है वह का चतुर पंडित भी था। कुटुम्बी जन तो नगर अपने विषय का महत्वपूर्ण कार्य है। इस सबसे जन सेठ थे और पाप स्वयं तोमरवंशी अनंगपाल साधारण अग्रवालों की धर्मप्रियता श्र तसेवा प्रादि (तृतीय) का प्रमात्य था । मापने कवि श्रीधर से का परिचय सहज ही पा सकते हैं। जन अग्रवालों जो हरियाना देश से यमुना नदी को पार कर उस ने जैन धर्म को क्या देन दी है अथवा उसके विकास समय दिल्ली में पाए थे प्रन्थ बनाने की प्रेरणा में क्या कुछ योग दान दिया है यही इस लेख का की पो। तब कवि ने 'पासणाह चरिउ' नामक प्रमुख विषय है।
सरस खण्ड काव्य की रचना वि० सं० १९८९
अगहन वदी अष्टमी रविवार के दिन समाप्त संवत् ११८६ ( सन् ११३२ ई० ) से पूर्व साहु
की थी। नटल के पूर्वज पिता वगैरह दिल्ली (योगिनीपूर) के निवासी थे। इनकी जाति अग्रवाल थी। नट्टल
नट्टल साह ने उस समय दिल्ली में प्रादिनाथ साह के पिता साह जेजा श्रावकोचित धर्म-कर्म का एक प्रसिद्ध जैन मन्दिर भी बनवाया था. जो में निष्ठ थे। इन की माता का नाम 'मेमडिय' था. प्रत्यन्त सुन्दर था, जैसा कि अन्य के निम्न वाक्यों जो शील रूपी सत् प्राभूषणों से अलंकृत थी, पौर से प्रकट है :वांधवजनों को सूख प्रदान करती थी। साहु नट्टल "कारा वेविणाहय हो शिकेर के दो ज्येष्ठ भाई और भी थे, राघव और सोढल ।
पविइणा पंच वणं सुकेउ । इनमें राघव बडा ही सुन्दर और रूपवान् था। पइं पण पइट्र पविरइय जेम, उसे देखकर कामनियों का चित्त द्रवित हो जाता
पास हो चरित्त जइ पुग्ण वि तेम ॥" था । और सोढल विद्वानों को मानन्द दायक, गुरुभक्त तथा प्ररहंत देव की स्तुति करने वाला था.
प्रादिनाथ के इस मन्दिर को उन्होंने प्रतिष्ठा उसका शरीर विनयरूपी प्राभूषणों से अलंकृत था, विषि भी की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख तथा वह वड़ा बुद्धिमान और धीर-वीर था । साह उक्त ग्रंथ की पांचवीं संधि के बाद दिये हुए निम्न नट्टल इस सब में लघु, पुण्यात्मा, सुन्दर और जन पच से प्रकट है :बल्लभ था । कुलरूपी कमलों का पाकर पोर पाप- येनाराध्य विशुद्धघ धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं । रूपी पांशु (रज) का नाशक, तीर्थंकर का प्रतिष्ठा- सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणैः सन्तोलिता बान्धवाः । पक, वन्दीजनों को दान देने वाला, परदोषों के जैन चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठा तथा, प्रकाशन से विरक्त, रत्नत्रय से विभूषित और स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतने नमः ।।
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अग्रवालों का जैनधर्म में योगदान
इससे नट्टल माहु की धार्मिक परिगति का प्रौषध, अभय तथा ज्ञानादि चारों दान दिया सहज ही पता चल जाता है। प्रादिनाथ का उक्त करते थे। साहू खेतल ने गिरनार की यात्रा का मन्दिर कुतुबमीनार के पास बना हुअा था, बड़ा यात्रोत्सव किया था । वह अपनी धर्मपत्नी ही सुन्दर मोर कलापूर्ण था । वर्तमान में यहाँ काकलेही के साथ योगिनीपुर (दिल्ली) में पाया कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनी हुई है जो २७ था। कुछ समय सुखपूर्वक व्यतीत होने पर साहू मन्दिरों को तोड़कर बनाई गई थी।
फेरू की धर्मपत्नी ने कहा कि स्वामिन ! श्रतपंचमी इसके अतिरिक्त दिल्ली में सं० १३२८, १३७०. का उद्यापन कराइये। इसे सुनकर फेरू अत्यन्त १३६१. पौर १३६६ में क्रमश. पंचास्तिकाय कुन्द- हर्षित हुमा और उसने मूलाचार नामक ग्रन्थ कुन्द, तत्वार्थवृत्ति पूज्यपाद क्रयाकलाप टीका और श्रुतपंचमी के निमित्त लिखा कर मुनि धर्मकीर्ति उत्तरपुराण पुष्पदन्त का प्रादि ग्रंथ लिखाकर भेंट के लिये प्रपित किया । धर्मकीति के दिवंगत होने पर किये गये। उसके बाद सं० १४१६ में भगवती उनके प्रमुख शिष्य यम नियम में निरत तपस्वी माराधना का टिप्पण और वृहदद्रव्य संग्रह की टीका मलयकीति को ससम्मान अर्पित किया। उक्त की प्रतियाँ लिखाकर भेंट की गई। इस तरह प्रशस्ति मलयकीति द्वारा लिखी गई है, जो ऐतिशास्त्र दान को प्रोत्साहन दिया जाता रहा। हासिक विद्वानों के लिये बहुत उपयोगी है ।' विक्रम संवत् १४६३ में योगिनीपुर (दिल्ली)
अग्रवाल वंशी साहू वील्हा और धेना ही के के समीप बादशाह फीरोजशाह तुगलक द्वारा।
पुत्र हेमराज ने जो वादशाह मुमारख (मुबारिक वसाये गए फीरोजाबाद नगर में, जो उस समय
शाह शैय्यद) का मंत्री था, योगिनीपुर (दिल्ली) में
भरहतदेव का जिन चैत्यालय बनवाया था, और जब धन, वापी, कूप, तडाग, उद्यान प्रादि से। विभूषित था, प्रग्रवाल वंशी गर्ग गोत्री साह लाखू
भद्रारक यशकीति से पाण्डब पुराण वि० सं० निवास करते थे। उनकी प्रेमवती नाम की एक
१४६७ में बनवाया था। धर्म पत्नी थी, जो पातिव्रत्यादि गुणों से प्रलंकृत उक्त पुराण भट्टारक यशःकीति ने हिसार थी । इनके दो पुत्र थे साहु खेसल और मदन । खेतल निवासी प्रग्रवाल वंशी गर्ग गोत्री साह दिवडढा के की धर्मपत्नी का नाम सरो' था, जो सम्पति- अनुरोध से, जो इन्द्रिय-विषय-विरक्त, सप्तव्यसन संयुक्त भौर दान शीला थी। खेतल और सरो से रहित, अष्टमूलगुणधारक, तत्त्वार्थश्रद्धानी, प्रष्ट ग्रंग फेरू, पल्हू मौर बीधा नाम के तीन पुत्र हुए थे। परिपालक ग्यारह प्रतिमा माराधक और बारह व्रतों और इन तीनों की काकलेही. माल्हाही प्रौर का अनुष्ठापक था, वि० सं० १५०० में भारपट हरीचन्दही नाम की क्रमश: तीन धर्मपत्नियाँ शुक्ला एकादशी के दिन 'इंदउरि' परगना तिजारा थीं । साहे लाख के द्वितीय पुत्र मदन की में जलालखां (शय्यद मुबारिक शाह) के राज्य में ? धर्मपत्नी का नाम 'रतो' था, उससे 'हरधू' नाम समाप्त किया था। का पुत्र उत्पन्न हुमा था। उसकी स्त्री का नाम जोयरिणपुर निवासी अग्रवाल कुल भूषण गर्ग 'मन्दोदरी' था । साहु खेतल के द्वितीय पुत्र पल्हू गोत्रीय साहु भोज राज के ५ पुत्रों में से ज्ञानचन्द्र के के 'मंडन, जाल्हा, घिरीया और हरिश्चन्द नाम के विद्वान पुत्र साधारण श्रावक की प्रेरणा से इल्लराज चार पुत्र थे । इस सारे ही परिवार के लोग विधि- सुत महिन्दु या महाचन्द्र ने सं० १५८७ को कार्तिक पत् जैनधर्म का पालन करते थे और माहार, कृष्णा पंचमी के दिन मुगल बादशाह बाबर के
१. देखो, मलय कीर्ति और मूलाचार प्रशस्ति. भनेकान्त वर्ष १३ कि० ४
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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के राज्य काल १ में समाप्त किया था । ज्ञानचन्द्र के तीन पुत्र थे, उनमें ज्येष्ठ पुत्र सारंग साहुने सम्मेद शिखर की यात्रा की थी, और द्वितीय पुत्र साधारण ने, जो गुणी और विद्वान था एवं जिस का वैभव बड़ा चढ़ा था, 'शत्रु'जय' की मात्रा की थी, जिन मन्दिर का निर्माण कराकर हस्तिनागपुर की यात्रार्थं संघ चलाया था ।
साहू टोडर गुणी, कर्तव्य परायण मौर टकसाल के कार्य में अत्यन्त दक्ष थे और संभवतः वे प्रकबर की टकसाल का कार्यभार भी सम्पन्न करते थे । इनकी जाति प्रग्रवाल और गोत्र गर्ग था । यह भटानिया कोल (अलीगढ़) के निवासी थे, और काष्ठासंघ के भट्टारक कुमारसेन की माम्नाय के श्रावक थे, किसी समय वहां से प्राकर प्रागरा में बस गये थे, जैनधर्म के अनुयायी थे। भाग्यशाली, कुलदीपक और प्रत्यन्त उदार थे। इनके पितामह का नाम साहु रूपचन्द था और पिता का नाम साहू पासा था । साहु टोडर देव-शास्त्र-गुरु के भक्त ये धर्मवत्सल विनयी, परदार विमुख, दानी, कर्तव्य परायण, पर दोष भाषण करने में मौन रखने वाले कृपालु धौर धर्मफलानुरागी थे । काष्ठासंघ के विद्वान पांड़े राजमल को नागरा में
इनके समीप रहने का सौभाग्य शप्त हुआ था। वे इन का बहुत मादर करते थे मौर इनके प्राज्ञाकारी थे। राजमल को वहां रह कर साहू टोडर धौर
कबर बादशाह को नज़दीक से देखने का प्रवसर मिला था । इसीसे उन्होंने अपने जंबूस्वामी चरित में, जो साहू टोडर की प्रेरणा से रचा गया था, अकबर की खूब प्रशंसा की है मीर उसे शराब बन्दी करने वाला तथा 'जिजिया' कर छोड़ देने वाला
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लिखा है। મ साहु टोडर अकबर के प्रिय पात्र तथा राज्य संचालन में सहयोग देने वाले रम जाती पुत्र साहू गढ़मल और कृष्णामंगल चौधरी दोनों का प्रीति पात्र था और कृष्णामंगल चौधरी का सुयोग्य मंत्री था। पांडे राजमल साहू टोडर के तो अत्यन्त नजदीक ये ही उन्होंने उनकी केवल प्रशंसा ही नहीं की है अपितु उनके धार्मिक कार्यों का भी उल्लेख किया है और आशीर्वाद प्रादि द्वारा उनकी मंगल कामना भी प्रकट की है । साहु टोडर की धर्मपत्नी का नाम कसुभी था, उससे तीन पुत्र हुए थे। रिषीदास या ऋषभदास, मोहनदास और रूपमांगद । ५ उनमें प्रथम पुत्र ऋषभदास अपने पिता के समान ही धर्मनिष्ठ, जिनवाणी भक्त और गुणी था। साहू टोडर ने
१. बाबर ने सन् १५२६ ईस्वी में पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को पराजित और दिवंगत कर दिल्ली का राज्य शासन प्राप्त किया था। उसके बाद उसने प्रागरा पर अधिकार कर लिया था, और सन् १५३० (वि० सं० १५८७) में श्रागरा ही में उसकी मृत्यु हो गई थी। यह केवल ५ वर्ष हो राज्य कर पाया था ।
४. उग्राग्रोतकवंशोत्यः श्री पासातनयः कृती । वर्धता टोडरः साधू रसिकोऽज कथामृते ।। ५. जंबू स्वामि चरित ७३ से ७७ श्लोक पृ० १
२. जंबूस्वामीचरित २७ २६ पृ० ४-५
