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भट्टारक युगीन जैन संस्कृत-साहित्य की प्रवृत्तियां
के जीवनवृत्तों को इन काव्यों में मंकित किया है। शासन था। इस समय गुजरात में भयंकर दुर्भिक्ष विक्रम का नेमिदूत । (ई. सन् १३ वीं शती का पड़ा। राजा वीसलदेव के पास अन्न का प्रभ व मन्तिम चरण). मेरुतग का जैनमेषदत (सन था; अतः प्रजा भूख से तड़पने लगी। जगदशाह ने १३४६-१४१४ ई०), चारित्र सुन्दर गणि का शोल- अन्नदान देकर राजा और प्रजा की रक्षा की। दूत (१५ वीं शती), वादिचन्द्र सूरि का पवन नयचन्द्र के हम्मीरकाव्य में हम्मीर और अलाउद्दीन दूत' (१७ वीं शती), विनयविजय गरिण का खिलजी के बीच सम्पन्न हुए युद्ध की ऐतिहासिक इन्दुत (१८ वीं शती), मेघविषय का मेघद्रत घटना का वर्णन है। भट्टारकों द्वारा बिरचित ग्रन्थों समस्या लेख (१८वीं शती) एवं अज्ञात नाम की प्रशस्तियाँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से कम महत्त्ववाले कवि का घेतोदूत' प्राप्य है। विमलकीत्ति पूर्ण नहीं हैं। प्रायः प्रत्येक काव्य या पुराण के गरण का चन्द्रदूत भी. उक्त विधा सम्बन्धी रचना अन्त में मांकित प्रशस्ति में प्राचार्यों और पट्टों का है । इन समस्त सन्देश काव्यों में साहित्यिक सौन्दर्य इतिहास पाया जाता है । भट्टारकों द्वारा निवड के साथ जीवा व्यापी सत्यों की अभिव्यञ्जना हुई पट्टावलियां और गुर्वावलियां भी ऐतिहासिक तथ्यों है। शील, संयम, तप, त्याग, भावशुद्धि और साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । अर्ध ऐतिहासिक तथ्यों का समन्वय इन काव्यों में पाया जाता है । घोर से युक्त देवदत्त दीक्षित कृत स्वर्णाचल महात्म्य श्रृंगार की धारा को वैराग्य की ओर मोड़ देना (वि० सं० १८४५) का अन्तिम प्रध्याय भी साधारण प्रतिभा का कार्य नहीं है।
भद्रारक परम्परा का इतिहास प्रवगत करने के
लिए उपयोगी है। ४. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ऐतिहासिक साहित्य
५. सन्धान काव्य ऐतिहासिक तथ्यों का प्राधार ग्रहण कर संस्कृत भाषा में एक ही वस्तु के अनेक पर्यायकाव्य लिखने की परिपाटी संस्कृतकाव्यपरम्परामों वाची शब्द और एक ही शब्द के अनेक प्रर्थ पाये में कोई नबीन नहीं है । भट्रारक और कवियों ने जाते हैं । सन्धानात्मक काव्यों के साथ अनेका अपने पाश्रयदाता अथवा अनन्य भक्तों की कीत्ति को यकस्तोत्र भी इस युग में रचे गये। कहा जाता है कि अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उनके तथ्य पूर्ण एक बार सम्राट अकबर की विद्वत्सभा में जनों के जीवनवृत्तों को रोचक भाषा में निबद्ध किया है. कवि 'एगस्स सुत्तस्त मनन्तो प्रत्यो' वाक्य का किसी ने सर्वानन्द ने अपने जगह चरित में बताया है कि उपहास किया। यह बात महोपाध्याय समयसुन्दर वि० सं० १३१२-१३१५ में गुजरात में बीसलदेव, को बुरी लगी और उन्होंने उक्त सूत्रवाक्य की मालवा में मदनबर्मा भोर काशी में प्रतापसिंह का सार्थकता बतलाने के लिए 'राजानो ददते सौख्यम्'
४-जैन प्रेस, कोटा, वि० सं० २००५ में प्रकाशित ५-न मात्मानन्द सभा. भावनगर.वि० सं० १९८० में प्रकाशित ६-यशोविजय प्रययाला, वाराणसी ७-हिंदी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बई, सन् १९१४
-जैन साहित्य वर्षक सभा, शिरपुर (पश्चिम खानदेश) वि० सं० १९४६
-न पात्मानंद सभा, भावगनर, वि० सं० १९७० १०-उपयुक्त संस्था द्वारा वि.सं. १९८० में प्रकाशित ११-मात्मानन्द जैन सभा, पम्बाला सिटी, १९२५ ई.