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भट्टारक युगीन जैन संस्कृत-साहित्य की प्रवृत्तियाँ
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पर शिथिलता ही समाविष्ट है । कथानक में जिस रक्षा की है। पाठक एक साथ उदात्तचरित, भक्ति प्रकार की श्रृंखला मोरक्रम बद्धता चरित-काव्य के पोर बारित्र प्राप्त कर लेता है। लिये अपेक्षित है, उसका समावेश इस युग में न (6) दार्शनिक सिधान्तों की व्याख्या भोर हो सका।
विश्लेषरण भी सामान्यरूप में निहित हैं,प्रतः कथानक १) मास्मोत्थान या चरितोत्थान के मूल की रोचकता अक्षण्ण है। सिद्धान्तों को काव्य शैली में रखने का प्रयास । वर्णनों और कार्य व्यापारों के वैविष्य के प्रभावों में पौराणिक चरित काव्यों की प्रवृत्ति का मारम्भ उक्त सिद्धान्त काव्यरूप में उपस्थित न होकर भट्टारक युग में कवि वर्धमान के बरांगचरित से धर्मशास्त्र के रूप में ही प्रतुस्त हुए हैं। प्रेम, होता है । प्रारम्भिक पौर भट्टारक युगीन इस प्रवृत्ति विवाह, मिसन, राज्याभिषेक, सैनिक-प्रस्थान, का अन्तर इस काव्य में सुस्पष्ट रूप में मिलता है। नगरावरोध, युद्ध, दीक्षा, तपश्चरण प्रादि का भावु- चरित विश्लेपण की शैली का रूपान्तर यहीं से कतापूर्ण वर्णन न होकर केवल कथात्मक वर्णन भट्टारक के वराङ्गचरित से होता है। इनका समय हमा है। कर्मफल की अनिवार्यता दिखलाने के लिये ई० सन् १३६३ है । ' पोर ये दशभक्त्यादि महाजन्म-जन्मान्तरों की कथाए भी चलते रूप में ही शास्त्र के रचयिता वर्धमान मुनि से भिन्न हैं । इस प्रायोजित हैं।
महाकाव्य में १२३ सर्ग और ११४५ पद्य हैं। २ (६) चरित्र काव्यों का उद्देश्य रत्नत्रय को कवि ने अनुष्टुप् श्लोकों में १३८३ श्लोक संख्या साधना दिखलाना है। प्रारम्भ से ही इस विधा के बतायी है । इस युग के चरित काव्यों में यह उत्तम लेखकों ने उक्त उद्देश्य को चरितार्थ किया है।
रचना है । इस प्रवृत्ति के अनुसरणकर्ता कई भट्टारक युग के कवि भी चरित का उद्घाटन रल- भट्टारक हैं । त्रय के परिपार्श्व में करते रहे हैं । अन्तर इतना ही विक्रम को पन्द्रहवीं शती में भट्टारक सकलकीति रहा है कि चन्द्रप्रभचरित, प्रधुम्नचरित प्रादि ग्रन्थ ने शान्तिनाथ चरित, वर्द्धमानचरित, मल्लिनाथ में लक्षण और व्यञ्जना के प्राधार पर ही रत्नत्रय चरित, धन्यकुमार चरित, 3 सुदर्शन चरित, ४ की व्याख्या प्रस्तुत की थी; किन्तु भट्टारक युग जम्व स्वामी चरित और श्रीपाल चरित की रचना की रचनामों में अभिधा पाक्ति की ही मुख्यता है। की है। वे सभी पौराणिक चरित काव्य हैं। इनमें पुरातन कथानकों की पुनरावृत्ति होने भोर काव्यगुणों न तो वस्तुव्यापार वर्णनों का विस्तार है और न के क्षण होने के कारण उश्य की व्यञ्जमा मर्मस्पर्शी सन्दों की योजना ही । कथा जीवन काव्यरूप में न हो सकी।
व्यापी है अवश्य, पर उसका प्रवाह उस पहाड़ी नदी (७) सन्दर्भ और पाख्यानों में बहुत कम की तेजधारा के समान है, जो शीघ्र ही स्थल को नवीनता का समावेश होने से शैली में चमत्कार प्राप्तकर लेती है । इसी शताब्दी में ब्रह्मजिनदास पौर माकर्षण की कमी है। इतने पर भी कथारस ने रामचरित और हनुमच्चरित की रचना की है। की सरसता ने परितकाव्य में प्रवाह गुण की पूर्ण सोलहवीं शती में ब्रह्म नेमिदत्त ने सुदर्शन चरित, १-जैन शिला लेख संग्रह प्रथम भाग, भारिणकचन्द दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई सन् १९२८ ई.
द.२२३ २-रांग चरित्र, सोलापुर, सन् १९२७ १० ३-४मानवरित और सूदर्शनपरित-रावजी एखाराम दोशी, सोलापुर द्वारा क्रमशः वी० मि. स.
२४५ और पी. नि.स. २४५३ में प्रकाशित ।
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