२. शाश्वत साहि जलालदोनपुरतः प्राप्त प्रतिष्ठोदयः, श्रीमान् मुगलवंश शारद शबfरण स्वोपकारोद्यतः नाम्ना कृष्ण इति प्रसिद्धि रभवत् सक्षात्र धर्मोते, तन्मंत्रीश्वर टोडरो गुणवृतः सर्वाधिकाराधितः ॥
ज्ञानावटीकाप्रशस्ति
जंबुस्वामी चरित्र सं० ४
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अग्रवालों का जैन धर्म में योगदान
१६५ प्रागरा में एक जिन मंदिर का निर्माण कराया पना की । इनकी प्रतिष्ठा का कार्य वि० सं० पा, जिसका उल्लेख कविवर भगवतीदास अग्रवाल १६३० ( ई० सन् १५७३ ) में द्वादशी बुधवार (सं० १६५१-१७००) ने अपनी वि० सं० १६५१ के दिन प्रातः ६ घड़ी व्यतीत होने पर सूरि मन्त्र सन् १५६४ में रची जाने वाली 'अर्गलपुर जिन- पूर्वक किया । उस समय साहु टोडर ने चतुर्विध वन्दना' नाम की कृति में किया है। इससे संघ को प्रामन्त्रित किया था और सभी ने साह स्पष्ट है कि साहु टोडर ने उक्त मन्दिर सं० १६५१ टोडर को शुभाशीर्वाद दिया था। संवत् १६३२ से पूर्व ही बनाया था। उनके उस मन्दिर में उस में इन्होंने कविराजमल जी से जम्बूस्वामिचरित समय प्रात्म-साधिका हमीरी बाई नाम की एक की रचना करवाई थी । अन्वेषण करने पर ब्रह्मचारिणी रहती थी, जिसका तपश्चरण से साह टोडर के और भी धार्मिक कार्यों का परिचय शरीर क्षीण हो रहा था और जो सम्मेद शिखर मिल सकता है। को यात्रा करके वापिस प्राई थी।
साह टोडर के ज्येष्ठ पुत्र रिषीदास या ऋषभमथरा के ५१४ स्तपों का जीर्णोद्धार कार्य दास ने अपने सुनने के लिए ज्ञानार्णव की संस्कृत
एक समय साह टोडर सिद्ध क्षेत्र की यात्रा टीका प्रागरा के तात्कालिक विद्वान पं० नयविलास करने मथुरा गये थे। वहां उन्होंने मध्य में बना से बनवाई थी। पं० नयविलास जो संस्कृत के हुप्रा जम्बू स्वामी का स्तूप देखा, और उसके चरणों सुयोग्य विद्वान थे, और उस समय प्रागरा में में विद्य च्चर मुनि का स्तूप देखा, तथा पास-पास बने
हो रहते थे। प्रागरा में अनेक विद्वान, भट्टारक
हा रहत हुए अन्य साधुनों के स्तूप देखे, जिनकी संख्या कहीं और धष्ठिजनों का प्रावास था, जो निरन्तर पांच, कहीं पाठ, कहीं १० और कहीं २० भी थी। अपने धर्म का अनुष्ठान करते हुये जीवन यापन साहु टोडर ने उनकी जीर्ण-शीर्ण दशा देखी, जिससे करते थे। उन्हें दुःख हुमा मोर तत्काल ही उनके समुद्धार पांडे राजमल ने साहु टोडर के ज्येष्ठ पुत्र की भावना बलवती हो उठी । फलतः उन्होंने ऋषभदास के लिये पंचाध्यायी के निर्माण करने शुभ दिन शुभ लग्न में उनके समुद्धार का कार्य का विचार किया था, किन्तु उनके दिवंगत हो प्रारम्भ कर दिया । साह टोडर ने इस पुनीत कार्य जाने से वह कार्य पूर्ण न हो सका । इस तरह में बहुत भारी द्रव्य व्यय किया और ५०१ साहु टोडर और उनके परिवार में जंन धर्म की स्तूपों का एक समूह और तेरह स्तूपों का दूसरा प्रास्था और धर्मानुष्ठान होता रहा । इस तरह कुल ५१४ स्तूपों का निर्माण कराया। भादानक देश के श्री प्रभुनगर में अग्रवाल वंशी इन स्तूपों के पास ही १२ द्वारपाल प्रादि की स्था- मित्तल गोत्रीय साहु लखमदेव के चतुर्थ पुत्र
१. टोडरसाहु करायो जिनहर रह हमीरी बाई हो।
तपलंकृत वपु प्रति कृशकाया जात शिखरि कर पाई हो। जात शिखरि कर पाई वतिका विहि थल पूज कराई, बंधो देव जिनेश जगत्पति मस्तक मेइणि लाई।
देखो जैन संदेश शोषांक भी० २३ सं० २५ पृ० १६१ २. शताना पंच चापैकं शुखं चाधित्रयोदश । स्तूपानां तत्समीपे च द्वादशकारिकादिकम् ।। संवत्सरे गताब्दानां शतानां षोडशं क्रमात । शुद्ध स्त्रिश साधिकं दधति स्फुटम् ॥
-जंबू स्वामि चरित ११५, ११६ पृ०१३
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१६६
बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ पोल्हा हुए । इनकी माता का नाम महादेवी स्पष्ट भान होता है । उनका परिचय भनेकान्त में था। प्रपम धर्मपस्नी का नाम कोल्हाही पोर दिया गया है । हस्तिनापुर के विशाल मन्दिर का दूसरी का नाम प्रासाही था। पासाही से निर्माण भी उन जैसे साहसी पौर भद्र परिणामी विभवनपाल और रणमल नाम के पुत्र उत्पन्न नररत्नों का ही कार्य था। इतना सब धार्मिक हए थे। थोल्हा के पांच भाई और भी थे। जो कार्य करने के पश्चात् भी उन्होंने अपना ना खिउसी, होल , दिवसी, मल्लिदास और कुन्दादास कहीं अंकित नहीं कराया। उनके द्वारा निर्मित नाम से प्रसिद्ध थे। ये सभी जैन धर्म के उपासक धार्मिक स्थान उनकी उदारता एवं निस्पृहता के पौर श्रावकोचित कर्तव्य का पालन करते थे।
द्योतक हैं। ___ लखमदेव के पितामह साहु होल ने जिन बिम्ब
___लाला जंवू प्रसादजी सहारनपुर, बड़ी ही भद्र प्रतिष्ठा कराई थी। उन्ही के वंशज थील्हा के
प्रकृति के मानव थे। उनकी धार्मिक परिणति प्रसंशा अनुरोध से कवि तेजपाल ने उक्त 'संभवनाथ चरित'
के योग्य थी। उन्होंने मन्दिर निर्माण के साथ की रचना संवत १५०० के पास-पास की थी।
अच्छा शास्त्र भंडार भी बनाया था, धवलादि ग्रंथों रोहतक निवासी चौधरी देवराज जिनको
की प्रतियां दस हजार रुपया में खरीद की थी, जाति अग्रवाल और गोत्र सिंगल ( संगल) था और
तत्वार्थ राजवातिक की टोका पंडित पन्नालालजी पिता का नाम साह महणा था, सं० १५७६ चैत्र
न्यायदिवाकर से बनवाई थी और दस हजार शुक्ला पंचमी शनिवार के दिन कृतिका नक्षत्र के
रुपया उपहार स्वरूप भेट किया था। उनके पुत्र शुभयोग में पार्श्वनाथ के मन्दिर में कवि मारिणक्य
प्रद्य म्नकूमार ने भी पं० माणिकचन्दजी न्यायाचार्य राज से अमरसेन चरित्र का निर्माण कराया था।
से श्लोकवातिक की टीका वनवाई, और उसके लिये कवि रइधू ने तो अग्रवाल वंशो श्रावकों की यथेष्ट द्रव्य खर्च किया। वर्तमान में श्रावक शिरोप्रेरणा से अनेक ग्रंथों की रचना की, तथा प्रति- मणि साह शांतिप्रसादजी का सांस्कृतिक कार्य भी ष्ठादि कार्य सम्पन्न किये जिनका उनके द्वारा प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है । मंदिरों का जीर्णोरचित ग्रंथ प्रशस्तियों में विस्तृत परिचय दिया द्वार कार्य, और संस्थाओं के संचालन में अर्थ का हमा है। इनके अतिरिक्त इस सम्बन्ध में विशेष सहयोग, साधर्मी वात्सल्य सहयोग प्रादि कार्य उनकी अनुसंधान किया जाय तो एक बड़े प्रथ का निर्माण उदारवृत्ति के परिचायक हैं। दिल्ली, पानीपत, किया जा सकता है। दिल्ली के राजा हरसुखराय सुनपत, करनाल, हिसार, हांसी, सहारनपुर, मेरठ, पौर सुगनचन्द ने जो शाही खजांची, राज्यमान्य मुजफ्फरनगर, प्रादि भनेक शहरों और कस्बों मावि और समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, हिसार के में निवास करने वाले अधिकांश अग्रवाल ही हैं उन निवासी थे.उस समय जैनधर्म और जनसमाज की सब की धार्मिक परिणति मादि कार्य उल्लेखनीय हैं। प्रतिष्ठाके । अनेक महनीय कार्य किये । जिनमन्दिरों इस तरह अग्रवालों का जैनधर्म के प्रचार तथा प्रसार का निर्माण कराया और परोपकार प्रापि के महत्व में प्रच्छा योगदान रहा है। उसका कुछ प्राभास पूर्ण कार्य किये । २ जिनसे उनकी महत्ता का ऊपर के कुछ परिचय पर से मिल सकता है।
१. देखो, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह दूसरे भाग को प्रस्तावना २. अनेकान्तवर्ष १५ किरण १ ३. अनेकान्तवर्ष १३ किरण
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अमवालों का जैनधर्म में योगदान
प्रवाल जैन कवियों की साहित्य सेवा
जैन संस्कृति के प्रसार और प्रचार में केवल भावकों ने ही योग नहीं दिया है किन्तु समय समय पर अनेक अग्रवाल जैनकवियों ने अपनी रचनाओं द्वारा लोक कल्याण की भावनाओंों को प्रोसेजन दिया है । इतना ही नहीं किन्तु तात्कालिक रीतिरिवाजों के साथ अपनी धार्मिक भावनात्रों को वृद्धिगत किया है।
कवि श्रीधर हरियाना देश के निवासी थे और थे । आपके पिता का प्रवाल कुल में उत्पन्न हुए नाम 'गोल्ह' और माता का नाम 'बील्हा देवी' था । कवि ने अपनी गुरु परम्परा और जीवनादि की घटना का कोई उल्लेख नहीं किया । कवि हरियाना से जमना ( यमुना ) नदी को पार कर योगिनीपुर (दिल्ली ) धाया था और उसने धनंगपाल तृतीय के मंत्री नट्टल साहू के अनुरोध से संवत् १९८९ में 'पासरगाह चरिउ' की रचना की थी। इस ग्रंथ में कवि ने अपनी एक अन्य रचना 'चन्द्रप्रभचरित' का उल्लेख किया है । इस खण्ड काव्य में पार्श्वनाथ का जोवन-परिचय अंकित किया गया है और अन्तिम प्रशस्ति में ग्रंथ निर्माण में प्रेरक नट्टल साहू के परिवार का परिचय कराया गया है। कवि की एक अन्य रचना 'बद्दमावरिङ' नामक खण्ड काव्य है जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जीवनचरित दिया हुआ है, जिसे कवि ने सं० १९९० में बनाकर समाप्त किया था। इस ग्रंथ की एक प्रति ब्यावर के ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन में मौजूद है।
दूसरे कवि सधारू हैं । इनके पिता का नाम साह महाराज और माता का 'सुधनु' था, जो गुणवती थी । कवि एरन्छ नगर के निवासी थे । इनकी बनाई हुई एकमात्र कृति 'प्रथम्न चरित' है जिसमें यादव वंशी श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का
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वरित 'कित किया गया है। यह एक सुन्दर चरित काव्य है, यह ग्रन्थ श्री महावीर अतिशय क्षेत्र की ओर से पं० चैनपुखदास जी धौर डा० कस्तूर चंदजी के संपादकत्व में प्रकाशित हो चुका है।
