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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ
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श्रीपाल चरित, धन्यकुमार चरित और प्रीतिकर महामुनि चरित का प्रणयन किया है। इसी सदी में शुभचन्द्र द्वितीय द्वारा चन्द्रप्रभ चरित, पद्मनाभ चरित, जोवन्धर चरित, श्रेणिक चरित भौर करकण्डुचरित की रचना सम्पन्न हुई है। अन्य चरित काव्यों में भावदेव सूरि का पार्श्व नाथ चरित, ( ई० सन् १३५५ ), जयसिंह का कुमारपाल भूपाल चरित (सन् १३६५ ई०), पद्मनन्दि का
मान चरित ( ई० सन् की चौदहवीं शती ), मुनि भद्र का शान्तिनाथ चरित ( ई० सन् की चोदहवीं शती), पूर्ण भद्र के धन्यशालिभद्र चरित और कृतपुण्य चरित ( ई० सन् तेरहवीं शत), धर्मधर का नागकुमार चरित ( सन् १४५४ ई० ), दोडय्य कवि का भुजबलि चरित ( सोलहवीं शती), जयतिलक के सुलसा चरित और हरि विक्रम चरित ( सन् १३४६ - १४१३ ई० ), वादिचन्द्र का सुभग सुलोचना चरित ( सन् १५५५ ई० के लगभग ), जगन्नाथ का सुषेण चरित (सन् १६४३ ई०), पदमसुन्दर के पार्श्वनाथ चरित और जम्बू चरित ( विक्रम १७वीं शती) एवं सोमकीति के प्रथम्न चरित और यशोधर चरित प्रसिद्ध पौराणिक चरित काव्य हैं। पौराणिक चरित काव्य की प्रवृत्ति का विस्तार भट्टारक युग में खूब हुआ है । यशोधर के प्राख्यान को लेकर सुन्दर चरित काव्य लिखे गये हैं। अहिंसा धर्म और कर्मसंस्कारों की प्रबलता का विश्लेषण करने के लिए हनुमान, सुदर्शन, श्रीपाल औौर यशोधर की कथा वस्तु में काट-छांट कर पौराणिक चरित काव्यों का प्रणयन इस युग की एक प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति है ।
२. लघुप्रबन्ध काव्य
जिन काव्यों में जीवन व्यापी कथा के होने पर भी कथा विभाजन आठ या खः सर्गों से कम में हो,
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लघु प्रबन्ध काव्य कहलाते हैं । खण्ड या जीवन के किसी अंश विशेष की कथावस्तु के न होने से इन्हें खण्ड काव्य नहीं माना जा सकता है । लघु प्रबन्ध काव्यों में सर्व श्रेष्ठ उदाहरण वादिराज का यशोधर चरित है । हमारे प्रभीष्ट युग में चारित्र सुन्दर गणि का महीपाल चरित्र (१५ वीं शती), भट्टारक रत्नचन्द्र के सुभौम चक्रवर्ती चरित, और भद्रबाहु वरित २ (वि० सं० १६८३), माणिक्य देव के मनोहर चरित, मुनिचरित धौर यशोधर चरित (वि० सं० १३२७-१३७५) एवं मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कवि का गौतम चरित 3 (वि० सं० १७२६ ) अच्छे लघु प्रबन्ध काव्य हैं। इस प्रवृत्ति की प्रमुख विशेषता यह है कि सानुबन्ध कथावस्तु के रहने पर भी कल्पनाशक्ति का विराट् रूप एवं विभिन्न मानसिक दशाएं प्रस्फुटित नहीं हो पाती हैं । लघु प्रबन्ध काव्य और पौराणिक चरित काव्यों में अन्तर इतना ही है कि पौराणिक चरित काव्यों में यत्रतत्र अलंकार, प्रकृति चित्रण, कथा विस्तार एवं पौराणिक मान्यताओं का निर्देश उपलब्ध होता है, पर लघु प्रबन्ध काव्यों में केवल कथा का विस्तार ही उपलब्ध होता है प्रलंकार और वस्तुवर्णन प्रत्यन्त संक्षेप में प्रांकित रहते हैं। कवियों ने प्रायः अनुष्टुप् छन्द का ही व्यवहार किया है। कथा का विभाजन छः सगं या इससे कम ही सर्गों में पाया जाता है ।
३. दूत या सन्देश काव्य
विप्रलम्भ गार या विरह की पृष्ठ भूमि को लेकर इस कोटि के काव्य लिखे गये हैं । जैन कवियों ने दूतकाव्यों में श्रृंगार रस के वातावरण को नयी काव्य परम्परा द्वारा नयी दिशा और नया मोड़ दिया है। त्याग धौर संयम को जीवन का पाथेय समझने वाले कवियों ने अपनी संस्कृति के उतरवों तथा पार्श्वनाथ और नेमिनाथ तीर्थंकर
१ - हिन्दी अनुवाद सहित दि० जैन पुस्तकालय सूरत से १९५३ में प्रकाशित
२ - हिन्दी अनुवाद सहित दि० जैन पुस्तकालय सूरत से वी० नि० सं० २४७६ में प्रकाशित
३ – उपयुक्त संस्था द्वारा बी० नि० सं० २४५३ में प्रकाशित
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