तीसरे कवि बुधत्रीस हैं जो साह तोतू के पुत्र थे, तथा भट्टारक हेमचन्द के शिष्य थे । इन्होंने धर्मचक्र पूजा सं० १५८६ में रोहतक नगर के पार्श्वनाथ मन्दिर में बनाकर समाप्त की थी । इनकी दूसरी रचना 'वृहत्सिद्धचक्र पूजा' है जिसे कवि ने वि० सं० १५८४ में देहली के मुगल बाद
शाह बाबर के राज्य काल में रोहतक के उक्त पार्श्वनाथ मन्दिर में बनाई थी । इनकी दो कृतियों के नाम और मिलते हैं । 'नन्दीश्वर पूजा' और ऋषिमंडल यत्र पूजा-पाठ । ये दोनों ही ग्रंथ धभी मेरे देखने में नहीं आये इस कारण उनके सम्बद्ध में यहां कुछ कहना संभव नहीं है ।
चौथे कवि प्रथ्वीपाल है, जो गगंगोत्री और पानीपत के निवासी थे। इन्होंने सं० १६६२ में ३९ पद्यों में 'श्रुतपंचमीरास' की रचना थी ।
पांचवें कवि 'नन्दलाल' या नन्द हैं, जो आगरा के पास गोसना नामक स्थान के निवासी थे। इनका गोत्र गोल था। पिता का नाम भैरों या भैरोंदास और माता का नाम चन्दा देवी था ।" कवि की दो कृतियां मेरे देखने में भाई हैं और दोनों ही रचनाएं सुन्दर हैं । प्रथम रचना यशोधर चरित्र में महाराज यशोघर का चरित वरिणत वरित है। कथानक पुराना होते हुए भी उसमें काव्यत्व की दृष्टि से नयापन लाने का प्रयत्न किया गया है। भाषा में प्रसाद धौर गतिशीलता है। कवि ने इसे सं० १६७० में श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन बनाकर समाप्त किया था। इनकी दूसरी कृति 'सुदर्शन चरित' है जिसमें सुदर्शन के चरित्र का चित्रण किया गया है। कथानक पर नवनन्दी
१. अगरवाल वरवंश गोमुना गांव को गोइल गोत प्रसिद्ध ता ठांव को
माता बन्दा नाम पिता भैरों भन्यो, 'नन्द' कही मन मोद गुनी गुनन गिन्यो |
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ के 'सुदंसरण चरित्र' का प्रभाव स्पष्ट है। भाषा बूढिया, कपिस्थल, संकिसा प्रादि स्थानों में लिखी मोर भाव दोनों का चयन सुन्दर है। नथ चोपाई गई हैं । कवि को सबसे प्रथम रचना 'अर्गलपुर छन्द में लिखा गया है। कवि ने इस प्रथ को सं० जिन वन्दना' है जिसे कवि ने सं० १६५१ में १६६३ में माघ एक्ला पंचमी गुरुवार के दिन प्र.गरा में बनाई थी. उसमें प्रागरे की यात्रा का बनाकर समाप्त किया था। दोनों ही ग्रन्थ अकबर समाचार अंकित है । मुक्ति रमणी चूनड़ी सं० के पुत्र जहांगीर के राज्य में रचे गए हैं। १६८०, वृहत् सीता सतु सं० १६८४, लघुसीता सतु
छठवें कवि 'भगवतीदास' हैं। इनका गोत्र सं० १६८७, अनेकार्थ नाममाला सं० १६८७, 'वसल' था। यह बूढिया ' जिला अम्बाला के मृगांकलेखा चरित सं० १७००। इन रचनामों निवासी थे। इनके पिता का नाम किसन के अतिरिक्त अन्य रचनामों में रचना संवत दिया दास था. उन्होंने चतुर्थवय में मुनिव्रत धारण कर हुमा नहीं है । इससे उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं लिया था। यह बुढिया से जोगिनीपुर (दिल्ली) कहा सकता । मनकरहारास, जोगीरास, टंडाणा चले गए थे। उस समय देहली में अकबर के पुत्र रास, चतुर वनजारा, आदित्यव्रत रास, दशलक्षण जहांगीर का राज्य था । उस समय देहली की रास, साधुसमाधिरास, रोहिणीव्रतरास, द्वादशाभट्टारकीय गद्दीपर भट्टारक सकलचन्द्र के पट्ट नुप्रेक्षा, सुगंधदशमीकथा, अनथमीकथा, समानीशिष्य मनि महेन्द्रसेन विराजमान थे, जो भ. ढमाल, आदिनाथस्तवन, शान्तिनाथ स्तवन, दिल्ली गणचन्द्र के प्रशिष्य थे। दिल्ली के मोती बाजार में को राजावली, राजमती नेमीश्वर ढमाल, सांवलाजिन मन्दिर था, जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की गीत, मनसूवागीत, वीरजिनिदगीत, चौमासागीत, मति विराजमान थी। २ कविवर वहीं पर रहते मधुकरगीत, वणजारा गीत, मुक्तावलीरास, थे । कधि की अनेक कृतियाँ उपलब्ध है। उनमें दिवाली ढाल गीत, कर्मचेतनहिंदोला, कर्मप्रकृति कुछ तो इतनी बड़ी हैं कि वे स्वयं एक स्वतंत्र हिंदोला, रुतिनवेली वारहमासा, वैरागीलाल बारहग्रन्थ का रूप ले लती हैं । और छोटी छोटी अनेक मासा, बारहमासा और अनेक पद, मनहरणगीत, फूटकर रचनाए है जो समय समय पर रची गई भमरागीत, बावती, मादि अनेक फटकर रचनाएं हैं। ये सब रचनाएं एक ही स्थान पर नहीं रची अजमेर के एक गुच्छक में संगृहीत हैं। वैद्यविनोद गई'; किन्तु दिल्ली, आगरा, हिसार, सहजादपुर, और ज्योतिषसार ये दोनों ग्रंथ कारंजा भंडार में
१. धूढ़िया पहले एक छोटी सी रियासत थी, जो धन धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के
बस जाने से बूढिया को अधिकांश प्राबादी वहां से चली गई, प्राज कल वहां खंडहर अधिक हो
गए हैं, जो उसके गत वैभव को स्मृति के सूचक हैं। २. गुरु मुनि माहिंदसेन भगौती, तिस पद पंकज रंन भगोती।
किशनदास वरिण तनुज भगौती, तुरिये गहिउ व्रत मुनिजु भगौती ॥२ नगर बूढिए वसं भगौती, जन्मभूमि है पासि भगोती। अग्रवाल कुल वंसल गोती, पंडितपद जन निरख भगौती ॥३ जोगनिपुर राज, राय-खोरि नित नौबत बाजे। प्रतिमा पार्श्वनाथ धनबंता, नागरनर पवर मतियतां ॥४ मोतीहट जिन भवन विराज, प्रतिमा पार्श्वनाथ की साज । श्रावक सुगन सुजान दयाल, षट जिय जाम कर प्रतिपाल ॥५
-वृहत् सीता सतु
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अप्रवालों का जैन धर्म में योगदान
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स्थित हैं कवि की समस्त रचनाएं सुन्दर, स्वपर- कवि का समय १६ वी १७ वीं शताब्दी जान सम्बोधक और उपदेशक हैं।
पड़ता है।
सातवें कवि पाडे रूपचन्द हैं । इनका गोत्र नौवें कवि जगजीवन हैं-यह मागरा के 'गर्ग था। इनका जन्म कुरु देश के सलेमपुर' निवासी मोर संघवी प्रमयराज तथा मोहनदे के नामक स्थान पर हुआ था। इनके पितामह का पुत्र थे। संघवी अभयराज ने प्रागरा में जिन मंदिर नाम 'मामट' और पिता का नाम भगवानदास था। का निर्माण कराया था । जगजीवन विद्वान और भगवानदास की दूसरी पत्नी से रूपचन्द का जन्म कवि थे और जाफरखां के दीवान थे। जाफरखां हना था । इनके चार भाई और भी थे हरिराज, शाहजहां का उमराव था जो पंचहजारी मनसव भूपति, अभयराज और कीर्तिचन्द । इन्होंने वनारस को प्राप्त था। जग जीवन पर लक्ष्मी का वरदमें शिक्षा पाई थी। यह विद्वान कवि थे और हस्त था। यह विद्वानों की गति में बैठते और प्रध्यात्म के प्रेमी थे। इनकी कृतियां परमार्थी तत्त्व चर्चा करते थे। पांडे हीरानन्द जी से इनका दोहाशतक, मंगल गीत प्रबन्ध, नेमिनाथरासा, घनिष्ठ संबंध था। संवत् १७०१ में इनकी प्रेरणा खटोलनागीत और प्राध्यात्मिक पद हैं समवसरण से समवसरण पाठ बनाया था उसकी एक प्रति पाठ (केवलज्ञान कल्याणार्चा) इनकी संस्कृत की उक्त संवत १७०१ की दिल्ली के नये मन्दिरजी रचना है, जिसे उन्होंने संवत् १६६२ में बनाकर में मौजूद है । पंचास्तिकाय का पद्यानुवाद भी समाप्त किया था। इनकी मृत्यु सं० १६६४ में हुई बनवाया था । जगजीवन ने सं० १७०१ में थी। यह प्रागरे में पाये थे प्रोर तिहुन साहु के बनारसीदास की कविताओं का संकलन कर मंदिर में ठहरे थे। कविवर भगवतीदासने अपनी बनारसी विलास नाम दिया था। भापके प्रनेक 'प्रलपर जिनवन्दना' में इसका उल्लेख किया है। पद और एकीभावस्तोत्रादि के पद्यानुवाद मिलते हैं। कवि रूपचन्द जी से सब अध्यातमियों ने गोम्मट
दशवें कवि बंशीदास हैं, जो फातिहाबाद सार वंचवाया था, उसी से बनारसीदास और उनके साथी जैन धर्म में हद हैए थे और उनका नगर के निवासी थे। भद्रारक विशाल कीति के प्रध्यात्मरोग दूर हुप्रा था।
शिष्य थे कवि ने सं० १६६५ ज्येष्ठ कृष्णा द्वितीया
के दिन 'रोहिणी विधि कथा' की रचना की है। पाठवें कवि भाऊ हैं, जो नहनगढ़ या त्रिभुवन- ग्यारह वें कवि हेमराज हैं, जो 'गर्ग' गोती गिरि के निवासी थे। इनके पिता का नाम 'मनू' और मागरा के निवासी थे । ये अच्छे विद्वान टीकासाह था। इनका गोत्र 'गर्ग' था। इस समय तक कार और कवि थे और अध्यात्म की चर्चा करने में इनकी तीन चार रचनाओं का पता चला है इनमें निपुण थे। इन्होंने अपनी पुत्री जैनुलदे को, जो गुण से मादित्यवार कथा तो मुद्रित हो चुकी है। शील से सम्पन्न और रूपवान थी, खूब विद्या पढाई दूसरी रचना नेमिनाथ रास है, जिसमें नेमिनाथ की। हेमराज ने उसका विवाह नन्दलाल से किया पौर राजुल का जीवन-परिचय मंकित है। तीसरी था जो उस समय वयाना से पाकर प्रागरा में रह रचना पाश्वनाथ कथा है जो जयपुर के तेरापंथी रहे थे। इन्होंने प्रवचनसार की टीका सं० १७०० बड़े मन्दिर के गुच्छक नं० १६३ में दर्ज है लिपि में, शाता कुंवरपालन के अनुरोध से बनाई थी। १७०४ है (ग्रन्थ सूची प्र० २ पृ० ३५५) चौथी रचना मोर पंचास्तिकायकी टीका सं० (१७२१) में रूपपुष्पदन्त पूजा है कवि ने रचनाकाल नहीं दिया । चन्द्रजी के प्रसाद से बनाई थी । परमात्मप्रकाश की
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य टीका सं० १७१७ में भक्तामरस्तोत्र का पद्यानुवाद का नाम विनोदीलाल था। आपके बनाये हुए पद भी प्रापकी कृति है, कर्मप्रकृति को हिन्दी टोका और जकड़ी हैं जो स्व-पर-सम्बोधक हैं। जकड़ी (सं० १७१७ ) में मौर श्वेताम्बर चौरासी बोल भी प्रकाशित हो चुकी हैं। मापने बनाये थे।
___चौदहवें कवि विनोदीलाल हैं, इनके परदादा बारहवें कवि बुलाकीदास या बूलचन्द हैं, जो का नाम 'मस्र' और दादा का नाम 'पारस' था नन्दलाल पौर जैनुलदे के पुत्र थे । इनके पितामह और पिता का नाम 'दरिगहमल्ल' था । विनोदीलाल का नाम श्रवणदास और माता का नाम जैनुलदे
जैन सिद्धान्त के अच्छे विद्वान और कवि थे। या जैनी था जो प्रत्यन्त विदुषी थी। पं. उन्होंने लिखा है कि-"दंपन पायु वृषा मुझ बूलचन्द ने दिल्ली के जयसिंहपुरा में पंडित अरुण- गई, तीजे पन कुछ शुभमति भई ।" इससे स्पष्ट मणि से विद्या प्राप्त की थी। परुन्मरिण ने इन्हें है कि कवि की आयु के दो भाग बीत जाने पर हित के माथ विद्या पढ़ाई की । इन्होंने अपनी माता जैन धर्म की पोर विशेष प्राकृष्ट हुए थे और तभी की प्राज्ञा से 'पाण्डवपुराण' संवत १७५४ में रचनामों की पोर चित्त लगाया था। उनकी जो बनाया था, और प्रश्नोत्तर श्रावकाचार के तीन रचनाए मेरे प्रवलोकन में पाई है, उनका उल्लेख हिस्से जहानाबाद में सं० १७४७ में और चौथा निम्न प्रकार हैहिस्सा पानीपत में सं० १७६६ में समाप्त
१ भक्तामर कथा स० १७४७,२ सम्यक्त्व किया था ।
कौमुदी सं० १७४६,३ सिद्धचक्र कथा सं० १७५० तेरहवें कवि दरिगह मल हैं, जो वस्सदेशान्त- में औरंगजेब के राज्यकाल में बनाकर समाप्त र्गत 'सहजादपुर' नामक नगर के निवासी थे, की है । यद्यपि यह संस्कृत रचना का पद्यानुवाद जो गंगा के तट पर बसा हया था। इनका गोत्र मात्र है, फिर भी उसमें सरसता है दोहा. चौपाई 'गर्ग' था। ये काष्ठासंघ माथुर गच्छ पुष्करगण सोरठा, मडिल्ल, त्रोटक आदि अनेक छन्दों में के भट्रारक कुमार सेन की माम्नाय के विद्वान थे, रची गई है। कवि ने उसकी प्रशस्ति में अपना जो सेठ सुदर्शन के समान दृढ़ती थे । इनके पुत्र परिचय भी अंकित किया है। ४ राजुल पच्चीसी
१. प्रस्तुत सहजादपुर प्रयाग या इलाहाबाद के पास गंगा नदी के तट पर बसा हमा था। वहां
अग्रवाल श्रावको के अनेक घर थे, जैन मन्दिर था। १७वीं शताब्दी के कवि भगवतीदास अग्रवाल
नं भी वहां रह कर रचना की थी। २. नामक था श्रीपाल दिनोद, पढत सुनत मन होय प्रमोद ।
जाति वानिया अग्गरवार, गोत अठारह में सिरदार ॥ मनखचून मुझ अल्लि महान, गर्ग गोत्र जवंश प्रधान । पर दादे को 'मंडन' नाम, कुल मण्डन हुो सो धाम ।। दादो 'पारस' तासु समान, यथा नाम तैसे गुण जान । दरिगहमल्ल तात मुझ तनों, शील सुमेरु सुदर्शन मनो । ताको अनुज विनोदीलाल, में यह रचना रची विशाल ।
संवत सत्रह से पचास, द्वेज उजारी अगहन मास । रवि वासर पाई शुभ धरी, ना दिन कथा संपूरन भई ।
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भावालों का जैन धर्म में योगदान
सुरुचिपूर्ण हैं।
५ नेमिनाथ व्याहला, ६ फूलमाल पच्चीसी स्मरस की सरस चर्चा नवागन्तुक व्यक्ति पर ७ नेमिनाप बारहमासा और अनेक पद भी अपना प्रभाव अछूता नहीं छोड़ती थी। वह उनके बनाये हुए हैं । सभी रचनाए' सम्बोधक और सरस व्यवहार और तत्वचर्चा से भात्म-विभोर
हुए बिना नहीं रहता था । उसकी अभिलाषा पन्द्रहवें कवि द्यानतराय है,' जो प्रागरा सत्समागम से लाभ उठाने की प्रति समय रहती के निवासी थे। इनका गोत्र 'गोयल' था। कवि थी । परिणामस्वरूप उसका धार्मिक शैथिल्य दर के पूर्वज जलालपुर से भाकर भागरा में बसे थे। होकर श्रद्धा में दृढ़ता ला देता था। वह जैन धर्म कवि के पितामह का नाम वीरदास और पिता का का श्रद्धालु और अपने मानव जीवन को ऊंचा नाम श्यामदास था। कवि का जन्म सं० १७३३ उठाने की भावना को हृदयंगम कर लेता था। में हुमा था। बाल अवस्था में इनका लालन-पालन द्याननरायजी उन दोनों की शिक्षा से मानव जीवन बड़े प्रेम से हमा, और प्रारम्भिक शिक्षा भी की सफलता के रहस्य को पागये और प्राकृत मिली । उस समय उनकी जैनधर्म में कोई रुचि संस्कृत के अच्छे विद्वान बन गये। वे जैन धर्म का नहीं थी, किन्तु वे पिता से भागत धर्म का ही परिज्ञान कर उसकी शरण में भागए । सं० १७४८ प्राचरण करते थे। दैवयोग से कविवर के पिता मे १५ वर्ष की अवस्था में कवि का विवाह हो का सं०१७४२ में प्रचानक स्वर्गवास हो गया। गया, और वे गृहस्थ जीवन की सूहद्ध सांकलों से उस समय कवि की अवस्था ६ वर्ष की थी। जकड़ दिये गये, जिसमें राजी होकर जीव अपने पिता के स्वर्गवास का उनके जीवन पर बड़ा कतव्य को भूल जाते हैं। कवि ने १६ वर्ष की प्रभाव पड़ा, और घर-गृहस्थी का सारा भार अल्प अवस्था म अथात् स० १
अवस्था में अर्थात् सं० १७५२ में कार्तिक वदी अवस्था में उठाने को मजबूर होना पड़ा। परन्तु
प्रयोदशी के दिन प्रागरा में 'सूबोध पंचासिका' मात्मीयजनों और दूसरे साधर्मीजनों के सहयोग बनाई, भोर सं० १७५८ में उपदेश शतक, छहलढ़ा से कुछ समय अपना कार्य करते हुए भी शिक्षा सं० १७५८, और सं० १७८० में धर्म विलास, की ओर अग्रसर रहे । तेरह वर्ष की उम्र में जिसमें ४५ रचनाओं का संकलन किया गया है। इनका परिचय पं० बिहारीलाल और शाह मानसिंह ३३३ भाधात्मिक स्व-पर-सम्बोधक पद, चर्चा शतक जी से हो गया। दोनों ही महानुभाव जैनधर्म के बड़ी सुन्दर कृति है । सं० १७८१ में मागम विलास पच्छे जानकार थे और शक्त्यनुसार उस पर अमल की रचना हुई, जिसमें १५२ सर्वया तथा ५५ प्रन्य भी करते थे। उस समय मागरा में अध्यात्म शंली छोटी-छोटी रचनामों का संग्रह है। जिनमें प्रतिमा का बहुत जोर था। यत्र-तत्र जैन धर्म की चर्चा वहतरी सं. १७८१ में दिल्ली में बनाकर समाप्त खूब चलती थी । प्रागरा विद्वानों के समागम की है । संवत् १७८३ मे कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी के पौर तत्वचर्चा का केन्द्र सा बन गया था। फलतः दिन कवि ने साम्यभाव से अपने जड़ शरीर का वहां उस समय यदि कोई हाकिम या सद्गृहस्थ परित्याग किया था।' कवि की मृत्यु के बाद पहुँच जाता था तो वह उन विद्वानों की सत्संगति उनकी कृतियों का चिट्ठा उनके पुत्र लालजी ने से जरूर लाभ उठाने का प्रयत्न करता था । प्रध्या- पालमगंज वासी किसी झाझू नामक व्यक्ति को दे
१. विशेष परिचय के लिये देखों अनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ पृ० १६१ १. संवत विझमन्टपति के गुण वसु शैल सितंश ।
कार्तिक सुकल चतुरदशी यानत सुर गंतूश ॥
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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दिया था। मालूम होने पर पं० जगतराम ने उससे धीनकर मोतीकटने में रक्खा, मौर रचनाओं के नष्ट होने के भय से सं० १७८४ में माघ सुदी १४ को मैनपुरी में समाप्त किया है।
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सोलहवें कवि बासीलाल है, जो दिल्ली के निवासी थे इन्होंने सेठ सुगनचन्द जी के विद्वान पुत्र गिरधरलालजी से, जो प्राकृत संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और नये मन्दिर जी में शास्त्र प्रवचन किया करते थे। प्राकृत वैराग्य शतक का हिन्दी घयं जानकर जीवमुखराय की प्रेरणा से उन्हीं के पठनार्थ हिन्दी भाषा में पद्यानुवाद किया था । कृति का रचना काल सं० २००४ पोषमुदि दीइज है। दोहे रोचक धौर भाव पूर्ण है।
सत्रहवें कवि जगतराय हैं जो सिंघल गोत्री थे। इन्होंने संवत् १७२२ में पद्मनंदि पच्चीसी का पद्यानुवाद किया था ।
अठारहवें कवि सन्तलाल हैं जो नकुड़ जिला सहारनपुर के वासी थे। इन्होंने सिद्धचक्र का पाठ हिन्दी पद्यों में बनाया है । इनका जन्म सं० १८३४ में हुआ था और मृत्यु [सं० १८८६ में ये अंग्रेजी भाषा के भी विद्वान थे।
इनके अतिरिक्त पं० इरगुलालजी खतौली, बावरला रत्नलालजी दिल्ली, पं० मेहरचन्दजी सुनिपत पं० ऋषभदासजी चिलकाना ( मिथ्यातिमिरनाशक नाटक के कर्ता ) पं० मंगतराय जी प्रावि धनेक विद्वान है, जिनका परिचय लेख वृद्धि के भय से छोड़ा जाता है ।
पं० निहालचन्दजी अग्रवाल ने सं० १८६७ में नयचक्रपर भावप्रकाशिनी टीका लिखी थी।
नन्दराम गोयल गोत्री ने सं० १९०४ में योगसार टीका फाल्गुन सुदी १ वी चन्द्रवार के दिन ) धागरा के ताजगंज के पार्श्वनाथ चैत्यालय में श्रावकोत्तम ठाकोरदास, रिषभदास भोर पन्नालाल के उपदेश से बनाई थी ।
इस तरह अप्रवास समाज द्वारा जैनधर्म की सेवा, उसके विस्तार एवं प्रचार आदि का कार्य किया जाता रहा है। इस लेख में सं० १९८९ से अब तक के समय में होने वाली धर्म धौर साहित्य सेवा का उल्लेख किया गया है। कितने ही विद्वानों का परिचय लेख वृद्धि के भय से नहीं दिया जा सका। इससे पाठक सहज ही वालों के जैनधर्म अग्रवालों के प्रचार तथा प्रसार में योगदान का परिचय प्राप्त कर सकते हैं। वर्तमान में भी सवालों की जैनधर्म के प्रति रुचि पौर जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार का कार्य चल रहा है। साहित्यिक क्षेत्र में वीर सेवा मन्दिर दिल्ली जैन सिद्धांत भवन धारा, धौर भारतीय ज्ञानपीठ काशी अपना कार्य कर ही रहे हैं । ज्ञानदान और श्रीषधिदान में अनेक संस्थाओं के अतिरिक्त दिल्ली का परिन्दों का हम्पताल भी उल्लेखनीय है । वर्तमान में भी इस समाज में अनेक गण्यमान पुरुष हैं जिन का अधिकांश जीवन समाज और साहित्य सेवा में व्यतीत हुआ है अथवा हो रहा है जिनमें बाबू छोटेलाल जी कलकत्ता तथा पं० जुगल किशोर जी मुस्तार यादि के नाम से सारा समाज परिचित है । वास्तव में ही अग्रवाल समाज का जैनधर्म और साहित्य के प्रचार तथा प्रसार में जो योगदान रहा है वह प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है ।
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हिन्दी का आदिकाल और जैन - साहित्य
• डा० छविनाथ त्रिपाठी
हिन्दी साहित्य का श्रादिकाल सामान्य रूप से
दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक माना जाता है । इस काल के अनेक नाम हिन्दी के प्राचार्यो द्वारा प्रस्तुत किये गये हैं। सबके पास तत्कालीन उपलब्ध सामग्री थी अपने तर्क थे। किसी ने उसे वीर गाथा काल कहा, किसी ने सिद्ध सामन्त काल और अब उसे उत्तर अपभ्रंश काल कहा जाता है । सर्व प्रथम पं० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने बताया कि विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश की प्रधानता रहीं और फिर वह पुरानी हिन्दी में परिणत हो गई। इसमें देशी की प्रधानता है. विभक्तियां घिस गई हैं, खिर गई हैं। एक ही विभक्ति 'हॅ' या 'प्रा' कई काम देने लगी ।' इसी विचार का समर्थन करते हुए प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल जिसे हिन्दी का आदि काल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है । इसी प्रपभ्रंश के बढ़ाव को कुछ लोग उत्तर कालीन प्रपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी ।" 'बारहवीं शताब्दी तक निश्चित रूप से पश भाषा ही पुरानी हिन्दी के रूप में चलती थी, यद्यपि उसमें नये तत्सम शब्दों का प्रागमन शुरु हो गया था ।" 'बोलचाल की भाषा में तत्सम शब्दों का प्रचार बढ़ने लगा था, पर पद्य में अपभ्रंश का ही प्राधान्य था । इस लिये इस काल को पाश का बढ़ाव काल कहना ही उचित है । २
इन विचारों की अभिव्यक्ति के उपरान्त भी अनुसंधान कार्य चलता रहा है; अनेक ऐसी कृतियां १. द्रष्टव्य - हिन्दी साहित्य का भादि काल पृ० २२ २. बही - १० २४ ।
प्रकाश में आ चुकी हैं जो हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल के स्वरूप, नाम, भाषा आदि पर प्रचुर प्रकाश डालती हैं । प्राचार्य शुक्ल के समय पृथ्वीराज रासो बीसलदेव रासो, विद्यापति की पदावली तथा कुछ अन्य ऐसी रचनायें उपलब्ध थीं जो प्रपूर्ण और अर्ध प्रामाणिक थीं । प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस सूची में कुछ और वृद्धि की और संदेश रासक के महत्व पर प्रकाश डाला। इस काल के ग्रन्थों की सूची निरन्तर बढ़ती गई है और नये अनुसंधान के साथ साथ उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है ।
हिन्दी साहित्य के श्रादिकाल को प्रपभ्रंश का बढ़ाव मान लेने पर दसवीं से चोदहवीं शताब्दी तक की सम्पूर्ण कृतियों का, चाहे वे अपभ्रंश में हों या डिंगल में, प्राचीन गुजराती में हों या मैथिली में, विवेचन प्रपेक्षित है और यह निर्णय करना अधिकारी विद्वानों का कार्य है कि किन किन कृतियों को हिन्दी साहित्य के आदिकाल में समाविष्ट किया जा सकता है या किया जाना चाहिये । यह कार्य अभी शेष है और खेद की बात है कि इस पर कार्य नहीं हो रहा है ।
हिन्दी साहित्य के प्रादिकाल की उपलब्ध सामग्री को पांच वर्गों में रखा जा सकता है - (१) नाथ पंथी और सिद्ध साहित्य (२) रासो और रास या रासक काव्य (३) उत्तर अपभ्रंश का जैन साहित्य (४) हिन्दी की उपभाषाओं का साहित्य तथा (५) प्राचीन गुजराती साहित्य ( यदि वे डिंगल या प्राचीन हिन्दी के समीप हों ) । इन वर्गों में से
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ हिन्दी की उपभाषामों में केवल मैथिली की रचनायें अन्तर्गत प्रक्ष्य-गेय (प्राजकाल का गीति-नाट्य) उपलब्ध हैं। नाथ पंथी और सिद्धों का साहित्य प्रादि- को रखा गया है और रासक उसका एक रूप है। काल की महत्वपूर्ण सामग्री है। शेष तीन वर्गों की हेमचन्द्र के पूर्व रासक के कई रूप प्रचलित थे। कृतियां या तो जैन साहित्य के अन्तर्गत पाती हैं ताल रास, लगड रास, चर्चरीमादि उसके विविध या इस धारा से पूर्णतः प्रभावित हैं।
रूपों की चर्चा ही नहीं मिलती, पर अपभ्रश के
महाकवि स्वयंभू ने अपने प्रबन्धकाव्य पउम चरिउ रास या रासक
में उसका प्रयोग भी किया है । उनके प्रयोग से रास या रासक के सम्बन्ध में विविध मत
| यह भी स्पष्ट हो जाता है कि रास केवल प्रचलित है। हिन्दू परम्परा 'रास' से मंडलाकार
___ मंडलाकार नृत्य मात्र नहीं था । उनके समय यह नत्य का बोध करती है और कृष्ण से इसका सम्बन्ध
ध्रुवक युक्त लोकगीतिनाट्य था । मावश्यकताजोड़ लेती है। रास, चर्चरी प्रादि के प्राचीन
नुसार प्रबन्ध काव्य में उसे अंग रूप में प्रयुक्त किया उल्लेखों से इसका सम्बन्ध लोक जीवन और लोक ।
जा सकता था। लगुड रास केवल डंडा लेकर ही नृत्यों से जोड़ लिया जाता है। डा० दशरथ प्रोझा
नहीं, कोई भी शस्त्र लेकर दो व्यक्ति (पुरुष-पुरुष, सातवीं शताब्दी में इसका प्रचुर प्रचार स्वीकार
या पुरुष-स्त्री) संपन्न कर सकते थे, हां गाने के करते हैं।' रिपुदारण रास के प्राधार पर
लिये साथ में अन्य व्यक्तियों की प्रावश्यकता होती ध्रुवक युक्तता इसका एक गुण भी सिद्ध करते हैं।
' थी। अभिनय (गीत के भावानुसार) दो व्यक्तियों यह भी उन्होंने लिखा है कि ८वीं शताब्दी से १५वीं
का ही चल सकता था। शताब्दी तक के मध्य कृष्ण रास लीला का प्रायः
___हेमचन्द्र के समय तक रासक का भी पाठ्य प्रभाव सा प्रतीत होता है। अतः दसवीं से
पौर गेय भेद नहीं बन सका था अपितु-गेय-प्रेक्ष्य चौदहवीं शताब्दी तक जो रास काव्य लिखे गये उनका सम्बन्ध किसी भी प्रकार से कृष्ण रास से
(भभिनय युक्त) और गेय मात्र (मभिनय युक्त) भेद
अवश्य बन चुका था और इसका प्रथम उदाहरण नहीं जोड़ा जा सकता है। उपलब्ध रास काव्य भी
जिनदत्त सूरिका 'उपदेश रसायन रास' है जो गेय इसकी साक्षी नहीं देते। ये रास काव्य अधिकतर
मात्र तो है पर गेयाभिनेय नहीं। यही स्थिति जैन कवियों द्वारा लिखे गये हैं। प्रतः इनकी रास
उनकी चर्चरी की है। सम्बन्धी धारणा का निर्णायक महत्त्व है । हेमचन्द्र ने प्रेक्ष्य काव्य के दो भेद किये हैं पाठ्य और रेय । अपभ्रंश के जितने भी रास काव्य उपलब्ध हैं पाट्य में उन्होंने-नाटक, प्रकरण, नाटिका, समव- उनमें वहमाण कृत 'संदेश रासक' को छोडकर कार इहामृग, डिम, व्यायोग, उत्पष्टिकोक, प्रहसन, सभी जैन कवियों की रचनायें हैं। संदेश रासक भाण, वीथी और सहक प्रादि । गेय में उन्होंने- विप्रलंभ शृगार का रासक (गीति नाट्य ) है और डोम्बिका, भारण, प्रस्थान, शिंगक, भारिणका, प्रेरण, भरतेश्वर बाहुबली रास वीरानुप्राणित शान्त रस रामाक्रीड, हल्लीसक, रासक, गोष्ठी, श्रीगदित राग का रासक । उपदेश रसायन रास इस प्रकार के काम्यादि । इस विभाजन से स्पष्ट है कि प्रेक्ष्य चरितों को जिनमें संसार से वैराग्य दिखाया गया तो दोनों बयों की कृतियां हैं पर द्वितीय वर्ग के हो नाट्य पौर नृत्य रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति
१. द्रष्टव्य-रास और रासान्वयी काव्य-पृ. ३६ २. वहीं।
३ वही पृ०४१ ४. द्रष्टव्य-काव्यानुशासन-८१३,४॥
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हिन्दी का आदिकाल और जैन-साहित्य
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देता है जब कि वह सामान्य रूप से जैन मन्दिरों में रास भी छोटे चरित काव्य ही है जो रास के रूप रास का विरोध करता है ।' भरतेश्वर बाहुबलि- में प्रस्तुत किये गये हैं। घोर रास (वजसेन सूरि ) बुद्धि रास (शालिभद्र सूरि ), जीव दया रासु ( मासिग ), नेमिनाथ रास चरित और रास काव्यों का योग-. (सुमति गरिण), रेवंत गिरिरास (विजय सेन सूरि), चरित काव्यों की परम्परा प्राचीन काल से ही गयकुमार रास (देवेन्द्र सूरि), माबू रास (प्रज्ञात) चली मा रही थी। चरित नामधारी काव्यों के कच्छुली रास (प्रज्ञा तिलक ), स्थूल भद्र फाग लिखे जाने के पूर्व के सभी महाकाव्य, चरित काव्य (प्राचार्य जिनपदम), पंचपंडव चरित रास (शालि- ही है। प्रश्वघोष का बुद्ध चरित महाकाव्य भी है और भद्र सूरि), नेमिनाथ फाग ( राजशेखर मूरि), चरितनामधारी भी। जब कथा और पाख्यायिका गौतम स्वामी रास ( विनय प्रभ ), बसन्त विलास का प्रचलन हुआ तब 'हर्षचरित' जैसी कृतियों की फागु (प्रज्ञात) तथा चर्चरिका (प्रजात) प्रादिकाल रचना हुई। पपगुप्त का नव साहसांक चरित, के वे रास काव्य है जो मुख्यतः जन कवियों की क्षेमेन्द्र का दशावतार चरित, विल्हण का विक्रमाङ देन हैं और जिनकी परम्परा में ही पृथ्वीराज रासो, देव चरित, हेमचन्द्र का कुमारपाल चरित, जयानक वीसलदेव रासो तथा खुमान रासो मादि रचनायें का पृथ्वीराज विजय प्रादि चरित काव्य संस्कृत में प्रकाश में पाई हैं। इसी परंपरा में प्रब देव के भी लिखे गये । जैन परम्परा में त्रिषष्टि शलाका पुरुषों समरा रास की भी गणना की जा सकती है जो के चरित को काग्य का प्राधार बनाना एक अप्रत्यक्ष एक बन कवि की ही रचना है। इसमें संघपति निर्देश माना जाता था। इस लिये विस्तत पौरा. समरा का चरित वरिणत है।
णिक काव्यों से लेकर सामान्य जैन मुनियों के पृथ्वीराज रासों का संयोगिता स्वयंवर मास चरित तक संस्कृत प्राकृत और अपभ्रश में जैनचरित वध भौर पृथ्वीराज शहाबुद्दीन संघर्ष प्रसंग ऐति- काव्य प्रस्तुत किये गये । पउम चरउ, रिहणेमि हासिक मोर प्रामाणिक माना जाता है। प्रामाणि- महावीर चरिउ, पासनाह चरिउ, मनोरमा चरिय, कता का प्राधार इतिहास को बनाया जाता है पर प्रादिनाह चरिय, नेमीनाह चरिय, सुपासना चरिय इस बात की प्रचुर संभावना विद्यमान है कि सुरसुन्दरी चरिय, जसहर चारिउ, रणायपृथ्वीराज के चरित को प्राधार बनाकर छोटे छोटे कुमार चरिउ, बेवली चरिउ, संतिनाह चरिउ, रास काव्य लिखे गये होंगे और उनका एक स्थान पुहवीचंद चरिउ, रयणचूडराय चरिय, मुनि सुव्वय पर संकलन कर दिया गया होगा । ये रास काल्प- चरिय, सण कुमार चरिय प्रभृति सैंकड़ों चरित निक घटनामों को प्राश्रित कर लिखे जाने के कारण काव्य जैन मुनियों और कवियों द्वारा प्रस्तुत किये यदि इतिहास की कसौटी पर खरे नहीं उतरते तो गये । जहां प्राकृत भोर मपभ्रश के चरित काव्य इसमें उनका दोष ही क्या है ? वीर रसेतर रास बड़ी संख्या में लिखे जा रहे थे, वहां संस्कृत काव्यों काव्यों की उपस्थिति के कारण वीसलदेव रासो की रचना भी समानान्तर रूप से ही चल रही थी के सीमित चार खण्डों को भी पूर्ण माना जा सकता इन चरित काव्यों का उद्देश्य केवल काव्य कुशलता है। श्रृंगार परकता उसे रासो परम्परा से पृथक प्रदर्शित करना मात्र नहीं था, उनमें धार्मिक दृष्टि नहीं कर सकती। मयण रेहा रास, चन्दन बाला सन्निहित थी । उदाहरण के लिये महासेन को बहु
१. पम्मिय नाडय पर नच्चिजहि, भरह सगर निक्खमण कहिजहिं ।
पक्कबहि-बल-रायह चरियाई, मच्चिव अति हुति -पव्ययई । उ० रा० ३७ ॥
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बाबू छोटेखात जैन स्मृति प्रन्थ
वचित कृति प्रद्य म्न चरित को लिया जा सकता रणमल्ल छन्द, मयण रेहा रास प्रादि की वर्णन है। कवि के शब्दों में यह विचित्र प्रदर्भात काव्य भी प्रक्रियामों में इन दोनों परम्पराओं का पृथक पृथक है और श्रद्धा सहित पठ्यमान भी। जैन मुनियों दर्शन भी किया जा सकता है और साम्य भी ढूंढा के चरित लेखन दारा 'त्रिषष्ठि पुरुष चरित की जा सकता है। मादि काल के बाद भी सत्रहवीं सीमा का विस्तार किया गया। यह सीमा विस्तार तक की रास नामधारी अनेक कृतियां प्रकाश में संस्कृत के चरित काव्यों ने ही प्रारम्भ कर दिया प्रा चुकी हैं। था। उदाहरण के लिये गुणभद्र के जिनदत्त चरित
डा. प्रोझा ने यह लक्ष्य किया है कि 'वैष्णव का उल्लेख किया जा सकता है । जिनदत्त की कथा किसी कयाकोश या पुराण में उपलब्ध नहीं है।
और जैन दोनों प्रकार के रासकों में विश्व-विजय
की कामना से प्रेरित कामदेव किसी योगी महात्मा जब रास या रासक काव्य रचना की प्रवृत्ति पर अभियान की तैयारी करता दिखाई पड़ता बड़ी तो सर्व प्रथम जैन कवियों ने ही त्रिषष्ठि पुरुष है।' अन्त में उसकी पराजय भी दिखलाई गई सहित अन्य वर्ण्य चरितों को या उन चरितों की है। इस प्रवृत्ति के जैन काव्यों में 'मयण जुज्झ' प्रमुख घटनाओं को रास या रासक रूप देना प्रारंभ तथा मयण पराजय चरिउ उल्लेखनीय हैं । ममरण कर दिया। भरतेश्वर बाहुबली सम्बन्धी रास पराजय की रचना शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव के इसके प्रमाण हैं। जब इस सीमा से परे भी रास प्राधार पर हुई है । इसमें जिनेन्द्र पर काम का काव्यों का सृजन प्रारम्भ हुआ तो ऐतिहासिक प्राक्रमण और उसकी पराजय का वर्णन हुमा पुरुष और जैन मुनि भी वयं विषय बने । काल्पनिक है। यह दो सन्धियों और कुल एक सो अठारह रास भी प्रस्तुत हुए और हिन्दी साहित्य के प्रादि पद्य खंडों में समाप्त हो गया है। कहने के लिए काल के प्राकृत, अपभ्रंश चरित काव्यों का प्रभाव यह 'चरिउ' है पर इसमें रासक के गुण ही अधिक रास या रासक काव्यों पर भी पड़ा और उन्होंने हैं। इस सम्बन्ध में डा. हीरालाल का यह विचार उसकी सम्पूरणं सीमानों को अपना लिया। इस द्रष्टव्य है-'यथार्थतः यह रचना अपने स्वरूप प्रकार चरित और रास काव्य रचना को दो में अन्य सूज्ञात अपभ्रंश चरितों से विषय व शैली प्रवृत्तियां मात्र रह गई । वर्ण्य के क्षेत्र में दोनों का में कुछ भिन्न है। इसमें उस प्रकार नायक का सम्मिलन हो गया। हिन्दी साहित्य के प्रादि काल चरित्र वर्णन नहीं पाया जाता है, जैसा अन्य के प्रथ्वीराज, वीसलदेव भादि रासो काव्यों की चरित्रों में। यहां का समस्त घटनाचक्र भावात्मक पृष्ठ भूमि यही रही है। चौदहवी शताब्दी की और कल्पित है। यद्यपि परिच्छेद विभाग परित कृतियों पज्जुरण चरिउ, जिणदत्त चरिउ, बाहुबल अन्यों के सदृश सन्धियों में किया गया है, तथापि चरिउ, चंदपप चरिउ, मयण पराजय चरिउ तथा उनमें वस्तु. द्विपदी. प्रडिल्लह और घडडिया कछली रास, गौतम स्वामी रास, समरा रास, छन्दों का प्रायः बराबर का प्रयोग अदल बदल
१. श्रीमत्काममहानरस्यचरितं संसारविच्छेदिनः ।
श्रद्धाभक्तिपराप्रबुद्धमनसा शृण्वंति ये सत्तमाः ।। संवेगात्कथयन्ति ये प्रतिदिनं योऽधीयते संततम् । भूयासुः सकलास्त्रिलोकमहिताः श्रीवल्लभेन्दु श्रियः ।। प्रच०५ ।। श्री भूपतेरनुचरो मघनो विवेकी शृगारभावधनसागर राग सारं। काव्यं विचित्रपरमाद्भुतवर्णगुम्फ सलेक्ष्य कोविदजनाय ददौ संवृत्तम् ॥६॥
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हिन्दी का प्रादिकाल और जैन-साहित्य
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कर किया गया है। इससे काव्य में एक तान की ऊब प्रसाद द्विवेदी ने दोहा परम्परा के निर्देश में विक्रनहीं माने पाई तथा उसकी गेयात्मकता स्पष्ट हो मोवंशी, सिद्धों के दोहों, गाय कुमार चरिउ, करगई है। इस दृष्टि से यदि इस रचना को रासक कंडू चरिउ, थूल भह फाग, प्राकृत पेंगलम्, प्रादि कहा जाय तो मनुचित न होगा।"५ मयण परा- का उल्लेख किया है। वस्तुतः मात्रिक छन्दों का जय एक रूपक काव्य है । जैसा कि मैंने ऊपर का प्रयोग विक्रमोर्वशी के निर्माण काल से भी स्पष्ट किया है २ रास, रासक और चरित काव्यों बहत पूर्व से होता पा रहा था और धम्मपद में भी का मौलिक अन्तर उनकी गेयात्मकता के आधार पर चौपाई के उदाहरण मिल जाते है। स्वयंभू के ही स्पष्ट किया जा सकता है । ये रासक प्रेक्ष्य भी समय तक मात्रियः छन्दों के न केवल विविध रूप हैं जैसा कि हेमचन्द्र ने स्पष्ट किया है । बीसलदेव विकसित हो चुके थे अपितु दोहा, चौपाई, रोला रासो गेय है। पृथ्वीराज रासो के पृथक पृथक प्रादि का प्रबन्ध काव्यो में पूरा उपयोग भी हुग्रा घटनाश्रित खंड भी अपने मल रूप में गेय होंगे। है । पउमचरिउ में इन सबके उदाहरण बड़ी मात्रा
जहां तक मदन पराजय का रास या रासक में मिल जाते है । इस निष्कर्ष का प्राधार, कि से सम्बन्ध जोड़ने का प्रश्न है यह वैष्णव (नन्ददास पूर्व में दोहा, चौपाई और पश्चिम में पद्धडिया. की रास पंचाध्यायी या भागवत ) बौद्ध, और न घत्ता अधिक लोकप्रिय छन्द धे, एक विहंगम दृष्टिपरम्पग में एक साधक के विघ्नों में वरिणत घटना क्षेप मात्र है। मात्र है जो मलतः एक ही संस्कृति की त्रिधारा
हिन्दी साहित्य के प्रादि काल में सिद्धों. नाथमें समान रूप से उपलब्ध है और मदन पराजय
पंथियों आदि की मुक्तक, ज्ञान परक रचनात्रों के की यह घटना जैन और वैष्णव रास कायों में
अतिरिक्त जैन-मुत्तक रचनाओं का भी महत्व पूर्ण समान रूप में वर्णन का विषय बनी है। धार्मिक
योगदान रहा है । जैन-साहित्य के इस योगदान में महत्ता और सरसता इसके मुख्य कारण है।
परमात्मा प्रकाश, योगसार, वैराग्यसार, प्रानन्दाजैन कथा गन्थ
नन्द स्तोत्र, पाहुड दोहा, सावय धम्म दोहा, कुमार हिन्दी साहित्य के प्रादि काल में जैन कथा
पाल प्रतिबोध, प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रबन्ध ग्रन्थों का भी एक विशिष्ट स्थान है, यद्यपि इनकी
कोश-प्रादि का महत्व पूर्ण स्थान है । इनमें उन उपेक्षा अधिक हुई है । लीलावती और कुवलय माला
मुक्तक रचनामों का पूर्व रूप उपलब्ध हो जाता है प्रभति प्राकृत ग्रन्थों का परवती साहित्य पर जो ग्रादि काल की अन्तिम शताब्दी और उसके प्रचुर प्रभाव पड़ा है। इसी परम्परा में भविसयत्त
बाद प्रकाश में आई हैं और जिन्होंने हिन्दी साहित्य कहा, जीव मनः करण संलाप कथा, धम्म परिक्खा, की श्री वृद्धि में महत्वपूर्ण योग दिया है। कथा कोष, रत्नकरण्ड शास्त्र, स्थूलिभद्र कथा, अणुव्रत रत्न प्रदीप, सुलसाख्यान प्रादि कृतियां भी इस सक्षिप्त विहंगम दृष्टिपात से यह निष्कर्ष पाती हैं जिनका हिन्दी साहित्य के आदि काल के सहज ही निकाला जा सकता है कि प्रादि कालीन प्रध्ययन में महत्वपूर्ण स्थान है।
जैन-साहित्य की अपेक्षा कर हिन्दी साहित्य के जैन मुक्तक काव्य
प्रादि काल के स्वरूप और उसके सर्वागीण महत्त्व प्रादि काल की अधिकांश जैन रचनायें अपभ्रंश का प्राकलन कर पाना संभव ही नहीं है। या प्रत्यधिक अपभ्रंश प्रभावित हैं। प्राचार्य हजारी१. दृष्टव्य-मयण पराजय की भूमिका पृ० ६७ ॥ २, वहीं-पृष्ठ ७० ॥ ३. दृष्टव्य-हिन्दी साहित्य का प्रादिकाल १०१ से १०३ तक
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सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत संगतिम् ।।
सद्भिविवादं मैत्री च, नासद्भिर्किचिदाचरेत् ॥
सज्जनों के साथ ही बैठो, सज्जनों के साथ ही रहो, सज्जनों ! | के साथ ही दोस्ती करो, सज्जनों के साथ ही झगड़ा करो, तात्पर्य जो। कुछ भी आचरण करो केवल सज्जनों के साथ ही करो, असत्पुरूपों । के साथ जरा सा भी किसी भी प्रकार का सम्पर्क मत रखो।
वृत्त यत्नेन संरक्षेत् , वित्तमायाति याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो, वृत्ततस्तु हतो हतः ॥
अपने चरित्र की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करनी चाहिये क्योंकि धन , चले जाने पर भी मनुष्य क्षीण नहीं होता, उसका कुछ नहीं बिगड़ता। । किन्तु जिसका चरित्र नष्ट हो जाता है यह मनुष्य तो मरे हुए के समान !
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दो ऐतिहासिक रचनाएं
भँवरलाल नाहटा
रचनाओं के संरक्षण और निर्माण का बराबर बना रहा है। इसलिये विविध प्रकार की बहुत-सी ऐतिहासिक रचनायें प्राज भी प्राप्त हैं। पट्टावलियों, श्राचार्यों के रास, गीत, तीर्थं मालायें, ऐतिहासिक प्रबन्ध व काव्य प्रादि काफी मिलते हैं । उन सबके आधार से तथा प्रशस्तियों और मूर्ति लेखों के आधार से मध्यकालीन जैन इतिहास बड़े अच्छे रूप में लिखा जा सकता है । पर यह सामग्री बहुत ही विवरी हुई है । उन सबका संग्रह करना भी बहुत ही कठिन है । गत् ३०-४० वर्षों में जैन इतिहास की सामग्री का संग्रह एवं प्रकाशन होता रहा है पर ऐसी रचनाओं की खपत नहीं हो पाती इसलिये आगे काम रुक जाता है । श्वेताम्बर समाज ने कुछ वर्ष पहले तक इस दिशा में काफी काम किया और अब दिगम्बर समाज की ओर से भी अच्छा प्रयत्न हो रहा है । प्रनेक शास्त्र भण्डारों के सूची पत्र इधर कुछ वर्षों में तैयार हुये हैं और कुछ प्रकाशित भी हो चुके हैं। इससे श्वे०, दिग० और तर बहुसंख्यक प्रज्ञात रचनाओं की जानकारी प्रकाश में आई है । यद्यपि बहुत से शास्त्र भण्डार अभी तक प्रज्ञात अवस्था में पड़े है। जब तक उन सबकी सूचियां न बन जाय तब तक जैन साहित्य का महत्वपूर्ण रूप से प्रकाश में नहीं ला सकता ।
मध्यकालीन जैन विद्वानों का ध्यान ऐतिहासिक में। इनमें से कई रचनायें तो ऐसी भी होती हैं जो सर्वथा प्रज्ञात होने के साथ-साथ विशेष महत्व की हैं । कुछ रचनाओंों की तो केवल एक-एक प्रति बच पाई है। ऐसी ही दो श्वे० ऐतिहासिक रचनायें जयपुर के दि० शास्त्र भण्डार में प्राप्त एक गुटके में मिली हैं। उन रचनाओं का ऐतिहासिक सारांश प्रस्तुत लेख में प्रकाशित किया जा रहा है । ये दोनों रचनायें श्वे० गुजराती लोकागच्छ के प्राचार्यो संबंधी हैं और इनकी कोई दूसरी प्रति श्वेताम्बर भण्डार में अभी तक नहीं मिली है। इन दो प्राचार्यों के नाम क्रमशः 'चिन्तामणी' और 'खेमकरण' है । खेमकरण, चिन्तामणी के शिष्य और पट्टघट थे । दोनों का हो जन्म राजस्थान के श्राऊवा शहर में हुआ था | आचार्य 'चिन्तामणी' संबंधी रचना का नाम श्री पूज्य श्री चिन्तामणी जी जन्मोत्पत्ति स्वाध्याय रचना के अन्त में लिखा हुआ है । इसमें उनके जन्म से लेकर स्वर्गवास तक का वृत्तान्त पाया जाता है। दूसरी रचना का नाम "गणनायक श्री खेमकरण जी जन्मोत्पत्ति संथारा विधि" प्रन्त में लिखा गया है। इसमें खेमकरण के जन्म से स्वर्गवास तक का वृत्तान्त है । दोनों रचनानों * का ऐतिहासिक सारांश नीचे दिया जा रहा है ।
वैसे तो साधारणतया दि० शास्त्र भण्डारों में ferम्बर ग्रन्थ ही अधिक मिलते हैं इसी तरह श्वे ० भण्डारों में श्वेताम्बरों के। फिर भी कुछ ग्रन्थ व महत्वपूर्ण प्रतियां श्वेताम्बरों की दिगम्बर भण्डारों में मिल जाती है और दिगम्बरों की श्वे० भण्डारों
(१) श्राऊपा शहर में श्रावक भीमासाह के पुत्र चीमासाह की पत्नी चतुरंग दे की कूक्षी में चिन्तामणि कुमार अवतरित हुए। संवत् १६८४ मिती पौष शुक्ला ७ गुरूवार को जन्म लेकर क्रमश: युवावस्था को प्राप्त हुए। श्री वसुराजजी की वाणी सुनकर वैराग्यवासित हो माता-पिता से दीक्षा लेने की धनुमति मांगी | चरित्र की दुर्द्धर्षता बताने पर
* दोनों रचनात्रों की प्रतिनिधि महावीर जी तीर्थ कमेटी से वर्णित जैन साहित्य शोध संस्थान से प्राप्त हुई हैं इसके लिये संस्था संस्थान के कार्यकर्तानों का आभार मानता है ।
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ
भी कुमार का पक्का वैराग्य रंग ज्ञात कर माता- चातमसि घत भाजनपूर, ताल पीपाड़ बतीसवां, पिता ने आदेश दिया और चुलराज (चिन्तामणि) दो चातुर्मास तेतीसा-चौतीसवां उव्रण में, का दीक्षा महोत्सव प्रारम्भ किया। चतुर्विध संघ पंतीसवा रतनावती में किया। छत्तीसवाँ उज्जन, मिला । श्री धनराज जी साधु परिवार सहित सेतीसवां दिल्ली, अड़तीसवाँ नोरंगपुर, उनचालीसा पधारे। संवत् १७०४ मिती ज्येष्ट बदि ५ गुरूवार वेरीनगर, चालीसवाँ अलवर, इकचालीसवां सिलोरणे को श्री चिन्तामरिणजी ने गुरु श्री धनराज जी के पास ।
बयालीसवां परबतसर, तेंयालीसवां सोजत चातुर्मास सयम मार्ग स्वीकार किया।
हुप्रा । संवत् १७४६ का चातुर्मास सोजत करके इनका प्रथम चातुर्मास जयतारण, दूसरा फिर परवतसर पाये । दोपचन्द ने गुरु श्री से वगड़ी, व चौथा रतलाम, पांचवा सुरत, श्री खेमकरणजी को गच्छभार सौंपने की प्रार्थना तीसरा छळा कृष्णगढ़, सातवां पुष्पावती, पाठवां की। निमंडल और श्रीसंघ एकत्र हुमा । रूपनगर सोझत, नवां विष्णुपुर, दसवां ग्यारहवां सूरत; और कृष्णगढ के संघ ने बहुत-सा अर्थ व्यय किया। बारहवां सुधदंती (सोजत), तेरहवां रखीनगर दीपचन्द ने तथा नगसिंह ने स्वधर्मी वात्सल्यचौदहवां हांसी. पन्द्रहवां दिल्ली सोलहवां जीमणवार किये । रूपनगर व परवतसर के संघ अर्गलपुर (आगरा) सतरहवां हरसोर में हुआ । ने मुनियों के संधाड़े में पहिरावणी की । इस प्रकार ये सब चौमासे गुरु श्री के साथ ही हुए। श्रीधन- बड़ी महिमा हुई और गच्छनायकों की जोड़ी राजजी धर्मोपदेशों द्वारा धर्म की महिमा बढ़ाते सूर्य-चन्द्र जैसी सुशोभित लगने लगी । संवत् १७४७ हुए मारवाड़ पाये । प्राउवा पधारने पर संघ ने बड़ा का ४४ वां चातुर्मास किसनगढ़ हुअा । फिर स्वागत किया। राव महेशदास ने यहीं पर (चिन्ता- रूपनगर, अहिपुर, धौषं दा, दिल्ली, कुलथपुरी में मणिजी) को पट्टधर स्थापित करने की प्रार्थना तीन प्रकबराबाद मे दो चातुर्मास करके ५४ वां की। उत्सव प्रारम्भ हुआ | राव महेशदास के दिल्ली में किया. ५५ वां वपरणीय करके मुहता नथमल ने पद महोत्सव किया। स्वधर्मी किसनगढ पधारे । संघ ने बड़े समारोह पूर्वक वात्सल्य हुए, राठौर कमधज रावजी की मर्ज थी स्वागत बिया और विनती करके गच्छराज को पौर चिन्तामणि जी की योग्यता ज्ञात कर वहीं रखा । पान चातुर्मास किये पांचवें चौमासे श्री धनराजजी ने संवत् १७२१ ज्येष्ठ वदि ५ को में पट्टघर को अपने पास रखा । फिर साठवां उन्हे स्वयं पट्ट पर स्थापित कर गच्छ भार चातुर्मास मुकंदगढ़ किया, धावको ने बड़ी सेवा संभलाया।
की । संवत् १७६३ मिती काती बदि २ शनिवार इसके बाद मुनिमण्डल सहित विचरते हए के दिन श्री चिन्तामरिग ने संथारा किया । चौरासी धृतपुर आये । अठारहवां चौमासा करके उन्नीसवां लक्ष जीवायोनि से क्षामणापूर्वक सात प्रहर का रूपनगर, बोसयाँ जालले, इक सवा घृतपुर, बाई. अनशन पूर्ण कर तृतीया के दिन रविवार को गुरूश्री सवां बगही चातुर्मास हुमा । संवत् १७२२ (१६) निर्वाण प्राप्त हुए । संघ ने नवखण्डी मंदी को में रेया नगर पधारे । यहां प्रासोज मुदि ११ के पंचवर्णी ध्वजानों से सुसज्जित कर वाजिक प्रादि दिन गरू श्री का निर्वाण हा । श्री चितामणिजी के साथ पैसे उछालते हुए गुरू की अन्त्येष्ठि क्रिया न चौवीसवां चातुर्मास सादडी. पचीसवां किशनगढ़. सम्पन्न की । श्री चिन्तामरिणजी अपने नामके प्रनरूप छबीसवा नोहलाई, सत्तावीसवां रतनपुरी, अठाईसवां संघ की कामनाएं पूर्ण करें। व्रहानपुर, उन्नतीसवां मलकापूर, चातुर्मास किया। संवत् १७६३ काती बदि १३ पाशिसुतवार अभैराज व दोदराज ने खुब सेवा की। तीसवां के दिन श्री चिन्तामणिजी के पट्टधर श्री खेमकरणजी
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दो ऐतिहासिक रचनायें
के प्रसाद से शिष्य सुखकर ने यह रचना ( सदगुरू श्री पूज्य श्री चिन्तामणिजी जन्मोत्पत्ति स्वाध्याय) को जो नर नारी स्थिर चित्त से स्तुति करेंगे, सुनेगे वे लीलाम्रों को प्राप्त करेंगे।
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प्राचार्य चिन्तामरिण के गुरू का नाम धनराज तो चिन्तामणि जन्मोत्पत्ति स्वाध्याय में दिया है। पर इससे पहले की परम्परा गुजराती तपागच्छ की पट्टावली से ज्ञात होती है। जिसका सारांश जैन । जिसका सारांश जैन गुर्जर कवियों भाग : ३ के परिशिष्ट नं० २ में प्रकाशित हुआ है । उसके अनुसार लोकाशाह के मत में सर्वप्रथम भागाजी दीक्षित हुए। तदनन्तर मीदाजी, नूना जी भीमा जी, जगमाल जी, 'सरवा जी, रूपजी, जीव जो बडावरनिह "लघु वरसिंह, जसवन्त जी, रूपसिंह जी, और दामोदर जी क्रमशः गुजराती लोकागच्छ के प्राचार्य बने । दामोदर के शिव्य पनराज जी हुए उनकी शाखा जयतारण से अलग हो गई। १७ वर्ष के बाद संवत् १७१३ में सूरत में बोरा बीरजी ने पुनः गच्छ की एकता का प्रयत्न किया । पर इनकी शिष्य संतति तो अलग बनती ही रही। धनराज के बाद 'चिन्तामणि' गच्छ नायक बने । श्रीर उनके पट्ट पर सेमकरण वैठे । जिनका विवरण सेमकरण जन्मोत्पत्ति संधारा विधि नामक दूसरी रचना में प्राप्त है जिसका ऐतिहासिक सारांश नीचे दिया जा रहा है
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(२) श्राउवा शहर में संघ शिरोग रिण चीमासाह निवास करते थे । उनके पुत्र रामसाह की स्त्री का नाम राना दे था जो रूपवान, पुण्यवान और शीलवती थी। संवत् १७०१ मिती मात्र मुदि १३ के दिन शुभ वेला नक्षत्र में शुभ स्वप्न सूचित बालक का जन्म हुआ। जिसका नाम श्री समकरण रखा गया क्रमशः वृद्धि पाता हुआ कुमार तरूण अवस्था को प्राप्त हुधा एक बार भाउवा नगर में गुरुश्री चिन्तामणि जी पधारे। जिनके उपदेश से वैराग्यवासित हो कुमार ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी । फिर बड़े महोत्सव के
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साथ संवत् १७२५ माघ सुदि १३ बृहस्पतिवार के दिन गुरु श्री से संयम ग्रहण किया। तदनन्तर संवत् १७२६ का प्रथम चातुर्मास श्रीपूज्य जी के साथ रेयानगर में हुआ। दूसरा चौमासा सादड़ी, तीसरा सिरीयारी, पीया नोहलाई पांचवा रतनपुरी, डा ब्रहानपुर, सातवां मलकापुर, प्राठवां घृतभाजनपुर, नयां ताल, दसवां पीपाड़ में हुआ। फिर उज्जैन में दो चातुर्मास दो चातुर्मास हुए अभैराज व दोदराज ने बड़ी सेवा की । तेरहवां चातुर्मास बड़ौदा, चौदहवां उज्जैन, पन्द्रहवां दिल्ली, सोलहवां नोरंगपुर, सतरहवां बेरी नगर, श्रठारहवां रूप नगर व उन्नीसवां चातुर्मास मिला हुआ। बीसवां चातुर्मास परवतसर, इक्कीसवां सोजितपुर किया । समस्त श्रावकों ने सेवा कर अपने मनोरथ पूर्ण किये।
सोजत चतुर्मास कर श्री चिन्तामणि गच्छति के साथ उम्र बिहार करते हुए परबतसर पाए । दीपचन्द शाह ने प्रत्यस भक्तिपूर्वक गच्छनायक से प्रार्थना की कि सेमकरण जी का पदोत्सव परबतसर में ही होना चाहिये । फिर स्वीकृति मिलने पर बड़े समारोहपूर्वक पदोत्सव की तैयारियां होने लगी । रूपनगर व कृष्णगढ़ का संघ एकत्र हुआ। जीवनबार हुए बहुत-सा अर्थ व्यय किया। कृष्णगढ़ के लगायत गोत्रीय जसवंत थायक व रूपनगर-परबतसर के कोटेचा जिनदास के वंशजों में प्रधान दीपचंद थे बहुत से उत्सव विजिनदास के सभी परिवार वालों ने अर्थ व्यय किया। मुनिवरों को पहिरावरणी दी । कुकुम के स्वस्तिक व मोतियों से चौक । पूरे गए नाना प्रकार की वाजित्र ध्वनि के बीच संवत १७४२ माघ सुदि १३ के दिन श्री पूज्य चिन्तामणि जी ने श्री समकरण जो को भावार्य पद प्रदान किया।
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श्री समकरण जी का २२ व चतुर्मास कृष्णगढ़, तेईसवां सिलाएं, फिर दिल्ली, कुलंगपुरी में तीन चौमासे करके मुकुन्दगढ़, श्राऊया पधारे । श्रावक लोगों ने नाना प्रकार से सेवा की। फिर रत्नपुरी तदनन्तर कल्याणपुर पधारे, कोठारी कचराशाह ने
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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ खूब भक्ति की । छत्तीसवां चौमासा परबतसर फिर स्तोत्र, स्वोपज टीका, और गुजराती अनुवाद काव्यसोजत, केशवगढ व पुनः सोजत चौमासा किया। संग्रह द्वितीय भाग में ३८ वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुका फिर वरांटिय, लांबीया चौमासा करके संवत १७६३ है। स्वोपज्ञ टीका में भी धर्मसिंह ने अपने गुरू में कृष्णगढ़ चातुर्मास किया। मिती कातिक बदि ३ खेमकरण सम्बन्धी निम्नोक्त उल्लेख किया हैके दिन पूज्य श्री चिन्तामणि जी का स्वर्गवास “गुरू खेमकर्ण पादप्रसादमुदितः स्वयं शिक्षापितत्वात् हुआ।
स्वहस्तदीक्षाप्रदानात् स्वपदस्थापितत्वात्गुरुः-महान् संवत् १७६४ का चातुर्मास रेयांनगर करके गुरुर्मदीय धर्मोपदेष्टा श्री पूज्य: खेमकर्णाभिधेयः दिल्ली पधारे। श्रावक संघ प्रत्यन्त हर्षित हुअा। तेषां (तस्य)पाद प्रसादेन-चरणप्रभावेण मुदितो उन दिनों बादशाह का प्रतापी राज्य था। राज हषितः गरु खेमकर्ण पाद प्रसाद मुद्रितः, दरबार में श्रावक संघ का बड़ा मान सम्मान था। श्रीमद्गुरुपादानुग्रहप्रवृद्धहर्ष इत्यर्थः । अत्र खेमकर्ण अग्रवाल वंशज पुण्यात्मा श्रावक दीवान पद पर शब्दस्य श्रवण नक्षत्रस्य च चतुर्थपादे जन्मत्वान्मूर्धन्य सुशोमित थे । गुरु श्री समारोह पूर्वक स्वागत-सामेला षकारादिक उचित एवेति निर्गीय लिखीतोऽस्ति । लाहण प्रभावनादि खूब सत्कार्य हुए । पyषण पर्वा- अथवा ग्रामनाम्नोः संस्काराभावान्नात्र वितर्कः ।" राधना, लाहरण, संवत्सरी पारणादि से महिमा खेमकरण के शासनकाल में वर्तमान के शिष्य बढ़ी । संवत् १७६५ का चातुर्मास दिल्ली में पूर्ण ऋषि दीप ने गुगणकरण्डगुणावली चौपाई को रचना कर फाल्गुन तक यही विराजे । अन्त में अपना प्रायु संवत १७५७ की विजयादशमी को की। दीप कवि की शेष ज्ञात कर अन्तिम देशना देकर चौविहार अन्य दो रचनायें धर्मसिंह के धर्मशासन मे रची गई संथारा ग्रहण कर लिया। पाप पालोचना कर
प पालोचना कर हैं। एक पंचमी चौपाई दूसरी सुदर्शन सेट कवित्त । चौरासी लक्ष जीवा योनि से क्षमतक्षामणापूर्वक ये रचनायें बहत ही सुन्दर हैं। शील रक्षा भाग २ चार धड़ी का संथारा पूर्ण कर फाल्गुन बदि ८ में कई वर्ष पूर्व प्रकाशित भी हो चुकी हैं । इन दोनों शनिवार के दिन पूज्य गुरू श्री खेमकरण जी स्वर्ग- की हस्तलिखित प्रतियां हमारे संग्रह में है। वासी हुए। इस अनशन के अवसर पर दिल्ली के श्रावकों ने नाना उत्सव व ८४ गच्छ के साधुनों को जिस गुटके में चिन्तामरिण और खेमकरण प्रतिलाभ दिया । गुरु श्री को स्तवना सुप्रभ या पट्ट- संबंधो ऐतिहासिक रचनायें मिली हैं वह जयपुर के घर धर्मसिंध मूरि ने संवत् १७६६ श्रावण शुक्ला ७ ठोलियों के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में गुटका नं० सोमवार के दिन वयरणीय ग्राम चौमासा करके की। ६७ के रूप में है । इस गुटके में चिन्तामरिण भास, सदा इसे सुनने गुनने वाले संघ का जयजयकार हो। धर्मसिंह गीत तथा चिन्तामरिणरचित शीतल स्तवन
(सं १७१६ ) आदि रचनायें भी हैं। उपरोक्त रचना ( सारांश ) से स्पष्ट है कि . खेमकरण के बाद धर्मसिंह पट्टधर हुए। ये अच्छे धर्मसिंह गीत के अनुसार उनके पिता का नाम विद्वान थे। इनके रचित भक्तामर स्तोत्र के चतुर्थ नैणचन्द और माता का नाम राजुल दे था। धर्म पाद पूति रूप 'सरस्वती भक्तामर' स्वोपज्ञ टीका सिंह के बाद पट्टधर कौन बने और इनकी परम्परा सहित प्राप्त है। श्री पागमोदय समिति द्वारा यह कब तक चलती रही, अन्वेषणीय है।
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________________ राष्ट्रीय संग्रहालय में मध्यकालीन जैन प्रस्तर प्रतिमाएँ वृजेन्द्रनाथ शर्मा, एम० ए० भारतवर्ष में सबसे पूर्व जन प्रतिमाएं कब पर अष्टमंगल ( मत्स्य, दिव्यमान, श्रीवत्स, रत्न "निर्मित हुई इस पर विद्वानों में बड़ा मतभेद मांण्ड, त्रिरत्न, कमल, भद्रपीठ अथवा इन्द्रयष्ठि है।' कुछ जैन विद्वानों ने हड़प्पा ( 3000 ई० भौर पूर्ण कलश) तथा त्रिरल (सम्यक् दर्शन पू० ) से प्राप्त एक मनुष्य के नग्न धड़ को जो सम्यक् ज्ञान, और सम्यक् चारित्र ) के अतिरिक्त अब राष्ट्रीय संग्रहालय में है तीर्थंकर प्रतिमा प्रारम्भ में प्रतिमा के स्थान पर केवल कुछ प्रतीकों घोषित किया है परन्तु यह मत उचित प्रतीत नहीं का ही प्रयोग होता था। परन्तु बाद में ध्यान मुद्रा होता / 2 सम्भवतः सबसे प्राचीन जैन प्रतिमा में जिन प्रतिमा बनने लगी। 3 कुषाण काल के लोहानीपुर (बिहार) से है जो अब पटना संग्रहालय अन्तिम समय तक तीर्थकरों के पूर्णाग चित्र प्राप्त में है / इस नग्न मूर्ति को जिसके हाथ कायोत्सर्ग होने लगते हैं जिनके वक्षस्थल पर हमें "श्रीवत्स" भूद्रा की भांति प्रतीत होते हैं, उसके ऊपर की गई चिन्ह मिलता है। गुप्तकालीन कला में हमें न विशेष पालिश व चमक के प्राधार पर मौर्यकालीन केवल जैन मूर्तियों के उच्चतम उदाहरण ही मिलते (300 ई० पू०) माना गया है। कलिंग सम्राट हैं वरन् प्रत्येक तीर्थंकर का अपना लांछन (पश, खारवेल ( प्रथम 10 ई० पू० ) के हाथी गुम्फा पक्षी, पुष्प अथवा शंख प्रादि ) भी मिलता है लेख "बार समे च वसे......नन्दराज नीतं च का जिससे तीर्थंकर प्रतिमानों में भेद किया जा सकता (लि) गं जिन संनिवेस" में जिन प्रतिमा का है। इसके अतिरिक्त यक्ष व यक्षणी प्रादि की कई स्पष्ट वर्णन है। उड़ीसा स्थित उदयगिरि और अन्य प्रतिमाएं भी प्रमुख प्रतिमा के साथ निर्मित खण्डगिरि की प्राचीन गुफाओं में प्रारम्भिक काल होने लगती है / और मध्यकाल के प्रागमन के साथ की अनेक जैन मतियां निर्मित हैं। ही उपयुक्त बातों के प्रतिरिक्त "प्रष्ट प्रातिहार्यो" (दिव्यतरु, प्रासन, चामर, भामडल, दिव्य मथुरा कला में जैन प्रतिमानों का क्रमिक दुन्दुभि, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि तथा छत्रत्रय ) विकास देखने को मिलता है। यहां से प्राप्त का भी चित्रण प्राप्त होता है / सांप्रदायिक भेद प्रायागपट्टों ( प्रथम श० ई० पू० से प्रथम श० ई०) इन प्रतिमानों में भी मिलेगा। दिगम्बर प्रतिमाएं 1. इस सम्बन्ध में मेरा लेख देखें, "जैन प्रतिमाओं के विकास में नरहड़ की मतियां," मरुभारती, पिलानी, जनवरी, 1962, पृ० 14 व भागे। 2. सुप्रसिद्ध विद्वान उमाकान्त प्रेमानन्द शाह भी इस मत से सहमत नहीं है। उनके अनुसार यह सम्भवतः प्राचीन यक्ष का ही चित्रण प्रतीत होता है / देखें: ईस्टइंडीज़ इन जैन मार्ट, पृ०४ 3. मथुरा से प्राप्त एक ऐसा ही मायागपट्ट (जे० 246 ) राष्ट्रीय संग्रहालय में है, जिसके निचखे भाग पर खुदे लेख से विदित होता है कि सिंहनादिक नामक एक व्यापारी ने महतों की पूजा के लिए इसे प्रतिष्ठापित किया था / विस्तृत विवरण के लिए देखें : डा. वासुदेव शरण अग्रवाल, मथुरा पायागपट्ट, जर्नल माफ दी यू०पी० हिस्टोरिकल सोसाईटी, xvi, भाग!, जुलाई 1943.